कल्याण का अंत / जयनन्दन
पता नहीं किस अर्जुन ने या किस राम ने अग्निवाण चलाया कि सौ वर्षों से भी ज्यादा उम्रवाला कल्याण तालाब सूख गया। इसके लगातार घट रहे जल स्तर को देखकर सारे बूढ़े-बुजुर्ग हैरान थे। बचपन से लेकर आज तक ऐसा उन्होंने कभी नहीं देखा था कि इस तालाब का अक्षय कोष तिल भर के लिए भी घट जाएे। अगम, रहस्यमय, अनेक क्रियाओं की रंगशाला और जीवंतता, गतिशीलता व शीतलता का अमृत-कुंड आज जैसे किसी श्मशान में परिवर्तित हो गया था। कल्याण सूख गया, इससे शायद बहुतों का जीवन अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुआ होगा लेकिन प्रत्यक्ष रूप से इससे जो सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ, उसका नाम था कोचाई मंडल। कल्याण क्या सूखा जैसे उसके जीवन के सारे स्रोत ही सूख गये। कल्याण उसकी संजीवनी था, कर्म-स्थल था, ऊर्जा-स्रोत था और कुल जमा पूंजी था। अब जब वह नहीं रहा तो मानो उसके पास कुछ भी न रहा...जैसे वह उखड़ गया अपनी जड़ से...हिल गया अपनी नींव से। उसकी दयनीयता तब और भी त्रासद बन गयी जब उसके घरवाले तालाब का सूखना, अशुभ की जगह शुभ सूचक मानने लगे।
उसका बड़ा लड़का निमाई ने कहा, “हमें खुश होना चाहिए कि इतने बड़े भूखंड का अब हम सही रूप में व्यावसायिक उपयोग कर सकेंगे। सार्वजनिक हित से जुड़े होने के कारण हम इसके वजूद को एकबारगी मिटाकर इसका रूपांतरण नहीं कर सकते थे। अब जब खुद ही सूख गया है तो हमें अब टोकनेवाला भी कोई न रहा। हमें अपने आप बहाना या मौका मिल गया कि इस कीमती भूखंड के सहारे अपनी कायापलट कर लें। हम इससे रातोंरात लाखों बना सकते हैं।”
कोचाई को पता है कि उसकी पत्नी राधामुनी भी इस मुद्दे पर अपने बेटे के पक्ष में है। पढ़ाई कर रहे उसके बेटे ने आज से कई साल पहले उसके पानी वाले परंपरागत व्यवसाय से घृणा का इजहार करते हुए कहा था, “इस पेशे ने हमारे पूरे खांदान को बौना बनाकर गरीबी के घेरे में सिमटे रहने के लिए अभिशप्त कर दिया है। भला कोई मछली मारकर और नाव खेकर दो रोटी जुटाने से ज्यादा और क्या कर सकता है? मैं कोई सा भी दूसरा काम कर लूंगा, लेकिन पानी से जुड़ा कोई काम नहीं करूंगा। आखिर हम अपना भाग्य पानी में ही क्यों गलायें, धरती पर हम अपने लिए कोई मंजिल क्यों तलाश न करें?”
