कविताई में चित्रकारी का ठाठ (मनोज कुलकर्णी) / नागार्जुन

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बहुत दिनों के बाद अब की मैंने जी-भर भोगे गंध-रूप-रस-शब्द-स्पर्श सब साथ-साथ इस भू पर बहुत दिनों के बाद कवि नागार्जुन से मेरा पहला परिचय इसी कविता ‘बहुत दिनों के बाद’ के ज़रिये हुआ था। वह 1976-77 का शैक्षणिक वर्ष था। मैं कक्षा सात में था। यह कविता मेरी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में थी। ग्यारह-बारह बरस की उमर और ये कविता! पर तब तक, पाठय-पुस्तकों में पढ़ी गयी ‘देशभक्ति मार्का’ या बाल-पत्रिकाओं की ‘उपदेशात्मक’ कविताओं से यह कविता नितांत भिन्न लगी थी। इस कविता ने बाल मन को कुछ चौंकाया था। कविता ऐसी भी हो सकती है ? तुकबंदी की हद के बाहर, लयात्मकता का जो जादू था, उससे पहली दफ़ा साक्षात्कार हुआ था। बहरहाल, उम्र के उस दौर में, दिनों तक वह कविता ज़ेहन में अटकी रही थी। आज, उस कविता के आकर्षण का कारण, मुझे उसकी चित्रात्मकता महसूस होती है। दरअसल अपने इर्द-गिर्द की दुनिया, उसका रूप-रंग, कार्य-व्यापार, हाव-भाव, सुख-दुख, ऊंच-नीच को महसूस करने और उससे उपजे भावों को शब्दबद्ध करने की नागार्जुन की ताक़त ही उन्हें, एक ‘क्लासिक’ कवि बना देती है। भ् भ् भ् बाद के दौर में जब भीतर के चित्राकार ने कविताओं में चित्रात्मकता की तलाश शुरू की तो बाबा नागार्जुन के कविता-संग्रहों के दरवाज़े खटखटाये। तब कला के जनवादी स्वरूप की तरफ़ आकर्षण बढ़ रहा था। व्यक्तिगत जीवन में वह दौर विचारधारा से संबंद्ध और घनिष्ठ होते जाने का समय था। हम कुछ युवा चित्राकार मित्रा चित्राकृति को इस तरह संभव करना चाहते थे कि वो ‘पोस्टर’ होने के ख़तरे से बची रहे। कलात्मक निर्वाह और वैचारिक आग्रह दोनों साथ-साथ रहे। एक कवि के बतौर बाबा नागार्जुन, इस कसौटी पर बिल्कुल खरे उतरते हैं। उनके पास परंपरा का प्रामाणिक अध्ययन, आधुनिकता की बेहतर समझ, यथार्थ बोध और कल्पनाशीलता के द्वंद्व से, दिल-दिमाग़ के कैनवास पर खिंच जाने वाले चित्रों और जीवन के व्यापक अनुभव से हासिल विविधवर्णी 348 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 छटाओं के सूझ भरे प्रयोग की विविधता है। अतः उनकी कविताएं चित्राकारी सी लगती हैं, जिन्हें पढ़ते-पढ़ते आंखें दृश्यों से भर जाती हैं। मसलन: फूले कदंब टहनी-टहनी में कंदुक सम झूले कदंब फूले कदंब (फूले कदंब) यह कपूरी धूप शिशिर की यह दुपहरी, यह प्रकृति का उल्लास रोम-रोम बुझा लेगा ताज़गी की प्यास (नीम की दो टहनियां) भ् भ् भ् भारतीय सौंदर्यशास्त्रा में चित्राकला, मूर्तिकला को स्वतंत्रा महत्व न देकर, उन्हें स्थापत्य कला का ही अंग भर माना गया है। इसी वजह से भारतीय काव्यशास्त्रा में सभी ललित कलाओं पर समुचित विचार संभव नहीं हो सका, जैसा कि पाश्चात्य सौंदर्यशास्त्रा में हुआ। आचार्य रामचंद्र शुक्ल भी उसी विचार के समर्थक थे। वे काव्य को विद्या और चित्राकला को उपविद्या मानते थे। मुझे नहीं लगता कि बाबा नागार्जुन इस विचार को मानते रहे होंगे। उनके यहां तो ‘कला’ कविता को अलंकृत