कसाईबाड़ा / शिवमूर्ति
गाँव में बिजली की तरह खबर फैलती है - शनिचरी धरने पर बैठ गर्इ है, परधानजी के दुआरे। लीडरजी कहते हैं, “जब तक परधानजी उसकी बेटी वापस नहीं करते, शनिचरी अनशन करेगी, आमरण अनशन।”
पिछले एक हफ्ते से लीडरजी शनिचरी को अनशन के लिए पटा रहे थे और अब गाँव के हर कान में मंतर फूँक रहे हैं, “शनिचरी परधान के खिलाफ नहीं, अन्याय, दगाबाजी और शोषण के खिलाफ लड़ रही है, अहिंसा की लड़ार्इ, महात्मा गांधी का रास्ता। आप सबका कर्तव्य है कि जोर-जुल्म के खिलाफ लड़ी जानेवाली लड़ार्इ में उस गरीब बिधवा को सपोर्ट करें - मनसा, वाचा, कर्मणा।”
परधानजी की दुतल्ली बिल्डिंग के सदर दरवाजे पर बोरी बिछाकर किसी मोटे प्रश्नचिन्ह-सी बैठी है शनिचरी। लीडरजी ने गांधीजी का छोटा-सा फोटो देकर कहा है, “इन्हीं का ध्यान करो। अन्यायी का हृदय-परिवर्तन होगा या सर्वनाश।”
अत्याचार के खिलाफ संघर्ष तेज करने के लिए लीडरजी ने स्कूल से छुट्टी ले ली है। इस संघर्ष की सफलता में उनके जीवन की सफलता निहित है। महत्वाकांक्षाओं की एक लम्बी श्रृंखला है उनके सामने-प्रथम तो अगली बार होने वाले परधानी के इलेक्शन में, जैसे भी हो, पुराने परधान को हराकर गाँव-परधान बनना। प्राइमरी स्कूल की मास्टरी उन्हें गर्दन की मैल लगने लगी है... फिर ब्लाक प्रमुख, फिर एमेले, फिर मिनिस्टर। एयर कंडीशंड कोच में देशाटन। ये सब कठिन संघर्ष की माँग करते हैं। सतत प्रयत्न। परधानी की फील्ड तैयार करने का इससे बड़ा चांस फिर कब आएगा? शहर से कैमरा लाकर उन्होंने शनिचरी का फोटो उतारा है, अखबार में छपवाने के लिए। एक संवाददाता भी पकड़ लाए थे। सारे गाँव को जगाना शुरू कर दिया है, “होशियार हो जाइए आप लोग, आपके गाँव में शेर की खाल में गीदड़। और आप लोगों ने उसे ही परधान बना दिया, सोचने की बात...”
तीन पृष्ठों की दरखास्त लिखकर लीडरजी उस पर सारे गाँव वालों के दस्तखत या अँगूठा-निशान ले रहे हैं। इसे लेकर डी.एम. के पास जाएँगे। अखबार में छपवाएँगे, “लेकिन आप लोग भी सोचिए और समझिए। गलत आदमी को परधान बनाने का क्या रिजल्ट होता है? आइंदा के लिए...”
जो परधानजी गाँव में आदर्श विवाह का आयोजन करवाकर तीन-चार महीनों से आसपास तक के गाँवों में देवता की तरह पूजे जाने लगे थे, उन्हीं का अब घर से निकलना मुश्किल हो गया है। निकलते ही शनिचरी उनका पैर पकड़कर गोहार लगाती है, “मोर बिटिया वापस कर दे बेर्इमनवा, मोर फूल ऐसी बिटिया गाय-बकरी की नार्इं बेंचि के तिजोरी भरैवाले! तोरे अंग-अंग से कोढ़ फूटि के बदर-बदर चूर्इ रे कोढ़िया...”
