कवियों के कवि शमशेर बहादुर सिंह से बातचीत / विनोद दास

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शमशेरजी से दो-तीन बार मिलने पर यह बातचीत पूरी हुई । वह लखनऊ प्रवास में पत्रकार-कवि अजय सिंह के यहाँ ठहरे हुए थे । बातचीत दो दौर में हुई । पहली बार घर में चारपाई पर बैठे हुए बातचीत हुई । दूसरी बार बातचीत बाहर हुई । काफ़ी अरसे से वह बाहर नहीं निकले थे। अख़बार पढ़ने के बाद वह शोभा सिंह के आग्रह पर बाहर निकले । चलते-चलते बातचीत शुरू हुई । कुछ दूर चलने पर वह थक कर बैठ गए । फिर घर लौटकर बातचीत पूरी हुई ।

मेरी कोशिश सारे यथार्थ को देखने की है ।

देहरादून

यह सुनते ही शमशेर जी मानो जाग गए । उनका समूचा शरीर हरकत में आ गया । ऐसा लगा मानो ठहरी हुईं पत्तियाँ अचानक हवा चलने से धीमे-धीमे हिलने लगीं । थोड़ी देर पहले सोकर उठने से उनमें जो उनींदापन व्याप्त था, वह न जाने कहाँ फ़ना हो गया । वे आहिस्ता-आहिस्ता देहरादून घाटी में उतरते गए । अपने चौड़े काले फ्रेम के चश्मे को उन्होंने सीधा किया और कहने लगे :

देहरादून से मेरा रिश्ता गहरा है । मेरा जन्म वहीं हुआ । बचपन का एक बड़ा हिस्सा वहाँ गुज़रा । तबके देहरादून और आज में फ़र्क है । तब वहाँ इस कदर चूने की फैक्ट्रियाँ नहीं थीं । भीड़भाड़ भी नहीं थी । शान्त ज़गह थी । देहरादून की अपनी एक स्वाभाविक लय थी । पर अब उसका चेहरा बदल गया है । मेरी शुरुआती पढ़ाई कुछ देहरादून में हुई, कुछ गोण्डा में। पिताजी गोण्डा कचहरी में काम करते थे । कविता से लगाव शुरू से था । दसवें दरजे तक आते-आते में कविता में आकण्ठ डूब गया । नौवीं तक फ़र्स्ट आया । लेकिन कविता में ज़्यादा रमने और वक़्त देने के कारण हाई स्कूल में मेरी डिवीजन सेकण्ड आई । डीएवी कॉलेज देहरादून से इण्टर किया । कविता के अलावा अन्य विषयों पर ज़्यादा ध्यान न देने का नतीज़ा यह हुआ कि इण्टर में पहले साल फ़ेल हों गया । अगले साल पास हुआ तो थर्ड डिवीजन में । आप शायह यक़ीन न करें, उन दिनों गद्य के बजाय पद्य में सभी विषयों के उत्तर देना मुझे ज़्यादा आसान दिखता था । आगे की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद आ गया । वहीं से बी.ए. किया। एम.ए. अंग्रेज़ी में दाख़िला लिया। फ़र्स्ट इयर ही पूरा कर पाया ।

हिन्दी के कुछ कवि मसलन त्रिलोचन शास्त्री, गिरधर राठी इत्यादि ने भी एम.ए. अँग्रेज़ी का फ़र्स्ट इयर पूरा किया है, लेकिन फ़ाइनल पूरा नहीं किया । परिहास के लहज़े में मैंने पूछा —

हिन्दी कवियों की यह कोई नई परम्परा है ?

