कविवर बर्त्वाल की दूरद्वष्टि / अशोक कुमार शुक्ला
- कविवर बर्त्वाल की दूरद्वष्टि
14 सितम्बर की तिथि मात्र हिन्दी दिवस के रूप में याद किये जाने का दिवस नहीं है। यह दिवस हिन्दी कविता जगत की एक ऐसी विभूति के निर्वाण का दिवस भी है जिसने मात्र 28 वर्ष के अपने जीवन काल में हिन्दी को ऐसी समृद्वशाली रचनायें दी जो अनेक विद्वजनों के लिये आज भी शोध का विषय बनी हुयी हैं। 21 अगस्त 1919 में ई0 में तत्कालीन गढवाल जनपद के चमोली नामक स्थान मे मालकोटी नाम के ग्राम में एक निष्ठावान अध्यापक श्री भूपाल सिंह बर्त्वाल के घर पर एक बालक का जन्म हुआ। (इनके जन्म की तिथि के संबंध में यह विवाद है कि यह 21 अगस्त 1919 है अथवा 20 अगस्त 1919। डा0 हर्षमणि भट्ट द्वारा निष्पादित शोध में यह प्रमाणित हुआ कि कविवर चन्द्र कुंवर बर्त्वाल की जन्म तिथि 21 अगस्त 1919 है )
उनके नाम के सम्बन्ध में डा0 हर्षमणि भट्ट द्वारा निष्पादित शोध में यह प्रमाणित पाया गया है कि कविवर चन्द्र कुंवर बर्त्वाल का असली नाम कुंवर सिंह बर्त्वाल था। श्री चन्द्र कुंवर की मां का दिया हुआ नाम श्राीचन्द्र था तथा उनके पिता का दिया हुआ नाम कुॅवर सिंह था और इनका प्रसिद्व साहित्यिक नाम है श्रीचन्द्रकॅुवर। इस प्रकार मांॅ और पिता दोनो की भावनाओं की रक्षा हो सके इसलिये उन्होंने अपना साहित्यिक नाम चन्द्रकॅुवर अपनाया था। वे अपनी माता पिता की प्रथम और इकलौती संतान थे।
उनके परम प्रिय मित्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा के अनुसार उनकी प्राथमिक शिक्षा ग्राम में ही हुयीं। तद्पश्चात पौडी गढवाल के मिशन कालेज (वर्तमान में मैसमोर इन्टर कालेज) से 1935 में उन्होंने हाई स्कूल किया और उच्च शिक्षा लखनऊ और इलाहाबाद में ग्रहण की। 1939 में इलाहाबाद से स्नातक करने के पश्चात लखनऊ विश्वविद्यालय में प्राचीन भारतीय इतिहास से एम0 ए0 करने के लिये प्रवेश लिया जहां उनके मित्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा जी रहते थे। वे दोनो वहां साथ ही रहने लगे थे जहां श्री बहुगुणा ने उन्हें अत्यधिक स्नेह और संबल प्रदान किया। बांझ और बुरांस की जडों से रिसता हुआ पानी पीने की आदत और सुरम्य पहाडी वातावरण में रहने वाले श्री बर्त्वाल से मैदानी क्षेत्रों की आपाधापी सहन न हो सकी और वे बीमार रहने लगे और अंततः इतना बीमार हुये कि 1941 के दिसम्बर माह में आगे की पढाई छोडकर अपने गांव बापस लौट आये।
लखनऊ से लौटकर उन्हें पंवालिया जाना पडा जो उनके जन्म ग्राम मालकोटी से कुछ दूरी पर स्थित था और मालकोटी से अधिक समृद्व और प्राकृतिक शोभा से युक्त था। यह चमोली जनपद में रूद्रप्रयाग और केदारनाथ के बीच केदारनाथ मार्ग पर भीरी के नजदीक बसा ग्राम है जिसे बर्त्वाल परिवार ने सिंचित और अधिक उत्पादकता रखने वाली भूमि पर हरियाली और खुशहाली की उम्मीदों के साथ लिया था।