शनिचरी को आज भी आदर्श-विवाहवाले नगाड़ों की गड़गड़ाहट सुनार्इ पड़ती है। गाँव के पूरब, सड़क के किनारे के अमरार्इ में गाँव-भर के तख्तों को जुटाकर बनाया गया बड़ा-सा मंच। लाल-हरे रंगों वाले शमियाने। कुर्सी, मेज, बेंच, ढोल, मृदंग, नगाड़े, तुरही, बैंड। ए.डी.ओ., बी.डी.ओ., मिडवाइफ, प्रमुख, परधान, सरपंच। सिर पर मौर बाँधे, सजे-सजाए, पढ़े-लिखे, लम्बे-तगड़े दस शहराती दूल्हे। दस दूल्हनें-गाँव की गरीब कन्याएँ। रंग-बिरंगी साड़ियों में पुलकित। सामूहिक आदर्श विवाह। दहेज-प्रथा और जाति-पाँति की संकीर्ण और सड़ी-गली मान्यताओं पर कुठाराघात। एड़ी-चोटी का पसीना एक करके महीनों शहर-शहरात की खाक छानने के बाद परधानजी दस लड़कों को तैयार कर पाए थे। गाँव-समाज के इतिहास में एक नए अध्याय की शुरूआत।
भोंपू में अटक-अटककर प्रेम से बोले थे बी.डी.ओ. साहब... “ आपके ग्राम-प्रधान श्री के.डी. सिंह के अथक प्रयास के फलस्वरूप - एँ... क्या नाम... इंटरकास्ट मैरिज का प्रोग्राम... एँ... ऐसे पिछड़े क्षेत्र में। क्या नाम... अगेंस्ट द कर्स आफ डाउरी... एँ.... समाज और राष्ट्र के अपलिफ्ट के लिए... क्या नाम...”
मिडवाइफ ने एक-एक डिब्बा उपहार में दिया था सभी दुलहनों को। कंट्रासेप्टिव पिल्स, फैमिली प्लानिंग का लिटरेचर। शनिचरी निहाल थी अपने दामाद की छवि निहारकर। गोरा रंग, पतली मूँछें, बाँका जवान। कलम चलानेवाला। खुला-खुली गहना-गुरिया देने का हुकुम नहीं था तो क्या, शनिचरी ने चोरी से बेटी के बक्से में अपने सारे गहने डाल दिए थे - तीन सेर चाँदी। विदा होते समय कैसी कलेजा फाड़ देनेवाली आवाज में रोर्इ थी रूपमती। अपनी बकरी तक को भेंटना नहीं भूली थी।
परधानजी देवता हो गए थे। लीडरजी को सोच हो गया था। ऐन इलेक्शन के छह महीने पहले ही ऐसी जादू की छड़ी घुमार्इ परधान ने कि सारा गाँव उनके पैर छूने लगा। अब वे मुकाबले में कैसे टिकेंगे? फिर भी कोशिश तो करनी ही है। हर आदमी से अलग-अलग अकेले में भेंट करते लीडरजी और आगाह करते, “याद करो, चौबीस रुपये के तीन सौ वसूल किऐ थे तुमसे इसी रंगे सियार ने। रंगे सियार का किस्सा नहीं जानते? किसी दिन फुरसत से सुनाएँगे। एक मन जौ के बदले रामप्रसाद की बियार्इ भैंस खोल ले जानेवाला कौन है? और, अगर फिर इसी को परधान बनाया आप लोगों ने, तो सबका अगवार-पिछवार जोतवाकर चरी बो देगा, देखना।”
लेकिन आदर्श विवाह का कुछ ऐसा जादू चल गया था लोगों पर कि लीडरजी को लगता, अब जनमत पलटना असम्भव है। उन्हें बार-बार बी.डी.ओ. की बात याद आती, 'बाबू के.डी. सिंह के अथक प्रयास से...' हुँह! खिरोधर सिंह का कितना शानदार संस्करण किया था साले ने। खरखराता ऐसा है कि चार बार नाम ले लो तो गले में खारिश हो जाए।
शनिचरी अपनी बुढ़ौती सफल मान बैठी थी। उसकी बेटी अच्छे घर गर्इ है। परधान का वंश बढ़े। अचानक वज्र गिरेगा, शनिचरी ने कब सोचा था।
अर्धरात्रि। सघन अंधकार। बूढ़ी आँखों में नींद नहीं। सहसा लगा, कोर्इ टाटी खुटकाते हुए पुकार रहा है, “काकी, काकी रे!” उसने उठकर टाटी का बेंड़ा खोला तो सुगनी हाँफते हुए उसके गले से लिपट गर्इ, “काकी रे, हमारी जिनगी माटी हो गर्इ।”
