कविता / रूपसिंह चन्देल

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कल एक पुराने मित्र रास्ते में मिल गए थे।

"कविता के क्या हाल हैं?" हलो-हाय के बाद उन्होंने पूछा।

"उसने पीएच.डी. कर लिया था।” मैंने बताया,“…दिल्ली के ही एक महाविद्यालय में पढ़ा रही है इन दिनों।"

"भई, आप बिल्कुल ही बुद्धू हैं…" वे बोले।

"आपने आज जाना-- मैं तो बचपन से ही बुद्धू हूं तभी तो देश से लेकर विदेश तक के मित्र मुझसे काम निकालकर अर्थात मेरा इस्तेमाल करके आसानी से मेरा अपमान कर जाते हैं." मैंने कहा, "लेकिन आप किस कविता की बात कर रहे थे?"

"कविता---यानी कविता--भई---"

"वो--s" मैं समझ गया था कि वह किस कविता की बात कर रहे थे.

"हां--वही."

"उसे ब्रेस्ट कैंसर हो गया है...वह मर रही है."

"क्या ---sss ?" वह चौंके.

"जी---उसकी अंतिम सांसे चल रही हैं. रसिक और हितैषी मित्र मोहल्ला में एकत्र भी हो गए हैं. जानकी पुल तक बचाने वालों की लाइन लगी हुई है।"

“यह तो बुरी खबर सुनाई आपने।" मित्र मुँह लटकाकर बोले और सदमे की-सी हालत में आगे बढ़ गए।