कल्पित रूपविधान / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल
कल्पित रूपविधान / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल
काव्य वस्तु का सारा रूपविधान इसी की क्रिया से होता है। आजकल तो भाव की बात दब-सी गई है केवल इसी का नाम लिया जाता है क्योंकि 'कवि की नूतन सृष्टि' केवल इसी की कृति समझी जाती है। पर जैसा कि हम अनेक स्थलों पर कह चुके हैं, काव्य के प्रयोजन की कल्पना वही होती है जो हृदय की प्रेरणा से प्रवृत्त होती है और हृदय पर प्रभाव डालती है। हृदय के मर्मस्थल पर स्पर्श तभी होता है जब जगत् या जीवन का कोई सुंदर रूप, मार्मिक दशा या तथ्य मन में उपस्थित होता है। ऐसी दशा या तथ्य की चेतना से मन में कोई भाव जगता है जो उस दशा या तथ्य की मार्मिकता का पूर्ण अनुभव करने और कराने के लिए उसके कुछ चुने हुए ब्योरों की मूर्त भावनाएँ खड़ी करता है। कल्पना का यह प्रयोग प्रस्तुत के संबंध में समझना चाहिए जो विभाव पक्ष के अंतर्गत है। श्रृंगार, रौद्र, वीर, करुण आदि रसों के आलम्बनों और उद्दीपनों के वर्णन, प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन सब इसी विभाव पक्ष के अंतर्गत हैं।
सारा रूपविधान कल्पना ही करती है अत: अनुभाव कहे जानेवाले व्यापारों और चेष्टाओं द्वारा आश्रय को जो रूप दिया जाता है वह भी कल्पना ही द्वारा। पर भावों के द्योतक शारीरिक व्यापार या चेष्टाएँ परिमित होती हैं, वे रूढ़ या बँधी हुई होती हैं। उनमें नएपन की गुंजाइश नहीं, पर आश्रय के वचनों की अनेकरूपता की कोई सीमा नहीं। इन वचनों की भी कवि द्वारा कल्पना ही की जाती है।1
वचनों द्वारा भावव्यंजना के क्षेत्र में कल्पना को पूरी स्वच्छंदता रहती है। भाव की ऊँचाई, गहराई की कोई सीमा नहीं। उसका प्रसार लोक का अतिक्रमण कर सकता है। उसकी सम्यक् व्यंजना के लिए प्रकृति के वास्तविक विधान कभी-कभी पर्याप्त नहीं जान पड़ते। मन की गति का वेग अबाध होता है। प्रेम के वेग में प्रेमी प्रिय
1. मिलाइए, भाव या मनोविकार, निबंध।
को अपनी ऑंखों में बसा हुआ कहता है, उसके पाँव रखने के लिए पलकों के पाँवड़े बिछाता है, उसके अभाव में दिन के प्रकाश में भी चारों ओर शून्य या अंधकार देखता है, अपने शरीर की भस्म उड़ाकर उसके पास तक पहुँचाना चाहता है। इसी प्रकार क्रोध के वेग में मनुष्य शत्रु को पीसकर चटनी बना डालने के लिए खड़ा होता है, उसके घर को खोदकर तालाब बना डालने की प्रतिज्ञा करता है। उत्साह या वीरता की उमंग में वह समुद्र पाट देने, पहाड़ों को उखाड़ फेंकने का हौसला प्रकट करता है।
ऐसे लोकोत्तरविधान करनेवाली कल्पना में भी यह देखा जाता है कि जहाँ कार्यकारण-विवेचनपूर्वक वस्तुव्यंजना का टेढ़ा रास्ता पकड़ा जाता है वहाँ वैचित्रय-ही-वैचित्रय रह जाता है, मार्मिकता दब जाती है। जैसे, यदि कोई कहे कि 'कृष्ण के वियोग में राधा का दिन-रात रोना सुनकर लोग घर-घर में नावें बनवा रहे हैं' तो यह कथन मार्मिकता की हद के बाहर जान पड़ेगा।
