कविता के भीतर की स्त्री / स्मृति शुक्ला

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विवेक चतुर्वेदी हिन्दी के ऐसे समर्थ कवि है जिन्होंने अपने पहले कविता संग्रह 'स्त्रियाँ घर लौटती हैं' से हिन्दी कविता में अपनी विशिष्ट पहचान बना ली है (दरअसल विवेक चतुर्वेदी ने 'मनकही' शीर्षक से इस संग्रह की भूमिका में अपनी कविताओं की भावभूमि के विषय में स्वयं ही काफ़ी स्पष्ट राय दे दी है) यह संग्रह उन्होंने जितने संकोच और सहम के साथ हिन्दी के पाठकों के सम्मुख रखा, अपनी भावगत सम्वेदना और अभिव्यक्ति का सामर्थ्य के कारण उतना ही लोकप्रिय हुआ। उन्होंने लिखा है कि-"इस संग्रह की कुछ कविताओं में कामकाजी स्त्री के घर लौटने की कथा है, घर से यदा-कदा ही बाहर जाने वाली स्त्री की कथा है, प्रेम में खो रही स्त्री की कथा है, अपनी उपस्थिति से ही मृदुल संसार रचती हुई या संघर्ष करती स्त्री की कथा है, वंचित, व्यथित पुरुष द्वारा नितांत देह की तरह बरती गई और पीड़ित स्त्री की व्यथा है और साथ ही साथ पुरुष की कथा भी है इसमें स्त्री के प्रेम से उदात्त हुए वे पुरुष भी हैं जो खल है पर स्त्री मन के रहस्य में पैठ पाते हैं।" अर्थात 'स्त्रियाँ घर लौटती है' संग्रह काफ़ी बड़ा हिस्सा स्त्री-जीवन की कथा-व्यथा और संवेदन से बुना हुआ है। कवि ने परंपरागत पुरुष के दृष्टिकोण से बिल्कुल हटकर एक स्त्री के कोमल और संवेदनशील हृदय में पैठकर या कहें कि स्वयं उस कोमल और संवेदनाओं से आपूरित मनोभूमि में गहरे उतरकर अर्थात अपना मानसिक रूपांतरण करके नारी की वेदना, उसके प्रेम, उसके ममत्व, उसकी आकांक्षा, उसके अन्तर्द्वंद और उसकी पीड़ा को वाणी दी है। विवेक चतुर्वेदी स्त्री के कोमल मन के साथ स्त्री के प्रखर व्यक्तित्व को भी अपनी कविताओं में उभारते हैं। संग्रह की पहली कविता 'स्त्रियाँ घर लौटती हैं' में कवि ने उन कामकाजी स्त्रियों के घर लौटने को जो मूलतः माँ, पत्नी या बेटी हैं घर उनकी प्राथमिकता है लेकिन आर्थिक दबावों के चलते जो कामकाजी बन गई हैं उन्हें पश्चिम के आकाश में आकुल वेग से उड़ती हुई काली चिड़ियों की पाँत से उपमित किया है। फिर स्त्री और पुरुष के घर लौटने के अंतर को रेखांकित करते हुए लिखा है कि पुरुष तो सिर्फ़ बैठक, गुसलखाने और नींद के कमरे में लौटते हैं लेकिन स्त्री एक साथ पूरे घर में लौटती है वह एक साथ आँगन से चौके तक लौटती है। स्त्री बच्चे की भूख में रोटी बनकर लौटती है वह केवल पारिवारिक सदस्यों में ही नहीं लौटती बल्कि घर के प्रत्येक कोने में पेड़-पौधों में, तुलसी और कनेर तक में लौट आती है-

स्त्री है जो प्रायः स्त्री की तरह नहीं लौटती पत्नी, बहन, माँ या बेटी की तरह लौटती है। स्त्री है ...जो बस रात की नींद में नहीं लौट सकती उसे सुबह की चिंताओं में भी लौटना होता है।