एक कथा जो शमशेर जी के होंठों पर जमीं थी, वह धीरे-धीरे खुलने लगी ।

किसी परम्परा के चलते नहीं, आर्थिक दबावों के कारण एम.ए. पूरा नहीं कर सका । दूसरे, मैंने तय कर लिया था कि सरकारी नौकरी नहीं करूँगा । उन दिनों राष्ट्रीय आन्दोलन चल रहा था । देश पराधीन था । मैंने फ़ैसला किया कि अँग्रेज़ों की नौकरी नहीं करूँगा। इसलिए ऐसी औपचारिक शिक्षा का महत्त्व मेरे नज़रों में नहीं था ।

देश को आज़ादी मिलने के बाद भी आपने कोई विधिवत नौकरी नहीं की । जीवन-यापन के लिए छिटपुट काम किया । आपको कोई मलाल तो नहीं रहा कि आपने नौकरी नहीं की ? सुव्यवस्थित जीवन नहीं जिया ?

( उनके अन्तर्मन में सेंध लगाने की मैंने कोशिश की ।)

मलाल नहीं, सन्तोष रहा ।अपनी तरह से जीवन जी सका । मनचाहा काम किया । कोई समझौता नहीं करना पड़ा ।

यह कहने के साथ शमशेर जी के चेहरे पर तोष का ऐसा पुञ्ज प्रदीप्त हो उठा, जो एक लम्बे और बड़े त्याग से अर्जित होता है । वह अपने आप में सम्पूर्ण लग रहे थे । मुझे लगा कि उनसे इस सम्बन्ध में आगे कोई बहस नहीं की जा सकती ।

लेकिन न जाने क्यों मेरे मन में यह जिज्ञासा छाया की तरह अभी भी बनी हुई थी कि जब शमशेर जी के पिताजी नौकरी में थे तो पढ़ाई के दिनों में उन्हें आर्थिक कठिनाइयों का सामना क्यों करना पड़ा ?

मैंने अपनी जिज्ञासा निःसंकोच शमशेर जी के सामने रख दी ।

शमशेर जी भारी और गंभीर स्वर में कहने लगे —

पिताजी को मेरा कविता प्रेम सुहाता नहीं था । हालाँकि वह साहित्य पढ़ते थे । गंगा पुस्तक माला की पुस्तकें हमारे यहाँ आती थीं । निराला जी का ’परिमल’ पहली बार मैंने उसी पुस्तक-माला में पढ़ा । मतिराम से परिचय भी उसी के जरिए हुआ । लेकिन मेरे पिताजी व्यावहारिक थे । मुझे भी सफल और व्यावहारिक व्यक्ति के रूप में देखना चाहते थे । मेरा नज़रिया अलग था । इसलिए उनसे मेरी कभी बैठी नहीं । बी.ए. में मैंने उनसे ख़र्च लेना बन्द कर दिया । अनुवाद करता था । कई प्रकार के अन्य कार्य करता था । सबसे मर्मान्तक घटना बताता हूँ । बी.ए. में था, तब मैंने अँग्रेज़ी में लिखी अपनी कविताओं का एक संकलन तैयार किया था । दरअसल शुरुआती दौर में अँग्रेज़ी और उर्दू दोनों में ही पूरी सहजता के साथ मैं कविताएं लिखता था । उस अँग्रेज़ी काव्य-संकलन को इलाहाबाद का एक प्रतिष्ठित प्रेस “द पायोनियर” छापने के लिए तैयार हो गया था । लेकिन उनकी एक शर्त थी । किताब में लगनेवाले कागज़ का पैसा मुझे देना था । मेरे पास थे नहीं । पिताजी कविता के ख़िलाफ़ थे । नतीज़ा यह हुआ कि किताब नहीं छप सकी । मैं दुबारा उस प्रेस में कभी नहीं गया ।

शमशेर की आँखों में एक फीकी उजास झलक रही थी । ऐसा लग रहा था कैसे किसी पुराने फ़ोटो का निगेटिव उनकी आँखों के सामने डेवलप होकर गुज़रा हो ।

बातचीत के सिलसिले को आगे बढ़ाते हए मैंने पूछा —

अँग्रेज़ी कविताओं का आपका संकलन प्रकाशित हो जाता तो शायद आप अँग्रेज़ी भाषा के कवि होते । हिन्दी कविता आपके मूल्यवान योगदान से वंचित हो जाती । आप क्या समझते हैं कि अँग्रेज़ी में आपकी काव्याभिव्यक्ति उतनी सहजता और सफलता से होती, जितनी हिन्दी में हो पाई है ?