“क्या हुआ? बोल तो इतनी रात में कहाँ से भागी आ रही है?” उसे इस हालत में देखकर शनिचरी सन्न रह गर्इ थी।
“काकी, अपना परधान कसार्इ है। इसने पैसा लेकर हम सबको बेच दिया है। शादी की बात धोखा थी। हम सबको पेशा करना पड़ता है, रूपमती को भी। अमीरों के घर सोने, भेजा जाता है। आज मैं किसी तरह से निकल भागी। पीछे बदमाश लग गए थे।” बोलते-बोलते गला सूख गया उसका। उसने घड़े से एक गिलास पानी पिया और साँस लेकर बोली, “मार्इ से मिलने को जी हुड़क रहा है काकी। चलती हूँ। सबेरे आऊँगी। सब लोगों को मिलकर थाने पर रपट लिखानी होगी।”
शनिचरी जड़ हो गर्इ थी। पेशा! सारी रात वह टाटी से पीठ टिकाए बिसूरती रही और सबेरे जब सुगनी से मिलने उसके घर गर्इ तो सुगनी की माँ ने डाँटा था, “पागल हो गर्इ बुढ़िया?”
शनिचरी ने सब कुछ बताया था। बार-बार बताया था। घड़े के पास लुढ़का गिलास दिखाकर विश्वास दिलाया था, कि यह सच है। रात आर्इ थी सुगनी, लेकिन आर्इ थी तो अपने घर पहुँचने से पहले ही कहाँ और क्यों गायब हो गर्इ। किसी को भी विश्वास नहीं हो रहा था।
परधानजी ने इसे लीडरजी की लंगेबाजी बताया, “चुनाव का पैंतरा भाँज रहा है साला। मुझे बदनाम करने के लिए शनिचरी को फोड़ा है। देखते नहीं आप लोग, आधी-आधी रात तक उसकी झोंपड़ी में घुसा रहता है।”
जिन औरतों से शनिचरी की पुरानी खार है, वे कहती हैं, बेटी की कमार्इ पर मौज करती थी। अब खुद कमाकर खाना पड़ा तो भगल बना रही है बुढ़िया।” लेकिन, जिनकी बेटियाँ उस समारोह में ब्याही गर्इ थीं, उनके अंदर खलबली मच गर्इ है। करें भी तो क्या? एक तरफ परधान से खिलाफत। बिरादरी में बदनामी। हुक्का-पानी बंद होने का डर। छोटे बेटे-बेटियों की शादी में रुकावट और दूसरी तरफ बेटी की ममता। शनिचरी की तरफदारी करके बेटी का पता लगाएँ या - हुआ सो हुआ, बात को दबाकर बदनामी से बचें?
लेकिन शनिचरी तो लड़ेगी। लड़कर प्राण दे देगी या अपनी बेटी वापस कराएगी। लीडरजी ने कहा है - वे उसकी बात थानेदार और एस.पी. से लेकर कलक्टर-कमिश्नर तक पहुँचाएँगे। मुख्यमंत्री और परधानमंत्री को लेटर लिखेंगे। परधान को अंदर कराएँगे।
दरखास्त पर अँगूठा लगाने के साथ-साथ लीडरजी ने सबको सावधान किया है, “परधान काला नाग है। उसका विषदंत उखाड़ना है। बिल्डिंग को घेरकर सब लोग अनशन करो।”
अँगूठे का निशान तो बहुतों ने दिया, लेकिन अनशन करने कोर्इ नहीं आया। अँगूठा-निशानी का क्या? कोरट कचहरी में फँसने का डर हुआ, तो कह देंगे - धोखे से लीडर ने लगवा लिया था मार्इ-बाप।
शाम का धुँधलका गहराने के साथ-साथ शनिचरी के रोने की आवाज सारे गाँव को थरथराती है। सारा गाँव स्तब्ध है, भयाक्रांत। काफी रात गए लीडरजी आते हैं। चोरबत्ती की रोशनी में शनिचरी को दरखास्त दिखाते हैं, “सब फिट हो गया। कल इतवार है। परसों जाकर डी.एम. को दरखास्त दे दूँगा और चौबीस घंटे के अंदर परधान को हथकड़ी...”