राधामुनी ने अपने बेटे का जोरदार समर्थन किया, “तुमने बिल्कुल ठीक फैसला किया है। मैं भी यही चाहती हूं कि बाप की तरह पानी का प्रेत तुमलोगों पर न सवार हो। मुझे हमेशा लगा कि इस आदमी ने मुझसे नहींे पानी से शादी कर ली है। राह देखते-देखते मेरी आंखें थक जातीं मगर इस आदमी का मन पानी से नहीं भरता। इन्होंने जमीन और घर से ज्यादा अपना वक्त पानी में बिताया। मैं तो कुढ़ती रही इस पानी से जैसे वह मेरी सौत बन गया। मैंने बहुत पहले ठान लिया था कि अपने बेटों को खूब पढ़ाऊंगी और पानी के धंधे से जितना दूर रखना मुमकिन होगा, रखूंगी।”
निमाई ने अपने दिमागी घोड़े को जरा रफ्तार से दौड़ाते हुए कहा, “मां, पढ़ाई-लिखाई अगर हमें रास्ता बदलने में मदद कर दे तो अच्छा है, इसके बाद भी हमें तालाब में फंसी जमीनों का बाजार भाव के हिसाब से रिटर्न पाने के लिए पानी से अपना पिंड छुड़ाना ही होगा। पच्चीस बीघा का रकबा इस इलाके के लिए लाख की नहीं करोड़ की संपति साबित होगा। चारों तरफ जिस तरह कालोनियां बसी हैं, उद्योगों के जाल बिछ रहे हैं, इसकी मुंहमांगी कीमत वसूली जा सकती है।”
कोचाई को गुस्सा करना नहीं आता था और नाहीं उसे किसी से चोंच लड़ाने में कोई रूचि थी। वह संतभाव से ऐसी बातें सुन लेता था और कल क्या होनेवाला है, उसे नियति के भरोसे छोड़कर अपने काम में लग जाता था। उसने अपने दादा की लिखी हुई डायरी का एक पन्ना लाकर निमाई के हाथों में रख दिया। उसमें लिखा था, “तालाब की अहमियत रुपयों-पैसों से नहीं आंकी जा सकती। और अगर रुपयों से आंकी जाएे तो उसके जरिए जो मानवीयता पर परोपकार हो रहा है, वह अरबों-खरबों से भी कहीं ज्यादा है। जब एक कुंआ बन जाता है या तालाब तो वह किसी की निजी संपति नहीं रह जाता, वह सार्वजनिक हो जाता है।”
निमाई ने डायरी के उस पन्ने की चिंदी-चिंदी कर डाली।
राधामुनी ने कहा था, “मैं तो कब से यह चाहती रही कि इस तालाब को भरवाकर हम सिर्फ इसे बेच दें तो उसी से कई पीढ़ियों से जमी हमारी दरिद्रता छूमंतर हो जाए। लेकिन तुम्हारे इस बाप की जिद और पानी में बसे इनके प्राण को देखकर मैं कोई सख्त कदम उठाने के लायक न बन पायी और तुमलोगों के जवान होने का मैं इंतजार करती रही। अब देखो, ऊपरवाले का कमाल, उसने हमारी सुन ली और इसका सारा पानी अपने आप ही गायब हो गया।”
अपने बीवी-बच्चों के विजयी भाव देखकर कोचाई जैसे किसी मूक चित्र में परिवर्तित हो गया।
कोचाई मंडल के जीवन में पानी ही पानी था। वह अपना समय जमीन पर कम और पानी पर ज्यादा गुजारता था। वह अपने को पानी का पहरेदार कहता था और लोग उसे पानी का मेंढक कहते थे। पानी के अंदर या पानी के ऊपर कोई कारोबार चलाना हो तो कोचाई से उपयुक्त व्यक्ति दूसरा कोई नहीं हो सकता था। नदी में, तालाब में, समुद्र में कोई दुर्घटना हो जाएे, कोचाई का झट बुलावा आ जाता। कहते हैं जो काम सेना के गोताखोरों से भी संभव नहीं हो पाता, उसे कोचाई कर डालता था। इस मामले में उसकी ख्याति काफी दूर-दूर तक थी। कोई बस नदी में पलट गयी और कुछ लाशें बरामद नहीं हो सकी...कोचाई को लगा दीजिए। किसी ने नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली और उसकी लाश बहकर अदृश्य हो गयी....कोचाई के लिए यह कोई बड़ा मसला नहीं है। कहीं अचानक बाढ़ आ गयी और पानी में फंसे लोगों को बाहर निकालना है...गरजती-उछलती जलधारा में किसी की हिम्मत नहीं पड़ रही....कोचाई कमर में गमछा बांधकर पानी में कूद पड़ेगा। पानी के अंदर काफी गहरे में किसी की कोई बहुमूल्य वस्तु गिर गयी....कोचाई पाताल में भी डुबकी लगाकर निकाल लेगा।