शमशेर जी को शायद यह नागवार लगा । लेकिन उन्हें ज़्यादा देर ऊहापोह नहीं करनी पड़ी । उन्होंने अपने घने बालों पर हाथ फेरा और अपने स्वर के वेग को यथासम्भव नियन्त्रित करते हुए हलकी तल्ख़ आवाज़ में कहने लगे —

यदि आप किसी भाषा के स्वभाव से परिचित हों, उस भाषा के क्लासिकल साहित्य का पारायण किया हो, उसमें रचे-बसे हों, तो उस भाषा में साहित्य रचना कठिन नहीं है । उन दिनों उर्दू और अँग्रेज़ी पर मेरा अधिकार था । उस समय अँग्रेज़ी कविता कि जितने मीटर या छन्द प्रचलित थे, मैं उनमें काव्य-रचना कर सकता था । ब्लैंक वर्स से भी मेरा परिचय था । गुणवत्ता की दृष्टि से मेरे उस अँग्रेज़ी काव्य-संकलन की कविताएँ अच्छी थीं । द पायोनियर प्रेस कोई मामूली प्रेस नहीं था । ख़ासी प्रतिष्ठा थी उसकी। रुडयार्ड किपलिंग यहाँ काम कर चुके थे । उसके प्रकाशक-प्रबन्धक ने मेरी कविताओं की प्रशंसा की थी । यही वजह है कि उस संग्रह के न छपने का मुझे गहरा अफ़सोस रहा ।

मुझे लगा कि कहीं न कहीं हमारे बीच धुन्ध है। शायद मुझे अपनी बात और सुस्पष्ट करनी चाहिए । उनकी तल्ख़ आवाज़ के विपरीत अत्यन्त नम्रता से मैंने अपनी बात उनके सामने रखी।

आप मानेंगे कि कविता सिर्फ़ मीटरों या छन्दों के ज्ञान से नहीं बनती । दूसरे,अँग्रेज़ी भाषा की प्रकृति हमारे यहाँ की मिट्टी,जलवायु रूप, रस, गन्ध, ध्वनि इत्यादि के अनुकूल नहीं होगी जितनी ये चीज़ें हमारे देश की भाषा के अनुकूल होंगी। आपकी कविता के उदाहरण लें तो आपने विविध प्रकार के साँवले रंगों के बिम्बों को अपनी रचनाओं में व्यक्त किया है — मसलन केसरिया साँवला, नीला साँवला इत्यादि रंगों को उतने सटीक ढंग से और समर्थता से अँग्रेज़ी में दिखा पान कठिन होता।

शमशेर ही सहसा ठिठक गए । मैं किंचित डर गया । पता नहीं शमशेर जी कौन सी बात फेंकें ।

हो सकता है,आप ठीक हों । लेकिन उन दिनों मुझे ऐसा नहीं लगता था । शेले, कीट्स, बायरन, एलियट, उर्दू के नज़ीर, मीर, ग़ालिब और फ़िराक की कविताओं से मेरा सघन परिचय था । हिन्दी कविताएँ भी पढ़ता था । बी.ए. में पन्त और निराला से प्रभावित रहा।

किससे ज़्यादा प्रभावित थे ?

निराला से ।

निराला क्यों, पन्त क्यों नहीं ?

बहुत विराट व्यक्तित्व था निराला का । उसी के अनुरूप उनका रचना कर्म भी ।

उनकी कविता क्यों अच्छी लगती थी ?

उनकी कविता का दर्शन मुझे अच्छा लगता था ।

दर्शन के लिए तो प्रसाद जी की ख्याति है,फिर निराला क्यों ?

