कविता भट्ट से साक्षात्कार / रश्मि विभा त्रिपाठी

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रुकती न कभी, थकती न कभी, तू है पहाड़ की नारी

[ख्यातिलब्ध लेखिका डॉ. कविता भट्ट (सम्प्रति सहायक आचार्य दर्शनशास्त्र विभाग, हे.न.ब. गढ़वाल केन्द्रीय विश्वविद्यालय, श्रीनगर, गढ़वाल, उत्तराखंड) भारतीय दर्शन में योग दर्शन की विशेषज्ञ, प्रखर व्याख्याता एवं शिक्षाविद् हैं। विरले ही होते हैं, जो अपने नाम को सार्थक कर पाते हैं, डॉ. कविता भट्ट उन्हीं में से एक हैं। उनकी आयु से लम्बा उनका परिचय है। उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व पर केन्द्रित उनका यह साक्षात्कार उन महिलाओं के लिए पथ प्रदर्शक बनेगा जो सामान्य सी परिस्थितियों में निराश होकर पथ से भटक जाती हैं या अपने को कमजोर मानकर अकर्मण्य हो जाती हैं या फिर अवसाद और असफलता को ही नियति समझकर जीवन से हार जाती हैं।]

प्रश्नः पहाड़ का नाम जब हमारे मस्तिष्क में आता है, तो सामने आती हैं- कठिनाइयाँ और चुनौतियाँ। आपका जन्म पहाड़ी क्षेत्र में हुआ। पहाड़ी महिला का संघर्षपूर्ण जीवन जीते हुए आपने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रतिमान स्थापित किए। पिछले लगभग 25 वर्षों से भारतीय दर्शन के विविध पक्षों जैसे- योगदर्शन और गीतादर्शन इत्यादि के साथ ही महिला सशक्तीकरण और हिन्दी साहित्य पर केंद्रित लेखन और योगदर्शन के प्रसार हेतु आप समर्पित हैं। इसके बारे में बताइए कि पहाड़ी जीवन की विकट परिस्थितियों के बीच में अनेक संघर्षों के साथ आप कैसे आगे बढ़ीं?

उत्तरः उक्ति है- भारतमाता ग्रामवासिनी अर्थात् भारतवर्ष की आत्मा गाँवों में निवास करती है। ये किसी न किसी रूप में हम सभी के जीवन पर चरितार्थ होती है। हम सभी की जड़ें गाँवों की माटी में ही हैं। टिहरी गढ़वाल में देवप्रयाग के पास एक छोटे से गाँव पौंसाड़ा में मेरा जन्म ग्रामीण परिवेश में हुआ। मेरे पिता श्री बाँकेलाल रतूड़ी संस्कृत और हिन्दी के अध्यापक और ज्योतिष शास्त्र के मर्मज्ञ थे। मेरी माँ श्रीमती शकुन्तला रतूड़ी गृहिणी रहीं, साथ ही उन्होंने जीवन का कुछ समय राजनीति को भी दिया। घर में भारतीय वाङ्मय, दर्शन एवं साहित्य का वातावरण था; चूँकि पिताजी के भाषागत ज्ञान के साथ ही मेरे दादा जी का ज्योतिष और भारतीय वाङ्मय का ज्ञान का पूरे परिवार को प्रभावित करने की सामर्थ्य रखता था। इसीलिए बाल्यकाल से ही मेरी साहित्य, भारतीय वाङ्मय और संस्कृति के प्रति रुचि थी। एक प्रकार से कहा जाए, तो ये सभी विधाएँ हमारे रक्त में थीं; किन्तु बाल्यकाल से ही मेरी विज्ञान में भी गहरी रुचि रही; इसीलिए मैं बारहवीं तक विज्ञानवर्ग की छात्रा रही। मेरा सपना था कि मैं एक अच्छी डॉक्टर या एडवोकेट बनूँ। मेरी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव से प्रारम्भ हुई। तदनन्तर कुछ समय पुराने टिहरी नगर में भी मैंने विद्यालयीय शिक्षा ग्रहण की। पिता की पदोन्नति के कारण हमें फिर से अपने गाँव लौटना पड़ा।

मैं अपने चार भाई बहिनों में सबसे बड़ी थी; इस कारण मुझे अनेक अन्य दायित्वों का निर्वाह करते हुए ही अपने अध्ययनरत रहने की चुनौती के मध्य संघर्षशील रहना पड़ा। पहाड़ी क्षेत्र में ग्रामीण परिवेश की विकट परिस्थितियों के बीच शिक्षा ग्रहण करना उस समय में कठिन था। जीवन की अलग-अलग अवस्थाओं में लैंगिक विभेद का सामना भी करना पड़ा। दूर-दूर से पानी-घास-लकड़ी ढोना, खेती और पशुपालन के कार्य करते हुए ही पढ़ाई की। बारहवीं कक्षा के उपरान्त कुछ पारिवारिक विपत्तियों के कारण आर्थिक स्थिति अत्यंत क्षीण हो गई । अतः बारहवीं के उपरान्त मुझे पाँच सौ रुपये की नौकरी करके तदुपरांत विद्या मंदिर में शिक्षिका के रूप में कार्य करके किसी प्रकार से अपनी फीस जुटाकर पढ़ाई को यथावत् रखने का संघर्ष करना पड़ा। छोटी आयु में ही विवाह हो गया; किन्तु मैंने फिर भी अपने अध्ययन को आगे बढ़ाया। इस प्रकार मैंने चार विषयों (दर्शनशास्त्र, योग, अंग्रेजी तथा सामाजिक कार्य) में स्नातकोत्तर, दो विषयों में यू.जी.सी. नेट क्वालिफाई किया और दर्शनशास्त्र में योगदर्शन विशेषज्ञ के रूप में पीएच.डी. की। उच्चशिक्षा में गुणवत्तापरक शोध के लिए मुझे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.), नई दिल्ली और भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली द्वारा पोस्ट डॉक्टरल फैलोशिप भी एवार्ड की गईं।