उसके बारे में यह किंवदंती प्रचलित हो गयी थी कि पानी में उतरते ही उसकी ताकत बढ़ जाती है। पानी के अंदर वह ज्यादा देख सकता है....पानी के अंदर मीलोंमील तैर सकता है....पानी के अंदर वह जलचरों को सूंघ कर पताकर सकता है...उसकी देह से पानी का स्पर्श होते ही उसमें एक बिजली दौड़ जाती है।
कोचाई के बारे में उसके कुछ गांववाले कहते थे कि इसे दरअसल किसी जलचर में जन्म लेना था, मगर गलती से आदमी (थलचर) में आ गया। उसके बारे में यह किस्सा भी प्रचलित था कि कोई जलपरी है जो कोचाई से प्यार करती है। ज्यों ही वह पानी में उतरता है वह जलपरी उस पर सवार हो जाती है और उसकी पूरी दैवीय शक्ति उसमें समा जाती है।
पानी को इस तरह साध लेनेवाला कोचाई कभी पानी रहित हो जाएेगा, यह कोई नहीं जानता था। पानी ने कोचाई को दार्शनिक बना दिया था। वह कहा करता था कि पानी जिस तरह दुनिया भर के विकार और गंदगी साफ करता है, अगर कोई आठ-दस दिनों तक पानी के संपर्क में रह जाएे...चारों ओर पानी ही पानी, दूसरा कोई नहीं...तो उसके मन का विकार भी धुल जाता है। पानी दया, करुणा, ममता और आत्मीयता का पर्याय है...वह आदमी को तरल, सरल और निश्छल बना देता है। पानी में सारे तत्व हैं, कोई चाहे तो सिर्फ पानी पीकर अपनी पूरी उम्र जी सकता है। बहुत सारे ऐसे जलचर हैं जो बिना खाये भी पानी में रहकर जी लेते हैं। पानी की जिसको आदत हो जाती है, वह पानी के बिना नहीं रह सकता। पानी से अलग होते ही वह प्राण त्याग देता है।
कोचाई को तालाब विरासत में मिला था। पच्चीस बीघे का लंबा-चैड़ा तालाब ठीक लोखट पहाड़ी के पाश्र्व में स्थित था। बरसात के दिनों में पहाड़ी का पानी झरकर एक नाले में तब्दील हो जाता था। बरसात खत्म होने के बाद भी इस नाले में पानी का प्रवाह जारी रहता था। कोचाई ने अपने तालाब के जलस्तर को अधिकतम रखने के लिए जरूरत ब जरूरत नाले की दिशा अपनी ओर मोड़ लेने की व्यवस्था कर रखी थी। इस तालाब के अलावा उसके पास और कोई जमीन-जोत नहीं थी। इसी से उसकी आजीविका चलती थी और इसी से उसकी पहचान बनती थी। इस तालाब की गहराई के बारे में, कोचाई के पुरखों के पास हस्तांतरित होने के बारे में और इसके महात्म्य व गुणधर्मिता के बारे में कई तरह की दंत कथायें प्रचलित थीं।
कहते हैं यह तालाब जमाईकेला रियासत के राणा कौतुक विक्रम सिंह का था जिसे उन्होंने कोचाई के परदादा सुतारू मंडल की स्वामिभक्ति और तालाब की देखरेख के प्रति उसकी गहरी संलग्नता से प्रभावित होकर उसे बतौर बख्शीश दे दिया था। तालाब की गहराई के बारे में लोगों का अनुमान था कि यह पचास फीट से भी ज्यादा गहरा है। उसके तल के बारे में सबका कहना था कि वहां एक खास ऐसा केन्द्र है जहां कोई गलती से चला जाए तो फिर वापस नहीं आता। कुछ धर्मपरायण लोगों की ऐसी मान्यता थी कि पाताल लोक जाने का एक द्वार है इस तालाब के अंदर, जहां पहुंचते ही उसे भीतर दाखिल कर लिया जाता है।