विभाव पक्ष के ही अंतर्गत हम उन सब प्रस्तुत वस्तुओं और व्यापारों को भी लेते हैं जो हमारे मन में सौंदर्य, माधुर्य, दीप्ति, कांति, प्रताप, ऐश्वर्य, विभूति इत्यादि की भावनाएँ उत्पन्न करते हैं। ऐसी वस्तुओं और व्यापारों की योजना करनेवाली प्रतिभा भी विभाव विधायिनी ही समझनी चाहिए। कवि कभी-कभी सौंदर्य, माधुर्य, दीप्ति इत्यादि की अनूठी सृष्टि खड़ी करने के लिए चारों ओर से सामग्री एकत्र करके पराकाष्ठा को पहुँची हुई लोकोत्तर योजना करते हैं, यह भी कविकर्म के अंतर्गत है, पर सर्वत्र अपेक्षित उसकी कोई नित्य प्रक्रिया नहीं। मन के भीतर लोकोत्तर उत्कर्ष की झाँकियाँ तैयार करना भी कल्पना का एक काम है। इस काम में कविता उसे प्राय: लगाया करती है। कुछ लोग तो कल्पना और कविता का यही काम ही बताते हैं-खासकर वे लोग जो काव्य को स्वप्न का सगा भाई मानते हैं। जैसे स्वप्न को वे1 अंतस्संज्ञा में निहित अतृप्त वासनाओं की अंतर्व्यंजना कहते हैं, वैसे ही काव्य को भी। संसार में जितना अद्भुत, सुंदर,मधुर, दीप्त हमारे सामने आता है; जितना सुख, समृद्धि, सद्वृत्ति, सद्भाव, प्रेम, आनंद हमें दिखाई पड़ता है, उतने से तृप्त न होने के कारण अधिक की इच्छाएँ हमारी अंतस्संज्ञा में दबी पड़ी रहती हैं। इसी प्रकार शक्ति, उग्रता, प्रचंडता, उथल-पुथल, ध्वंपस इत्यादि को हम जितने बढ़े-चढ़े रूप में देखना चाहते हैं उतने बढ़े-चढ़े रूप में कहीं न देख हमारी इच्छा चेतना या संज्ञा के नीचे अज्ञात दशा में दबी पड़ी रहती है। वे ही इच्छाएँ तृप्ति के लिए कविता के रूप में व्यक्त होती हैं और श्रोताओं को भी तृप्त करती हैं।
इस संबंध में हम यहाँ इतना ही कहना चाहते हैं कि काव्य सर्वथा स्वप्न के रूप की वस्तु नहीं है। स्वप्न के साथ यदि उसका कुछ मेल है तो केवल इतना
1. फ्रायड आदि नूतन मनोवैज्ञानिक।
ही कि स्वप्न भी हमारी बाह्य इंद्रियों के सामने नहीं रहता और काव्यवस्तु भी। दोनों के आविर्भाव का स्थान भर एक है, स्वरूप में भेद है। कल्पना में आई हुई वस्तुओं की प्रतीति से स्वप्न में दिखाई पड़नेवाली वस्तुओं की प्रतीति भिन्न प्रकार की होती है। स्वप्नकाल की प्रतीति प्राय: प्रत्यक्ष ही के समान होती है। दूसरी बात यह है कि काव्य में शोक प्रसंग भी रहते हैं। शोक की वासना की तृप्ति शायद ही कोई प्राणी चाहता हो।
उपर्युक्त सिद्धांत का ही एक अंग कामवासना का सिद्धांत है जिसके अनुसार काव्य का संबंध और कलाओं के समान कामवासना की तृप्ति से है। यहाँ पर इतना ही समझ लेना आवश्यक है कि यह मत काव्य को 'ललित कलाओं' में गिनने का परिणाम है। कलाओं के सम्बन्ध में, जिनका लक्ष्य केवल सौंदर्य की अनुभूति उत्पन्न करना है, यह मत कुछ ठीक कहा जा सकता है। इसी से 64 कलाओं का उल्लेख हमारे यहाँ कामशास्त्र के भीतर हुआ है। पर काव्य की गिनती कलाओं में नहीं की गई है।