प्रश्नः अब तक आप 28 पुस्तकों, दर्जनों शोधपत्र, सैकड़ों महत्त्वपूर्ण आलेख और साहित्यिक रचनाओं का सृजन कर चुकी हैं। आपकी कई पुस्तकें विश्वविद्यालयीय पाठ्यक्रम में सम्मिलित की गई हैं। आपकी लेखन यात्रा की शुरुआत किस प्रकार हुई? क्या कोई विशेष प्रेरणा थी, जिसने आपको लेखन की ओर प्रेरित किया या यह जन्मजात गुण था, जो आपमें विद्यमान है।

उत्तरः कुछ तो यह नैसर्गिक गुण था और कुछ परिश्रम का फल तथा माँ वाग्देवी की विशेष अनुकम्पा। मैं पाँचवीं कक्षा से कविताएँ लिखती थी और विद्यालयीय पत्रिकाओं में प्रकाशित होने को भेजती थी। अपने लिए भाषण लिखना, आलेख तैयार करना, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं इत्यादि में प्रतिभाग करना मुझे बहुत अच्छा लगता था। इस प्रकार मुझे जब सराहना मिलती थी, तो अच्छा लगता था। मुझे आश्चर्य होता है; यह प्रेरणा ईश्वरीय थी; क्योंकि ग्रामीण परिवेश में वातावरण प्रतिस्पर्धा का नहीं था। साथ ही जैसा कि मैंने पहले ही बताया कि हमको पढ़ने-लिखने के अतिरिक्त खेती, पशुपालन, अनेक घरेलू कार्य और सिलाई-बुनाई इत्यादि से जुड़े कार्य भी करने होते थे। कई किलोमीटर पैदल पहाड़ी रास्तों को तय करके विद्यालय जाना भी इसमें सम्मिलित था। पहाड़ों की विकट स्थितियों में जनसामान्य की पीड़ा मुझे द्रवित करती थी। उस पीड़ा को मैं शब्दों में पिरोती थी। इसलिए मेरी बहुत सी रचनाओं में वही पीड़ा चित्रित की गई है। यत्र-तत्र डायरियों में पड़ी रचनाओं को एकत्र किया और मेरी कविताओं की पहली पुस्तक ट्रांसमीडिया पब्लिकेशन, श्रीनगर, उत्तराखण्ड द्वारा ‘आज ये मन’ शीर्षक से प्रकाशित की गई थी; जिसमें मेरे प्रारम्भिक समय की रचनाएँ संकलित हैं। ऐसे यह सुखद यात्रा प्रारम्भ हुई। शैक्षिक लेखन से जुड़ी प्रथम पुस्तक है- ‘घेरण्ड संहिता में षट्कर्म, योगाभ्यास और योग’ जो हठयोग पर आधारित पुस्तक है। यह सुखद आश्चर्य है कि अपने पीएच.डी. की उपाधि के उपरान्त मैंने घेरण्ड संहिता पर केन्द्रित एक पाण्डुलिपि का सार-संक्षेप मैंने चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान, दिल्ली को भेजा। ये भारतवर्ष के सबसे पुराने और सुप्रतिष्ठित प्रकाशकों में से एक हैं। मैं ग्रामीण परिवेश से उठकर आई एक सामान्य सी लड़की थी। मुझे लग रहा था कि पता नहीं मेरे लेखन को वे प्रकाशित करेंगे या नहीं। मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि पांडुलिपि का सारसंक्षेप भेजने के एक माह पश्चात् प्रकाशक का उत्तर टेलीफोन पर आया कि इसके लिए हम एक अच्छी धनराशि आपको लेखकीय योगदान के रूप में देकर इस पाण्डुलिपि को प्रकाशित करना चाहते हैं। यह मेरे लिए एक बहुत बड़ी और सकारात्मक सूचना थी। मैं बहुत प्रसन्न हुई कि लोग हजारों रुपए स्वयं व्यय करके पुस्तक प्रकाशित करवाते हैं और भारत के सबसे पुराने प्रकाशकों में से एक चौखम्बा मेरी पुस्तक के लिए मुझे ही धनराशि देंगे। मैंने तुरन्त हामी भर दी। तदुपरान्त मेरी शैक्षिक और साहित्यिक पुस्तकें नई दिल्ली के अनेक सुप्रतिष्ठित प्रकाशकों जैसे- चौखम्बा पब्लिशिंग, किताब महल, संस्कृत भारती, राघव प्रकाशन, अयन प्रकाशन तथा जी.एस.एफ. इत्यादि अनेक सुप्रतिष्ठित प्रकाशकों से प्रकाशित हुई। इन पुस्तकों में से अनेक रॉयल्टी पर हैं तथा कुछ विश्वविद्यालयीय पाठ्यक्रम में भी सम्मिलित हैं। मेरी यू.जी.सी. नेट के लिए योगदर्शन पर केन्द्रित पुस्तक हिन्दी तथा अंग्रेजी दोनों भाषाओं में प्रकाशित हुई। मैं पहली लेखिका थी, जिसने योगदर्शन के क्षेत्र में यू.जी.सी. नेट के लिए दोनों भाषाओं में वृहद् एम.सी.क्यू. संग्रह भारतीय वाङ्मय के मूलग्रन्थों के आधार पर लिखा। इस प्रकार मूलग्रन्थों के आधार पर लिखी गई पुस्तकों ने मुझे विद्यार्थियों, शिक्षाविदों, अध्येताओं और शिक्षकों के बीच में अत्यधिक लोकप्रियता दिलाई। इसी बीच मेरी काव्य-रचनाओं ने साहित्यकारों और पाठकों के बीच में मुझे लोकप्रिय बनाया।

प्रश्नः आपने बताया कि आप विज्ञानवर्ग की छात्रा रहीं; तो आप दर्शनशास्त्र और साहित्य के क्षेत्र में समर्पित लेखन में कैसे प्रवृत्त हुईं? क्या कोई कठिनाई थी या अन्य कोई कारण था?

