कश्मीर यात्रा / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
कश्मीर यात्रा की बात कह चुका हूँ। उसका कुछ हाल यहाँ देकर और बातें लिखने का विचार है। पहले तो दो दिनों में रावलपिंडी से श्रीनगर बस ले जाती थी। मगर अब एक ही दिन में रात होते-होते वहाँ पहुँच जाते हैं। सो भी प्रात:काल ही चल कर। पहाड़ों की चढ़ाई और उतराई खूब है! मरी होकर जाना पड़ता है। मरी पहुँचने पर मेघ से मुलाकात जरूर होती है। यात्रा बड़ी ही मनोरम होती है। दोनों तरफ खड़े पहाड़ और हरे-भरे जंगल चित्त को मोह लेते हैं। अधिकांश तो झेलम के किनारे-किनारे ही सड़क बनी है। उसका कलरव खूब दिलचस्प होता है।
बीच में दो मेल नामक स्थान है। यहीं से काश्मीर राज्य शुरू होता है। बड़ी सख्ती से हर चीजों की जाँच कर के तब कहीं लोग और बसें आगे बढ़ने पाती हैं! हर आदमी से पूछते हैं कि किसलिए जाते हैं। कोई लेक्चर देना हो तो जाने में दिक्कतें हैं। मुझसे भी सवाल हुआ कि वहाँ लेक्चर तो न देंगे? मैंने'नाहीं'किया। क्योंकि पूर्ण विश्राम करना था। असल में पंजाब की खुफिया पुलिस की खबर उन्हें न मिली थी। तभी तक हम वहाँ पहुँचे। नहीं तो दिक्कत होती ही। श्रीनगर पहुँचते ही खुफियावाले दूसरे दिन सुबह हाजिर आए। फिर तो बराबर एक-दो बार दिन में आते ही रहते थे। जब हम पहलगाँव होते हुए अमरनाथ के लिए रवाना हो गए तो एकाएक वे बड़े ही घबराए। मगर जब हम लौटे तब उन्हें शांति मिली!
हमें वहाँ की वे खास-खास बातें लिखनी हैं जिनका हमारे ऊपर असर हुआ। हमने सर्वत्र गंदगी बहुत ज्यादा पाई। यहाँ तक कि तबीयत ऊब जाती थी। वहाँ वादी (वायु) की बहुतायत ऐसी थी कि पेट अफड़ता रहता और हर चीज फीकी लगती। नीबू बहुत महँगा था। बाहर से ही आता था। मगर टमाटो वगैरह सभी साग-तरकारियाँ काफी और सस्ती मिलती थीं।
जो लोग वहाँ चाय नहीं पीते उन्हें वादी की तकलीफ खूब ही भोगनी पड़ती है। मैं तो चाय पीता नहीं। इसीलिए बराबर यह कष्ट रहा। वहाँ के निवासी गरीब-से-गरीब भी चाय दिन-रात में पाँच बार पीते हैं। दूध और चीनी तो उनके लिए दुर्लभ है। इसलिए नमक डाल के ही पीते हैं। हम चलानेवाले खेतों में ही ले जाते और वहीं पीते हैं।
स्त्री और पुरुष की पोशाक तो एक सी होती है। हाँ, यदि टोपी पहने तो पुरुषों में विशेषता होती है। वहाँ समूचे काश्मीर में 95प्रतिशत मुसलमान बसते हैं, और हैं वे बड़े ही गरीब। यदि शिकारें (नावें) और ताँगे न चलायँ, हाउस बोट (नाव के ही घर) किराये पर यात्रियों को न दें, ऊनी कपड़े न तैयार करें और फल वगैरह न पैदा करें, तो वे भूखों मर जाए!
