कल, आज और कल / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल

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मैंने अपने दोस्त से कहा, "उस आदमी की बाँहों में झूलती उस लड़की को देख रहे हो? कल तक वह मेरी बाँहों में झूलती थी।"

मेरा दोस्त बोला, "और कल वह मेरी बाँहों में झूल रही होगी।"

मैंने कहा, "उसका उससे सटकर बैठना देखो। कल वह मुझसे सटकर बैठी थी।"

उसने कहा, "कल वह मुझसे सटकर बैठेगी।"

मैं बोला, "देखो, वह उसकी प्याली से वाइन पी रही है। कल उसने मेरी प्याली से वाइन पी थी।"

उसने कहा, "कल मेरी प्याली से पिएगी।"

तब मैंने उससे कहा, "देखो, कितने प्यार से वह उसे निहार रही है। कल इतनी प्यारी नजर से उसने मुझे निहारा था।"

और मेरे दोस्त ने कहा, "कल इस नजर से मुझे निहार रही होगी।"

मैंने कहा, "क्या तुम्हें उसके कान में गुनगुनाए जाते उसके गीत सुनाई पड़ रहे हैं? यही गीत कल वह मेरे कानों में गुनगुना रही थी।"

मेरे दोस्त ने कहा, "कल इन गीतों को वह मेरे कान में गुनगुनाएगी।"

मैंने कहा, "देखो, वह क्यों उसे आलिंगन में बाँध रही है? कल उसने मुझे आलिंगन में बाँधा था।"

और मेरे दोस्त ने कहा, "कल वह मुझे आलिंगन में बाँधेगी।"

इस पर मैंने कहा, "कितनी अजीब औरत है।"

लेकिन उसने जवाब दिया, "वह जिन्दगी है जिसे हर आदमी अपनाता है और मौत है जो हर आदमी को अपनाती है। वह अनादि और अनन्त कहा जाने वाला काल है जो हर व्यक्ति को अपने आगोश में लेता है। "