कल-आज और कल / खलील जिब्रान / सुकेश साहनी
(अनुवाद :सुकेश साहनी)
मैंने अपने दोस्त से कहा, "देखो, वह किस तरह उस आदमी की बाहों पर झुकी हुई है। कल वह इसी तरह मुझ पर झुकी हुई थी।"
मित्र ने कहा, "कल वह मुझ पर झुकेगी।"
मैंने कहा, "देखो, किस तरह सटकर बैठी है। कल ही की तो बात है वह इसी तरह मेरे पास बैठती थी।"
मित्र ने कहा, "कल वह मेरे साथ इसी तरह बैठेगी।"
मैंने कहा, "देखो, वह उसके प्याले से शराब पी रही है जबकि कल तक मैं उसे पिलाता रहा था।"
मेरा मित्र बोला, "कल वह मेरे प्याले में पिएगी।"
तब मैंने कहा, "कितने प्यार से वह उस आदमी को देख रही है। कल इसी तरह मेरी ओर देख रही थी।"
मेरे मित्र ने कहा, "कल वह इसी तरह मुझे देखेगी।"
मैंने कहा, "सुनो, वह अपने प्रेमी के कान में कैसे प्रेम भरे गीत गुनगुना रही है। कल वे गीत उसने मुझे सुनाए थे।"
और मेरे मित्र ने जवाब दिया, "कल ये गीत वह मुझे सुनाएगी।"
मैंने कहा, "देखो, कैसे आलिगंन में ले रही है। कल तक मैं उसके साथ था।"
मेरे मित्र ने कहा, "कल यही आलिंगन मेरे लिए होगा।"
तब मैंने कहा, "कैसी विचित्र औरत है!"
उसने उत्तर दिया, "वह जीवन की तरह सबकी सांझी है, मृत्यु की तरह सबके लिए अनिवार्य है और अनन्तकाल की तरह सभी को अपने गर्भ में समेट लेती है।"