तालाब के पानी की तासीर की भी एक अलग व्याख्या थी। कहते हैं इसमें नियमित स्नान कर देह के किसी भी चर्मरोग से मुक्ति पायी जा सकती थी। कुछ लोग हफ्ते या पखवारे इसमें एहतियात के तौर पर इसलिए भी स्नान करते थे कि उन्हें कोई चर्मरोग न हो। धीरे-धीरे लोगों ने तो यहां तक मानना शुरू कर दिया कि इसमें स्नान करने से किसी भी तरह की बीमारी से बचा जा सकता है। इसका यह महात्म्य दूर-दूर तक प्रचारित हो गया था जिससे उसमें लोगों के स्नान करने का तांता कभी खत्म नहीं होता था। लोगों ने इसे कल्याण नाम से पुकारना शुरू कर दिया था।
पहाड़ियों से होकर आनेवाले पानी में संभव है कुछ जड़ी-बूटियों का औषध प्रभाव समा जाता हो। लोकश्रुति का स्वभाव तो प्रायः ऐसा होता ही है कि किसी छोटी चीज को बढ़ाते-बढ़ाते बहुत बड़ी बना दें। इस तालाब में आम आदमी की तो छोड़िये खुद राणा कौतुक विक्रम सिंह की हवेली से उनकी पत्नियां, बहनें और मां तक सप्ताह में एक बार स्नान करने जरूर आती थीं। इन्हें सुरक्षित स्नान कराने का जिम्मा सुतारू मंडल का होता था। जब ये शाही महिलायें तालाब के घाट पर आती थीं तो आम जनों की आमद-रफ्त वर्जित कर दी जाती थी। कहते हैं इनमें कुछ रानियां तैरने की बहुत शौकीन थीं और वे देर तक और दूर तक तालाब में उन्मुक्त तैरती रहती थीं। एक अकेले सुतारू मंडल ही होते थे जो किनारे में खड़े होकर इनकी किसी भी आपातकालीन मदद के लिए चीते की तरह सतर्क रहते थे। कहते हैं सुतारू से इन महिलाओं का अब ऐसा सौजन्य स्थापित हो गया था कि अब वे इनसे जरा भी शर्म, पर्दा और लिहाज नहीं करती थीं। सुतारू ने अपने को ऐसा वीतराग बना भी लिया था कि इन्हें किसी भी रूप में देख ले, उसमें कोई उत्तेजना जाग्रत नहीं होती थी। चाहती तो ये महिलायें राजमहल की चारदीवारी में ही तालाब खुदवा लेतीं, लेकिन वह औषधीय प्रभाव तो उसमें न आता। सुतारू के शायद इसी संयमित आचरण पर कृपालु होकर राणा ने बतौर इनाम उस यशस्वी तालाब कल्याण का उसे रक्षक और मालिक बना दिया था।
राणा का जब तक राज चला वे इस इलाके में जमे रहे और उनकी रसोई के लिए इसी तालाब से ताजी मछलियों की आपूर्ति होती रही। सुतारू मंडल ही इस आपूर्ति के प्रभारी रहे। जब रियासतों का अधिग्रहण होने लगा तो राणा अपनी हवेली और जायदाद अपने बराहिलों और गुमाश्तों को सुपुर्द कर सपरिवार भुवनेश्वर में स्थानांतरित हो गये।
कल्याण सुतारू मंडल से होते हुए अब उनकी तीसरी पीढ़ी कोचाई मंडल के जिम्मे आ गया। कोचाई को अपने दादा की ज्यादा याद नहीं है लेकिन अपने पिता को तो वह अब भी हर पल अपने आसपास ही महसूस करता रहता है। जब से उसने होश संभाला अपने पिता की उंगली थामे अपने को इस तालाब में ही पाया। पिता उसे तैरना सिखा रहे हैं...गहरे पानी में गोता लगाना सिखा रहे हैं....नाव खेना सिखा रहे हैं....जाल डालना सिखा रहे हैं....बिना जाल डाले भी बड़ी मछलियों को पकड़ लेने की कला सिखा रहे हैं...मछलियों का जीरा बनाने का गुर सिखा रहे हैं...इनके लिए चारा बनाने का इल्म बता रहे हैं।