अब तक जो कुछ कहा गया है वह प्रस्तुत के संबंध में है। पर काव्य में प्रस्तुत के अतिरिक्त अप्रस्तुत भी बहुत अधिक अपेक्षित होता है, क्योंकि साम्यभावना काव्य का बड़ा शक्तिशाली अस्त्र है। कहने की आवश्यकता नहीं कि अप्रस्तुत की योजना भी कल्पना ही द्वारा होती है। आधुनिक पाश्चात्य समीक्षा क्षेत्र में तो 'कल्पना' शब्द से अधिकतर अप्रस्तुत विधायिनी कल्पना ही समझी जाती है। अप्रस्तुत की योजना के संबंध में वही बात समझनी चाहिए जो प्रस्तुत के संबंध में हम कह आए हैं अर्थात् उसकी योजना भी यदि किसी भाव के संकेत पर होगी-सौंदर्य, माधुर्य, भीषणता, कांति, दीप्ति इत्यादि की भावना में वृद्धि करनेवाली होगी-तब तो वह काव्य के प्रयोजन की होगी; यदि केवल रंग, आकृति, छोटाई, बड़ाई आदि का ही हिसाब-किताब बैठाकर की जाएगी तो निष्फल ही नहीं बाधाक भी होगी। भाव की प्रेरणा से जो अप्रस्तुत लाए जाते हैं उनकी प्रभविष्णुता पर कवि की दृष्टि इस बात पर रहती है कि इनके द्वारा भी वैसी ही भावना जगे जैसी प्रस्तुत के संबंध में है।
केवल शास्त्रस्थितिसंपादन1 से कविकर्म की सिद्धि समझ कुछ लोगों ने स्त्रीत की कटि की सूक्ष्मता व्यक्त करने के लिए भेड़ या सिंहिनी की कटि सामने रख दी है, चंद्रमंडल और सूर्यमंडल के उपमान के लिए दो घंटे सामने कर दिए हैं, पर ऐसे अप्रस्तुतविधान केवल छोटाई, बड़ाई या आकृति को ही पकड़कर, केवल उसी का हिसाब-किताब बैठाकर, हुए हैं; उस सौंदर्य की भावना की प्रेरणा से नहीं जो
1. संधिसंध्यंमगघटनं रसाभिव्यक्त्यपेक्षया।
न तु केवलया शास्त्रस्थितिसंपादनेच्छया॥
-ध्ववन्यालोक, 3-12।
उस नायिका या चंद्रमंडल के संबंध में रही होगी। यह देखकर संतोष होता है कि हिंदी की वर्तमान कविताओं में प्रभावसाम्य पर ही विशेष दृष्टि रहती है।
भाषाशैली को अधिक व्यंजक, मार्मिक और चमत्कारपूर्ण बनाने में भी कल्पना ही काम करती है। कल्पना की सहायता यहाँ पर भाषा की लक्षणा और व्यंजना नाम की शक्तियाँ करती हैं। लक्षणा के सहारे ही कवि ऐसी भाषा का प्रयोग बेधड़क कर जाते हैं जैसी सामान्य व्यवहार में नहीं सुनाई पड़ती। ब्रजभाषा के कवियों में घनानंद इस प्रसंग में सबसे अधिक उल्लेखयोग्य हैं। भाषा को वे इतनी वशवर्तिनी समझते थे कि अपनी भावना के साथ उसे जिधर चाहते थे उधर बेधड़क मोड़ते थे। कुछ उदाहरण लीजिए-
(1) अरसानि गही वह बानि कछू सरसानि सों आनि निहोरत है।
(2) ह्नै है सोऊ घरी भाग उघरी अनंदघन,
सुरस बरसि, लाल, देखिहौ हमै हरी।
(3) उघरो जग, छाय रहे 'घनआनंद' चातक ज्यों तकिए अब तौ।
(4) मिलत न केहूँ भर राबरी अमितलाई
हिये ये किये विसाल जे विछोह छत हैं।
(5) भूलनि चिन्हारि दोऊ है न हो हमारे ताते,
बिसरनि रावरी हमै लै बिसरति है।
(6) उजरनि बसी है हमारी अँखिआनि देखौ,
सुबस सुदेश जहाँ भावत बसंत हौ।
