कविता की ठुमरी (यतीन्द्र मिश्र) / नागार्जुन
लगभग अकाट्य और अब पूर्णतया संज्ञा बन चुकी जनकवि की गरिमा के बीच नागार्जुन की उपस्थिति, अपनी कविता, सरोकारों और राजनैतिक प्रश्नाकुलता के साथ न सिर्फ़ प्रासंगिक बल्कि क्लासिक ही बन चुकी है। ऐसे में, ख़ासकर बाबा के जन्म शताब्दी वर्ष में तमाम उन स्तरों पर भी उनकी कविता और वैचारिकता की मानसिक बुनावट का पुनर्पाठ हमारे लिये ढेरों ऐसी अन्य विचारोत्तेजक स्थापनाओं को समझने की पृष्ठभूमि तैयार कर सकता है, जो शायद इससे पहले संभव न थी। या शायद अगर उनकी जन्मशताब्दी न पड़ती, तो हम उसी तरह उन्हें अपने लिये टटोलते नबेरते रहते, जैसा कि अब तक हम करते चले आये हैं। जनवादी कविता की सशक्त त्रिधारा (केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन एवं त्रिलोचन) का मूल्यांकन करते हुए हम अकसर कुछ ऐसी साधारण चीज़ों से अपना ध्यान हटाते रहे हैं, जिसकी वजह से इन तीनों ही कवियों में मौजूद कुछ बेहद सुंदर स्थापनाएं व उपस्थितियां अनदेखी चली गयीं। यह अपने में ख़ासा दिलचस्प और विचारोत्तेजक पहलू है कि केदार, नागार्जुन एवं त्रिलोचन की अधिकांश कविताएं जनतांत्रिक पक्षधरता के बावजूद उस जनपदीय चेतना से निकलकर भी आती थीं, जिसकी जड़ें अपनी खांटी लोकोन्मुख विरासत में दबी होने के बाद भी बहुतेरे संदर्भों में एकतान ही रही हैं। मसलन मुझे तीनों ही मूर्धन्य कवियों में संगीत और सांगीतिक ध्वनियां अंतःसलिल दिखती रही हैं। और यह तब, और भी अधिक प्रासंगिक बन जाता है, जब तीनों ही कवियों के यहां यह परंपरा एक सी निभती दिखायी पड़ती है। संगीतशास्त्रा के आधार पर यदि हम इसे रेखांकित करना चाहें, तो पायेंगे कि केदार, नागार्जुन एवं त्रिलोचन तीनों एक ही घराने की परंपरा से निकलकर हमसे अपनी कविता के माध्यम से संवादरत हैं। मगर यहां मैं बाबा नागार्जुन की कविता के संदर्भ में ही, उस जनपदीय चेतना के आंतरिक रेशों को टटोलना चाहूंगा, जिसके चलते हमें उनकी कई बार रूखी और शुष्क सी लगती कविता में भी कोई रुनझुन सुनायी देती है। इस आंतरिक संगीत को सुनते हुए एकाएक कई बार उसमें विलय होती हुई त्रिलोचन की कविता या कि केदारनाथ अग्रवाल का कोई गीत देखा जा सकता है। ठीक उस तरह, जैसे हम किसी संधिप्रकाश राग या मिश्र राग में दूसरे अन्य रागों की अंतर्ध्वनियां सुन लेते हैं। नागार्जुन की ढेरों ऐसी कविताएं हैं, जिनको पढ़कर सहसा एक प्रश्न मन में आता है कि उन कविताओं को कभी यूं ही उन्होंने प्रसन्नता के क्षणों में तरन्नुम में लिखा होगा। कई बार यह भी लगता है कि अपनी जनपदीय नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 341 गरिमा के प्रति पूरी तरह आसक्त यह कवि इन कविताओं में भूले-भटके संत कवियों जैसी वैष्णव कविता की लीक रच रहा है। अकसर यह विचार भी मन में आता है कि सिर्फ़ इस वैचारिक हठ पर कि कविता मेरे अपने आनंद और ठसक की शर्तों पर ही संभव होगी, भले ही वह ऐसे सहज क्षणों की कविता हो, कविता लिखी गयी है। ज़ाहिर है, इन सारी ही स्थितियों में एक कवि से ज़्यादा एक कलाकार या कि वीतरागी हो चुके किसी संत की कविता की धमक जैसा संगीत सुनने को मिलता है, जो वह अपने इकतारा