कसक / अलका सैनी
गरिमा का विवाह हुए दस वर्ष बीत चुके थे। इस बार उसके मन की इच्छा थी कि सभी घरवाले आनेवाली दीवाली उसके नए घर में एक साथ मनाएँ। नए घर में उनकी यह पहली दीवाली थी। वह उसे यादगार बनाना चाहती थी। उसके मन में दीवाली की तैयारियों को लेकर इस बार कुछ ख़ास नई उमंग, नया जोश और नया उत्साह भरा था। उसने बड़े प्रेम से सभी रिश्तेदारों को दीवाली मनाने के लिए शाम के समय आने के लिए आमंत्रित किया था। अपने मायक़ेवालो को उसने ख़ुद बड़े चाव से आमंत्रित कर लिया था और ससुराल में जिस किसें भी बुलाना हों उसका जिम्मा उसने मनीष को दिया था। शाम में सबके साथ-साथ भोजन के लिए उसने मन ही मन काफ़ी योजना बना ली थी। इस के लिए उसने मनीष को कहा था,
"आप जिस किसी को भी दीवाली के लिए बुलाना चाहते हो ख़ुशी से बुला लो, हमारे नए घर की पहली दीवाली है, सब लोग साथ में मिलकर इस बार बड़े धूम-धाम से दीवाली मनाएँगे।"
मनीष ने बड़े प्यार के साथ हामी भर दी और कहा, "ठीक कह रही हो गरिमा, अभी ऑफ़िस में कुछ देर का कुछ ज़रूरी काम है फिर मै वापिस आकर सभी को या तो फ़ोन कर दूँगा या फिर ख़ुद जाकर निमंत्रण देकर आऊँगा। आख़िर हमारी ख़ुशी में सब की हिस्सेदारी होना भी तो ज़रूरी है तभी तो ख़ुशी का मज़ा दोगुना हो जाता है।"
मनीष की ये सब बातें सुनकर गरिमा का जोश और भी बढ गया और वह मन ही मन बड़ी ख़ुशी से शाम की योजनाएँ बनाने लगी।शाम के खाने के सारे व्यंजनों की एक लिस्ट उसने तैयार कर ली और मन ही मन सोचने लगी कि वह शाम को कौन-कौन से पटाखे छोड़ेगी? पिताजी और माँ को बड़े वाले पटाखे नहीं देगी उनके लिए वह ख़ास तौर पर छोटे पटाखे खरीदेगी। वह यह सोच कर मन ही मन ख़ुश हो रही थी कि आज दस साल के बाद उसके ससुराल और मायके वाले साथ में मिलकर दीवाली मनाएँगे। वह साथ-साथ ज़ल्दी-ज़ल्दी सब तैयारियाँ भी कर रही थी और साथ में मन ही मन पता नहीं क्या-क्या सोच रही थी। उसे एक पल की भी फ़ुर्सत नहीं थी। धीरे धीरे वह अपनी पुरानी यादों में खो गई।
उसके ससुरालवाला घर उसके आफ़िस से तीस किलोमीटर की दूरी पर था। वहाँ से उसे अपने आफ़िस तक पहुँचने में लगभग एक घंटा लग जाता था। मनीष और गरिमा का ऑफ़िस पास-पास में ही थे। इसलिए वह ऑफ़िस के लिए साथ-साथ ही आते जाते थे। उसका ससुराल वाला घर जहाँ से उसकी डोली उठी थी, शहर के पास एक गाँव में था, जो कि काफ़ी पुराना बना था। यद्यपि गरिमा ने अपना बचपन शहर में बिताया था। वह शहर के खुले माहौल में पली बढी थी फिर भी उसने ख़ुद को काफ़ी मेहनत से ग्राम्य वातावरण के अनुसार ढाल लिया था। क्या गरिमा के लिए सब कुछ इतना सहज था? नहीं उसके घर में भी कई बार छोटी-छोटी बात पर मन मुटाव हो जाता था। वह तनाव ग्रस्त रहने लगती थी। वह तो अच्छा था कि वह नौकरी करती थी और आफ़िस में आकर कामकाज में व्यस्त हो जाने के कारण वह घरेलू छोटी-मोटी बातों को भूल जाती थी।
कभी-कभी मनीष भी कहने लगता था,”गरिमा, वास्तव में मुझे इस बात की बहुत हैरानी है कि तुमने इतनी ज़ल्दी ख़ुद को घर के वातावरण के अनुरूप ढाल लिया है और सब का दिल भी जीत लिया है।"
गरिमा को मनीष की ये झूठी तारीफ़ अच्छी नहीं लगती थी। उसके प्रत्युत्तर में वह कहने लगती थी, "मनीष तुम क्या समझोगे किसी औरत के दिल की बात? यहाँ सुबह ज़ल्दी उठकर घर के सारे कामकाज निबटाओ, बच्चो को नहला-धुला कर स्कूल के लिए तैयार करो, सबके लिए नाश्ता बनाओ, लंच के टिफिन पैक करो और बाक़ी कई तरह के छोटे-मोटे काम हो जाते है। अगर ये सब काम मैं ना करूँ तो क्या घर वाले मुझे पसंद करेंगे।?"