स्त्री, चिड़िया—सी लौटती है

और थोड़ी मिट्टी

रोज पंजों में भर लाती है

और छोड़ देती है आँगन में

घर भी एक बच्चा है स्त्री के लिये

जो रोज़ थोड़ा और बड़ा होता है।

स्त्री के स्नेह और संवेगों की ऐसी सघन मार्मिक और मौलिक अभिव्यक्ति हिन्दी कविता में विरल है। एक स्त्री किसी घर की संरचना के लिये और उस घर को घर बने रहने के लिये परिवार के लिये और उन तमाम रिश्तों के लिये बेहद ज़रूरी है। विवेक चतुर्वेदी महसूस करते हैं कि-

दरअसल एक स्त्री का घर लौटना

महज स्त्री का घर लौटना नहीं है

धरती का अपनी धुरी पर लौटना है।

'स्त्रियाँ घर लौटती हैं' संग्रह की छप्पन कविताओं में स्त्री के विविध रूप हैं। माँ, पत्नी, प्रेमिका, बेटी के इन रूपों में स्त्री की भावनाओं और सम्मान में स्थापत्य को पूरी गरिमा के साथ प्रतिष्ठित किया गया है। इन कविताओं में स्त्री का हृदयगत सौन्दर्य प्रस्फुटित हुआ है। कवि को बरसों पहले आँगन में बैठी माँ याद आती है जो सिन्दूरी आम की फाँकें काटकर बच्चों को बाँट रही है। कवि माँ की उस छवि को स्मृत करते हुए कहता है-

उस सिन्दूरी आम की फाँक

आज की रात चाँद हो गई है

पर अब माँ नहीं है

वो चाँद में बहुत दूर

स्याह रेखा—सी दिखाई पड़ती है।

माँ चाँद के आँगन में बैठी है

अब वह दुनिया भर के बच्चों के लिये

आम की फाँक काट रही है।

अभिव्यक्ति की सादगी विवेक चतुर्वेदी की कविताओं की खासियत है। इन कविताओं में स्मृतियों के साथ एक निपट उदासी भी लिपटी है जो उन्हें अपने बाबूजी के जीवन संघर्ष और खेलों में अथक परिश्रम करते किसानों और मजदूरों तक ले जाती हैं। उनकी कविता मनुष्य के मूलराग जीवनराग की कविता है जिसमें स्मृतियों के असंख्य रूप छिपे हुए हैं। कवि आज जब स्वयं पिता है तब उसे बर्फीले तूफानों में हिमालय की तरह खड़े पिता का पिता होना बहुत याद आता है-

कैसे दीप्त हो जाते थे तुम पिता!

जब सुबह होती दोपहर जब कहीं सुदूर किसी

नदी को छूकर गीली हवाएँ आती

तुम झरनों से बह जाते

पर शाम जब तुम्हारी चोटियों के पार सूरज डूबता

तब तुम्हें क्या हो जाता था पिता!

तुम क्यों आँखों की कोरे छिपाते थे

यह कविता पिता के जीवन संघर्ष और उनके अन्तर्तम के दुख और गहरी उदासी को सामने लाती है। दरअसल विवेक चतुर्वेदी की कविताओं में राग चित्रों की तरल संवेदना है, जीवन और मूल्यों के पक्षों में खड़े होने का तकाजा है। कविताओं का लौकिक राग पाठक को आकर्षित करता है और यही उदात्त की ओर बढ़ने में सहायता भी करता है। 'पिता' पर इस संग्रह में और भी कविताएँ हैं। 'पिता की याद' शीर्षक कविता पिता की संवेदनशीलता, पत्नी और बच्चों के प्रति उनके अगाध स्नेह की स्मृतियों की कविता है। इस कविता में पिता भूखे होने पर भी आखिरी रोटी जानबूझकर छोड़ देते थे। अपनी पत्नी को कभी दिखावे वाला प्रेम नहीं किया लेकिन माँ के जागने से पहले कुँए से पानी भर लाते थे, आँगन बुहार देते थे और प्रेम की लाल मुरम बिछाकर क्यारियों में अम्मा की पसंद के फूल उगाते थे। कवि ने भी संवेदना और प्रेम पिता से ही पाया है-