उन्होंने इस क्षेत्र के तेजी से हो रहे शहरीकरण के कारण तालाब के अस्तित्व पर बढ़ते दबाव को भांपते हुए कहा था, “देखो बेटे, तालाब सिर्फ पानी का खजाना भर नहीं होता...बल्कि यह हमारी संस्कृति का एक अंग है। यह व्यक्ति विशेष के स्वामित्व के अधीन होकर भी एक सार्वजनिक धरोहर है, जिसके इस्तेमाल का हक आसपास की पूरी आबादी को है। जैसे कोई अपनी ही जमीन पर गाछ लगा दे तो वह गाछ सिर्फ उसी का नहीं रह जाता। उसकी छाया और नीचे गिरे हुए फल पर हर राहगीर का हक बन जाता है। उसकी शाखाओं पर हजारों चिड़ियों-चुरगनों को बसेरा डालने का हक बन जाता है। तालाब के होने से आसपास के बहुत बड़े क्षेत्रफल में जल-स्तर नियंत्रित रहता है। खेती की जमीनों में नमीं बनी रहती है। आसपास के तापमान में एक आर्द्रता रहती है...लोगों को ताजी मछलियों की आपूर्ति हो पाती है...एक साथ नहाने-धोने से सामाजिकता और सहअस्तित्व की भावना का विकास होता है।”
राजा ने सुतारू से कहा था, “इस तालाब पर तुम्हारा स्वामित्व जरूर होगा लेकिन इसके उपयोग पर सबको बराबर का अधिकार होगा। हक नहीं होगा तो तालाब का कुछ बिगाड़ने और नष्ट करने का।”
कोचाई के दादा और पिता ने इस निर्देश का पूरा खयाल रखा....कभी इस तरह का रौब नहीं दिखाया कि तालाब उसकी निजी जायदाद है। लोगों द्वारा उसके इस्तेमाल पर कभी कोई परेशानी या अड़चन खड़ी नहीं की। उल्टे सबको आकर्षित करने के लिए रख-रखाव व साफ-सफाई पर पूरा ध्यान दिया। सिर्फ मछली मारने तथा इसमें नौकायन करने का हक अपने पास रखा।
कोचाई पिछले कुछ अर्से से देख रहा थ कि लोखट पहाड़ी से निकलकर आनेवाला नाला क्षीण से क्षीणतर होता जा रहा है। पहाड़ी के पाश्र्व में और तालाब के आसपास तेजी से फैल रहे कंक्रीट के जंगल, उसमें बस रहे निष्ठुर लोग और उनकी आक्रामक आपाधापी से पहाड़ी के ऊपर के पेड़ यानी प्राकृतिक जंगल तेजी से कटकर गायब होने लगे थे। पहाड़ अब बिल्कुल छीन-झपटकर हरण कर लिये गये चीर के उपरांत लुटा-पिटा सा नंगा दिखने लगा था और उससे निकलकर आनेवाला नाला जिस नदी में गिरता था उस नदी का पाट भी सिकुड़कर मानो एक पतली रेखा में बदल गया था। नदी नदी नहीं जैसे किसी विधवा की उजड़ी मांग हो गयी थी। कोसाई को यह पूर्वाभास हो गया था कि कोई विपत्ति सन्निकट है, लेकिन इतना सन्निकट है, ऐसा उसने नहीं सोचा था। पर्यावरण के महाविनाश का असर इतना जल्दी दिखाई पड़ने लगेगा, इसकी कल्पना शायद किसी को नहीं थी।
कल्याण के सूखते जाने से बर्बादी में लुत्फ उठानेवाले कुछ राक्षसी वृति के लोग तालाब के साथ जुड़ी रहस्यमय दंतकथाओं के अनावृत होने के प्रति उत्सुक हो उठे थे। वे यह जानने को व्यग्र थे कि इसमें रहनेवाली जलपरी का क्या होगा और वह पानी के बिना मरकर कैसी दिखेगी! निचली सतह पर स्थित उस द्वार का क्या होगा जो पाताल लोक में जाता है! उन बड़ी मछलियों और जलचरों का क्या होगा जिनकी विशाल आकृति के बारे में एक से एक किस्से प्रचलित हैं!