निराला का जीवन-दर्शन जीवन्त है, प्रसाद का औपचारिक। उनके जीवन-दर्शन की जीवन्तता ने मुझ पर अत्यधिक प्रभाव डाला ।

संक्षिप्त प्रश्नोत्तरों की झड़ी के बाद सहसा मैने शमशेर जी को उनके विवाह के सम्बन्ध में उन्हें कुरेदा तो भावशून्य होकर वह अलग देखने लगे, जैसे वह अदृश्य धुएँ की अनन्त तहों में दबी हुई हों । फिर उनकी आँखों में दूर की हलकी-हलकी छायाएँ सिमटने लगीं।

मेरा विवाह देहरादून के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था । उस समय विवाह करने की मेरी कोई इच्छा नहीं थी । वह ऐसा समय था, जब ऐसे मामलों में पिताजी की इच्छा के आगे झुकना पड़ता था । मेरी पत्नी एक सुसंस्कृत महिला थीं । कुछ महीने मेरे साथ रहीं, लेकिन वह रुग्ण हो गयीं । उन्हें टी.बी. थी । काफ़ी लम्बे समय तक उन्हें सैनिटोरियम में रहना पड़ा । लेकिन वह बची नहीं । तदुपरान्त मैने विवाह नहीं किया ।

शमशेर जी अनायास चुप हो गए। ऐसा लगा जैसे उनकी साँस थोड़ी देर के लिए रुक गई । उनके चेहरे पर विषाद का धुआँ तैरने लगा । आँखें हल्की नम हो आईं ।

मेरे मुँह से न जाने कैसे अचानक निकल गया —

आपकी प्रेम कविताएँ क्या आपकी स्वर्गीय पत्नी की स्मृतियों का प्रतिफल हैं ? नहीं। मेरी प्रेम कविताएँ मेरे लगावों से उपजी हैं ।

यह कहते ही उनकी आँखों में असमंजस की एक महीन रेखा खिंच गई । वे लगाव कैसे थे, यह जानने की इच्छा मेरे मन में पक रही थी । पर इसपर अमल करने के पहले ही न जाने क्यों मैं शरमा गया। घड़ी की सुइयाँ तेज़ चल रही थीं, लेकिन शमशेर जी के अन्तर में वे प्रसंग शायद हिलोरें मार रहे थे, जिनका अक्स अपनी गूँज के साथ हरदम एक हिलते हुए शीशे की तरह उनकी सोच में झलकता है । चोट खाए संगीत की धुन में उन्होंने कहा —

मेरी ससुराल काफी सम्पन्न थी । मेरे पत्नी अपने पिता की एकमात्र सन्तान थी । वे चाहते थे कि मैं उनके यहाँ रहूँ । लेकिन मेरा स्वभाव और स्वाभिमान इसमें आड़े आता था । वे चाहते थे कि में उनके यहाँ रहूँ । वहाँ मेरा आना-जाना भी नहीं रहा । लेकिन मेरी पत्नी के इलाज के लिए जब मेरे श्वसुर बम्बई गए तो उनकी तीमारदारी के ख़याल से में भी उनके साथ गया । हालाँकि उनकी सेवा इत्यादि के लिए उनके पास नौकर इत्यादि थे । लेकिन अपने धर्म का पालन करने और मानवीय दृष्टिकोण के चलते मैं उनके साथ गया । किन्तु कुछ समय बाद उनको लगा कि उन्हें मेरी कोई ज़रूरत नहीं है । बम्बई में मेरे कवि मित्र पण्डित नरेन्द्र शर्मा थे । उनसे मुलाक़ात की । वे अच्छे कवि और अच्छे व्यक्ति थे । उन्हीं के माध्यम से कम्युनिस्ट पार्टी से सम्पर्क बना । इससे मेरे व्यक्तित्व और सोच में व्यापक परिवर्तन आया । पार्टी की पत्रिका ’नया साहित्य’ त्रैमासिक का सम्पादन भी किया । पार्टी मेरे सम्पादन में कोई हस्तक्षेप नहीं करती थी ।