पिता निपट प्रेम जीते रहे

बरसों बरस, पिता को जान ही

हमें मालूम हुआ कि प्रेम ही है

परम मुक्ति का घोष

और यह अनायास उगता है

मुँडेर पर पीपल की तरह॥

विवेक चतुर्वेदी के पास वह ताकत है कि वे परंपरागत छबियों और रूढ़ प्रतीकों को तोड़ सकते हैं या व्यक्तित्व के परंपरागत ज्ञात पहलुओं को उलट सकते हैं। उनकी रावण कविता में क्रूर कहे जाने वाले रावण के मन की सुन्दर और स्त्री मन के कोमल संवेदन को समझने की क्षमता की अतिव्याप्ति कविता को अर्थवान बनाती है। रावण जो छल से एक स्त्री को चुरा लाया था लेकिन यह जानता था कि छल-बल से किसी स्त्री के मन को वश में नहीं किया जा सकता। कवि का मानना है कि वह हमसे अधिक एक स्त्री देह के राग को समझता था। कवि रावण कविता में कहता है-

सुनो! इस सदी में कितने-कितने पुरुषों ने

देखी है लाल मुरम बिछने की राह

तुम इस स्त्री के बन्द दुर्ग में

प्रवेश कर गये

तुमने खटखटाकर देखी न राह

अब तुम साभिमान रहते हो इस दुर्ग में

जिसके द्वारा शिलाओं से बन्द है

तुमको पता नहीं, तुम दुर्ग की दीवारों

और देहरी पर रहते हो

कल दशहरे की रात

आग और धुएँ के बीच, इन षताब्दियों में

रावण पहली बार मेरे साथ बैठा

तब उसके कंधे पर रख हाथ

जानी मैंने स्त्री संवेदना

राम की शताब्दियों... मुझे क्षमा करना।

इस तरह विवेक चतुर्वेदी खल पात्र रावण में भी कुछ अच्छाई ढूँढ़ लेते हैं और इसके समावेश से कविता अर्थ सघनता प्राप्त कर लेती है। विवेक चतुर्वेदी के पास लोक से प्राप्त शब्दों की शक्ति है जिससे वे साधारण दृश्यों और वस्तुओं में असाधारणता भर देते हैं। उनमें यह सामर्थ्य है कि वे परिष्कृत नागर चेतना को भी लोकजीवन के सौन्दर्य में डुबकी लगवा देते हैं। उनके पास स्मृति और कल्पना है जिनके कारण वे कविता में राग-संसार को मूर्त करने में सफल हो पाते हैं।

विवेक चतुर्वेदी की कविताएँ पाठक से एक आत्मीय संवाद करती हैं।

उनकी एक लम्बी कविता 'मेरे बचपन की जेल' बालमनोविज्ञान की परतों को खोलने वाली बेहद मार्मिक कविता है। अनेक कल्पनाशील और सृजनशील बच्चों को स्कूल जाना जेल जाने के समान लगता है। हमारी उम्र के भी अनेक पाठकों ने अपने बचपन में इस स्कूल नाम की जेल की अनुभूति की होगी।

इस कविता में कवि शिक्षकों को जेलर कहकर सम्बोधित करता है और क्लास रूम को बैरक कहा गया हैं। जहाँ इन बैरकों में बच्चों को बंद करके बेखुर्द विज्ञान, बेबूझ गणित पढ़ाया जाता था-