कल्याण सूखता जा रहा था और कोचाई मंडल का मौन बर्फ के टीले की तरह जमता हुआ एक उदास टापू में बदलता जा रहा था। ठीक इसके विपरीत उसके घर में चहल-पहल बढ़ गयी थी। कई लोग कार से और जीप से उसके बड़े बेटे और राधामुनी से मिलने के लिए आने लगे थे।
कोचाई ने उनकी मंशा ताड़ ली थी। उसने प्रतिरोध किये बिना एक दिन अपना इरादा जता दिया, “जब तक मैं कायम हूं तालाब की जमीन पर दूसरा कोई काम नहीं होगा। मुझे विश्वास है कि लोखट पहाड़ी का नाला फिर से जीवित होगा। मैं पहाड़ पर गाछ लगाऊंगा और वहां फिर हरा-भरा एक जंगल बसेगा।”
निमाई और राधामुनी एक-दूसरे का मुंह देखने लगे, मानो वे पूछ रहे हों कि इस आदमी के माथे का पेंच ढीला तो नहीं हो गया? दोनों में से किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। वे गुपचुप रूप से एक मंत्रणा करने लगे।
कोचाई कल्याण की परिधि पर स्थित किसी गाछ के नीच जाकर बैठ जाता....गुमसुम...शोकाकुल और आर्तनाद करता हुआ। सामने कल्याण तिल-तिल दम तोड़ रहे किसी प्रियजन की तरह कराहता हुआ बिछा होता। तट पर आकर कुछ प्यासे जानवर अपनी अबोध आंखों से शून्य को निहारते और फिर वापस हो जाते। जल-विहार करनेवाले पक्षी गाछ की फुनगी से ही दुर्दशा निहारकर स्यापा कर लेते। कुछ बड़ी मछलियां, जिनके लिए पेंदी में बचा थोड़ा सा पानी कम पड़ रहा था, छटपटाते-तड़फड़ाते दिख जाते। बस्ती के कुछ लोगों के लिए यह प्रलय एक उत्सव बन गया था और वे एकांत मिलते ही इन मछलियों का शिकार कर अपनी रसोई को चटखारेदार बना लेते।
कल्याण जब पानी से भरा होता तो इसमें एक रौनक समायी होती और इससे एक जीवन राग मुखरित होता रहता। कुछ लोग नहाते होते और पूरब तट पर स्थित शिवालय में जल चढ़ाते होते। छोटे घरों की गृहिणियां बतियाती होतीं, बर्तन-वासन धोती रहतीं और अपने बच्चों को रगड़-रगड़कर उन पर भर-भर लोटा पानी उलीच रही होतीं। कुछ लड़के तैरने का लुत्फ उठाते होते और कुछ लोग इस तट से उस तट नौका-विहार का मजा ले रहे होते। गैरआबादी वाले छोर पर बचे कुछ खाली खेत में सब्जी-भाजी उगानेवाले किसान पटवन के लिए लाठा-कुंडी से पानी निकाल रहे होते। मछलियां उन्मुक्त नाद करती हुईं तैर रही होतीं। कोचाई द्वारा नियुक्त तीन-चार मछुआरे जाल फैलाये हुए होते।
अब आय का कोई नियमित जरिया नहीं रह गया था। कोचाई चिंतित था लेकिन घरवाले जरा सा भी परेशान नहीं थे। उलटे निमाई और राधामुनी पहले से ज्यादा निश्चिंत दिख रहे थे। निचली कक्षाओं में पढ़नेवाला उसका छोटा बेटा और बेटी भी पूर्व की तरह ही अच्छे रख-रखाव में जी रहे थे और स्कूल जा रहे थे।
एक दिन एक साहबनुमा व्यक्ति उससे मिलने आया। उसने अपने को एक शिपिंग कंपनी का अधिकारी बताते हुए कहा, “मेरा नाम प्रदीप डोगरे है। मुझे आपकी सेवा चाहिए। मेरा एक जहाज बंगाल की खाड़ी में डूब गया है। उसमें सोने की ईंटों के पांच बक्से लदे थे, जिसकी कीमत 50 करोड़ से भी ज्यादा है। कई गोताखोर हार गये मगर कुछ भी ढूंढने में कामयाब नहीं हुए। आपके बारे में हमें जानकारी मिली। सुना है कि पानी को आपने पूरी तरह साध लिया है...दिल से आप जो चाह लेते हैं, वह पूरा हो जाता है....पानी आप से दगा नहीं कर सकता। आप अगर इस चुनौती को स्वीकार कर लें तो आप जो भी कीमत चाहें, हम देने को तैयार हैं।”
कोचाई ने जायजा लिया कि राधामुनी, निमाई और उसके अन्य बच्चे भी उस मुद्रा में उन्हें देख रहे हैं जिसमें
उनकी इच्छा है कि यह प्रस्ताव स्वीकार कर लेना चाहिए।