और जब कभी हिंदू मुसलिम दंगे हों तो भूखों मरने की नौबत आ ही जाती है। क्योंकि उस दशा में बाहर से यात्री जाते नहीं। फिर किराए पर किसे दें और सब चीजों को खरीदे कौन? इसीलिए दंगे से वहाँ की मुसलमान जनता बहुत डरती और खार खाती है! मैंने पहलगाँव से लौटते हुए 'बस' में एक मुसलमान जवान के, जो ऊनी कपड़े बेचने गया था, इस संबंध के उद्गार सुने और गद्गद हो गया। वह भुक्तभोगी था। क्योंकि ऊनी कपड़े बनाता था।
वहाँ किसानों को महाजन बहुत सताते हैं जो कर्ज पर रुपए देते हैं। किसानों की भाषा तो समझना कठिन था। मगर उनसे बातें कर के देखा कि सूदखोरों के नाम पर वे उबल पड़ते थे। राज्य का कर और लगान भी भरपूर है। फिर भी किसानों के लिए विशेष रूप से कुछ किया नहीं जाता। प्राय: ढाई करोड़ की आय में साठ लाख तो सिर्फ महाराजा को ही अकेले चाहिए। फिर शिक्षा और स्वास्थ्य की कौन पूछे?उसके लिए पैसे आए भी कहाँ से?
वहाँ मुसलमानों की दो पार्टियाँ पाईं। एक तो मुहम्मद अब्दुल्ला साहब की। वह अब काश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस को चलाती है। जातीयता की बात उसने छोड़ दी है। यही वहाँ आज जबर्दस्त पार्टी है। दूसरे एक मौलवी साहब हैं। मगर एक बार सत्याग्रह शुरू कर के पीछे राज्य से माफी माँग लेने के कारण वह दब गए हैं। पर, अब्दुल्ला साहब तो बराबर डटे हैं। दो-एक अच्छे और काम के सिख और हिंदू भी इनके साथ हैं। इसीलिए इनका प्रभाव अच्छा है। सरदार बुधा सिंह की बड़ी तारीफ सुनी। मगर उनसे मिल न सका। वहाँ आजादी का आंदोलन प्रारंभिक दशा में है। फलत: मध्यम श्रेणी के हाथ में ही है।
दो-तीन नौजवानों से, जो या तो ग्रेजुएट थे या कॉलेज में पढ़ते थे तथा एक मौलवी साहब से, जो एक उर्दू अखबार के संपादक थे, बातें कर के तबीयत बहुत खुश हुई। देखा कि वे लोग जमाने को खूब ही समझते हैं। उनमें धर्म की कट्टरता हई नहीं। यह भविष्य की अच्छी निशानी है। मौलवी साहब वहाँ के किसानों की समस्याओं को समझते थे यह भी खुशी की बात थी।
श्रावण की पूर्णिमा को बाबा अमरनाथ का दर्शन करते हैं। उसी दिन वहाँ के साधुओं का बड़ा सा दल अन्य लोगों के साथ वहाँ पहुँचता है। उसे छड़ी कहते हैं। असल में जब वह दल रवाना होता है तो उसके आगे-आगे एक सुंदर छड़ी या लाठी लेकर एक आदमी चलता है। उस पर फूल आदि चढ़ाए रहते हैं। इसी से उस दल को ही छड़ी कहने लगे। मैं और मेरे साथी कुछ पहले ही रवाना हो गए। क्योंकि छड़ी के साथ जाने में पड़ावों पर जगह और सामान आदि मिलना असंभव हो जाता।
पहलगाँव तक तो मोटरें और बसें चलती हैं। वहाँ से या तो पैदल चलना पड़ता है, या टट्टुओं पर। सामान लादने के लिए टट्टू रहते ही हैं। प्राय: 8-10 मील पर एक पड़ाव (चट्टी) रहती है। वहीं लोग टिक जाते हैं। पहली चट्टी चंदनबाड़ी है। हम वहाँ टिके। अगले दिन प्राय: सीधो दो-ढाई मील की चढ़ाई पार की और शेषनाग की चट्टी पर जाकर दोपहर खाया-पीया। शाम को पंचतरणी पहुँच गए।
बीच में सबसे ज्यादा ऊँचाई पर जाते ही पानी और छोटे-छोटे ओले से भेंट हो गई! पंचतरणी से कुछ ही पहले यह स्थान है। प्राय: रोज ही ऐसा होता है। एक मील के फासले पर टिन के दो कमरे बने हैं। जिनमें दौड़ के छिप जाते हैं। हम भी छिपे।
पंचतरणी के पहले, बल्कि चंदनबाड़ी के आगे ही पहाड़ों पर बर्फ ही बर्फ नजर आती है। हवा खूब तेज चलती है। न पेड़, न पत्तो। नीचे से (चंदनबाड़ी से) ही लकड़ी ले जाकर उधर जलाते हैं। थोड़ी दूर तक भोजपत्र के वृक्ष थे। फिर वह भी गायब! मगर काई जैसी घास थी जिसे भेड़ें चरती थीं उसे ही धीरे-धीरे चरती हुई पहाड़ों पर चढ़ जाती थीं। भेड़ोंवाले खेमे डालकर रात-दिन पड़े रहते हैं। कभी-कभी रात में ज्यादा बर्फ पड़ने से खतरा होता है और मर भी जाते हैं। हमने देखा, उस भयंकर सर्दी में भी टट्टू रात भर वही घास चरते रहते थे!