मनीष को इस तरह के उत्तर की उम्मीद नहीं थी। उसे लगने लगा कि गरिमा के मन में कहीं ना कहीं कोई पीड़ा छुपी है। मायके में वह घर की लाडली बेटी थी। घर में छोटा होने के कारण सब उसे ज़्यादा ही प्यार देते थे। और माँ के होते उसे कुछ काम करना ही नहीं पड़ता था। कभी वह करना भी चाहती तो माँ उलाहना देते हुए कहती, “बेटी, अपने ससुराल जाओगी तो वहाँ तो तुम्हे ख़ुद ही करना पड़ेगा सब घर का काम और तुम्हे तो सब काम आता ही है। यहाँ हमारे होते तुम्हे कुछ करने की ज़रूरत नहीं है "
शादी के बाद जब वह गाँव आई तो शुरू-शुरू में घर का सारा कामकाज करते हुए उसे चक्कर आने लगते थे। वह भीतर ही भीतर ख़ुद को असहाय महसूस करती थी फिर भी उसने ख़ुद को बड़ी मेहनत से संभाल लिया था। कभी-कभी घर के और आफ़िस के कामकाज को लेकर उसे लगने लगा था कि वह एक मशीन बनकर रह गई है। हर रोज़ वही दिनचर्या, सुबह ज़ल्दी से उठकर घर के सारे काम निबटाकर आफ़िस जाओ, फिर शाम को आफ़िस से वापिस थक-हारकर फिर से घर के काम में जुट जाओ। कई बार तो वह इतना थकी होती थी कि जब सब लोग शाम को चाय पीने के लिए उसके आने का इंतज़ार करते हुए मिलते थे तब वह अन्दर ही अन्दर घुट कर रह जाती थी। सबके लिए चाय नाश्ता बना कर वह छोटे-मोटे बाक़ी सब काम निबटाती थी। कभी उसकी सास तरस खाकर कहती थी, “बहू आज चाय मै बना देती हूँ तुम जाओ थोडा आराम कर लो तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं लग रही है आज।"
मनीष को ये बात कहाँ सहन होती, वह तो अपनी पत्नी को आदर्श बहू के रूप में जो देखना चाहते थे और तपाक से बीच में बोल पड़ते थे, “माँ रहने दो ना, गरिमा बना लेगी चाय, आफ़िस में कोई हल थोड़ा ना चला कर आई है या पत्थर थोड़े ही तोड़े है। आप पीछे से भी सारा दिन घर अकेले ही संभालती हो अब इसे करने दो।"
वह मन ही मन कई बार सोचती कि क्या वह मनीष की तरह इंसान नहीं है? वह दोनों साथ-साथ ही तो आफ़िस आते जाते हैं और मनीष आते ही सीधे टी।वी। के आगे आराम से बैठ जाते है। आफ़िस से घर लौट कर क्या उसके नसीब में फ़ुर्सत के कुछ क्षण भी नहीं है? आते ही फिर से कोल्हू के बैल की तरह काम में जुट जाओ, बच्चों के बैग संभालो, यहाँ तक कि बच्चों का होमवर्क करवाने की ज़िम्मेवारी भी उसी की ही थी। काम काज निबटाकर वह रात को ही विश्राम कर पाती थी।
उसे रह-रह कर वह दिन याद आने लगा जब उसने अपनी बेटी आयना का दाखिला शहर के सबसे अच्छे कान्वेंट स्कूल में करवाने की बात घर में छेड़ी थी। उसकी इस बात पर घर में खूब हंगामा हुआ था।मनीष ने चिल्लाकर कहा था, "क्या ज़रूरत है आयना का दाख़िला कान्वेंट स्कूल में करवाने की? यह सब तुम्हारे द़िमाग़ की उपज है। स्कूल से कोई फ़र्क नहीं पड़ता, अगर बच्चा पढने वाला हो तो कहीं भी पढ़ सकता है और अपनी ज़िंदगी संवार सकता है। तुम और मै क्या कान्वेंट स्कूल में पढ़े है? तो क्या अच्छा ख़ासा कम नहीं लेते हैं?"