खुलेआम शनिचरी का पक्ष लेकर कोर्इ आगे आया है तो वह है अधपगला अधरंगी। सम्पूर्ण वामांग आंशिक पैरालिसिस का शिकार। बार्इं टाँग लुंज, टेढ़ी और छोटी। बाईं आँख मिचमिची और ज्योतिहीन। होंठ बार्इं तरफ खिंचे हुए। बायाँ हाथ चेतनाशून्य। आतंकित करने की हद तक स्पष्टभाषी। तीस-पैंतीस की उम्र में ही बूढ़ा दिखने लगा है। पेशा है - गाँव भर के जानवर चराना। मजदूरी प्रति जानवर, प्रति फसल, प्रति माह एक सेर अनाज। सिर्फ परधानजी और लीडरजी के जानवर नहीं चराता, क्योंकि उसके अनुसार ये दोनों गाँव के राहु और केतु हैं। इन दिनों रात में वह गाँव की गलियों में घूमते हुए गाता है - 'कलजुग खरान बा, परधनवा बेर्इमान बा, अधरंगी हैरान बा।' और सोते हुए लोगों की चादर पकड़कर खींच लेता है, “औरतों की तरह मुँह ढँककर सोनेवाले गीदड़ो, परधान तुम्हारी बहन-बेटियों के गोश्त का रोजगार करता है और तुम लोग हिजड़ों की तरह मुँह ढँककर सो रहे हो। सो जाओ, हमेशा के लिए।” और चादर फेंककर वह आगे बढ़ जाता है, 'कलजुग खरान बा।'
बात थाने तक पहुँच गर्इ है। परधानजी और लीडरजी दोनों को बुलाया गया है। लीडरजी ने चौकीदार से कहला दिया, “ऐसे काम्प्लेक्स केस में तो खुद दरोगाजी को अब तक गाँव में पहुँच जाना चाहिए था। खैर! कहना, मैं टाइम निकालने की कोशिश करूँगा।” लेकिन परधानजी फौरन तैयार हो रहे हैं - कहीं लीडर पहले पहुँच गया तो बंटाढार हो जाएगा। वे बार-बार परधानिन को सचेत करते हैं, “अजी, सुनती हो जी। कुछ भेंट-पूजा के लिए थोड़ा अमावट, खटार्इ, आचार। तुम्हें पता है कि दरोगाइन कोहड़ौरी और जामुन का सिरका पहले माँगती हैं। वो जो परेम कुमार की खेलने की खड़खड़िया है न, दे दो। दरोगाजी का लड़का खेलेगा।”
थाने के अहाते में कदम रखते ही एक काला-कलूटा भीमकाय कुत्ता भौंकते हुए दौड़ता है, लेकिन अमावट की महक पाकर पूँछ हिलाने लगता है - कूँ-कूँ... आओ-आओ, स्वागत है। तोंदवाला कुत्ता देखा है कभी? देख लो।
दरोगाजी पूजा पर हैं। मुंशीजी उन्हें बैठाते हैं। घंटों बाद मूँछें उमेठते हुए निकलते हैं दरोगाजी, “हाँ, तो परधानजी, क्या बदअमनी फैला रखी है आपने? ऐसा क्रिमिनल गाँव मुझे तेर्इस साल की नौकरी में दूसरा नहीं मिला, जो पैसे के लिए अपनी बेटियाँ ही बेचने लगे।”
परधानजी हाथ जोड़कर खड़े होते हैं, “पहले बात तो सुनी जाए हुजूर।”
“ऐसी-तैसी बात की। तेर्इस साल से बात ही तो सुन रहा हूँ। जो भी आता है, खाली बात। मैं कहता हूँ, अगर बुढ़िया मर गर्इ तो दस साल के लिए अंदर हो जाओगे। अपने कफन-दफन का खर्चा भी गौरमिंट के जिम्मे डालोगे।”
“हुजूर, विश्वास करें, यह सब लीडरजी की करामात है। परधानी से मेरा पत्ता साफ करने के लिए सरकार, अपढ़-गँवार को भड़काकर गांधी, नेहरू और नेताजी के मुँह पर कालिख पोत रहे हैं। हम तो सरकार पबलिक की भलार्इ वास्ते, गरीबों की मदद वास्ते, जाति-पाँत के नासूर वास्ते, सरकार... आदर्श विवाह हुआ। अखबार में आउट हुआ। गाँव का, जिले का, खासकर आपके थाने का नाम रोशन हुआ...”