उत्तरः मैं राजकीय विद्यालय में पढ़ी और वहाँ पर को-एड थी। ग्रामीण परिवेश में लड़कियाँ विज्ञानवर्ग नहीं चुनती थीं। जैसा कि मैंने बताया कि मुझे एक अच्छी डॉक्टर या एडवोकेट बनना है; ऐसा मेरा सपना था। अपनी नवीं कक्षा में विज्ञानवर्ग चुनने वाली मैं एक मात्र छात्रा थी। विज्ञान वाले विद्यार्थियों की प्रयोगात्मक परीक्षा के केन्द्र पहाड़ के दूरस्थ विद्यालयों में होते थे। मैं अकेले ही लड़कों के साथ परीक्षाओं के लिए जाती थी। मेरे गणित, भौतिकी, रसायन और जीव विज्ञान में बहुत अच्छे अंक आते थे। मैं उत्साहित थी और ग्यारहवीं कक्षा में भी मैंने विज्ञान चुना फिर घरवाले चिंतित होते थे कि पूरी कक्षा में मुझे अकेले ही रहना पड़ेगा। घर से दबाव था कि मैं विज्ञान वर्ग छोड़ दूँ; मैं जिद्दी थी। मैंने विज्ञान वर्ग नहीं छोड़ा। कुछ समय बाद में दो और लड़कियों का एडमिशन भी मेरी कक्षा में हो गया; तब घरवालों ने विज्ञानवर्ग को छोड़ने का दबाव बनाना बन्द कर दिया; लेकिन नियति ने शायद मेरे लिए कुछ और ही निर्धारित किया था। बारहवीं कक्षा अच्छे अंकों में उत्तीर्ण करने के उपरान्त भी परिवार की आर्थिक स्थिति से जूझते हुए मुझे बारहवीं के बाद नौकरी और तदुपरांत विद्या मंदिर में शिक्षण करके अपनी फीस चुकाकर अपनी पढ़ाई करनी पड़ी; जबकि विज्ञानवर्ग की पढ़ाई के लिए रेगुलर कॉलेज में एडमिशन आवश्यक था; इसलिए मुझे अपने उन सपनों को दुःखी मन से तिलांजलि देनी पड़ी। मैं प्राइवेट मोड में एडमिशन लेकर हिन्दी-अंग्रेजी साहित्य, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की ओर मुड़ गई। फिर मैंने आगे के अध्ययन, शोध और लेखन इत्यादि हेतु भारतीय दर्शन विशेषकर योगदर्शन और श्रीमद्भगवद्गीता को चुना। हिन्दी साहित्य में लेखन तो मेरे रक्त के साथ बह ही रहा था; तो साथ-साथ वह लेखन भी चलता रहा।

प्रश्नः वैश्विक स्तर पर आपने जापानी विधा हाइकु का अनुवाद अपनी मातृभाषा गढ़वाली में किया, जो हाइकु-जगत में एक ऐतिहासिक कार्य है। हाइकु के गढ़वाली अनुवाद का विचार आपके मन में कैसे आया? इसके पीछे क्या प्रेरणा रही?

उत्तरः मैं कविताएँ लिखती थी; विभिन्न पटलों को प्रकाशित करने हेतु भेजती थी। लगभग पंद्रह वर्ष पूर्व जब मैंने इन्टरनेट पर प्रकाशित 'सहज साहित्य' के संपादक, कनाडा से प्रकाशित 'हिन्दी-चेतना' के तत्कालीन परामर्शदाता (अब संपादक) , लघुकथा डॉट कॉम तथा हिन्दी हाइकु वर्ड्प्रेस डॉट कॉम इत्यादि लोकप्रिय वैश्विक इन्टरनेट पटलों के संचालक आदरणीय श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी को मैंने अपनी कुछ रचनाएँ भेजीं। वे साहित्य के मर्मज्ञ लघुकथाकार, हाइकुकार तथा ख्यातिलब्ध लेखक हैं। श्री काम्बोज जी की स्नेहपूर्ण प्रेरणा से मैंने हाइकु विधा का सर्जन प्रारम्भ किया। मेरे हाइकु लोकप्रिय होने लगे। वर्ष 2020 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लागू होने से पूर्व ही मुझे लगता था कि वैश्विक विधाओं का स्थानीय और भारतीय भाषाओं में अनुवाद होना चाहिए। मेरी मातृभाषा गढ़वाली है; काम्बोज जी ने मुझे गढ़वाली में अनुवाद हेतु प्रेरित किया। मुझे यह बात अच्छी लगी तो 5 देशों के 44 हाइकुकारों के सैकड़ों हाइकु का मैंने गढ़वाली में वैश्विक स्तर का अनुवाद और संपादन 15 दिन में ही सम्पन्न कर लिया। इस संकलन का नाम है 'पहाड़ी पर चन्दा' (काँठा माँ जून) । इस प्रकार यह हाइकु का वैश्विक स्तर पर किया गया प्रथम गढ़वाली अनुवाद है। यह भारतीय साहित्य के साहित्यकोश 'कविताकोश' पर भी उपलब्ध है।

प्रश्नः वैश्विक स्तर पर ही आपने वैश्विक हाइकु-संग्रह 'सप्तपर्णा' (सात विश्व प्रसिद्ध हाइकुकार) और 'शैल-शिखर' का सम्पादन किया, इसके बारे में बताइए कि इसके सम्पादन की आवश्यकता आपको क्यों अनुभव हुई?

