कविता के शिल्प में इतिहास की तामीर (अरुण आदित्य) / नागार्जुन
अरुण आदित्य का संस्मरण
कवि कविता लिखता है, या इतिहास? निश्चित ही वह कविता लिखता है, लेकिन अगर उसकी कविता इतिहास को दर्ज करने के दर्प या इतिहास में दर्ज होने की आकांक्षा से परे, ईमानदारी से अपने समय को दर्ज करती है, तो इतिहास अपने आप उसमें दर्ज होता जाता है। नागार्जुन की कविता इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
नागार्जुन एक कुशल जासूस की तरह अपने समय की गहन पड़ताल करते हैं और अपनी कविता को समय की गवाही देने के लिए शब्द और साहस देते हैं। अपने समय में सक्रिय-संघर्षरत उज्ज्वल-कज्जल शक्तियों की पहचान का विवेक, और तंत्रा के बजाय जन के पक्ष में खुलकर खड़े होने का साहस नागार्जुन को एक समय-सजग राजनीतिक कवि बनाता है। उनकी काव्याकांक्षा कालजयी नहीं बल्कि दुष्कालजयी कविता लिखना है। यह अलग बात है कि यही दुष्कालजयी कविता अंततः समय का अतिक्रमण करके कालजयी साबित होती है।
नागार्जुन की कविताओं का सावधानी से कालानुक्रमिक अध्ययन करें तो भारत के सामाजिक-राजनीतिक इतिहास का एक सधा हुआ पाठ मिल सकता है। उनकी सभी कविताओं को इकट्ठा कर दिया जाये तो एक अनूठा महाकाव्य बन जाता है, जिसका नायक शोषित-पीड़ित-संघर्षरत जनगण है और प्रतिनायक उसके अपने ही चुने ुए भाग्यविधाता हैं। इस महागाथा का नायक तो अंत तक जगण ही रहता है, लेकिन प्रतिनायक थोड़े थोड़े अंतराल पर बदल जाते हैं। समग्रता मे देखें तो नागार्जुन की सारी कविताई दरअसल इस काव्य नायक के सुख-दुख-संघर्ष के गायन और प्र तनायकों के कपाल पर तबला वादन की जुगलबंदी है। इस जुगलबंदी के लिए शायर जैसे जज़्बात और जंगजू जैसे जुनून की ज़रूरत पड़ती है। जज़्बात और जुनून की यही अनूठी जुगलबंदी उन्हें अपने अनेक समकालीन ही नहीं, पूर्ववर्ती और परवर्ती कवियों से भी अलग करती है।
कवि प्रदीप जैसे रचनाकार जब ‘साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’ लिख रहे थे तो नागार्जुन की घुच्ची आंखें गांधी जी के चेलों की लीला को देख रही थीं:
सेठों का हित साध रहे हैं तीनों बंदर बापू के
युग पर प्रवचन लाद रहे हैं तीनों बंदर बापू के
पूंजी की चाकरी में लगी राजनीति को नागार्जुन कितनी स्पष्टता से देख रहे थे! बाबा की इन पंक्तियों के आलोक में आज के 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले को देखिए। तात्कालिक सरोकार की यह कविता कालजयी लगने लगती है।
देश पर अधिकांश समय राज करने वाले नेहरू-गांधी परिवार के तीसरे प्रधानमंत्राी राजीव गांधी को अस्सी के दशक में जाकर यह रहस्य पता चल पाया कि केंद्र से अगर एक रुपया भेजा जाता है तो आम आदमी तक उसमें से सिर्फ़ 15 पैसे ही पहुंचते हैं। आजकल उनके पुत्रा राहुल गांधी भी इसी तरह की बात कह रहे हैं। राजीव गांधी ने अगर 1958 में लिखी बाबा की कविता
‘नया तरीक़ा अपनाया है राधे ने इस साल’
पढ़ ली होती तो बहुत पहले समझ गये होते कि 85 पैसे कहां और कैसे चले जाते हैं। दो पदों की इस कविता के पहले पद में नागार्जुन कालाबाज़ारी के तंत्रा से परदा हटाते हैं:
दो हज़ार मन गेहूं आया दस गांवों के नाम
राधे चक्कर लगा काटने सुबह हो गयी शाम
सौदा पटा बड़ी मुश्किल से पिघले नेताराम
पूजा पाकर साध गये चुप्पी हाकिम हुक्क़ाम
भारत-सेवक जी को था अपनी सेवा से काम
खुला चोर बाज़ार, बढ़ा चूनी-चोकर का दाम।
इस पद में कालाबाज़ारी के उत्स और प्रक्रिया का खुलासा करने के बाद दूसरे पद में वे कालाबाज़ारी और राजनीति के नेक्सस को बहुत सहजता से समझाते हैं:
नया तरीक़ा अपनाया है राधे ने इस साल
बैलों वाले पोस्टर साटे, चमक उठी दीवाल
नीचे से ऊपर तक समझ गया सब हाल
सरकारी गल्ला चुपके से भेज रहा नेपाल।
नागार्जुन की कविता किसी महाकाव्य की ही तरह अनेक संदर्भ और अंतर्कथाएं समेटे रहती है। दीवाल पर बैलों वाले पोस्टर चिपकाने और सरकारी गल्ला नेपाल भेजने के अंतर्संबंध को समझने से पहले यह जानना ज़रूरी है कि उस दौर में दो बैलों की जोड़ी कांग्रेस का चुनाव चिद्द थी। इस तरह बैलों वाले पोस्टर चिपकाना अपने को सत्ता से संबद्ध बताना था। वह नेहरू युग था। नियति से मुलाक़ात का युग। बैलों वाले पोस्टर चिपका कर भ्रष्ट ताक़तें अपनी नियति को सत्ता की नियति से संबद्ध कर रही थीं। पर यह तो शुरुआत मात्रा थी। अभी तो भारत भूमि को और बहुत कुछ देखना बाक़ी था। नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्राी प्रधानमंत्राी बने। जनगण को नये भाग्य विधाता से नयी उम्मीद बंधी, पर नागार्जुन उनके रूप में भी अपनी जनगाथा का एक और प्रतिनायक ही देख रहे थे। देख रहे थे कि इस नये भाग्य विधाता के राज में महंगाई और अन्न संकट ने किस तरह जनता की कमर तोड़ दी है। ‘भारत-भूमि पर प्रजातंत्रा का बुरा हाल है’ शीर्षक कविता में वे लाल बहादुर शास्त्राी युग के बारे में लिखते हैं:
जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊं
जनकवि हूं मैं साफ़ कहूंगा, क्यों हकलाऊं
नेहरू को तो मरे हुए सौ साल हो गये
अब जो हैं वे शासन के जंजाल हो गये।
आज़ादी के बाद देश ने जो सपने देखे, उनमें एक यह भी था कि हमारा नवजात लोकतंत्रा धीरे धीरे हृष्टपुष्ट होता जायेगा, लेकिन जिन पर उसकी परवरिश की ज़िम्मेदारी थी, वे उसके पैरों में पता नहीं कौन से मिलावटी तेल की मालिश कर रहे थे कि उसकी टांगों की हड्डियां लगातार कमज़ोर होती जा रही थीं।
बीस-बाईस साल का होने पर जब उससे तेज़ दौड़ लगाने की उम्मीद की जा रही थी, तो सामान्य गति से चलते हुए भी उसके पांव लडखड़ाने लगे। वह जैसे-जैसे कमज़ोर हो रहा था, सत्ता निरंकुश होती जा रही थी। निरंकुशता एक ऐसी प्रवृत्ति है जो हल्के विरोध से और बढ़ती है, क्योंकि कमज़ोर प्रतिरोध उसके प्रतिरक्षा-तंत्रा (इम्यून सिस्टम) को और मज़बूत करता रहता है। बाबा नागार्जुन इस तथ्य से वाकिफ़ थे, इसीलिए वे दबी ढंकी आवाज़ में प्रतिरोध करने के बजाय सीधे सीधे विद्रोह का बिगुल बजा देते हैं। 1966 में लिखी कविता ‘शासन की बंदूक’ में उनके तेवर देखिए:
खड़ी हो गयी चांपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट सी शासन की बंदूक
उस हिटलरी गुमान पर सभी रहे हैं थूक
जिसमें कानी हो गयी शासन की बंदूक।
नागार्जुन शासन की इस बंदूक की सिर्फ़ लानत-मलामत करके नहीं रह जाते। इस विपुल विराट हिंस्र राजसत्ता के ख़ौफ़ से बेख़ौफ़, उसे लगभग चिढ़ाते हुए बाबा बिल्कुल साफ़ शब्दों में उसकी पराजय का घोष भी करते हैं:
जली ठूंठ पर बैठ कर गयी कोकिला कूक
बाल न बांका कर सकी शासन की बंदूक।
1973 में बंग-विजय के बाद इंदिरा गांधी का आत्मविश्वास चरम पर था। उन्हें दुर्गा, सिंहिनी जैसे विशेषणों से नवाज़ा जा रहा था। उसी दौर में जब सत्ता ने अपने विरोधियों का हिंसक दमन करना शुरू किया तो बाबा के तेवर भी कड़े हो गये। 1974 में लिखी अपनी कविता ‘बाघिन’ में नागार्जुन हिंस्र राजसत्ता के लिए बाघिन का बिंब चुनकर एक भयावह चित्रा खींचते हैं:
लंबी जिह्वा मदमाते दृग झपक रहे हैं
बूंद लहू के उन जबड़ों से टपक रहे हैं
चबा चुकी है ताजे शिशु मुंडों को गिन-गिन
गुर्राती है, टीले पर बैठी है बाघिन।
बाबा बाहुबली नहीं हैं, फिर सत्ता-शक्ति को इस तरह ललकारने का बल उन्हें कहां से मिलता है? वस्तुतः यह नागार्जुन की काव्याकांक्षा और देश-काल की जनाकांक्षा के सम्मिलन से उपजी प्रेरणा-शक्ति थी, जो उनकी कविता को अभय-निर्भय स्वर दे रही थी। जनगण के जीवन-मरण-रण से प्राणतत्व हासिल करने वाली यह कविता बदले में जनगण को अपने अधिकार के लिए भाग्य-विधाताओं से लड़ने का साहस और जीतने का विश्वास प्रदान करती है। ‘बाघिन’ शीर्षक इसी कविता में बाबा खूनी राजसत्ता से भयाक्रांत जनता को यह विश्वास दिलाते हैं कि गणशक्ति के सामने दमनकारी सत्ताएं एक दिन अजायबघर की चीज़ बन कर रह जायेंगी:
इस बाघिन को रखेंगे हम चिड़ियाघर में
ऐसा जंतु मिलेगा भी क्या त्रिभुवन भर में।
ऐसी पंक्तियां लिखने के लिए कितने साहस की ज़रूरत रही होगी, इसका अंदाज़ा वही लगा सकता है जिसने 1974-75 के उस दौर को देखा हो। इंदिरा गांधी ने 1975 में देश में आपातकाल लगाया, लेकिन नागा बाबा तो 1974 में ही भांप गये थे कि दिल्ली की सत्ता के क़दम किस ओर बढ़ रहे हैं। लंगड़ी लोकशाही से तानाशाही की तरफ़ बढ़ते घोड़े की टाप को वे बहुत साफ़-साफ़ सुन रहे थे।
‘इंदु जी, इंदु जी, क्या हुआ आपको’ शीर्षक कविता में वे बचपन का नाम लेकर इंदिरा गांधी को चेतावनी देते हैं:
रानी महारानी आप
नवाबों की नानी आप
नफ़ाखोर सेठों की अपनी सगी माई आप
काले बाज़ार की कीचड़ आप, काई आप
सुन रहीं गिन रहीं
गिन रहीं सुन रहीं
सुन रहीं सुन रहीं
गिन रहीं गिन रहीं
हिटलर के घोड़े की एक-एक टाप को।