दरोगाजी को लगता है कि अगर थोड़ी देर तक परधान और बोलता रहा तो उनकी डाँटने की पावर ही खत्म हो जाएगी, इसलिए बीच में ही टोकते हैं, “पुलिसवालों को आप बिलकुल ही बेवकूफ समझते हैं क्या? कल ही सी.आर्इ.डी. इंस्पेक्टर ने इनवेस्टिगेशन रिपोर्ट सबमिट किया है। लड़कियों का धंधा करनेवाले गिरोह की लिस्ट में आपका नाम लाल रोशनार्इ से लिखा है...।”
सी.आर्इ.डी. का नाम सुनकर परधानजी आतंकित होते हैं। काला कुत्ता बड़ी देर से बूट पर पंजे की खरोंच मारकर दरोगाजी का ध्यान अमावट वाली गठरी की तरफ ले जाने की कोशिश कर रहा है। उसे तजुर्बा है, आठ साल का - गठरी पर नजर पड़ते ही दरोगाजी की आवाज मधुर हो जायेगी। आखिर दरोगाजी का ध्यान उधर जाता है, “इस गठरी में क्या है?”
“जी हुजूर, थोड़ा-सा अचार, खटार्इ, अमावट, सिरका, कोंहड़ौरी, वगैरह। दरअसल हुजूर, लीडरजी के चलते, जो हो जाए, सो थोड़ा। हमेशा खिलाफ बात। हमारे खिलाफ। आपके खिलाफ। जनता के खिलाफ। मुखमंतरी और प्रधानमंतरी से नीचे तो बात ही नहीं करते। बोलते हैं - दरोगा, एस.पी. को तो मैं पॉकिट में डालकर घूमता हूँ।”
“ऐं? ऐसा बोला? साला! इतनी बड़ी पाकिट? ठीक है। आने दो।” वे अचार की गठरी को हाथ में लेकर तौलते हुए कहते हैं, “आपको पता होगा, मैं मंदिर बनवा रहा हूँ थाने के सामने, उसमें यथाशक्ति...”
“क्यों नहीं सरकार, क्यों नहीं। मंदिर, धर्मशाला के लिए तो...” वे जेब में हाथ डालते हैं, “आजकल तो हुजूर, दुनिया से धरम-र्इमान नाम की चीज ही गायब होती जा रही है, लीजिए सँभालिए हुजूर।”
गिनने के बाद दरोगाजी कहते हैं, “आप मजाक समझ रहे हैं। यह सी.आर्इ.डी. केस है।”
“मैं फिर जल्दी ही हाजिर होऊँगा सरकार।”
“अंदर जाकर सत्यनारायणजी का परसाद ले लीजिए। दरोगाइन को इधर एक की जगह दो चीजें दिखार्इ देने लगी हैं, उसी के ठीक होने के लिए कथा की मनौती थी। और हाँ, बुढ़िया का अनशन फौरन खत्म करवा दो। हरिजन उत्पीड़ित नहीं किए जा सकते। जनरल इलेक्शन सिर पर है। ऊपर से सर्कुलर आ गया है कि हरिजनों को...