उत्तरः हिन्दी हाइकु आज एक लोकप्रिय विधा है; किन्तु वर्षों पूर्व ऐसा नहीं था। हिन्दी हाइकु एक अभिनव प्रयोग था। आदरणीय रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी ने सात-सात लोकप्रिय हाइकुकारों पर सप्तक की योजना बनाई। सप्तपदी-हिमांशु जी के, सप्तपर्णा-मेरे, सप्तस्वर-डॉ. कुँवर दिनेश सिंह जी के और सप्तरंग-डॉ. सुरंगमा यादव और कृष्णा वर्मा के सम्पादन में प्रकाशित हुईं। चार जुलाई 2010 को आदरणीया हरदीप कौर संधु जी और आदरणीय रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी ने हिन्दी हाइकु वर्ड प्रेस डॉट कॉम नाम से हिन्दी हाइकु की प्रथम अन्तर्जालीय पत्रिका का शुभारम्भ किया। उस पर मेरे हाइकु भी प्रकाशित होते रहे हैं। इसी वेब पत्रिका पर मैंने अनेक अच्छे हाइकुकारों को पढ़ा। हरदीप कौर संधु जी आस्ट्रेलिया में थीं। उस समय उनको गम्भीर रोग हो गया। मेरी अच्छी मित्र होने के नाते उनके साथ कुछ रचनात्मक लेखन की योजना बनी। मुझे लगा कि इससे दो लक्ष्य सधेंगे; पहला कि वैश्विक स्तर के अच्छे हाइकुकारों के हाइकु पुस्तक के रूप में पाठकों को ही स्थान पर पढ़ने को मिलेंगे तथा साथ ही मेरी मित्र हरदीप जी को कुछ सम्बल और प्रसन्नता मिलेगी। यह कृति उनको गम्भीर रोग से बाहर निकलने हेतु सहायक होगी; ऐसा मेरा विश्वास था। इस दृष्टि से ही हरदीप जी को साथ लेकर यह 'शैल-शिखर' जैसा वैश्विक महत्त्व का हाइकु संग्रह संपादित किया गया, जिसमें विविध रंगों और विषयवस्तु के मार्मिक हाइकु संगृहीत हैं।

प्रश्नः प्रसिद्ध संगीतकार पंडित हरिप्रसाद चौरसिया के संगीत से सजी आपकी हाइकु रचनाओं का कत्थक मंचन प्रतिष्ठित मराठी कत्थक नृत्यांगना उर्वि प्राजक्ता सुकी द्वारा किया गया है। इसके बारे में कुछ बताइए।

उत्तरः उर्वि प्राजक्ता सुकी एक ख्यातिलब्ध मराठी नृत्यांगना हैं। वे गंगा और बेटी जैसे विषयों पर कथक काव्य प्रस्तुत करना चाहती थीं। उन्होंने इन विषयों पर इन्टरनेट से कुछ रचनाएँ खोजना चाहीं। यह खोजते हुए उन्हें कविता कोश पर मेरे द्वारा रचे इन विषयों पर केन्द्रित हाइकु मिले। उन्होंने मेरे इन हाइकु को कथक काव्य हेतु उपयोग करने के लिए मुझे मैसेंजर पर मैसेज किया किन्तु व्यस्तता के कारण मैं मैसेंजर कम ही देख पाती हूँ। इस प्रकार मैंने उनका मैसेज बहुत दिनों बाद देखा। इस प्रकार उन्होंने मेरे द्वारा 'गंगा' और 'बेटी' पर केन्द्रित हाइकु पर प्रसिद्ध संगीतकार पंडित हरिप्रसाद चौरसिया के संगीत के साथ कथक नृत्य किया। इस प्रकार यह सुखद संयोग था कि मैं ही पहली और अभी तक एक मात्र लेखिका हूँ; जिसकी हाइकु रचनाओं पर कथक काव्य का मंचन हुआ है। यह हिन्दी हाइकु विधा के लिए ऐतिहासिक था।

प्रश्नः आपकी साहित्यिक कृति 'भारतीय साहित्य में जीवन मूल्य' को अखिल भारतीय साहित्य अकादमी पुरस्कार साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश से प्राप्त हुआ है। इस कृति के बारे में कुछ बताइए। इसके अतिरिक्त अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर आपको अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए हैं। इन सम्मानों के बारे में कुछ बताइए।

उत्तरः 'भारतीय साहित्य में जीवन मूल्य' भारतीय वाङ्मय में वर्णित नैतिक मूल्यों के व्यक्तिपरक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक पक्षों को साहित्यिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने वाली पुस्तक है। जैसा कि वेदों में कहा गया है-धर्मं चर, सत्यं वद; उपनिषदों में की उक्ति है-सत्यमेव जयते; इस प्रकार भारतीय संस्कृति के मूल में ये ही नैतिक मूल्य हैं; नैतिक मूल्य हमारे लिए केवल संभाषण या दिशानिर्देश का विषय नहीं अपितु ये हमारे लिए जीवन मूल्य हैं। वैदिक साहित्य, उपनिषद्, षड्दर्शन और गीता दर्शन में इन जीवन मूल्यों के सार पर केन्द्रित इस पुस्तक को मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार प्रदान किया गया। यह पुरस्कार एक लाख रुपये का था और मुझे चालीस वर्ष की आयु में प्राप्त हुआ।

प्रश्न: दार्शनिक कृति 'घेरण्ड संहिता में षट्कर्म, योगाभ्यास और योग' पर आपको दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है। इस कृति के बारे में कुछ बताइए।