घड़ी की सुइयाँ तेज़ चलने की अपनी आदत से मजबूर थीं । वक़्त हो चुका था । शमशेर जी के चेहरे पर थकान के चिह्न दिखाई दे रहे थे, लेकिन इसके बावजूद उसपर अज़ीब चमक और ख़ुशी भी थी, जो शायह अनुभवों को बाँटकर और अपने मन की गाँठें खोलकर मिलती थी । शमशेर जी ने अपनी भीगी मुस्कान से मुझे विदा किया ।

00

अगले दिन जब मैं फिर वहाँ पहुँचा, शमशेर जी अखबार पढ़ रहे थे । पूर्णतया चैतन्य । हमारी बातचीत बिना किसी औपचारिकता के शुरू हो गई ।

मुक्तिबोध ने आपकी कविताओं की व्याख्या करते हुए कहा है कि आपके काव्य-संसार में एक चित्रकार और एक कवि के बीच द्वन्द्व बना रहता है। चित्रकला से आपका लगाव किस तरह का रहा है?

शमशेर जी चेहरे पर कोई शिकन नहीं । कोई खम नहीं । मैं उनके होंठों की ओर देख रहा हूँ जो कह रहे हैं —

मुक्तिबोध का कहना सही है । मैं अभी तक यह तय नहीं कर पाया कि मैं क्या बनना चाहता हूँ । मुझे चित्रकार बनना है या कवि । सभी कलाएँ मूल में एक सी हैं, चाहे नृत्य हो, संगीत हो या चित्रकला । सत्य एक ही है । मेरे कोशिश रही है कि मैं उसकी जड़ या नींव में पहुँच सकूँ । उसके सारे यथार्थ को देख सकूँ । जहाँ तक चित्रकला से मेरे लगाव का सम्बन्ध है, मेरा लगाव इससे शुरू से ही था । एक बार चित्रकार बनने की इच्छा से मैं घर से दिल्ली भाग आया । यह सन् 35-36 की बात है । तकरीबन 25-26 साल की उम्र मेरी रही होगी । दिल्ली में कनाट-प्लेस में घूमते हुए अकील स्टूडियो का बोर्ड देखकर मैं वहाँ चल गया । उस स्टूडियो के संचालक चित्रकार से बातचीत की और कहा कि मुझे चित्रकला सीखनी है ।उन्होंने रुकने को कहा । फिर मुझसे एक चित्र की कॉपी करने को कहा । मैं बहुत नर्वस हो गया था । लेकिन मैंने किसी तरह उसकी कॉपी कर दी । वह देखकर ख़ुश हुए । उन्होंने मुझे चित्रकला सिखाना स्वीकार कर लिया । कुछ दिनों तक मैं वहाँ चित्रकला सीखता रहा । फिर देहरादून लौट आया । मुक्तिबोध एक ईमानदार आलोचक थे । उनके प्रति मेरे मन में गहरा सम्मान है। उन्होंने मेरी कविताएँ पढ़कर जो अनुभव किया होगा, वही लिखा होगा ।

शमशेर जी ख़ामोश हो जाते हैं । मैं अपने भीतर एक अप्रतिहत दबाव महसूस कर रहा हूँ, जो क्षण-प्रतिक्षण बढ़ता जा रहा है । एक गूँज बहुत सी महीन आवाज़ों की, जैसे उन आवाज़ों का मैं एक प्रतिनिधि हूँ । मुझे यह पूछ ही लेना चाहिए, मैं तय करता हूँ ।

कुछ लोग आपकी कविताओं पर अस्पष्टता का आरोप लगाते हैं।आप क्या सोचते हैं ?