परसाद लेकर परधानजी बाहर आते हैं तो दरोगाजी पूछते हैं, “सुना है, तुम्हारे गाँव के ताल में बड़ी बनमुर्गिया हैं। किसी दिन शिकार पर आएँगे।”
“जरूर आइए हुजूर, मगर कब?”
“कभी भी, मगर इंतजाम अच्छा होना चाहिए।”
क्या कहें परधानजी? बाँधकर तो नहीं रखा जा सकता बनमुर्गियों को। वे पंजीरी चाटते हुए बाहर आते हैं। मुँह में इतनी मिठास कहाँ से? पंजीरी की मिठास यह नहीं हो सकती। दरोगाइन अभी तक तगड़ी हैं। चालीस से ज्यादा की नहीं लगतीं। देह अतर गुलाब की तरह महक रही थी। परधानिन की देह से तो गन्ना मिलवाली तेज गंध निकलती है। तभी मैं सोचूँ कि उसे इतनी मक्खियाँ क्यों घेरे रहती हैं?... थोड़े से पेठेवाले कद्दू मँगवाए हैं दरोगाइन ने और आँवले का मुरब्बा। वही दे दूँ, फिर चाहे सारा गाँव अनशन करे। कहती थीं, “दरोगाजी की बात का खयाल ना केह्यो। ऐसेर्इ बड़बड़ाते रहते हैं, जब से बिटिया विधवा भर्इ।”
लीडरजी सधे कदमों से थाने की तरफ आ रहे हैं। ललाट पर गम्भीर चिंतन की रेखाएँ। मंत्री बनने के बाद यही दरोगा पीछे-पीछे चलेगा। नजर से नजर नहीं मिला सकेगा। लेकिन अभी तो... वे बार-बार टोपी ठीक करते हैं।
लीडरजी को देखकर काला कुत्ता भूँकता नहीं। दूर से ही सूँघकर किसी नतीजे पर पहुँच जाना चाहता है - कोर्इ गठरी नहीं! कोर्इ झोला नहीं!!
“हूँ, तो लीडरजी आप ही हैं?” दरोगाजी आँखों में आँखें डालकर पूछते हैं।
“जी हाँ, पांडेजी, मैं...।”
“ठीक है, ठीक है।” 'पांडेजी' सम्बोधन ने दरोगाजी को काट खाया है। वे बीच में ही टोकते हैं, “लीडरजी आपका असली नाम है?”
“जी, असली नाम तो है रामबुझावन।”
“तो लीडर अपने आप बन गए, पैदाइशी लीडर?”
“आप सिर्फ मतलब की बात कीजिए दरोगाजी।”
“ठीक है, तो सुनिए मतलब की बात। सी.आर्इ.डी. हेडक्वार्टर से आपकी पर्सनल रिपोर्ट माँगकर पढ़ी है मैंने - नक्सलपंथी, एनार्किस्ट, टेररिस्ट।”
घर से ही कसम खाकर चले हैं लीडरजी - उखड़ना नहीं, दरोगा को उखाड़कर लौटना है। दरोगा से ही डर गए तो हो चुकी मिनिस्टरी। वे आवाज में भरपूर गम्भीरता लाते हैं, “इंस्पेक्टर, मुझे कान्फिडेंशियल फाइल की एंट्री मत सुनाओ। बताओ, मुझे बुलाया क्यों?”
दरोगाजी आतंकित होते हैं। कहाँ गया सारा रोब? मूँछें तो पूरी-पूरी ऐंठ रखी हैं। फिर भी...
“यह मत भूलिए मिस्टर कि...”
“भूलने की नहीं, याद रखने की बात कीजिए।”
ऐं, चवन्नी की टोपी की यह हिम्मत कि थानेदार की वर्दी को आँख दिखाए? ठीक है। याद करने की बात करूँगा। सारी उमर के लिए न याद करवा दिया तो... गुस्से से दरोगाजी काँपने लगे हैं, “सरकार का तख्ता पलटने की साजिश करनेवाले आप। इल्लिटरेट मास में रयूमर फैलानेवाले आप। वायलेंस और डिस्टरबेंस करवानेवाले आप। आप नहीं तुम? तुम्म! सरकरी नीतियों के खिलाफ तुम्म। अंतर्जातीय विवाह के खिलाफ तुम्म। डेमोक्रेसी के लिए खतरनाक तुम्म। देश के लिए खतरनाक तुम्म। थाने के लिए खतरनाक तुम्म। आपके... नहीं, तुम्हारे घर से गाँजा हम निकालेंगे। शराब हम निकालेंगे। अफीम हम निकालेंगे। छोकरी हम निकालेंगे। तुम्हारी लीडरी लील सकते हैं। मास्टरी चाट सकते हैं। करेक्टर गोड़ सकते हैं। फ्यूचर लीप सकते हैं...”