पर गुन रहा होता है। यह स्थिति तब प्रीतिकर बन जाती है, जब उसे हम समकालीन अर्थों में बाबा नागार्जुन, त्रिलोचन या कि केदारनाथ अग्रवाल में घटता हुआ देख रहे हों। ऐसी कविताओं में हम सहसा हीμ बेतवा किनारे, मेघ बजे, उषा की लाली, हेमंती बादल हैं, माखनी कमान को, हरे-हरे नये-नये पात, फूले कदंब, पावस तुम्हें प्रणाम, रजनीगंधा, कैसा लगा, अंत श्रावण का यह मेघ, काले-काले, नर्सरी राइम, गुपचुप हजम करोगे, नये-नये दिल हैं, मेरी भी आभा है इसमें, जेठ मास, भूले स्वाद बेर के और बादल को घिरते देखा है जैसी कविताएं याद कर सकते हैं। दो-तीन कविताओं से अपने आशय को स्पष्ट करना चाहूंगा कि किस तरह नागार्जुन की कविता सिर्फ़ अपनी मिट्टी या जनपद से मुखातिब ही नहीं है, बल्कि वह उस ऊर्जस्वित परंपरा से भी अपना संबंध बनाये हुए है, जिसकी जड़ें अंततः मिट्टी में ही आकर मिलती हैं। नागार्जुन की कविता अपनी समूची जनतांत्रिक पक्षधरता के बावजूद, उस जन की कविता भी है, जो क़लम के अलावा इकतारा, तंबूरे और तानपूरे के ज़ोर पर भी अपनी अर्थसंभवा शक्ति को रेखांकित करती है। यह जनसमुदाय, उनका जन भी है, जिसमें कभी अमीर खुसरो, मीराबाई और चैतन्य महाप्रभु जैसे संत, कवि, निर्गुणिये साधक, फकीर, औलिया और वाग्गेयकार आते और समाते गये। एक-दो उदाहरणों से नागार्जुन की इस लीक को परखा जा सकता है, जिसमें वह ऐसे ही किसी संप्रदाय के अनुयायी बनकर अपनी कविता को कुछ दूसरे अर्थ भी प्रदान कर रहे हों। मिसाल के तौर पर बेतवा किनारे जैसी कविता को पढ़ना चाहिए। आपकी सहूलियत के लिए पूरी कविता एक बार फिर से याद दिला रहा हूंμ बदली के बाद खिल पड़ी धूप बेतवा किनारे सलोनी सर्दी का निखरा है रूप बेतवा किनारे रग-रग में धड़कन, वाणी है चुप बेतवा किनारे सब कुछ भरा-भरा, रंग हैं भूप बेतवा किनारे बदली के बाद खिल पड़ी धूप बेतवा किनारे यह कविता जिस धरातल पर संभव हो रही है, वह भारतीय शास्त्राीय एवं उप-शास्त्राीय संगीत की ऐसी जानी-पहचानी ज़मीन है, जिस पर कई सौ सालों से ठुमरी एवं कजरी के बोल रचने की रवायत रही है। शास्त्राीय संगीत के तमाम सारे घरानों में ठुमरी के बोलों को छोटे-से पदबंध में बांधा जाता है, जिसमें किसी 342 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 शंृगारपरक, विरहमूलक या कि प्राकृतिक शब्दचित्रा को लयपूर्वक गंूथा जाता है। इस संदर्भ में सबसे प्रचलित परिपाटी यही रही है कि हम किसी शब्दयुग्म को, सरगम या तानों को, या कि अंतरों के बीच मुखड़े को बार-बार लय देती हुई क्रमिकता में इस्तेमाल करें। ऐसा करने से स्वतः ही एक लय, दो या तीन पंक्तियों के बीच क़ायम हो जाती है, जिसे ठुमरी के बोल बनाते वक़्त गायक एवं वादक सम पर आने के लिए बार-बार प्रयुक्त करते हैं। अब नागार्जुन की इस कविता को ठुमरी के बोलों के हिसाब से देखें, तो हम पायेंगे कि प्रकृति के एक सलोने दृश्य को एक शब्दचित्रा की तरह छोटे से पदबंध में रचते हुए कवि हर दूसरी लाइन में ‘बेतवा किनारे’ की टेक ले रहा है। मात्रा दस पंक्तियों की यह कविता दरअसल पांच पंक्तियों में ही संभव हो रही है। शेष पांच पंक्तियां अपनी टेक की लय को स्थायी या मुखड़े की तरह बार-बार