उत्तरः महर्षि पतंजलि प्रणीत राजयोग का आधार हठयोग है। हठयोग और राजयोग की एक दूसरे के अभाव में कल्पना भी नहीं की जा सकती। सुप्रसिद्ध हठयोगी घेरण्ड मुनि ने हठयोग का प्रारम्भिक अभ्यास षट्कर्म को माना है। ये छह शुद्धिकर्म पूरे योगाभ्यास का आधार हैं। इनके अभाव में आगे के आसन-प्राणायाम आदि किसी भी अभ्यास का अपेक्षित लाभ नहीं मिलता इसलिए योगाभ्यास की दृष्टि और योग के वृहत्तर लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु षट्कर्म अनिवार्य हैं। इस दार्शनिक कृति में मैंने 'षट्कर्म' के शारीरिक, मानसिक, चिकित्सीय और आध्यात्मिक प्रयोगों और उपयोगों पर केन्द्रित किया तथा दार्शनिक और शरीरक्रियाविज्ञान के दृष्टिकोण से विवेचित किया है। यह मेरे द्वारा लिखित अकादमिक महत्त्व की प्रथम कृति है; जिसे चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान, दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया था। इस पुस्तक हेतु कश्मीर विश्वविद्यालय में आयोजित अखिल भारतीय दर्शन परिषद्, भारत के सम्मेलन में परिषद् द्वारा विज्ञप्ति और चयन के आधार पर अखिल भारतीय स्तर का प्रतिष्ठित प्रो. सोहन राज तातेड़ दार्शनिक पुरस्कार मुझे प्रदान किया गया।

प्रश्न: आप उत्तराखण्ड मूल की पहली महिला हैं; जिनको दर्शन और योग पर केंद्रित गुणवत्तापरक शोधकार्य हेतु भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली द्वारा जे आर एफ और जी आर एफ प्रदान किया गया है और जिन्हें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा पोस्ट डॉक्टरल फैलोशिप (महिला) जैसी महत्त्वपूर्ण फैलोशिप अवार्ड की गई है। इस उपलब्धि के बारे में क्या कहना चाहेंगी?

उत्तरः मैं विशुद्ध ग्रामीण परिवेश से अध्ययन करने वाली एक ऐसी अध्येता रही; जिसे किसी भी प्रकार का आर्थिक और भावनात्मक अवलम्ब नहीं था। अपने लिए फीस तक जुटाना एक चुनौती थी। मैं दर्शनशास्त्र में योगदर्शन पर केन्द्रित अपना शोधकार्य कर रही थी और मैंने भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली को जूनियर रिसर्च फैलोशिप के लिए आवेदन किया; अखिल भारतीय स्तर पर चयन के आधार पर मेरा इसके लिए चयन हुआ। अपना शोध पूर्ण करने के उपरान्त मैंने पुनः जनरल रिसर्च फैलोशिप के लिए आवेदन किया। ठीक उसी प्रकार से मुझे यह फैलोशिप भी प्राप्त हुई। सुखद संयोग यह है कि परिषद् द्वारा जिस महिला को ये दोनों फैलोशिप प्रदान की गई हों; उत्तराखण्ड मूल की मैं पहली महिला रही हूँ। साथ ही इन फैलोशिप के अतिरिक्त विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.) , नई दिल्ली द्वारा गुणवत्तापरक शोध हेतु मुझे पोस्ट डॉक्टरल फैलोशिप प्रदान की गई। उस वर्ष के लिए किसी एक सामान्य वर्ग की किसी एक ही महिला को यह फैलोशिप मिलनी थी। राष्ट्रीय स्तर पर दर्शनशास्त्र विषय में यह फैलोशिप प्राप्त करने वाली मैं उत्तराखण्ड मूल की मैं पहली महिला रही हूँ। उस समय मेरे ये सभी अवार्ड अकल्पनीय थे। मेरे इन शोधकार्यों में मेरा मार्गदर्शन करने वाली मेरी गुरु प्रो. इन्दु पाण्डेय खण्डूड़ी, वर्तमान विभागाध्यक्ष, दर्शनशास्त्र विभाग तथा निदेशक मालवीय मिशन टीचर ट्रेनिंग सेन्टर, हे।न।ब। गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर गढ़वाल, उत्तराखण्ड के प्रति मैं सदैव कृतज्ञ हूँ। इस कार्य में मेरे पति श्री सुभाष भट्ट का भावपूर्ण सम्बल भी सदैव रहा है।

प्रश्नः आपको गार्गी नेशनल अवार्ड हेतु चयनित किया गया है। यह अवार्ड योगदर्शन केंद्रित शैक्षिक लेखन, व्याख्यानों तथा इसके वैश्विक प्रसार हेतु समर्पित महिलाओं को प्रदान किया जाता है, जिसके लिए वैश्विक स्तर पर आवेदन आमंत्रित किए जाते हैं। इस सम्बन्ध में हमारे पाठकों को कुछ बताइए।

उत्तरः एडुजी लाइफ और परमार्थ निकेतन जैसी अंतरराष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं द्वारा प्रत्येक वर्ष योगदर्शन पर केन्द्रित लेखन और प्रसार हेतु समर्पित महिलाओं को अन्तरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय और प्रादेशिक इन विभिन्न स्तरों पर योगिनी सम्मान प्रदान किए जाते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तो ये सम्मान सदैव वैदेशिक महिलाओं को ही प्रदान किये जाते हैं; किन्तु अन्त स्तर पर भारत की महिलाओं को दिए जाते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर गार्गी योगिनी नेशनल अवार्ड वर्ष 2023 के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आवेदन के आधार पर मुझे चयनित करके परमार्थ निकेतन, ऋषिकेश उत्तराखण्ड में प्रदान किया-किया गया।