मेरी इस ढिठाई से शमशेर जी किंचित भी विचलित नहीं होते । वह अपने होंठ खोलते हैं, मानो वह ऐसी खिड़की हो, जहाँ से पर्याप्त हवा आ सकती हो ।

हाँ ! अस्पष्टता है मेरी कविता में । जिस तरह की मैं कविता लिखता हूँ, उसमें अस्पष्टता आ ही जाती है । दरअसल अन्तर्मन के घात -प्रतिघात को हूबहू शब्दों में पकड़ना चाहता हूँ । अन्तर्मन गोपन होता है । चित्र बिम्बों में उसी रूप में पाने में उसमें थोड़ी अस्पष्टता आ ही जाती है । मैं इससे इनकार नहीं करता, लेकिन इसके साथ यह भी सही है कि जिन्होंने मुझे टटोल लिया — मेरे सिस्टम को समझ लिया — उन्हें मेरी कविताएँ समझने में कोई दिक्क़त नहीं होगी ।

एकाएक इस प्रश्न से जुड़ा एक और प्रश्न में उनके सामने रखता हूँ —

कुछ लोग यह भी कहते हैं कि भावनाओं के घात-प्रतिघात को अंकित करनेवाली आपकी कविताओं में सघनता और ऐन्द्रिकता ज़्यादा, है जबकि सामाजिक चेतना से जुड़ी आपकी कविताएँ सपाट होती हैं।

शमशेर जी के चेहरे पर द्वन्द्व की कोई बारीक रेखा तक नहीं। वह अपनी गर्दन हिलाते हैं, मानो सिर हिलाकर अपनी स्वीकृति दे रहे हों —

बात यह है कि जिनमें हम रमे रहते हैं, वे कविताएँ ज्यादा प्रभावी बनती हैं । जिन कविताओं को वक़्ती तौर पर लेते हैं, उनको पहचानने के लिए लेते हैं, उसे अभिधा में लिखते हैं — जैसे राजनीतिक कविताएँ । धार्मिक एकता व सांस्कृतिक एकता से सम्बद्ध कविताएँ । धार्मिक एकता व सांस्कृतिक एकता में इधर बिखराव आया है। समाज अपनी चेतना में नीचे चला गया है । इससे हम उबर सकें और उबार सकें । अपने काम को इस दिशा में ढालें कि मानव-मात्र का कल्याण हो — कल्याण शब्द का इस्तेमाल मैं यहाँ आधुनिक सन्दर्भ में कर रहा हूँ, जैसे कि रूस और चीन में हुआ है । कहने को तो ब्रिटेन और अमेरिका भी डेमोक्रेसी पहुँचा रहे हैं — पहुँचाएँगे । लेकिन वे दोमुँहा बात करते हैं । जो वे पहुँचा रहे हैं, उसके पीछे क्या रणनीति है — सब जानते हैं ऐसी स्थिति में कलाकार भी खोज में लगता है । लेकिन यह खोज तब तक सफल नहीं होती है, जब तक कलाकर अपनी रगों में या पर्सनली समस्या के रूप में इसे नहीं देखता । जैसे तुलसी-सूर ने राम और कृष्ण को अपने ईगो के बीच खोजा और पाया । राम या कृष्ण का एक तरफ वे दर्शन करना चाहते हैं — साथ ही उसके माध्यम से तत्कालीन सामाजिक समस्याओं से निपटना भी चाहते हैं । मेरी राजनीतिक कविताएँ इसलिए अभिधा में होती हैं क्योंकि मैं उस समस्या को ख़ुद पहचानना चाहता हूँ और दूसरे को पहचनवाना चाहता हूँ ।

समाज के चेहरे पर लिखी इबारत को पहचानने और पहचानकर उसे कला में पिरोकर सामान्य जन के सम्वेदन-तन्त्रों में झंकृत करने की चेष्टा का जो एक जज़्बा होता है, उसी भावभूमि पर शमशेर जी थे । लेकिन मैं तो एक ढीठ प्रश्नकर्ता ठहरा । ढीठ प्रश्नकर्ता ठहरा और ढीठता नहीं छोड़ी। बरबस उस सवाल को पूछ ही लिया जों देर से मुझे कोंच-कोंच कर परेशान कर रहा था —