दोहरा रही है, जिनसे अगर हम ठुमरी का गायन संपन्न न भी करें, तो पायेंगे कि वह अपने पाठ में पूरी लय, ताल और विन्यास लिये हुए है। ‘बेतवा किनारे’ को पढ़ते हुए, कोई भी संगीत का साधक या विद्यार्थी उसमें लय, ताल, छंद और सम आदि को बखूबी निभा लेगा। यदि हम इसे स्वर में गाना न भी चाहें, तो भी यह कविता अपने पढ़े जाने पर एक निश्चित लय और वाक्यों के बीच अंतराल और मौन की मांग करती है, जिससे उसका पूरा गठन और सौष्ठव उभर आये। ज़ाहिर है, नागार्जुन जब यह कविता लिख रहे होंगे, तब भले ही उन्हें इस बात का भान न रहा हो कि वह ठुमरी या कजरी के बोलों की कसौटी पर किसी कविता को अंजाम दे रहे हैं। मगर उनके व्यक्तित्व में उस परंपरा का बोध अवश्य ही मिला हुआ था, जिससे ऐसी सरस कविता वे लिख पाये। अधिकांश प्रकृति चित्राण की कविता में यह टेकनुमा टोन या कि स्थाई का दोहराव पाया जाना कोई साहित्यिक प्रयोग नहीं बल्कि संगीत का वह संस्कार है, जो इन प्रकृतिप्रेमी कवियों को सुलभ रहा है। पूरी सहजता से मैं इसमें इतना ही जोड़ना चाहूंगा कि संगीत का परोक्ष और उदात्त प्रभाव ही नागार्जुन की अधिकांश ऐसी कविताओं का उपजीव्य रहा है, जिसके चलते वे इतनी प्रवाहमयी कविता लिखते रहे, जिसकी जड़ें कजरी और ठुमरी के बोलों या बंिदशों की मार्फत रची-बरती गयी हैं। अर्थ की संभावनाओं के अर्थ में भी यदि हम ‘बेतवा किनारे’ को पढ़ें, तो सहसा ही यह पायेंगे कि प्रकृति के सोनल रूप का सुंदर अंकन करने में पंक्ति दर पंक्ति बेतवा की परिधि का सौंदर्य बखाना गया है। पहली पंक्ति से शुरू होने वाली नदी तट की शोभा का वर्णन, अंतिम पंक्ति तक आते हुए पूरी उदात्तता के साथ अपनी आरंभिक पंक्तियों की अर्थ अभिव्यक्ति को बढ़ाने में आगे बढ़ता है। ठुमरी के बोलों का भी ठेठ यही अंदाज़ होता है कि जिस भी मनोदशा के चित्राण में ठुमरी गायी जाती है, उसका आशय अपनी पहली पंक्ति से शुरू होकर धीरे-धीरे अंतिम तक रिसता हुआ आखिर की पंक्तियों में जाकर सौंदर्य हासिल करता है। यह नहीं है कि शुरू की दो पंक्तियां गाकर एकाएक बंद करने से बाद की शेष पंक्तियों के आशय खुल सकें। ठीक इसी तरह यह भी नहीं हो सकता कि अंत गाकर आरंभ के आशय जाने जा सकें कि ठुमरी किन अर्थों और संभावनाओं के साथ शुरू हुई थी क्योंकि जो शब्द-चित्राμ संयोग, विरह, आनंद, केलि, उत्साह, प्रणय, पीड़ा, त्याग आदि का निदर्शन बंदिशों के द्वारा ठुमरी में व्यक्त करते हैं, उनकी पूरी अर्थ आभा ही एक-दूसरी पंक्तियों में एक साथ बंधी होती हैं। फिर वह चाहे कई बार मनोदशा के विस्तार के संदर्भ में हो या फिर वह सवाल-जवाब के अर्थों में आगे जाती हो या फिर वह उपमाओं-उत्प्रेक्षाओं के साथ उस परिदृश्य को कई तरीक़ों से उजागर करती हो। नागार्जुन की इस कविता में भी अर्थ के लिहाज से यही हो रहा है कि पहली पंक्ति का विस्तार अंतिम पंक्ति पा रही है नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 343 और अंतिम पंक्ति की सुंदरता में शेष अन्य चार पंक्तियों के संदर्भ मिले हुए हैं। ठुमरी की ही तरह, ‘बेतवा किनारे’ को ऊपर की दो पंक्ति पढ़कर छोड़ देने से कुछ हासिल नहीं होगा, न ही बाद की चार पंक्तियां पढ़कर