प्रश्नः आप वैश्विक पत्रिका नीलाम्बरा की संपादक और विज्ञान के प्रसार के लिए हिंदी, अंग्रेज़ी में प्रकाशित शोध जिज्ञासा की सह संपादक हैं। आप कनाडा की हिन्दी चेतना अंतरराष्ट्रीय पत्रिका में परामर्शदाता के पद पर विगत कई वर्षों से कार्यरत हैं। इस बारे में कुछ बताइए।

उत्तरः नीलाम्बरा वैश्विक स्तर पर प्रकाशित दर्शन, समाज और साहित्य को समर्पित केन्द्रित षाण्मासिक वेब पत्रिका है। वर्तमान में एक लाख से अधिक पाठक इस पत्रिका के साथ जुड़े हैं। सुधी पाठकों के बीच में यह पत्रिका विशेष लोकप्रिय है। इसमें ख्यातिलब्ध साहित्यकारों की कृतियों को पढ़ना सभी की प्राथमिकता रहती है। वैश्विक पत्रिका 'हिन्दी चेतना' हिन्दी प्रचारिणी सभा, कैनेडा से प्रकाशित होती है। जिसमें आदरणीय श्री श्याम त्रिपाठी जी द्वारा वर्ष 2016 में मुझे भारत का प्रतिनिधि मनोनीत किया गया। कालान्तर में पत्रिका के प्रति मेरे समर्पण तथा मेरे साहित्यिक अवदानों हेतु हिन्दी चेतना की ओर से मुझे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी चेतना विशेष सर्जन सम्मान प्रदान किया गया। इसके अतिरिक्त कालान्तर में मुझे इसके हिन्दी चेतना के परामर्श-मण्डल में परामर्श दाता मनोनीत किया गया। वर्तमान में इस पत्रिका के सम्पादक आदरणीय रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी हैं; जिन्होंने नीलाम्बरा पत्रिका में भी सदैव मेरा मार्गदर्शन किया है। जिज्ञासा विज्ञान के लोकव्यापीकरण की पत्रिका है; जो विगत अनेक वर्षों से प्रकाशित हो रही है। इसके सम्पादक प्रो. संजय अवस्थी हैं। यह पत्रिका शैक्षिक दृष्टि से अच्छी है। इसमें सह सम्पादक का दायित्व मेरा है।

प्रश्नः आपकी रचनाएँ देश-विदेश की अनेक भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं, अपनी रचनाओं के अनुवाद पर कुछ प्रकाश डालिए। साथ ही हमें बताइए कि आपके लिए अनुवाद का क्या महत्त्व है; क्योंकि आप साहित्य-जगत् में स्वयं भी अनुवाद के क्षेत्र से जुड़ी हैं।

उत्तरः मेरी रचनाएँ संस्कृत, गुजराती, बांग्ला, पंजाबी, मराठी, उड़िया, अवधी, ब्रज और पाली इत्यादि भारतीय भाषाओं और अंग्रेज़ी तथा नेपाली इत्यादि जैसी विदेशी भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 के आलोक में त्रिभाषा सूत्र वैयक्तिक, शैक्षणिक और सामाजिक तथा वैज्ञानिक दृष्टि से एक स्वस्थ परम्परा की निर्वाहक है। इस दृष्टि से वैश्विक स्तर की रचनाओं के भारतीय भाषाओं में तथा भारतीय भाषाओं के वैश्विक स्तर की भाषाओं में अनुवाद समय की माँग हैं। जैसा कि पहले ही मैंने कहा कि मैंने स्वयं भी वैश्विक स्तर पर अनुवाद कार्य किया है। ज्ञान-विज्ञान तथा साहित्य के प्रचार-प्रसार हेतु अनुवाद कार्य किया जाना अपरिहार्य है।

प्रश्नः आप दर्शनशास्त्र विभाग, हे।न।ब। गढ़वाल केन्द्रीय विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं। शैक्षणिक-प्रशैक्षणिक दृष्टि से अपनी राजकीय सेवा के अतिरिक्त आप रचनात्मक कार्यों में भी निरंतर सक्रिय रहती हैं। इसके बारे में हमें कुछ बताइए?

उत्तरः हममें बचपन से ही प्रकृति की गोद में रहने के संस्कार रहे। मुझे खेत-खलिहानों, जंगलों, पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों, नदियों, पहाड़ों तथा झरनों इत्यादि से विशेष अनुराग रहा है। मैं पेड़-पौधों के बीच में आज भी समय बिताती हूँ। अपनी गृह-वाटिका में आज भी समय निकालकर कार्य स्वयं ही करती हूँ। मैंने अपने आँगन में पक्षियों के लिए फीडर लगाए हैं, जिसमें मेरे घर के आँगन में लगभग अनेक प्रजाति के पक्षी आते हैं। इनके लिए भोजन और पानी की व्यवस्था मेरे पति और मैं करते हैं। इसके साथ ही मैं आज भी सलाइयों से स्वेटर बनाती हूँ तथा समय निकालकर अपने कपड़े भी सिलती हूँ। अनेक लोगों को लगता है कि प्रोफेसर बन गए, तो अपने स्टेटस सिंबल को मेंटेन करना आवश्यक है। उन लोगों से मैं कहना चाहती हूँ कि रचनाधर्मिता ही श्रेष्ठ स्टेटस सिंबल है। इस दृष्टि से आजीवन रचनाधर्मी बने रहना और निष्काम भाव से लोकसंग्रह हेतु ईश्वर को समर्पित कर्म करना ही श्रेष्ठ है।

प्रश्नः यूजीसी नेट के लिए आपकी पुस्तकें पूरे भारत में विद्यार्थियों का मार्गदर्शन करती ही हैं, तो फिर ऑनलाइन भी विद्यार्थियों को शिक्षण देने के बारे में निश्चय क्यों किया?