गरिमा ने मनीष के प्रत्युत्तर में कहा था, “हमारा ज़माना और था, अब समय बदल गया है। मेरे बच्चे धाराप्रवाह अँगरेज़ी बोले और अच्छे स्कूलों के एट्टिकेट सीखें। मै नहीं चाहती कि वह गाँव के किसी छोटे स्कूल में अपना समय बर्बाद करें और अपना भविष्य खराब कर ले।"
बहुत देर एक लम्बी बहस के बाद मनीष ने गरिमा की बात मान ली। उस समय गाँव से कान्वेंट स्कूल तक जाने के लिए किसी प्रकार का कोई साधन उपलब्ध नहीं था और हर रोज़ स्कूल तक छोड़कर आना मुमकिन नहीं था। मजबूरन उन्हें शहर में एक मकान किराए पर लेना पड़ा था। इस सब के लिए गरिमा की सहेली और घर वालो को भी मनीष को काफ़ी समझाना पड़ा था। तब जाकर कहीं बात बन पाई थी। यह मकान शहर के बीचों-बीच था इसलिए यहाँ से उनका आफ़िस और आयना का स्कूल दोनों ही पास पास थे। आयना मात्र दस मिनट में घर से अपने स्कूल तक पहुँच जाती थी।
सप्ताह में केवल एक दिन रविवार की छुट्टी होती थी। उस दिन गरिमा सोचती थी कि हफ़्ते भर के बक़ाया काम निबटा लेगी, हर रोज़ तो भागदौड़ में बाक़ी काम के लिए समय ही नहीं मिलता था। बच्चों के स्कूल बैग धोने से लेकर घर की साफ़-सफाई तक वह सारे काम रविवार को पूरा करना चाहती थी। मनीष शनिवार की शाम से ही गाँव जाने की रट लगा लेते थे, ताकि वह रविवार का सारा दिन अपने माता-पिता के साथ बिता सके। इस चक्कर में उसके हफ़्ते भर के सारे काम ज्यों के त्यों बाक़ी रह जाते थे। आयना के स्कूल का बचा हुआ होम वर्क भी ऐसे ही रह जाता था। बीच-बीच में आयना की स्कूल की अध्यापिका ने उसकी स्कूल की कापी में नोट लिख कर भी भेजा था कि वह पढाई में कमज़ोर है और उसका स्कूल का होम वर्क भी पूरा नहीं होता है।। स्कूल के प्रधानाध्यापक ने उन दोनों को स्कूल में एक बार बुलाकर समझाया भी था,”देखिए, अगर आपने अपने बच्चे को हमारे स्कूल में पढाना है तो उसकी हर चीज़ पर ध्यान देना होगा, स्कूल के काम से लेकर साफ़-सफाई तक बाक़ी बच्चो के हिसाब से चलना पड़ेगा। बेहतर होगा अभी भी समय है आप उसकी पढाई पर ध्यान दीजिये, नहीं तो कहीं ऐसा ना हो कि बाध्य होकर उसका नाम मुझे स्कूल से काटना पड़े।"
गरिमा ने प्रधानाध्यापक की बात को काफ़ी गंभीरता से लिया। उसने मनीष से काफ़ी चिंतित होते हुए कहा,”देखो मनीष माता-पिता होने के नाते हम दोनों का ही फ़र्ज़ है कि हम बेटी पर ध्यान दे वरना इतने बढ़िया स्कूल से निकाले जाने पर बच्चे के नुकसान के साथ-साथ बदनामी भी होगी। इसलिए बेहतर यही होगा कि तुम अपने माता-पिता को अपने पास ही रहने के लिए बुला लो नहीं तो बार-बार गाँव जाने से बच्चों की पढाई का बहुत नुकसान होता है और कल को बड़े होकर बच्चे हमे ही कस़ूरवार ठहराएँगे।"
मनीष ने गरिमा की बात को तो ध्यान से सुना पर टालने के अंदाज में कहने लगा,”गरिमा, तुम्हारी बात को तो मैं समझ रहा हूँ पर माँ-बाबू जी को हमेशा से खुले वातावरण में रहने की आदत रही है और उनका यहाँ मन भी नहीं लग पायेगा। शहर में कोई भी तो ख़ास एक दूसरे से बात नहीं करता, ऐसे में उनका मन घुट जाएगा।"