हम एक छोटी मगर सलोनी कविता का उत्साह महसूस कर पायेंगे। इसी तरह भूले स्वाद बेर के कविता को याद करना चाहिए, जो बाबा ने 1961 में लिखी है। भूले स्वाद बेर के कविता भी पूरी की पूरी यहां टीप रहा हूं। हालांकि यह कविता भी बेतवा किनारे की तरह छोटी और मात्रा आठ पंक्तियों की है: सीता हुई भूमिगत, सखी बनी सूपनखा वचन बिसर गये देर के सबेर के बन गया साहूकार लंकापति विभीषण पा गये अभयदान शावक कुबेर के जी उठा दसकंधर, स्तब्ध हुए मुनिगण हावी हुआ स्वर्णमृग कंधों पर शेर के बुढ़भस की लीला है, काम के रहे न राम शबरी न याद रही, भूले स्वाद बेर के अपने पहले पाठ में यह कविता शुद्ध अर्थों में व्यंग्य कविता है, जिसमें लोक प्रतीकों के माध्यम से कवि समकालीन राजनीति और समाज की तीखी पड़ताल कर रहा है। मगर उसी समय यह कविता कुछ उन अर्थों में भी संभव हो रही है, जिसे विशुद्ध राजनीतिक कविता या व्यंग्य कविता न कहकर कुछ और कहा जाना चाहिए। भूले स्वाद बेर के कविता में एक लोकगीत भी स्वतः ही आकार ले रहा है, जो अपने लोक आशयों, निजंधरी कथाओं एवं प्रतीकों के द्वारा एक गीत का बाना अख़्तियार करता है। हममें से अधिकांश जो मिथिला या अवध के गांवों से संबद्ध लोग हैं, जानते हैं कि रामकथा और महाभारत के पात्रों तथा उनकी अधिसंख्य कथाओं से संबद्ध करके न सिर्फ़ मिथिलांचल में बल्कि अवध क्षेत्रा में भी लोकगीत लिखने एवं गाने की अनूठी परंपरा रही है। अवध में किसी लड़के का जन्म अथवा विवाह राम के जन्म या विवाह से कमतर नहीं माना जाताμ वरन् वह राम के प्रतीक के द्वारा ही सोहर, बन्ना, सेहरा और भांवर के गीतों में रूपायित करके गाया जाता है। इसी के विपरीत किसी सम-विषम परिस्थिति या कि सामाजिक सरोकारों को जागृत करने की बात भी इन कथाओं के रूपकों द्वारा अकसर लक्षणा में, तो कई बार व्यंजना में गीतों में उतरती है। नागार्जुन की यह कविता भी अवध के ऐसे ही किसी मेले के गीत का कविता में अनुवाद लगती है, जिसकी व्यंजना मार्मिक ढंग से संप्रेषणीय है। अवध का एक प्रसिद्ध लोक गीत हैμ किन मोरी अवध बिसारी हो, बिलखैं कउसिल्ला/बन गये राम, बने गये लछिमन/बन गयीं जनकदुलारी हो, बिलखैं कउसिल्ला। इस गीत में राम, लक्ष्मण और सीता के माध्यम से पूरे अवधपुर की पीड़ा और मनोदशा गायी गयी है। आज भी कभी-कभी अयोध्या, गोंडा, बस्ती, बलरामपुर, फ़ैज़ाबाद जैसे इलाक़े में इस तरह के गीत गाती हुई स्त्रिायां सावन और चैत्रा के मेले में मिल जाती हैं। इस गीत में व्यंग्य भी निहित है, जिस तरह का घोर मार्मिक व्यंग्य अवध के दूसरे अन्य गीतों में भी रचा बसा है, भले ही वह राम जन्म का गीत ही क्यों न होμ आप में से अधिकांश को छापक पेड़ छिउलिया ता पतवन गहबर हो याद होगा। 