उत्तरः भारतवर्ष के युवाओं और बच्चों में अथाह प्रतिभा भरी पड़ी है। ग्रामीण अंचलों में निर्धनता के कारण संसाधनों के अभाव में अनेक बच्चे ठीक से पढ़ नहीं पाते और उनकी प्रतिभा संसाधनों के अभाव में घुटकर दम तोड़ देती है। मुझे अपना बचपन याद आता है। मुझे लगता है कि प्रतिभा को संसाधनों के अभाव में दम नहीं तोड़ने देना। अपने से प्रत्येक प्रयास करना चाहिए, जिससे निर्धन और ग्रामीण बच्चों को सहायता प्राप्त हो सके। इस दृष्टि से मैं ग्रामीण अंचलों में कार्यशालाओं का आयोजन करती हूँ। पठन-पाठन सामग्री वितरित करती हूँ। साथ ही यू.जी.सी. नेट हेतु ऑललाइन निःशुल्क कोचिंग भी ऐसे विद्यार्थियों को प्रदान करती हूँ। मेरे द्वारा की गई इस सहायता से सम्पूर्ण भारतवर्ष के अनेक क्षेत्रों के अनेक विद्यार्थी इस यू.जी.सी. नेट क्वालिफाई हो जाते हैं, तो मुझे सुख, संतोष और आनन्द मिलता है। यह गीता के लोकसंग्रह भाव को संपोषित करता है।

प्रश्नः वर्ष 2023 को फिजी में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन में भेजे गए प्रतिनिधि मंडल में भारत सरकार द्वारा आपको सम्मिलित किया गया। इस अनुभव के बारे में बताएँ।

उत्तरः भारत सरकार ने 2023 में फिजी में विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित किया; जिसमें देश-विदेश के ख्यातिलब्ध लेखकों को प्रतिभाग करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। फिजी में भारत सरकार का प्रतिनिधि मंडल गया था। इस हेतु ख्यातिलब्ध लेखकों को भी प्रतिनिधि मंडल में सम्मिलित किया गया था। सौभाग्य से मैं भी इस प्रतिनिधि मंडल का अंग बनी मुझे अत्यंत गर्व और हर्ष हुआ। फिजी में मेरी दो पुस्तकों 'मंत्रमुग्धा' और 'गीता वदति' का भव्य विमोचन भारतीय दूतावास की तत्कालीन द्वितीय सचिव श्रीमती सुनीता पाहुजा जी तथा अन्य गणमान्य विद्वानों द्वारा किया गया। वहाँ 'कृत्रिम बुद्धिमत्ता और हिन्दी की उपयोगिता' विषय पर मेरे वक्तव्य की भी सराहना हुई। साथ ही भारत के यशस्वी विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर जी से अर्थपूर्ण और स्नेहपरक भेंट और विदेश मंत्रालय के गणमान्य अतिथियों के साथ रात्रिभोज, फिजी के प्रधानमंत्री से भेंट और विद्वानों के वक्तव्यों को सुनना, ग्रहण करना तथा फिजी के प्रमुख पर्यटक स्थलों का साहित्यिक भ्रमण, भारतीय प्रतिनिधि मंडल के आतिथ्य-सत्कार का आनन्द और साहित्यिक दृष्टि से हिन्दी की वैश्विक लोकप्रियता को जानना और भविष्य के लिए संभावनाओं को खोजना इत्यादि बहुत ही रोमांचक और ज्ञानवर्धक अनुभव रहे।

प्रश्नः यू.एस.ए., यू.ए.ई., यूनाइटेड किंगडम, नेपाल और कैनेडा इत्यादि जैसे अनेक वैदेशिक पटलों सहित भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों भारतीय उच्चायोग मॉरीशस और अंतरराष्ट्रीय विश्व हिन्दी सचिवालय के साथ ही विभिन्न प्रदेशों की साहित्य अकादमियों, दूरदर्शन तथा आकाशवाणी द्वारा आपको निरंतर ऑनलाइन ऑफलाइन व्याख्यान, वक्तव्य, वार्ताओं, परिचर्चाओं हेतु बतौर विशेषज्ञ आमंत्रित किया जाता है। इन उपलब्धियों पर अपने विचार साझा करने का अनुभव कैसा रहा?

उत्तरः मेरे लिए ये सभी अनुभव अत्यंत सुखद और ज्ञानप्रद रहे। भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों द्वारा आयोजित इन्टरनेशनल साइंस लिटरेचर फ़िल्म फेस्टिवल में मैं अनेक बार विशिष्ट वक्तव्यों हेतु आमंत्रित की गई। इन अनुभवों से मेरे उत्साह में और भी अधिक वृद्धि हुई तथा मैं लेखन के प्रति पूर्व से भी अधिक समर्पित हुई। अनेक वैदेशिक और स्वदेशी पटलों ने मेरे अनुभव में निरन्तर वृद्धि की। मेरे लेखकीय अवदानों के आलोक में मुझे विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अंतर्गत राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद् में कार्यक्रम परामर्श समिति की सदस्य भी मनोनीत किया गया। साथ ही सभी हिमालयीय राज्यों के सुनियोजित विकास पर केंद्रित हिमालयन पीपल पॉलिसी की ड्राफ्टिंग कमिटी की भी सदस्य भी मैं रह चुकी हूँ। मैं सुदूर पहाड़ी ग्रामीण अंचल में पढ़ी लिखी लड़की होने के नाते अत्यंत विनम्र और दुनियादारी के दांव पेंचों से दूर थी। केवल मेरी प्रतिभा के बल पर जो मान-सम्मान मुझे प्राप्त हुआ वह मेरे लिए गर्व का विषय रहा। सामान्यतः पद-प्रतिष्ठा तो मिल जाते हैं; किन्तु जनमानस में मान-सम्मान विरले लोगों को ही मिलता है। इसलिए आज भी मैं असीम शक्तिसम्पन्न वाग्देवी के प्रति नतमस्तक हूँ; जिसने मुझे इस स्थान तक पहुँचाया।

प्रश्नः साहित्यिक समर्पण के अतिरिक्त इन महत्त्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन आपने कैसे किया?