ऊपर के उद्धरणों के रेखांकित स्थलों में भाषा की मार्मिक वक्रता एक-एक करके देखिए। (1) बानि धीमी या शिथिल पड़ गई कहने में उतनी व्यंजना न दिखाई पड़ी अत: कवि ने कृष्ण का आलस्य न कहकर उनकी बानि (आदत) का आलस्य करना कहा। (2) अपने को खुले भाग्यवाली न कहकर नायिका ने उस घड़ी को खुले भाग्यवाली कहा, इससे सौभाग्यदशा एक व्यक्ति ही तक न रहकर उस घड़ी के भीतर संपूर्ण जगत् में व्याप्त प्रतीत हुई। विशेषण के इस विपर्यय से कितनी व्यंजकता आ गई! (3) मेघ का छाना और उघड़ना तो बराबर बोला जाता है, पर कवि ने मेघ के छाए रहने और श्रीकृष्ण के ऑंखों में छाए रहने के साथ-ही-साथ जग का उघड़ना (खुलना, तितर-बितर होना या तिरोहित होना) कह दिया जिसका लक्ष्यार्थ हुआ जगत् के फैले हुए प्रपंच का ऑंखों के सामने से हट जाना, चारों ओर शून्य दिखाई पड़ना। (4) कृष्ण की अमिलताई (न मिलना) हृदय के घाव में भी भर गई है जिससे उसका मुँह नहीं मिलता और वह नहीं पूजता। भरा भी रहना और न भरना या पूजना में विरोध का चमत्कार भी है। (5) हम कभी-कभी आत्मविस्मृत हो जाते हैं; इससे जान पड़ता है कि आप हमें लिए दिए भूलते हैं अर्थात् उधर आप हमें भूलते हैं, इधर हमारी सत्ता ही तिरोहित हो जाती है। (6) हमारी ऑंखों के सामने उजाड़ बसा है अर्थात् ऑंखों के सामने शून्य दिखाई पड़ता है। इसमें भी विरोध का चमत्कार अत्यंत आकर्षक है।
आजकल हमारी वर्तमान काव्यधारा की प्रवृत्ति इसी प्रकार की लाक्षणिक वक्रता की ओर विशेष है। यह अच्छा लक्षण है। इसके द्वारा हमारी भाषा की अभिव्यंजना शक्ति के प्रसार की बहुत कुछ आशा है। श्री सुमित्रानंदन पंत की रचना से कुछ उदाहरण लेकर देखिए-
(1) धूलि की ढेरी में अनजान। छिपे हैं मेरे मधुमय गान।
(2) रुदन, क्रीड़ा, आलिंगन।
शशि की सी ये कलित कलाएँ किलक रही हैं पुर पुर में।
(3) मर्म पीड़ा के हास।
(4) अहह! यह मेरा गीला गान।
(5) तड़ित सा, सुमुखि! तुम्हारा ध्यारन
प्रभा के पलक मार, उर चीर
गूढ़ गर्जन कर जब गंभीर।
(6) लाज में लिपटी उषा समान।
घनानंद की वाग्विशेषताओं को ध्याचन में रखते हुए अब ऊपर के उद्धरणों के रेखांकित प्रयोगों की लाक्षणिक प्रक्रिया देखिए-
(1) धूलि की ढेरी=तुच्छ या असार कहा जानेवाला संसार। मधुमय गान=मधुमय गान के विषय=मधुर और सुंदर वस्तुएँ। (2) कलाएँ किलक रही हैं=जोर से हँस रही हैं=आनंद का प्रकाश कर रही हैं। (3) पीड़ा के हास=पीड़ा का विकास या प्रसार (विरोध का चमत्कार)। (4) गीला गान=आर्द्र हृदय या अश्रुपूर्ण व्यक्ति की वाणी (सामान्य) कथन में जो गुण व्यक्ति का कहा जाता है वह गान का कहा गया; (विशेषण विपर्यय)। (5) प्रभा के पलक मार=पल-पल पर चमककर। गूढ़ गर्जन=छिपी हुई हृदय की धड़कन। (6) लाज=लज्जा से उत्पन्न ललाई।
इन प्रयोगों का आधार या तो किसी-न-किसी प्रकार की साम्य भावना है अथवा किसी वस्तु का उपलक्षण या प्रतीक के रूप में ग्रहण। दोनों बातें कल्पना ही के द्वारा होती हैं। उपलक्षणों या प्रतीकों का एक प्रकार का चुनाव है जो मूर्तिमत्त, मार्मिकता या आतिशय्य आदि की दृष्टि से होता है-जैसे, शोक या विषाद के स्थान पर अश्रु, हर्ष और आनंद के स्थान पर हास, प्रिय-प्रेमी के लिए मुकुल-मधुप, यौवन काल या संयोग काल के लिए मधुमास, शुभ्र के स्थान पर रजत या हंस, दीप्त के स्थान पर स्वर्ण इत्यादि। यह सारा व्यवसाय कल्पना ही का है।