344 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 नागार्जुन की इस व्यंग्य कविता के संदर्भ में वही वाचिक कविता वाली परिपाटी निभती मिलती है कि यहां कवि, उस गीतकार की ही तरह अपने संप्रेषण के लिये लोकगीतों की बनाई हुई बेहद रूढ़ लीक पर खड़ा हुआ है। सीता के भूमिगत होकर, सूपर्णखा की मैत्राी के व्यंग्य से उठा हुआ कविता का आरंभ शबरी के विस्मरण के साथ अपने अंत तक पहुंचता है। गीत की शक्ल में बंधी हुई यह कविता भले ही ताल या मात्रा के लिहाज़ से कवि द्वारा अभीष्ट न रही हो, मगर इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि वाचिक कविता की लय का असर इस कविता पर नहीं है। यह तब और भी अधिक प्रासंगिक हो उठता है, जब हम इसे बाबा नागार्जुन की क़लम से उपजा हुआ पाते हैं। यह सर्वविदित ही है कि बाबा तरौनी गांव से संबद्ध थे, जो दरभंगा, बिहार में पड़ता है। मिथिला के लोक-जीवन और लोकगीत की ठेठ बनक से उनका किशोर वय और जीवन ज़रूर प्रभावित हुआ है ऐसा हम सिंदूर तिलकित भाल जैसी उनकी मानक कविताओं से अलग इन ठेठ गीतों की शक्ल में घट रही कविताओं से भी अंदाज़ सकते हैं। वाचिक और लोक कविता की जो आंतरिक लय और जनपदीय बसाहट होती है, वह इस तरह की कविताओं में भी पूरी लय-समृद्धि से उजागर होने पाई है। भूले स्वाद बेर के के साथ-साथ हम जेठ मास, हरे-हरे नये-नये पात, मेघ बजे, शिशिर की सीमंतनी का, उषा की लाली, हेमंती बादल हैं आदि कविताओं को भी याद कर सकते हैं। इन दा े विश्लेि षत कविताआ ंे स े अलग बिल्कलु निराल े ढगं स े लिखी र्हइु माखनी कमान को कविता भी यहां रेखांकित करना चाहूंगा। उसका पाठ यहां प्रस्तुत हैμ थम थम थम थम थाऽऽम! छम छम छम छम छाऽऽम! ये क्या हुआ है आसमान को ये क्या हुआ है चांद के माखनी कमान को? फिफ् फिफ् फिफ् फी ी ी ी पु प् पु प् पू ू ू ू लल् लल् लल् ला ये कौन लगा गया धुन मे े े े रे े े े माऽऽऽन को ये क्या हुआ है आस्माऽऽऽन को? ये क्या हुआ है चांद केऽऽऽ माखनी कमाऽऽऽन को? थम थम थम थम थाऽऽऽम छम छम छम छम छाऽऽऽम एक बार फिर से यह कविता पढ़ने पर क्या आपको नयी नहीं लगी? 1977 में लिखे जाने के लगभग पच्चीस साल बाद आज फिर से क्या यह कविता अपने विन्यास में अनूठी और संगीतपरक नहीं लगती? क्या आपको इसे पढ़कर सहसा निराला की कविता ताक् कमसिन वारि की याद नहीं आती? क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि हम इस कविता को संगीत की स्वरलिपि या नोटेशन की तरह भी पढ़ सकते हैं? क्या कोई पखावज या तबले का वादक अथवा कथक में परन पढ़ने वाली नर्तकी इस कविता के प्रेम में नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 345 पड़ने से बच सकते हैं? क्या हम सिर्फ़ यह मान सकते हैं कि यह नागार्जुन द्वारा की हुई बस यूं ही मन की मौज है या फिर वह एक अधीत रसिक का भाषा में किया हुआ राग और ताल के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन है? ऊपर जितनी भी बातें एकबारगी मेरे मन में प्रश्न या संशय की तरह आईं, आपसे भी मैंने साझा कर लिया। मगर क्या इस कविता को पढ़ते समय वाक़ई इस तरह की किसी बात से आप टकराए या नहींμ रुककर धैर्यपूर्वक सोचना चाहिए। इस कविता में शब्दों की और कई बार अक्षरों की टकराहट से पैदा हुई अनुगूंज को वैसे ही अनसुना या ख़ारिज़ नहीं किया जा सकता। जिन अक्षरों के निराले विन्यास में यह कविता अपने आशय के अतिरिक्त ध्वनियों का एक सुंदर संपुंजन पैदा कर रही हैμ क्या वह संगीत की दुनिया में तानों की अपनी अमूर्त चपलता और सरगम व आलापचारी की बेहद गूढ़ लयकारी से उत्पन्न ध्वनि एवं अर्थों की परंपरा के नज़दीक नहीं लगता? क्या यह संभव