काले धूसर तख्ते पर हमें दिखाए जाते ज्यामितीय आकार

उन त्रिभुजों के कोने हमारी चेतना में धँस जाते।

वो चाहते थे हम बने, याद रखने की उम्दा मशीनें

हमारे पाठ में कुछ कविताएँ भी थी, कुछ कहानियाँ भी

जो उन जेलरों के हाथ पड़कर नीरस हो जाती।

बैरक की अधखुली खिड़की से मैं देखा करता हवा में गोता लगाते डोम कौए

बैरक के छप्पर में आजाद फिरते चमगादड़,

रोज शाम मैं पैरोल पर छूटता था और मुहल्ले की धूल भरी सड़कों पर

खेलने में भूल जाता था कि मैं कैदी हूँ।

यह लम्बी कविता हमारी शिक्षा व्यवस्था को प्रश्नांकित करती है। कवि ने लिखा है कि कई वर्ष उस जेल में पढ़ लिखकर जब मैं बाहर निकला तो मेरा बाह्य और आभ्यांतर रूपांतरित हो चुका था। अब एक अदृष्य टाई मेरे गले और होंठो पर एक प्लास्टिक की नकली मुस्कुराहट मेरे होंठों पर थी अब, मैं एक छँटा हुआ शरीफ़ आदमी था-

अब मैं आसानी से चूस सकता था किसी का खून।

चालाकियों के परखनली के रसायन को

पढ़ना मैं ख़ूब जान चुका था

यहाँ तक कि वह खतरनाक रसायन बनाना भी मैं सीख चुका था

जो-जो मैं भगवान के घर सीखकर आया था वह सब

भुलाया गया उस जेल में

सभी नदियाँ वहाँ सुखाई गयीं

सभी पक्षी चुप कराये गये सभी पहाड़ बौने किये गये

मेरे भीतर जो भी मुलायम था

वो सब खुरदुरा किया गया।

आज की शिक्षा विद्यार्थियों को कुषल डाॅक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक और प्रशासनिक अधिकारी बनाने में तो समर्थ है लेकिन एक अच्छा और संवेदनशील इंसान बनाने में असफल है। स्वयं के जीवनानुभवों से रची इस कविता में निहित कवि के मर्म को समझना आवश्यक है। विवेक चतुर्वेदी की काव्यानुभूति बहुत सूक्ष्म और संष्लिश्ट है वे बेहद संकोची और संवेदनशील कवि हैं कविता को उन्होंने अपनी पहचान का माध्यम नहीं बनाया वरन कविता उनकी बेचैनियों, स्मृतियों, अनुभूतियों, प्रेमिल संवेदनाओ, कल्पनाओं और सामाजिक विडम्बनाओं से उत्पन्न क्षोभ के प्रकटीकरण का माध्यम है।

उनकी अनेक कविताएँ जैसे- 'टाइपिस्ट' , 'पेंसिल की तरह बरती गई घरेलू स्त्रियाँ' , 'स्त्री विमर्श' , 'शो रूम में काम करने वाली लड़की' और 'गोधूलि' , पढ़कर लगता है कि विवेक चतुर्वेदी की संवेदना किसी स्त्री के मन की अनेक गहरी सीढ़ियों में उतरकर उस तल तक पहुँचने का सामर्थ्य रखती है जिस तक शायद कोई दूसरी स्त्री भी न पहुँच पाए। कहीं वे स्त्री की उस नैसर्गिक कामना को व्यक्त करते हैं जहाँ लड़की घर जाना चाहती है, घर बसाना चाहती है। उनका नज़रिया ग़ौर करने लायक है-