तब से लेकर मनीष गाँव महीने में एक बार ही जाने लगे। एक दिन आयना के स्कूल का वार्षिकोत्सव चल रहा था और उसमे आयना ने भी भाग लिया था। उस दिन मनीष सभी को लेकर गाँव जाना चाहते थे परन्तु गरिमा ने आयना के कारण गाँव जाने से मना किया तो मनीष अकेले ही बेटे अंकित को लेकर गाँव चले गए थे। गरिमा ने तब भी सब्र का घूँट पी लिया था क्योंकि वह जानती थी बात बढाने का कोई फ़ायदा नहीं, इस लिए चुप रहना ही उसने बेहतर समझा। वार्षिकोत्सव पर उसे मनीष और बेटे की कमी बहुत खल रही थी। सब लोग आयना को उसके पिता के बारे में पूछ रहे थे कि उसके पापा उसका प्रोग्राम देखने नहीं आए। यह सब बाते सुन कर गरिमा को और भी बुरा लग रहा था। उसका मन बहुत उदास हो गया था ये सोचकर कि क्या उसकी भावनाओं का कोई अर्थ नहीं है। वह बस इस्तेमाल करने की कोई वस्तु है क्या? वह एक मशीन बन कर रह गई है सोचते-सोचते उसकी आँखें नम हो गई पर बड़ी हिम्मत से उसने ख़ुद को सबके बीच संभाला था।
अपनी तनख़्वाह की बचत के इलावा घर के खर्च की कटौती से जो पैसे उसने इकट्ठे किए थे, उन पैसों से उसने शहर में हाउसिंग बोर्ड के मकान के लिए आवेदन पत्र भरा था। उसकी ख़ुशकिस्मती थी कि उसका नंबर उसमे आ गया था। उसने भगवान से इसके लिए कई तरह की मन्नते भी माँगी थी और उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। धीरे-धीरे सारी क़िश्तें चुका कर वह मकान उनके नाम हो गया था। बड़े अरमानों से उसने घर की एक-एक वस्तु संझोई थी। अपनी छोटी-छोटी इच्छाओं का गला घोंटकर उसने एक-एक पैसा अपनी ख़ून पसीने की कमाई में से जोड़ा था। उसने अपने जीवन काल में अनेक संघर्ष देखे थे। नए घर के पैसे चुकाते-चुकाते कुछ पैसे जब कम पड़ गए थे तब उसकी माँ ने उसे आश्वासन दिया था ये कहते हुए, "गरिमा घबराओ मत सब कुछ ठीक हो जाएगा, अगर कुछ पैसे कम पड़ेगे तो मै तुम्हारे पिताजी से कह दूँगी वह मदद कर देंगे। आख़िर हम तेरे माँ-बाप है कोई ग़ैर तो नहीं। अगर लड़की की शादी कर दी तो ये मतलब थोडा है कि अब हम तेरे बारे में सोचेंगे नहीं, और घर कौन सा रोज़-रोज़ खरीदा जाता है। जब तक हम बैठे हैं तुमे चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। हमें पैसों का क्या करना है? कोई साथ थोडा ले जाएँगे मरने पर। "
माँ की बाते सुनकर गरिमा की आँखें भर आई और सुबकते हुए कहने लगी, ”माँ तुम भी कैसी बातें करती हो, मेरे सामने ये मरने की बातें मत किया करो, आप तो मेरी ताक़त हो। "
गरिमा को ऐसा लग रहा था मानो वह कोई सपना देख रही हो। आँखें पुरानी भावुक यादों के तारो-ताज़ा होने से भर आई थी। आँखों पर हाथ फेरते हुए वह वर्तमान में लौट आई। उसे याद हो आया, आज वह अपने नए घर में पहली दीपावली सभी सगे-सम्बन्धियों के साथ मनाएगी उसके दिल की यह हार्दिक इच्छा थी। बहुत पहले से ही उसने इस उपलक्ष में कई तरह की तैयारियाँ करनी शुरू कर दी थी। आफ़िस से घर लौटते समय उसने तरह-तरह के पटाखे, फल मिठाईयाँ, पूजा का सामान, रंग-बिरंगी मोमबत्तियाँ आदि एक-एक ज़रूरी वस्तु अपनी