इस स्थान के संबंध में डा0 उमाशंकर सतीश ने ‘हिलांस’ मासिक के सितम्बर 1980 अंक में प्रकाशित लेख में कहा है कि वह ग्राम पंवालिया केदारनाथ के पंडेा के अधिकारक्षेत्र में हुआ करता था। इन पंडों ने किसी लाला से एक हजार रूपये कर्ज लिया था जिसे चुकाने का दबाव उन पर था। जब लाला के कर्ज केा चुकाने में उन्हे सफलता नहीं मिली तो विपत्ति के समय में कर्ज को चुकाने के लिये इस गांव पंवालिया को बेच कर कर्ज की अदायगी करने की सोची। इसी समय उस लाला ने बडी क्रूरता के साथ पंवालिया को मात्र हजार रूपये में बर्त्वाल परिवार को बेचने का प्रस्ताव किया। मालकोटी से अलग एक नया धरौंदा बनाने के अवसर का उपयोग करने की आशा से बर्त्वाल परिवार ने यह जमीन ले ली। यह मान्यता है कि बुरे दिनों में भूमि और भवन से वंचित होने वाले उन धार्मिक व्यक्तियों ने इस भूमि पर बसने वालों को न फलने का जो अभिशाप दिया। उन्होंने जब पंवालिया को छोडा तो वहां की मिट्टी कई देवस्थानों को चढाई और उस स्थान को शापित कर दिया। शाप और बददुआ के असर ने बर्त्वाल परिवार को छिन्न भिन्न करना प्रारंभ कर दिया। जब से बर्त्वाल परिवार ने पंवालिया में डेरा डाला, तभी से कविवर बर्त्वाल बीमारी की चपेट में आ गये और उसका परिवार भी कालान्तर में इससे प्रभावित हुआ।
भारत में सनसनीखेज खुलासे करने के लिये विख्यात ‘तहलका’ पत्रिका द्वारा फरवरी 2011 में उत्तराखंड के दस महानायकों की सूची में कविवर चंद्र कुंवर बर्त्वाल को स्थान देते हुये लिखा गया हैः-हिंदी साहित्य में छायावाद के प्रतीक कविवर सुमित्रानंदन पंत तो देश दुनिया के साहित्य जगत में प्रसिद्व हैं ही इसलिये तहलका ने चुना हिमवंत के कवि चंद्र कुंवर बर्त्वाल को जिन्होंने मात्र 28 साल की उम्र में हिंदी साहित्य को अनमोल कविताओं का समृद्ध खजाना दे दिया था। समीक्षक चंद्र कुंवर बर्त्वाल को हिंदी का कालिदास मानते हैं।
वे अपने जीवन काल में अपनी रचनाओं का सुव्यवस्थित रूप से प्रकाशन नहीं कर पाये। प्रारंभ में वे रसिक नाम से लिखते थे। डा0 उमाशंकर सतीश ने ‘चन्द्रकुवर बर्त्वाल की कवितायें भाग-एक’ में यह रहस्योद्घाटन किया हैं कि उन्होंने अपना लिखा संकोचवश पत्रिकाओं में भी नहीं भेजा। उन्होंने स्वातः सुखाय कवितायें लिखी और पास रख लीं, बहुत हुआ तो अपने मित्रों को भेज दीं। उनके मित्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा जी को उनकी रचनाये सुव्यवस्थित करने का श्रेय जाता है जिन्होंने 350 कविताओं का संग्रह संपादित किया । डा0 उमाशंकर सतीश ने भी उनकी 269 कविताओं व गीतों का प्रकाशन किया था। उनकी दूरद्वष्टि इतनी तीखी थी कि उस समय ही वर्तमान शिक्षा प्रणाली और अंतराष्ट्रीय बाजारवाद के दुष्प्रभावों को भांप लिया था। ‘मैकाले के खिलौने’ नामक कविता का अंश देखियेः-
मेड इन जापान ,
खिलौनांे से सस्ते हैं
लार्ड मैकाले के ये नये खिलौने
इन को ले लो पैसे के सौ-सौ दो-दो सौ
राष्ट्रीयता का भाव उनकी रचनाओं में जहां भी उभरता था पूरे पैनेपन के साथ उभर कर आता था तभी तो आज के परिदृष्य उन्होने सत्तर साल पहले ही खींचकर रख दिये थे। उनकी छुरी नामक कविता का अंश देखिये:-
मजदूरों की सरकार ओह
इटली तू जाय जहन्नम को,
लीग सी नाज्.ारी जो छोडी
नामर्द कहें क्या हम तुम को।
श्री बर्त्वाल की अब तक अन्वेषित लगभग आठ सौ से अधिक गीत और कवितायें यह सिद्व करती हैं कि चन्द्रकुवर बर्त्वाल हिन्दी के मंजे हुये कवि थे ।