और 1975 में भारत-भूमि पर वह काला दिन भी आया जब आपातकाल लगाकर लोकतंत्रा को बंधक बना लिया गया। अख़बारों पर सेंसरशिप लागू हो गयी, विरोधी जुबानों पर ताले लटका दिये गये। जनकवि की ाणी को भी बंधक बनाने की कोशिश की गयी, पर बाबा की बुलंद आवाज़ से सत्ता की फौलादी ं़जी ें मकड़ी के जाले की तरह उड़ गयीं। उस काले दौर में इंदिरा गांधी द्वारा लोकतंत्रा और संवि ाान का अपहरण कर लेने के खि़लाफ़ बाबा की कविता चीख़-चीख़ कर कहती है: इसके लेखे संसद फंसद सब फ़िज़ूल है इसके लेखे संविधान काग़ज़ी फूल है। इस कविता के अंत में उन्हें हिटलर की नान और बाघों की रानी जैसी उपमाओं से विभूषित करके नागार्जुन सत्ता के अधिनायकवादी और हिंस्र स्वरूप का चित्राण करते हैं। उस समय इंदिरा गांधी का प्रशस्ति गान कर रहे चारणों को चिढ़ाने क लिए नागार्जुन चारणों की ही तरह ‘जय हो, जय हो’ वाली जयगान-शैली अपनाते हैं। इस तरह उनका व्यं य और मारक हो उठता है:
जय हो, जय हो,
हिटलर की नानी की जय हो।
जय हो, जय हो,
बाघों की
ानी की जय हो।
नागार्जुन ने अपने काव्य नायक यानी जनगण के लिए सिर्फ़ काग़ज़ी लड़ाई नहीं लड़ी। उसके शोषण उत्पीड़न के खि़लाफ़ लिए लड़ते हुए हुए बाबा जेल भी गये। इस बीच जन की गर्दन पर तंत्रा की जकड़न और मज़बूत होती जा रही थी, लेकिन क्रांति के प्रति नागार्जुन का विश्वास कभी नहीं डिगा। आपातकाल के इसी दुष्काल के बीच उन्हें नये युग की आहट भी सुनायी देने लगी थी। 1976 में लिखी उनकी कविता ‘चंदू मैंने सपना देखा’ में इस आहट को साफ़ सुना जा सकता है:
चंदू, मैंने सपना देखा, लाये हो तुम नया कैलेंडर।
फिर वह दिन भी आया जब लगा कि जनता ने लड़ाई जीत ली है। हालांकि बहुत जल्दी ही बाबा को भान हो गया कि लड़ाई जनता ने लड़ी थी, लेकिन जीत जनता की नहीं ‘जनता पार्टी’ की हुई थी। इस जीत के बाद 1977 में मोरारजी देसाई प्रधानमंत्राी बने तो जनकवि ने उन्हें भी सख़्त चेतावनी दे दी:
तुम पर बोझ न होगी जनता,
ख़ुद अपने दुख दैन्य हरेगी
हां, हां तुम बूढ़ी मशीन हो
जनता तुमको ठीक करेगी।
और जब क्रांति का वाहक बन कर आयी इस जनता पार्टी में सत्ता को लेकर मारकाट मची तो नागार्जुन ने उसे भी अपने जन के प्रतिनायकों में शुमार कर लिया। बाबा व्यथित थे कि इस क्रांति के हश्र ने जनगण के एक और सपने की हत्या कर दी है। आहत बाबा की क़लम खिचड़ी विप्लव कहकर इस पर भी तीखा प्रहार करती है:
खिचड़ी विप्लव देखा हमने
भोगा हमने क्रांति विलास
अब भी ख़त्म नहीं होगा क्या
पूर्ण क्रांति का भ्रांति विलास।
नागार्जुन की विशिष्टता इस बात में भी है कि जनता के सपनों की कसौटी पर वे भाग्य विधाताओं को ही नहीं, ख़ुद के आचार-विचार-व्यवहार को भी परखते हैं। और ख़ुद को पथभ्रष्ट होता देखते हैं तो अपनी भी लानत-मलामत करने से नहीं चूकते। 1975-77 के खिचड़ी विप्लव के बाद जनता का स्वप्नभंग होने पर बाबा इस क्रांति के भ्रांति-नायकों का साथ देने के लिए ख़ुद को भी कोसते हैं:
रहा उनके बीच मैं
था पतित मैं, नीच मैं
दूर जाकर गिरा, बेबस उड़ा पतझड़ मेंो
धंस गया आकंठ कीचड़ में, सड़ी लाशें मिलींो
उनके मघ्य लेटा रहा, आंखें मींच मैं।
जो लोग बाबा द्वारा इंदिरा गांधी और दूसरे प्रतिनायकों के बारे में तल्ख़ और अशिष्ट भाषा का प्रयोग करने की शिकायत करते हैं, उन्हें बाबा की इस कविता से समझ में आ जायेगा कि जो कवि ख़ुद को पतित और नीच कह सकता है, वह जनता से अशिष्टता करने वाले किसी भी व्यक्ति को माफ़ क्यों करेगा?