काव्य की पूर्ण अनुभूति के लिए कल्पना का व्यापार कवि और श्रोता दोनों के लिए अनिवार्य है। काव्य की कोई उक्ति कान में पड़ते समय जब काव्यवस्तु के साथ-साथ वक्ता या बोद्धव्य पात्र की कोई मूर्त भावना भी खड़ी रहती है तभी पूरी तन्मयता प्राप्त होती है।
प्रत्यक्ष रूपविधान के उपादान से ही कल्पित रूपविधान होता है। जन्मांध अपने मन में स्पष्ट रूपविधान नहीं कर सकते। जिस प्रकार प्रत्यक्ष अनुभूति से कलानुभूति या काव्यानुभूति को एकदम अलग कहने की चाल योरप में चली उसी प्रकार प्रत्यक्ष रूपविधान से कल्पित रूपविधान को असम्बद्ध घोषित करने की रूढ़ि प्रतिष्ठित हुई। 'कल्पना' की एक निराली दुनिया कही जाने लगी और कवि लोग दूसरी सृष्टि बनानेवाले विश्वामित्र हुए। पर थोड़ा विचार करने पर यह उक्ति स्तुतिपरक ही ठहरती है। सारे वर्ण, सारी रूपरेखाएँ जिनसे कल्पित मूर्तिविधान होता है बाह्य जगत् के प्रत्यक्ष बोध से प्राप्त हुई हैं। हम मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, लता, तृण, गुल्म, नदी, पर्वत, भूमि, चट्टान इत्यादि देखी हुई वस्तुओं के अतिरिक्त वस्तुओं की कल्पना नहीं कर सकते। लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई (या गहराई) के अतिरिक्त और विस्तार मन में नहीं ला सकते। हम इतना ही कर सकते हैं कि चार मुँहवाले मनुष्य की कल्पना करें, सोने के पंखवाले पक्षी उड़ाएँ, मरकत, पद्मराग की प्रभावाले पेड़ खड़े करें, सोने की रेत पर चाँदी की धारा बहाएँ; माणिक्य और नीलम की चट्टानें बिछाएँ। पर असली ढाँचे मनुष्य, पशु, पक्षी, पेड़, रेत, नदी, चट्टान आदि के ही रहेंगे, उनमें रंग, रूप चाहे जैसे भरें। ऐसी दशा में यह कहना कि प्रत्यक्ष रूपविधान से कवि के काल्पनिक रूपविधान का कोई संबंध नहीं, बात बनाना ही माना जायगा।
इन ढाँचों को लेकर हम विलक्षण रंगरूप की वस्तुएँ खड़ी कर सकते हैं, पर यह स्पष्ट समझ रखना चाहिए कि उन वस्तुओं का रूपरंग प्रकृति से जितना ही दूर घसीटा जायगा उतनी ही वे वस्तुएँ कल्पना में कम देर तक टिकेंगी। घोड़े के मुँहवाले किन्नर, पुखराज की चट्टानों और सोने की रेत के बीच से बहती हुई नदियाँ, आग के बने हुए शरीर एक क्षण के लिए मन में आ सकते हैं; पर सोने की चिड़ियाँ की तरह चट उड़ जायँगे। पर जैसा कि मैं अपने अन्य प्रबन्धों में दिखा चुका हूँ, हृदय के मर्म को स्पर्श करने के लिए, सच्ची और गहरी अनुभूति उत्पन्न करने के लिए आवश्यक है कि कल्पना में आई हुई वस्तुएँ कुछ देर टिकें, मन उनका बिम्बग्रहण कुछ काल तक किए रहे।
काव्यभूमि जीवन से, जगत् से परे नहीं है। वह वस्तुव्यापार योजना जो केवल विलक्षणता, नवीनता या अलौकिकता दिखाने के लिए की जाएगी, जिसमें जगत् या जीवन का कोई मार्मिक पक्ष, गंभीर या साधारण, व्यक्त होता न दिखाई पड़ेगा, वह काव्य का ठीक लक्ष्य पूरा न कर सकेगी।
कल्पित रूपविधान दो प्रकार का होता है-
(1) प्रस्तुत रूपविधान और
(2) अप्रस्तुत रूपविधान ।