उत्तराखण्ड के सुपरिचित इतिहासकार कैप्टेन शूरवीर सिंह पंवार का मत है कि महाकवि सुमित्रानन्दन पन्त और महाप्राण निराला से भी चन्द्र कुवर बर्त्वाल की धनिष्ठता थी। उत्तराखण्ड भारती त्रैमासिक जनवरी से मार्च 1973 के पृष्ठ 67 में यह अंकित है कि वे निराला जी के साथ तो 1939 से 1942 तक अपना संधर्षमय जीवन उनके पास ही रहकर बिताया था। उन्होंने 25 से अधिक गद्य रचनायें भी लिखीं हैं जिसमें कहानी ,एकांकी, निबन्ध एवं आलोचनायें भी हैं परन्तु उनके लिखे पद्य के अपार संग्रह से यह सिद्व होता है कि वे मूलतः कवि थे। आम हिन्दुस्तानी की तरह उन्होंने भी आजादी का सपना देखा था लेकिन उनकी दूरद्वष्टि आजादी के बाद के भारत को भी देख सकती थी शायद इसीलिये उन्होंने लिखा थाः-
हृदयों में जागेगा प्रेम
और नयनों में चमक उठेगा सत्य,
मिटेंगे झूठे सपने।
लखनऊ से वापिस लौटकर राजयक्ष्मा से अपनी रूग्णता के पांच छः वर्ष पंवालिया में बिताने के दौरान श्री बर्त्वाल ने अगस्तमुनि हाई स्कूल मे अध्यापकी से लेकर प्राचार्य तक के दायित्वों का निर्वहन किया परन्तु विद्यालयीय प्रबंध की दुरूहताओं के चलते उनका स्वस्थ्य गिरता ही गया और इस दौरान उन्होने मुख्य रूप से अपनी शारीरिक पीडा और विरह वेदना के स्वर को ही मुखर कियाः-
मकडी काली मौत है, रोग उसी के जाल,
मक्खी से जिसमें फंसे ,चन्द्र कुंवर बर्त्वाल।
खडी हो रही हड्डियां ,सूख रही है खाल।
अपने दुखों के सम्बन्ध में कथाकार यशपाल केा भेजे गये एक पत्र 27 जनवरी 1947 को उन्होंने लिखा थाः-
प्रिय यशपाल जी,
अत्यंत शोक है कि मैं मृत्युशैया पर पडा हुआ हूॅ और बीस- पच्चीस दिन अधिक से अधिक क्या चलूंगा.....................सुबह को एक दो घंटे बिस्तर से मै उठ सकता हूॅ और इधर उधर अस्यव्यस्त पडी कविताओं को एक कापी पर लिखने की कोशिश करता हूॅ। बीस - पच्चीस दिनों में जितना लिख पाऊंगा, आपके पास भेज दूंगा।
और सचमुच इन शब्दों को लिखने के बाद वे शायद स्वतंत्र भारत की हवा में कुछ सांसे लेने के लिये ही 14 सितम्बर तक जिन्दा रहे। 14 सितम्बर 1947 की रात हिमालय के लिये काल रात्रि साबित हुयी जब हिमालय के अमर गायक चन्द्रकुवर बर्त्वाल ने सदा सदा के लिये इस लोक को छोड दिया औ कभी जागकर न उठने के सो गया। ऐसा था वह रविवार का दिन। वे चले गये और अपने पीछे अपनी अव्यवस्थित काव्य संपदा को यह कह कर छोड गयेः-
मैं सभी के करूण-स्वर हूॅ सुन चुका
हाय मेरी वेदना को पर न कोई गा सका।
कविवर चंद्र कुंवर बर्त्वाल की डायरी में एक स्थान पर लिखा हैः-
मेरा ध्येय हिंदी की सेवा करना होगा। मेरा आजन्म प्रयास होगा कि हिंदी को कोई नयी चीज भेंट करूं जो मेरे ही घर की बनी हो, विलायत जापान से बनकर नहीं आयी हो।
डायरी के पृष्ठ पर अंकित तिथि 6 मार्च, 1938
साहित्यकार मंगलेश डबराल लिखते हैः-
‘‘ कई साल पहले पडी चंद्र कुंवर बर्त्वाल की दो पंक्तियां- अपने उद्गम को लौट रही, जीवन की नदियां मेरी’ आज भी मुझे विचलित कर देती हैं।’’
प्रसिद्व विद्वान डॉ0 वासुदेव शरण अग्रवाल के शब्दों मेंः-
‘‘श्री चंद्र कुंवर बर्त्वाल कब हिंदी संसार में आए और कब चले गए इसका किसी को पत नहीं लगा, लेकिन उनके रूप में हिंदी साहित्य ने अपना सबसे बडा गीति काब्य रचयिता पाया और खो दिया।’’
इन पंक्तियों के लेखक ने उत्तराखंड के इस कालिदास के कृतित्व को www.kavitakosh.org नामक कविताओं के अंतरराष्ट्रीय संकलन वेबसाइट पर भी संकलित किया है।