उसकी ठिठक को देखते हुए राधामुनी ने कहा, “डोगरे साहब ठीक ही कह रहे हैं। यह आपके मन के लायक काम है। यहां आप नाहक घुट रहे हैं। चले जाइएगा तो जी बहल जाएगा। कुछ कमाई भी हो जाएगी, घर चलाने के लिए पैसा भी तो चाहिए ही।”
कोचाई को लगा कि राधामुनी ठीक ही कह रही है। तालाब को देख-देखकर उसका दुख असह्य होता जा रहा है। पानी में डुबकी लगाये हुए भी महीनों हो गये। इसके बिना लग रहा था जैसे देह के सारे सेल चार्जरहित हो गये हैं। उसने हामी भर दी। डोगरे साहब ने झट लिखकर एक लाख रुपये का चेक सामने कर दिया। कोचाई ठगा रह गया, उसकी ऐसी कीमत तो आज तक किसी ने नहीं लगायी।
कोचाई को लेकर डोगरे साहब चला गया। उसे कथित शिपिंग कंपनी के मुख्यालय स्थित शहर में भेज दिया गया। कंपनी के कुछ कर्मचारी उसे बोट के जरिए समुद्र में ले जाते। वह गोताखोरों वाली ड्रेस पहनकर मुंह में आक्सीजन मास्क लगाता और उस स्थल पर समुद्र में कूद जाता, जहां वे जहाज डूबने की आशंका जाहिर करते। कोसाई को पहले भी दो-तीन बार समुद्र में छोटा गोता लगाने का मौका मिल चुका था। इस बार उसे लगभग डेढ़ महीने रोका गया, जिसमें उसने दस-बारह बार लंबे गोते लगाये। गहराई में जाकर समुद्र की दुनिया उसे अचम्भित कर देती थी। अजीब-अजीब तरह के रंग-बिरंगे जीव-जन्तु, पेड़-पौधे और पहाड़ जैसे उसे अपनी ओर खींचने लगते थे। पता नहीं क्यों उसे लगता था कि बाहरी दुनिया से यह अंदरूनी दुनिया कहीं ज्यादा खूबसूरत और सुरक्षित है। उसकी इच्छा होती कि काश वह इसी दुनिया में रहने लायक बन जाता और इन्हीं जलचरों के साथ तैरता रहता समुद्री अंतस्थल की खाइयों और गुफाओं में। उसने बहुत ढूंढा पर उसे जहाज का कोई अवशेष कहीं दिखाई नहीं पड़ा।
डोगरे साहब ने एक दिन उसे फिर दर्शन दिया और कहा, “मंडल जी, कल आप मेरे साथ लौट जाएेंगे अपने शहर।”
कोचाई ने अफसोस जताते हुए कहा, “मुझे खेद है साहब कि मैं इतना-इतना गोता लगाकर भी कुछ ढूंढ न सका।”
उसने कहा, “नहीं मंडल, आपका गोता लगाना व्यर्थ नहीं गया है। आपके गोता लगाने से हमें जो हासिल करना था, वह हमने कर लिया है।”
कोचाई उसका मुंह देखता रह गया।
घर वापस लौटने लगा तो उसका मन फिर दुखी हो गया। कल्याण अब तक पूरी तरह सूख गया होगा। उसने मन ही मन तय किया कि बरसात आते ही वह लोखट पहाड़ी पर पेड़ लगाना शुरू कर देगा। इस काम में वह अपनी पूरी जिंदगी लगा देगा और इससे निकलनेवाले नाले को फिर से जीवित करके छोड़ेगा। तालाब की पूर्व की स्थिति बहाल किये बिना, वह एक तिल चैन की सांस नहीं लेगा।
शहर पहुंचते ही कोचाई के पांव अनायास तालाब के रास्ते पर ही बढ़ गये। उसने देखा कि उस रास्ते पर दर्जनों डम्फर, डोजर और ट्रक आवाजाही कर रहे हैं। उसका माथा ठनक गया। कल्याण के पास पहुंचा तो वहां की हालत देखकर उसकी आंखें फटी की फटी रह गयीं। एक किनारे बड़ा-सा बोर्ड लगा था - “साइट ऑफ डोगरे बिल्डर्स ऐंड कॉन्ट्रैक्टर्स'। कल्याण आसपास के उद्योगों के कचड़े और खेतों की मिट्टी से तोपा जा रहा था। उसका आधा हिस्सा लगभग भरा जा चुका था। क्षण भर के लिए प्रतीत हुआ कि कल्याण को नहीं मानो जीते जी उसे ही दफ्नाया जा रहा है। डोगरे ने जो कहा था, उसका अर्थ अब स्पष्ट होने लगा। उससे गोता लगवाकर उसने वाकई अपना लक्ष्य हासिल कर लिया।
उसकी आंखें आंसुओं से डबडबा गयीं...लगा कि समुद्र में गोता लगाकर वह माल ढूंढने नहीं बल्कि अपना सर्वस्व डुबोने चला गया था।