सहेलियों से पूछ-पूछकर ख़रीद ली थी। दीवाली के दिन जब वह शाम चार बजे घर लौटी तो देखा कि मनीष पहले से ही घर पर मौज़ूद थे। यह देखकर उसे बहुत ख़ुशी हुई। वह सोच रही थी कि शायद दीवाली की तैयारियों के कारण मनीष आज उससे भी पहले घर लौट आए है। बच्चे इधर-उधर खेल रहे थे। वह मन ही मन सोच रही थी की वह ख़ुद जाकर इस बार आस पड़ोस में और अपनी ख़ास-ख़ास सहेलियों को मिठाई बाँट कर आएगी। वह तरह-तरह की कल्पनाओं में खोई हुई थी। बहुत उत्साहित होते हुए उसने मनीष से पूछा, "आपने माँ बाबूजी और अपने भाइयों को यहाँ आने के लिए न्यौता दे दिया है ना? “मनीष के चेहरे के हाव-भाव बदल गए।मुरझाये हुए सा वह कहना लगा, "गाँव में मौसी जी आई हुईं है इसलिए माँ बाबूजी तो नहीं आ सकते और उन्होंने हमे ही वहाँ बुलाया है ताकि सब एक साथ परिवार के लोग लक्ष्मी पूजा कर सके। "
गरिमा का चेहरा देखते ही बनता था। दुखी मन से उसने मनीष से कहा, "मैंने तो सब को यहाँ आने के लिए कल शाम को ही बोल दिया था और यह बात तुम्हे भी तो पता है।"
“कोई बात नहीं ऐसी कौन सी बड़ी बात हो गई है, सब घर के ही तो लोग है फ़ोन करके मना करदो कि कोई ज़रूरी वजह से गाँव जाना पड़ रहा है।“
मनीष की बात सुनकर गरिमा अचंभित रह गई उसके चेहरे का रंग उड़ता सा नज़र आने लगा। रुआँसी सी होकर वह कहने लगी,
“मनीष, तुमने तो बड़ी आसानी से कह दिया। मै किस मुँह से उन्हें मना करुँगी पाँच बजने वाले है सब लोग पहुँचने वाले हो होंगे।इस समय मना करने से उन लोगों की तौहीन तो है ही, साथ-साथ हमारे लिए भी बेइज्जती की बात है। हर साल तो हम गाँव जाकर ही दीवाली मनाते है तो इस बार नए घर की ख़ुशी के लिए यहीं दीवाली मनानी चाहिए ताकि नया घर हमारे और हमारे बच्चों के लिए सुख समृद्धि ले कर आए और लक्ष्मी पूजन घर में करने से लक्ष्मी ख़ुश होकर घर पर कृपा करती है। तुमने कभी सोचा है कि मुझे गाँव जाकर दीवाली मनाने में कभी आनंद नहीं आता मै तो केवल रसोई घर तक सिमटकर रह जाती हूँ। कभी किसी के लिए चाय बनाओ, कभी हलवा तो कभी गरम-गरम पूरी बना कर दो। गत दस वर्षो में मैंने दीवाली पर एक भी पटाखा चला कर नहीं देखा तुमने तो कभी इस बात पर ध्यान नहीं दिया होगा। तुम्हे तो मुझे हर हाल में एक आदर्श बीवी, एक आदर्श बहू के रूप में देखना है। ख़ुद भी तो आदर्श पति बन कर दिखाओ।"
गरिमा की बातें सुनकर मनीष का अहंकार जाग गया और गुस्से से लाल पीला होने लगा। गुस्से में तमतमाते हुए अपने होंठ भींचते हुए बोला, "ठीक है तुम्हे अगर नहीं जाना है तो मत जाओ और अपने रिश्तेदारों के साथ खूब ख़ुशी से दीवाली मनाती रहो मै अपने साथ बच्चो को लेकर चला जाता हूँ।"
इस तरह की बातें मनीष के मुँह से सुनने की गरिमा ने सपने में भी कल्पना नहीं की थी और उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली। वह हताश सी होकर सोफ़े पर बैठ गई। गरिमा को लगा कि उसे चक्कर आ जाएगा और वह गिर जाएगी। थोड़ी देर वह सुध-बुध खोए एक जगह टकटकी लगाए देखती रही। उसे ऐसा लगा जैसे मानो काटो तो ख़ून नहीं।