कवच / मृणाल आशुतोष
हाथों से मेहन्दी का रंग अभी छूटा भी न था कि चूड़ियों को आपस में टकराकर तोड़ दिया गया। साड़ी का रंग लाल से सफेद हो चुका था और हँसी-मुस्कुराहट इतिहास की बातें। सास भी अपने इकलौते बेटे को खोने के ग़म में डूब जाना चाहती थी मगर बहू का चेहरा देख संभल जाती।
इस बीच मँझले नन्दोई का आना-जाना बढ़ गया था। पहले जो मज़ाक आँखों तक ही सीमित रहता था, वह अब शब्दों और छुअन की ओर बढ़ने लगा था। पति को याद करने और भगवान को कोसने के सिवा कोई दूसरा चारा भी तो न था उसके पास।
आज फिर आये थे मालदह आम लेकर।
वह ननदोई के लिये आम काटकर कमरे में ले गई।
"बैठिये न! खड़ी क्यों हैं?" नन्दोई ने बड़े प्यार से कहा।
"जी.।मैं ठीक हूँ।"
"ठीक कहाँ हो! अजी! जो होना था सो हो गया। अब इस तरह पहाड़-सा जीवन थोड़े ही न कटेगा।" कहते हुये जबरदस्ती हाथ पकड़ अपने नज़दीक बिठा लिया।
"ये क्या कर रहे हैं आप?" अनीता ने उठने की कोशिश करते हुये औपचारिक हो कहा "आम खाइये न आप!"
"तुम भी मालदह आम से कम थोड़े न हो! साले साहब के जाने के बाद मेरी भी तो कुछ जिम्मेदारी बनती है न!" और हाथ ने मर्यादा कि सीमा रेखा पार करने की कोशिश की।
अनीता झटके से अपने आपको छुड़ाती हुई आँगन की ओर दौड़ पड़ी।
सास की अनुभवी आँखों को घटनाक्रम आँकने में एक पल भी न लगा। पीडा व रोेष मिश्रित भावो में सास ने जिम्मेदारी लेनी चाही मगर "आगे का कठिन सफ़र तो उसे अकेले ही तय करना होगा" यह सोच उसने बहू को अपने पास बिठा लिया।
"सुन बहू! मैं जब ब्याह कर ससुराल आयी तो सास का साया सिर पर नहीं था। ससुर ने सारी जिम्मेदारी अकेले ही सम्भाली थी। कभी कोई कमी महसूस न होने दी। फिर एक दिन वह भी चल बसे। पर मरने से पहले तेरे दादा ससुर ने अपनी खडाऊँ मुझे देते हुये कहा था कि बहू! यह खडाऊँ मैं विरासत के रूप में तुझे देता हूँ। सम्भाल कर रखना इसे, ज़रूरत पड़ेगी।"
बहू के कंधे पर हाथ रख उसने भर्राये गले से कहा, "बेटी, मुझे तो इसकी ज़रूरत अब तक न पड़ी लेकिन तुझे अब इसकी सख्त ज़रूरत है। पुरखों की विरासतें यूँ जाया नहीं जाती।" कहते हुये सास ने खडाऊँ को ज़ोर से ज़मीन पर पटक दिया। खडाऊँ छिटका, गुलाटियाँ मारते हुये बरामदे से कमरे की ओर दौडा़। अंदर से चीखने की आवाज़-सी आई।
अनीता ने आश्वस्त नजरों से सास की तरफ़ देखा और अपना सिर सास के कंधे पर टिका दिया।