बाबा अपने अंतिम समय तक राजनीतिक रूप से सजग बने रहे। जन विकल्प की साहित्य वार्षिकी में छपी उनकी संभवतः अंतिम कविता भारतीय राजनीति में आये दलित उभार पर है। कांशीराम के नेतृत्व में दलित उभार ने किस तरह दिल्ली की सल्तनत को परेशान कर दिया था, उसकी एक झांकी 1997 में रचित बाबा की इस कविता की इन दो पंक्तियों में मिल जाती है:
जय जय हे दलितेंद्र
आपसे दहशत खाता केंद्र।
नागार्जुन ने भारत-चीन और भारत-पाक युद्धों के दौरान कम्युनिस्ट आंदोलन के अंतरराष्ट्रीय सरोकारों को दरकिनार कर ठेठ राष्ट्रवादी तेवर की कविताएं भी लिखीं। भारत-चीन युद्ध के परिप्रेक्ष्य में नागार्जुन एक कम्युनिस्ट भारतीय की तरह नहीं, बल्कि भारतीय कम्युनिस्ट की तरह व्यवहार करते हैं। बहुत सारे कम्युनिस्टों के प्रेरणा-पुरुष माओ के बारे में वे बेहिचक लिखते हैं:
यह माओ कौन है, बेगाना है यह माओ
आओ इसकी नफ़रत को थूकों से नहलाओ
बात सिर्फ़ नफ़रत करने तक ही सीमित नहीं रहती, बाबा अपने देश के इस दुश्मन के प्रति जन-जन को ललकारते हैं:
आओ इसके खूनी दांत उखाड़ दें।
आओ इसे ज़िंदा ही कब्र में गाड़ दें।
इसी तरह 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान वे भारतीय जवानों में ज़ोश जगाते हुए जनरल अयूब को ख़बरदार करते हैं:
झाड़ देंगे अय्यूब का हिटलरी गुमान
ख़बरदार दुश्मन , दुश्मन सावधान
ऐक्शन में आ गये हैं, लाख लाख जवान।
जनगण के प्रतिनायकों की पहचान के लिए नागार्जुन की कवि दृष्टि सिर्फ़ दिल्ली तक ही सीमित नहीं रहती है। देश के कोने कोने में वे प्रतिक्रांति की शक्तियों की पड़ताल करते हैं। नागपुर के बाला साहब देवरस से लेकर मुंबई के बाला साहब ठाकरे तक सभी साहब उनके काव्यास्त्रा की ज़द में हैं। 1978 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक देवरस के बारे में वे लिखते हैं:
देवरस दानवरस
पी लेगा मानवरस।
इसी तरह एक और हिंदू हृदय सम्राट बाल ठाकरे को बाबा बेख़ौफ़ होकर लोकतंत्रा का काल बताते हैं:
बाल ठाकरे, बाल ठाकरे
लोकतंत्रा का काल ठाकरे।
नागार्जुन की काव्य-दृष्टि में जड़ता नहीं है। वक़्त के साथ उसमें बदलाव भी आता है। नेहरू युग में वे नेहरू को प्रतिनायक मानते हैं, लेकिन नेहरू के परिदृश्य से हटते ही उन्हें कमोबेश उनका नायकत्व भी नज़र आने लगता है। लाल बहादुर शास्त्राी के कार्यकाल की बदहाली पर नेहरू की मौत के सौ-डेढ़ सौ दिनों के अंदर ही ‘नेहरू को तो मरे हुए सौ साल हो गये’ लिखना इस बात की तसदीक़ करता है कि बाबा की दृष्टि में नेहरू का कार्यकाल इससे बेहतर था। कम से कम शासन का जंजाल नहीं था। शास्त्राी के बाद इंदिरा युग का सामना करते हुए भी उन्हें नेहरू के संस्कारों की याद आती है।
‘तार दिया बेटे
को बोर दिया बाप को...।’
