कवि मलिक मोहम्मद जायसी और इतिहास / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :02 सितम्बर 2016
संजय लीला भंसाली की फिल्म 'रानी पद्मावती' में उनके प्रिय नायक रनवीर सिंह, दीपिका पादुकोण एवं शाहिद कपूर अभिनय करने जा रहे हैं। इन तीनों में दीपिका पादुकोण सबसे अधिक लोकप्रिय सितारा हैं और अभिनय में भी प्रवीण हैं। इतिहास प्रेरित फिल्में हमेशा बनती रही हैं और उनके प्रारंभिक दौर में फिल्मकार सोहराब मोदी ने पृथ्वीराज कपूर और वनमाला अभिनीत 'सिकंदर' बनाई थी। वनमाला ग्वालियर राजघराने से संलग्न किसी सरदार की पुत्री थीं और अपनी लोकप्रियता के शिखर पर उन्होंने फिल्म उद्योग छोड़ दिया तथा ग्वालियर लौट आईं। उनके परिवार में कोई व्यक्ति बीमार था, जिसकी सेवा के लिए उन्होंने चमक-दमक वाली फिल्म नगरी छोड़ दी थी। अपनी फिल्मों से निवृत्ति के पहले वे मराठी भाषा की राष्ट्रीय पदक जीतने वाली 'आमची माई' बना चुकी थीं। बहुत कम लोग चमक-दमक की फिल्म नगरी से अपने शिखर दिनों में विमुख होते हैं, क्योंकि उन्हें अपने किसी बीमार रिश्तेदार की सेवा करनी है। यह मदर टेरेसिया काम है।
एक बार शशि कपूर ने स्वीकार किया था कि उनके बाल मन में सौंदर्य व गरिमा की छवि वनमाला के कारण ही बनी थी। बाल मन में बनी छवियां ताउम्र साथ रहती हैं और संभवत: मृत्यु के क्षणों में भी वे प्रबल जलप्रपात की तरह मन में उभरती हैं। राज कपूर की 'मेरा नाम जोकर' में किशोरवय के मन में अपनी सुंदर शिक्षिका के लिए प्रेम जागता है। सिमी ग्रेवाल ने यह भूमिका अभिनीत की थी और नायक की किशोरवय को ऋषि कपूर ने अभिनीत किया था, जिसके लिए वे पुरस्कृत भी हुए थे परंतु 46 वर्ष की सफल फिल्म यात्रा के बाद भी उन्हें दादा फालके पुरस्कार के योग्य नहीं समझा जा रहा है। संभवत: उनका निक नेम चिन्टू ही उनकी छवि के साथ चिपका हुआ है और उन्हें इस पुरस्कार के लिए छोटा समझा जा रहा है।
बहरहाल, इतिहास प्रेरित पहली फिल्म वी. शांताराम की 'उदयकाल' थी जो 1927 में प्रदर्शित हुई थी। उस समय भारत पर हुकूमते बरतानिया का शासन था और गांधीजी के प्रेरक नेतृत्व में स्वतंत्रता के लिए संग्राम किया जा रहा था। उस दौर में मायथोलॉजी व इतिहास प्रेरित फिल्मों ने देशप्रेम की अलख जगाने का बहुत काम किया। द्वारकादास सम्पत की धार्मिक कथा 'महात्मा विदुर' में नायक को गांधीजी की तरह वस्त्र पहनाकर प्रस्तुत किया गया था। धार्मिक फिल्म होने के कारण सेन्सर उसे रोक नहीं पाया। स्वतंत्रता संग्राम में फिल्म उद्योग ने अपना राष्ट्रीय दायित्व बखूबी निभाया था। उस दौर में साहित्यकारों ने भी अपना दायित्व बखूबी निभाया।
