कसाईघाट / बलराम अग्रवाल
बहू ने हालाँकि अभी-अभी अपने कमरे की बत्ती बन्द की है; लेकिन खटखटाहट सुनकर दरवाजा खोलने के लिए रमा को ही जाना पड़ता है। दरवाजा खुलते ही बगल में प्रमाण-पत्रों की फाइल दबाए बाहर खड़ा छोटा दबे पाँव अन्दर दाखिल होकर सीधा मेरे पास आ बैठता है। मैं उठकर बैठ जाता हूँ। उसकी माँ रजाई के अन्दर से मुँह निकालकर हमारी ओर अपना ध्यान केन्द्रित कर देखने लगती है।
“क्या रहा?” मेरी निगाहें उससे मौन प्रश्न करती हैं।
“कुछ खास नहीं। दयाल कहता है कि इंटरव्यू से पहले पाँच हजार नगद…!”
छोटे का वाक्य खत्म होते-न-होते बगल के कमरे में बहू की खाट चरमराती है,“ए, सो गए क्या?” पति को झकझोरते हुए वह फुसफुसाती महसूस होती है,“नबाव साहब टूर से लौट आए हैं, रिपोर्ट सुन लो।”
एक और चरमराहट सुनकर मुझे लगता है कि वह जाग गया है। पत्नी के कहे अनुसार सुन भी रहा है, अँधेरे में यह दर्शाने के लिए उसने अपना सिर अवश्य ही उसकी खाट के पाये पर टिका दिया होगा। इधर की बातें गौर से सुनने के लिए शान्ति बनाए रखने हेतु दोनों अपने-अपने समीप सो रहे बच्चों को लगातार थपथपाते महसूस होते हैं।
“सुनो, मेरे गहनों और अपने पी एफ की ओर नजरें न दौड़ा बैठना, बताए देती हूँ।” पति के सिर के समीप मुँह रखे लेटी वह फुसफुसाती लगती है।
बड़ा बेटा पिता का अघोषित-उत्तराधिकारी होता है। परिवार की आर्थिक-दुर्दशा महसूस कर बहू इस जिम्मेदारी से उसे मुक्त कराने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रही है; लेकिन सामाजिक उपेक्षा के भय ने बड़े को जबरन इसी खूँटे से बाँधे रखा है।
“अभी तुम सो जाओ।” मेरे मुँह से फूटता है,“सवेरे सोचेंगे।”
फाइल को मेज पर रख, कपड़े उतारकर छोटा अपनी माँ के साथ लगे बिस्तर में जा घुसता है। दरवाजा बन्द करके कमरे में आ खड़ी रमा भी मेरा इशारा पाते ही बत्ती बन्द कर अपनी माँ के पास जा लेटती है। घर में अजीब-सा सन्नाटा बिखर गया है। रिश्वत के लिए रकम जुटा पाने की पहली कड़ी टूट जाने के उपरान्त कसाईघाट पर घिर चुकी गाय-सा असहाय मेरा मन अन्य स्रोतों की तलाश में यहाँ-वहाँ चकराने लगता है।