रास्ते में सर्दी ऐसी कि जो ही अंग न ढका हो वही सुर्ख हो जाता है। पीछे वहाँ से लौटने पर सुर्ख भाग के ऊपर से पपड़ी सूखकर छूटती है। हमारे मुँह की यही दशा हुई। हमने एक पंगु को सो के घिसकते हुए जाते देखा! वाह-री हिम्मत! वह नजदीक तक जा चुका था।
अमरनाथ की गुफा में एक बगल में एक बिहारी बाबा थे। यह रात-दिन वहीं रहते थे! और तो कोई रात में वहाँ ठहरता नहीं। जो जाते वही उन्हें कुछ खाने का सामान और लकड़ियाँ दे जाते। रात-दिन लकड़ियाँ जलाते रहते थे और उन्हीं के आधार पर पड़े थे।
गुफा चौड़े द्वार की है। उसके कोने में कुछ बर्फ जमी रहती है। उसी पर पानी की बूँदें रह-रह के टपकती हैं, शायद पहाड़ पर बर्फ गलने के कारण ही। इसी से वह बर्फ बराबर बनी रहती है और कुछ भी नहीं देखा। वही बर्फ बाबा अमरनाथ के नाम से ख्यात है।
नहाने-धोने के लिए पास में ही सुंदर, पर, सर्द जल का कुंड है। मैना या चकोर के ढंग के कुछ पक्षी नजर आए। सो भी बहुत कम। मंदिर में कुछ कबूतर दीखे। रास्ते में कौओं की ही शकल के पक्षी मिले। मगर टाँग का निचला हिस्सा और चोंच सफेद थी। आवाज भी अजीब सी थी। सामान ले चलने वाले तो गरीब मुसलमान थे। दूसरे उधर हई कौन? मगर उनमें स्वाभिमान देखकर दिल खुश हो आया।
श्री भीष्म जी साहनी, एम.ए. नाम के एक युवक ने श्रीनगर और उस यात्रा में हमारी सबसे ज्यादा फिक्र की और हमें आराम से रक्खा। वे रावलपिंडी के रहनेवाले हैं। वहाँ अपनी नातेदारी में थे।
जब वहाँ से हम लौटे तो रावलपिंडी से ही खुफियावाले हमारे पीछे थे। लाहौर में तो आधो दर्जन गाड़ी के सामने खड़े रहे जब तक ट्रेन न छूटी। एक-दो तो बराबर ट्रेन में चलते थे। यहाँ तक कि मेरठ के बाद भी जब हमने बार-बार उन्हें स्टेशनोंपर आते देखा, यहाँ तक कि हाथरस के आगे बढ़ने पर भी, तो गुस्सा आया कि कांग्रेसी मिनिस्ट्री भी क्या चीज है, जो ये पुलिसवाले हमें चैन से रहने नहीं देते! फिर जब मैं ऊपर वाले बर्थ पर जाकर सवेरे ही सो गया, तब कहीं उनसे पिंड छूटा।