हरिकृष्ण प्रेमी का इतिहास प्रेरित नाटक 'रक्षा बंधन' बहुत प्रसिद्ध था और उससे प्रेरित फिल्म का नाम 'चित्तौड़ विजय' था। इस नाटक में रानी करमावती मुगल सम्राट हुमायंू को राखी भेजती हैं और मुगल भाई अपनी राजपूत बहन की रक्षा के लिए आता है, परन्तु तब तक वह जौहर कर चुकी हैं। हुमायूं उसके राज्य को मुक्त कराता है और राजपूत राजा को पुन: सिंहासन पर बैठाता है। बहन की रक्षा के काम में हुमायूं के हाथ से दिल्ली निकल गई थी। आज तो सत्ता की खातिर धार्मिक असहिष्णुता फैलाई जा रही है और इतिहास के पुन: लेखन का प्रयास भी किया जा रहा है। अब इसे अविश्वसनीय बताया जा रहा है कि मुगल शासक अपनी मुंहबोली राजपूत बहन को बचाने आया था।
संजय लीला भंसाली की स्वाभाविक रुचि है भव्यता प्रस्तुत करना। उनकी फिल्में रंग और ध्वनि की ऑरजी की तरह होती हैं, मानो कोई रंग और ध्वनि पीकर उसका वमन कर रहा है। उनके रंग और ध्वनि प्रेम के कारण कथा गौण हो जाती है और वे संभवत: उस शांताराम से प्रेरित हैं, जिन्होंने 'झनक झनक पायल बाजे' और 'नवरंग' जैसी फिल्में बनाई।
परन्तु वे शांताराम की सर्वकालीन महान 'मानुष' और डॉ. कोटनीस की अमर कहानी तथा 'दो आंखें बारह हाथ' से अपरिचित हैं। शांताराम ने इतनी लंबी पारी खेली और इतनी विविध फिल्में बनाई कि अगर हम फिल्म उद्योग को एक दिवस मान लें, तो कहना होगा कि शांताराम सूर्योदय के थोड़ी देर बाद आए और सूर्यास्त के थोड़े पहले चले गए। परिभाषाओं के परे शांताराम ने महान व घटिया दोनों किस्म की फिल्में बनाई हैं। लंबी पारी खेलने वलों के कुछ आसान कैच छूट जाते हैं और गेंदबाज की अपील पर उसे बेनीफिट ऑफ डाउट भी मिलता है अर्थात संदिग्ध स्थिति में बैट्समैन को ऑउट नहीं दिया जाता।
'रानी पद्मावती' ऐसा विषय है, जो उन्हें जमकर रंग और ध्वनि से खुलने का अवसर देगा। उनकी पारो और चंद्रमुखी तो साथ-साथ नृत्य भी करती हैं तो हम उनकी पद्मावती की थोड़ी कल्पना कर सकते हैं। परन्तु छोटे कद-काठी वाला शाहिद कैसा राजपूत योद्धा दिखेगा या कैसा अलाउद्दीन खिलजी दिखेगा, इसकी कल्पना कठिन है। प्रमाण तो नहीं हैं परन्तु ऐसा आभास होता है कि भंसाली 'राजनैतिक हिन्दुत्व' के हामी हैं अत: उनसे धर्मनिरपेक्ष फिल्म की आशा नहीं की जा सकती। हर इस्लाम मानने वाला मुगल नहीं होता, परन्तु अनेक मुगल धर्मनिरपेक्षता को स्वीकार करते थे।
अलाउद्दीन खिलजी का रानी पद्मावती के सौंदर्य से अभिभूत होना और चित्तौड़ पर आक्रमण तथा पद्मावती का जौहर करना, इतिहास से अधिक उससे जुड़ी किंवदंतियों में मिलता है। यह घटना 1303 में घटित बताई जा रही है। घमासान युद्ध के पश्चात राणा रतनसिंह ने हार स्वीकार कर ली और पद्मावती ने जौहर कर लिया। दरअसल युद्ध में पराजय और रानी पद्मावती का जौहर कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने अपने महाकाव्य 'पद्मावत' में किया और इतिहास इस पर खामोश ही है। दरअसल लिखित इतिहास से अधिक प्रामाणिक जानकारी लोक कथाओं और लोक गीतों में मिलती है। इस धुंध के कारण संजय लीला भंसाली को अपनी रंग और ध्वनि की ऑरजी के लिए भरपूर अवसर मिलता है।