आपके लेखन और वक्तव्यों में लीला, अवतार जैसे कुछ वैष्णवी शब्द प्रायः आए हैं । इस आधार पर कुछ समीक्षकों ने आपकी शुद्ध कवि के रूप में व्याख्या की है । कुछ ने आध्यात्मिक दायरे तक में ले जाने की कोशिश की है । आपकी इस सम्बन्ध में क्या राय है ?

शमशेर जी को जैसे ऐसी गणित नहीं आती हो। आलोचकों के हिसाब-किताब की भी कोई बही उनके पास नहीं हो, ऐसी ही कुछ मुख-मुद्रा उन्होंने बनाई, जैसे वह इसे एक छोटी सी ’हूँह’ से टालना चाह रहे हों। उन्हें शायद उस समय यह ख़याल भी न रहा होगा कि कुछ शब्दों की धूल झाड़ने के लिए उन्हें अपने व्यक्तित्व की उन नाड़ियों का अता-पता लगाना होगा, जिनमें रक्त प्रवाहित होता रहता है, लेकिन वे दिखाई नहीं देती। शमशेर जी ने अपनी तरल पारदर्शी आवाज़ में कहा —

लीला और अवतार जैसे शब्द मेरे लिए बहुत अर्थवान हैं । बहुत सारी चीज़ों को मैं इनके बिना व्यक्त नहीं कर सकता। मसलन, लीला शब्द का प्रयोग महत्तम शक्ति और लौकिक सन्दर्भ में खेल के लिए — दोनों रूपों में मैं प्रयोग करता हूँ। गम्भीर अर्थ में लीला शब्द को मैं उसी रूप में लेता हूँ, जैसे भक्त कवि लीला शब्द को लेते हैं । दैनिक और आध्यात्मिक भाव भी आता है । बचपन और घर के संस्कारों की वजह से कुछ ऐसा है । घर में पिता जी नियमित रूप से रामायण पढ़ते थे । माँ भागवत पढ़ती थीं । उनमें लीला शब्द बार -बार आता था। उसकी गूँज भी इसमें शामिल है। ग़ालिब भी कहते हैं :

बाचीज़ :ए:अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे

होता है शबोरोज़,तमाशा मिरे आगे ।

आपका जीवन दर्शन क्या है ?

शमशेर जी के चेहरे पर एक प्रफुल्ल उड़ान दिखाई देती है। उनके होंठ आहिस्ता से खुलते हैं :

प्रेम -सौन्दर्य सब ज़गह छिटक हुआ है । कलाकार की कोशिश होनी चाहिए कि उसके दर्शन कर पाए। आत्मा से उसको उपलब्ध कराए। सहज रूप से अंतरंग को टटोल सके — उसे देख सके — उतना साफ़ जितना कि आप अपना चेहरा आईने में देखते हैं । दुनिया के पीछे एक सचाई है । इस सचाई की झाँकी पाने की चेष्टा हर कलाकार करता है । मेरी चेष्टा भी यही रहती है । एक लम्बी उड़ान के बाद किसी बारजे पर बैठकर जैसे कोई चिड़िया एक बार अपने पंख तेज़ी से फड़फड़ाकर बैठ जाती है, शमशेर जी भी उसे तरह ख़ामोश होकर बैठ गए हैं । उनका रोम-रोम तरल सम्वेदना से ओत-प्रोत है, मानो वह कह रहे हों — आओ ! मेरे पास आओ, मैं तुम्हें छलकते हुए अपने सम्वेदन रस से भिगो दूँगा ।

अन्तर्दृष्टि पत्रिका में प्रकाशित और बतरस पुस्तक ( शिल्पायन दिल्ली )में संकलित