होता हुआ नहीं जान पड़ता कि एक कविता अपने विन्यास में तानों की भीड़ भरी सरगम से उपजी ध्वनि की एक सुंदर कविता भी हो सकती है या कुछ इस तरह कहें कि आलाप, बोल, परन, तान, पलटे और मुरकियों से पैदा होने वाला स्वर और शब्द संधान भी संगीत के व्याकरण की कविताई है? क्या यह संभव नहीं कि हम नागार्जुन के माखनी कमान को उसी तरह गा सकें, जिस तरह विलंबित और द्रुत लय की बंदिशों में सरगम और तानों के विराट् संसार को गाते हैं। क्या यह उसी तरह संभव नहीं कि बोलों, तानों और मात्राओं के प्रति अपनी जवाबदेही और संगीत के प्रति अनन्य राग रखने वाले निराला ताक कमसिन वारि जैसी रचना लिखना ज़रूरी समझते हैं। क्या यह भी संभव है कि कभी किसी नर्तकी के कथक जैसे नृत्य में अमूर्त ढंग से रचे गये परन को कविता की शब्दावली दी जा सके? दरअसल संभावनाएं अपार हैं और उनको नबेरने की सैकड़ों कोशिशें भी बेहद मामूली। जब हम संगीत के व्याकरण की बात करते हैं, तब उसमें संत, निर्गुणिए, कवि एवं वाग्गेयकार की उपस्थिति भाषा का अमूर्तन और संगीत का शब्दचित्रा रचती है। उसी तरह शब्दों और भाषाओं की दुनिया में घटने वाली तमाम सारी जटिल लयकारी भाषा में उसका आभार ज्ञापन मात्रा बनते हैं, कोई व्याकरण या शास्त्रा नहीं रच रहे होते। यह स्थिति तब और भी अधिक जटिल हो जाती है, जब हमें परंपरा में खुसरों से लेकर कबीर और निराला से लेकर नागार्जुन जैसे मूर्धन्य हासिल होते हैं। संगीत के संस्कार और प्रेम को लेकर आगे बढ़ने वाले इन कवियों ने न जाने कितनी अर्थ आभाएं और प्रतिध्वनियां अपनी शब्द संपदा में पिरो दी हैं, कह पाना मुश्किल है। बस हम जब-तब उन्हें पढ़ते और सहलाते हैं, तब उनमें मौजूद आशयों से अलग वे परंपराएं भी अंतर्ध्वनियों की तरह स्वतः ही बाहर सतह पर आ जाती हैं, जो अनायास ही वहां पहुंच गयी थीं। तब यह जानना ख़ासा दिलचस्प मामला बन जाता है कि हम नागार्जुन को पढ़ते हुए ठुमरी के सम्मोहन में चले जायें या कि केदारनाथ अग्रवाल की कविता को उठाते समय लोक संगीत की नदी में स्नान करने लगें। जब अपनी जन्मशताब्दी पर नागार्जुन कजरी, ठुमरी, तानों, सरगमों और आलापचारी के साथ याद आते हैं, तो उसी समय उनके समवयसी कवि मित्रा केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन भी अपने शब्दों और स्वरों के साथ हमसे गले मिलते दिखायी पड़ते हैं। ऐसे मूर्धन्यों का भी हमें पा लागन करते रहना चाहिए, जो अपनी सारी जनतांत्रिक ऊष्मा के साथ अपनी सबसे अमर काव्य पंक्तियों में संगीत का एक नया और सलोना व्याकरण रच रहे होते हैं। नागार्जुन के पुण्यस्मरण के साथ इन सगोत्राी मित्रा कवियों का पुण्यस्मरण भी, इस जन्म शताब्दी वर्ष 346 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 में प्रासंगिक है। तीनों ही एक परंपरा, एक छतरी और एक घराने से निकलकर आते हुए दिखायी पड़ते हैं। ऐसे में बाबा की देखना ओ गंगा मईया, त्रिलोचन के सॉनेट एवं केदारनाथ अग्रवाल का वह चिर-परिचित गीत मांझी न बजाओ वंशी मेरा मन डोलता याद दिलाने की ज़रूरत है? क्या कविता में ठुमरी और कजरी तथा कजरी और ठुमरी में कविता की बनक याद करा पाना यहां प्रीतिकर नहीं? मो.: 09415047710