शो रूम में काम करने वाली लड़की

नहीं चाहती शो रूम आना

वो घर जाना चाहती है।

सुनो! इस सदी में स्त्री को

जबरिया काम पर भेजने वाले

स्त्री के मुक्तिकामी विमर्शकारों

अपना कोलाहल बन्द करो

ये लड़की क्यों, घर जाना चाहती है।

उनकी कविता 'भोर... होने को है' पढ़ना एक ताज़ा सुखद अहसास की भाँति है। एक उनींदी रात में अपनी बिटिया के ठंडे पैरों को अपने हाथों में रखकर उष्म करते हुए कवि की जीवन ऊर्जा इतनी विराट हो जाती है जहाँ वह ऐसी पृथ्वी की कल्पना करने लगता है जो हरी भरी है, जहाँ आदमी अमलतास के फूलों की तरह है, पृथ्वी पर न कोई मशीनें है न शस्त्र न भय न ग़रीबी न चंद्रमा पर जाने की महत्त्वाकांक्षाएँ। कवि को चिंता है दुनिया के लिए बहुत ज़रूरी और वाजिब चीजों को बचा लेने की। कवि उस आदिम आदमी को बचाना चाहता है जिसमें इंसानियत और मूल्य बचे हुए हैं। कवि आम के पेड़ की मृत्यु (कटने) पर अपने को अपराधी पाता है क्योंकि एक पेड़ के कटने से अनेक जीवों का बसेरा उजड़ गया है। कवि की एक कविता है 'रुदन' इस कविता में कवि उस प्रचलित मान्यता को ध्वस्त करता है, जिसमें रोना और खासतौर से पुरुषों का रोना कमजोरी की निशानी मानी जाती हे। दरअसल रो वही सकता है जो भावप्रवण है, जिसके पास संवेदनाओं की ताकत है और स्मृतियों की पूँजी है-

कितने दिन हुए मैं रोया नहीं हूँ

ऐसा झंझावाती रुदन

जिसमें हिल उठे पसलियाँ

काँप उठें हृदय के सारे गुझ्झर

जड़े धारासार हो...बरस पड़े

मैं कब रो सकूँगा।

विवेक चतुर्वेदी के पास जहाँ काव्य-संवेदना है अनुभूतियों से कविता रच देने की सामर्थ्य और विवेक है वहीं उनके पास एक निजी काव्य भाषा भी है जिसे उन्होंने लोक जीवन के शब्दों से समृद्ध किया है। इस सम्बंध में प्रख्यात कवि अरूण कमल ने लिखा है-"अपनी कविता में विवेक चतुर्वेदी भाषा और बोली-बानी के निरंतर चल रहे विराट प्रीतिभोज से गिरे हुए टुकड़े को उठाकर माथे पर लगाते हैं, उनकी कविता में बासमती के साथ सावाँ-कोदो भी हैं और यह साहस भी कि भाई सावाँ-कोदो भी तो अन्न है। वे बुन्देली के, अवधी के और लोक बोलियों के षब्द ज्यों के त्यों उठा रहे हैं। यहाँ पंक्ति की जगह पाँत है, मसहरी हैं, कबेलू है, बिरवा है, सितोलिया है, जीमना है। वे भाषा के नये स्वर बरत रहे हैं, रच रहे हैं। हालाँकि उन्हें अपनी निज भाषा खोजनी है।" इस निजी भाषा को खोजने में विवेक चतुर्वेदी काफ़ी हद तक सफल हुए है। उन्होंने निष्छल प्रेम के लिए लालमुरम का जो प्रतीक खोजा है वह हिन्दी कविता में एकदम नया है। ताले और चाभी को भी पुरुष और स्त्री के रूप में देखना और तालों का अपनी चाभी को पहचानना, मौसम की जीप पर चैत के नौजवान थानेदार का बैठना और धूप की बेंत फटकारना, अक्टूबर के कटोरे में रखी धूप की खीर पर ठंठ की बिल्ली का पंजा मारना, जैसे उपमान हिन्दी कविता में एकदम ताज़ा और मौलिक है।

विवेक चतुर्वेदी अपनी कविता में कम शब्दों में बहुत गंभीर गहरा कह देने की सामर्थ्य रखते हैं उन्होंने संस्कृति के ठेठ भारतीय रूप को प्रकट किया है। स्त्री विषयक कविताओं में गहरी करूणा के साथ स्त्री के प्रति सम्मान का भाव है और प्रेम की लाल मुरम है जो इस संग्रह की अनेक कविताओं में बिछी हुई है और वे पुकारना चाहते हैं लाल मुरम के रास्ते दूर जाती कविता के भीतर की स्त्री को ताकि उनकी अनुभूतियाँ जीवंत रह सकें। दरअसल 'स्त्रियाँ घर लौटती हैं' संग्रह के कविताओं को पढ़ना भीषण तपन में शीतल जल को पीने के सुखद अहसास की तरह हैं।

स्त्रियाँ घर लौटती हैं-विवेक चतुर्वेदी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2020, पृष्ठ–108, मूल्य-199

*लमही (जनवरी-जून 2021)