करने के लिए नहीं आती। वहां तो सादगी का अद्भुत ठाठ दिखायी देता है: खुब गये दूधिया निगाहों में फटी बिवाइयों वाले खुरदुरे पैर भ् भ् भ् उनकी कविताओं में अंकित दृश्यचित्रा या लैंडस्केप के संदर्भ में मुझे ज़्यादा मौजू शब्द लगता हैμसैरे। सैरे, चित्राकला के व्याकरण का महत्वपूर्ण हिस्सा है। बाबा की कविताओं में असंख्य लैंडस्केस हैं। मौसम के मिज़ाज़ को खोलकर रखते हुए वे लिखते हैं: अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल को घिरते देखा है। छोटे-छोटे मोती जैसे उसके शीतल तुहिन कणों को, मानसरोवर के उन स्वर्णिम कमलों पर गिरते देखा है। (बादल को घिरते देखा है ) नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 349 फैला कर टांग उठा कर बांहें अकड़ कर खड़ा है भुस-भरा पुतला कर रहा है निगरानी ककड़ी-तरबूज की खीरा-खरबूज की सो रहा होगा अपाहिज मालिक घर में निश्ंिचत हो। (भुसा का पुतला) सोंधी भाफ छोड़ रहे हैं सीढ़ियों की ज्यामितिक आकृतियों में फैले हुए खेत / दूर-दूर...। (बादल भिगांे गये रातोरात) भ् भ् भ् मानो चित्राकला का अध्ययन कर बाबा कविताएं लिख रहे हों। वहां दृश्यचित्रों की बहुलता तो है ही, चित्राकारी के दूसरे तत्वों का भी अच्छा निर्वाह है। इन कविताओं में खूबसूरत ‘संयोजन’ है। शबीहें भी तो बहुतेरी हैं: गले से रुद्राक्ष की लंबी माला लटक रही थी जोगिया कलर वाले कुर्ते पर दाहिने कान से लाल फूल अटका पड़ा था, चमक रहा था भाल पर चंदन का पीला तिलक...। (तेरी खोपड़ी के अंदर) छूती है निगाहों को कत्थई दांतों की मोटी मुस्कान बेतरतीब मूंछों की थिरकन (घिन तो नहीं आती है ?) भ् भ् भ् 350 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 यहां मैं बेलिंस्की का यह कथन उल्लेख करना चाहता हूं: ‘सौंदर्य सामाजिक जीवन के जीवंत यथार्थ का ऐसा प्रतिबिंब है, जो हमें आनंद ही नहीं देता प्रगतिशील होने की प्रेरणा भी देता है।’ मालूम नहीं कि बाबा नागार्जुन ने बेलिंस्की की उक्त स्थापना को पढ़ा था या नहीं, पर बेलिंस्की ने तो नागार्जुन की कविताएं निश्चित ही नहीं पढ़ी होंगी। पर लगता यूं है जैसे बाबा की कविताएं पढ़कर ही वह इस निष्कर्ष पर पहंुचे थे। कविता, किसी भाषा में लिखे गये वाक्यों का एक समुच्चय भर नहीं होती। वहां बरते गये शब्द, जीवन में रूढ़िबद्ध हो चुके मायनों का अतिक्रमण करते हैं। अर्थ-विस्तार की क्षमता जितनी बढ़ती है, कविता उतनी ही ताक़तवर होती जाती है। चित्राकला में भी क्या यही बात लागू नहीं होती? देखे गये का जस का तस चित्राण, कौशल हो सकता है , कला नहीं! कलाकृति जहां एक ओर यथार्थ के बाह्य को अंकित या मूर्तिमान करती है, वहीं उसके अंतर को भी। वह ठोस यथार्थ में ऐसी कल्पना है जिसकी वजह से जीवन की पुटलिया की गांठें खुलती चली जाती हैं। वहां किसी भी ज्ञात भौतिक वस्तु, मनुष्य, प्रसंग आदि का अपनी पृष्ठभूमि या परिवेश से जो रिश्ता बनता है, वह ज्ञानातीत या अदृश्य को बोधगम्य बनाता है। कविता और चित्राकला, इस तरह सहोदराएं हैं। कवि नागार्जुन की कविताओं में वे एक साथ रहती हैं। मो.: 09424407846