उत्तरः महिलाओं के लिए अनेक भूमिकाओं का निर्वहन करना अत्यंत टेढ़ी खीर होता है। इस प्रकार के दायित्व निर्वाह करने के लिए मुझे सदैव अतिरिक्त परिश्रम करना पड़ा; जो मैंने किया। अनेक बार अनेक प्रकार की पारिवारिक और सामाजिक विसंगतियों की मैंने कभी परवाह नहीं की। अपनी आत्मा की ध्वनि पर ही ध्यान केन्द्रित किया। केवल कर्म के प्रति समर्पण को ही मैंने अपने जीवन का लक्ष्य माना। किसी पुरस्कार या सम्मान अथवा पद या दायित्व को ध्यान में रखकर कार्य नहीं किया अपितु अहर्निश अपना कर्म किया। मंत्रशक्ति और ध्यान शक्ति में मेरा अटूट विश्वास है। परमशक्ति ने सदैव मेरा साथ दिया। मुझे असीम ऊर्जा से परिपूर्ण रखा। मैं केवल निष्ठापूर्वक परिश्रम करती रही शेष अपने आप होता चला गया।

प्रश्नः आपका 'शैलपुत्री' उपनाम कैसे पड़ा?

उत्तरः मैं काव्य मंचों पर काव्य पाठ भी करती रही हूँ। वर्ष 2013 में उत्तराखण्ड में केदारनाथ आपदा आई। यहाँ का जीवन अवसाद और निराशा के गर्त में था। केदारनाथ आपदा में मैंने भी अनेक स्नेहीजन को खोया। उस समय मेरा काव्य-संग्रह 'मन के काग़ज़ पर' प्रकाशित हुआ था। जिसमें मैंने आपदा के परिणामस्वरूप उत्पन्न विसंगतियों और जनसामान्य के जीवन में उत्पन्न विद्रूपताओं का भी शब्दचित्र खींचा। अक्टूबर 2013 में पटेल प्रतिनिधि सभा लखनऊ, उत्तर प्रदेश द्वारा लखनऊ में एक विराट कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। उसमें मैं भी काव्य पाठ हेतु आमंत्रित थी। वहाँ मेरे काव्य संग्रह का विमोचन भी हुआ। उनके द्वारा मेरी जीवटता, रचनाधर्मिता और लेखन के प्रति समर्पण को रेखांकित करते हुए मुझे 'पहाड़ की बेटी' कहकर सम्बोधित किया गया और मेरी सराहना की गई कि पहाड़ की ही बेटी हो सकती है जो असीम अवसाद और दुःख में भी रचनात्मकता द्वारा जीवन का पथ खोज सकती है। मेरी रचनाधर्मिता, जीवटता और लेखकीय अवदानों को ध्यान में रखकर मुझे 'शैलपुत्री' उपनाम देकर सम्मानित किया गया।

प्रश्नः अपने द्वारा महिला सशक्तीकरण पर किए गए शोधों और सामाजिक कार्यों से आपने महिला सशक्तीकरण के नए प्रतिमान स्थापित किए। पुरुषप्रधान समाज में आज भी महिलाएँ अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में कई कठिनाइयों से गुजरती हैं। ऐसे में अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए आप उन्हें कौन-सी प्रविधि अपनाने के लिए सुझाव देना चाहेंगी।

उत्तरः जीवन के प्रति सकारात्मकता, आशा और कर्म के प्रति समर्पण ही सफलता का मूल मंत्र है। महिलाओं का शिक्षित और आर्थिक रूप से सक्षम और आत्मनिर्भर होना आवश्यक है। आत्मनिर्भर होने का अर्थ केवल सरकारी नौकरी पाने से नहीं है। आत्मनिर्भरता स्वरोजगार और उद्यम के माध्यम से भी प्राप्त होती है। साधन कुछ भी हो साध्य आत्मनिर्भरता होनी चाहिए। इसी से महिला सशक्त होती है। शिक्षित होना इसलिए आवश्यक है कि घटनाओं के प्रति महिलाओं की जीवन दृष्टि दूरदृष्टि यथोचित हो। छोटी-छोटी घटनाओं से जीवन में निराश नहीं होना चाहिए। लक्ष्य के प्रति दृढ़संकल्प ही सफल और सशक्त होने का मूल आधार है। अच्छे और उच्च लक्ष्य के लिए जिद्दी होना ही चाहिए। दुनिया क्या कहेगी यह सोचकर अपने कर्म में व्यवधान नहीं आने देना चाहिए। केवल यह सोचना चाहिए कि अनैतिक कर्म और अपने अनुचित कर्म से किसी को दुःख पहुँचाने के अतिरिक्त संसार में कुछ भी बुरा नहीं। अपनी उन्नति हेतु सारे नैतिक साधन अपनाना और निष्ठाभाव से कर्म करना ही लक्ष्य तक पहुँचने का सर्वश्रेष्ठ साधन है। महिलाओं की भावुकता अनेकशः राह में बाधा बनती है; लेकिन उस समय बुद्धिपरक भावनात्मकता ही श्रेष्ठ है। अकेलेपन का अनुभव हो और लगे कि दुनिया में अब कोई साथ नहीं है; ऐसे समय में मंत्रशक्ति और ध्यान-अथाह ऊर्जा प्रदान करती है।

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