ऐसा लिखते हुए जैसे वे इस बात को स्वीकार कर रहे थे कि नेहरू की कोई महान विरासत थी, जिसे इंदिरा गांधी ने डुबो दिया।
ऐसा नहीं है कि बाबा की कविता प्रतिनायकों के प्रतिकार से ही भरी हुई है। जनगण के सच्चे नायकों को भी वे पूरे सम्मान से याद करते हैं। पर उन्हें याद करते हुए भी वे लगे हाथ किसी प्रतिनायक पर चाबुक फटकारने से नहीं चूकते। 1968 में मैक्सिम गोर्की की जन्मशती के अवसर पर वे सिर्फ़ गोर्की को याद नहीं करते, बल्कि वियतनाम के बहाने वे अमेरिका को आड़े हाथ लेते हैं और जनसंघर्ष में गोर्की के साहित्य की प्रासंगिकता को भी रेखांकित करते हैं:
गोर्की मख़ीम!
श्रमशील जागरूक जन के पक्षधर असीम
घुल चुकी है तुम्हारी आशीष
एशियाई माहौल में
दहक उठा है तभी तो इस तरह वियतनाम
अग्रज तुम्हारी सौंवी वर्षगांठ पर करता है
भारतीय जनकवि तुमको प्रणाम।
देश के बाहर की भी हर छोटी बड़ी घटना पर नागा बाबा की कवि-दृष्टि लगी रहती थी। दमन-उत्पीड़न की घटना कहीं भी हो, बाबा का कवि मन बेचैन हो जाता था। कोरिया पर अमेरिकी दबंगई के विरोध में वे लिखते हैं:
गली-गली में आग लगी है, घर-घर बना मसान
लील रहा कोरिया मुलुक को अमरीकी शैतान।
जूझ रहे किस बहादुरी से धरती के वे लाल
मुझे रात भर नींद न आती सुन सिऊल का हाल।
इसी तरह 1961 में महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय की भारत यात्रा के पहले उनके स्वागत को लेकर देश में जिस तरह ग़्ाुलाम मानसिकता का निर्लज्ज प्रदर्शन हो रहा था, उस पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने लिखा:
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी।
यही हुई है राय जवाहरलाल की।
रफू करेंगे फटे पुराने जाल की
यही हुई है राय जवाहर लाल की।
अपने समय का अतिक्रमण करने वाली यह कविता बाद में कई अवसरों पर बार-बार याद आयी। ख़ासकर सन् 2000 में बिल क्लिंटन, 2006 में जार्ज बुश और 2010 में बराक ओबामा की भारत-यात्रा के दौरान जिस तरह अतिउत्साह का माहौल दिख रहा था, उससे बार बार ये पंक्तियां याद आ रही थीं। कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान भी औपनिवेशिकता की पहचान क्वीन्स बैटन के प्रति बहुत से भारतीयों के निष्ठाभाव को देखते हुए बाबा की ये पंक्तियां प्रासंगिक लग रही थीं।
एक कवि की दृष्टि इतिहासकार से ज़्यादा दूर तक जाती है। वह इतिहास से पहले और वर्तमान के बाद को भी देख सकता है। 1969 में ‘मंत्रा कविता’ में वे लिखते हैं:
शेर के दांत, भालू के नाखून, मर्कट का फोता,
हमेशा हमेशा राज करेगा मेरा पोता
उस समय इंदिरा गांधी प्रधानमंत्राी थीं और उनके पौत्रा, आज के कांग्रेसी युवराज राहुल गांधी का तब जन्म भी नहीं हुआ था। पर आज के संदर्भ में नागा बाबा की वह भविष्यवाणी कितनी सटीक लगती है।
नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 से साभार
मो.: 09873413078