बोलते-बोलते दरोगाजी के मुँह में फिचकुर आ गया है। कुत्ता खिन्न होकर बाहर जा रहा है। पहले पता होता तो इस आदमी को भूँक-भॉक कर बाहर से ही खदेड़ देता। धोती-कुर्ते का लिहाज महँगा पड़ गया।
करेक्टर! फ्यूचर!! लीडरजी को सोच हो गया है - करेक्टर में दाग लग गया तो एमेलेगीरी और मिनिस्टरी धरी रह जाएगी। बुद्धि से काम लेना होगा। आखिर इतने दिनों से प्राइमरी स्कूल में बुद्धि खर्च करने से बचाते आए हैं तो किस दिन के लिए? लेकिन चेहरे पर शिकन नहीं आने देना चाहिए - जै हनुमान ज्ञान गुन सागर...
सोच दरोगाजी को भी है - इतने तगड़े जुलाब से तो बड़े-बड़े चघ्घड़ भी उखड़ जाते हैं। और यह है कि कबूतर की तरह अभी भी आँखों में ताक रहा है - टुकुर-टुकुर। पहले ही इससे आँख नहीं मिलानी थी।
तभी दरोगाइनजी का प्रवेश होता है। दो कप चाय और एक प्लेट में पकौड़ियाँ, गरमागरम।
“का हल्ला मचाए हो जी? दरवज्जे पर आए मेहमान से कोऊ ऐसन बोलत है? आप भइयाजी 'चाह' पियो।”
धन्न हो दरोगाइन। दरोगाजी मन-ही-मन साष्टांग प्रणाम करते हैं। क्या हुआ, जो पढ़ी-लिखी नहीं है, पर वक्त की नब्ज पहचानती हैं। लीडरजी भी राहत महसूस कर रहे हैं। वे हाथ जोड़ते हैं, “धन्यवाद।”
“धन्न बाद बाद मा भइयाजी, पहिले चीखौ तो।”
“हाँ-हाँ, शुरू कीजिए। आपकी लड़ार्इ मुझसे है, न कि...”
“लड़ार्इ कैसी साहब?” लीडरजी खिसिया गए हैं।
“तौन ऊ सब सिपहिए मिलिके हमरे पास आए। पूछा, आपके भार्इजी आवा हैं का? दरोगाजी बिगड़ा काहे हैं? हमरे भार्इजी भी बिलकुल आपै की तरह हैं। दूध-पानी अलग करैवाले, इनसे बिलकुल नाहीं पटत।”
उन्मुक्त हँसी। लीडरजी तो चिल्ला-चिल्लाकर हँसने लगे हैं, “इनके जैसे जीजाजी को नकेल पहनाना आप जैसी बहन के ही वश का है।”
दरोगाइन एक प्लेट पकौड़े और दे जाती हैं।
“बाय द वे,” दरोगाजी इस बार बात का सूत्र पूरी सावधानी से सँभालते हैं, “मैं तब्दील होकर इस थाने पर आ रहा था, तो 'विकल' जी ने मुझसे आपकी बड़ी प्रशंसा की थी। 'विकल' जी को मैं बड़े भार्इ की तरह मानता हूँ और जो कुछ कड़वा-तीखा आपको कहा है, वह अपने नाते। मुझे क्या नहीं पता कि आपका जीवन गरीबों और असहायों के लिए...”
पुरइन के पात की नाईं खिल गए हैं लीडरजी। राह सूझ गर्इ है। चुप रहना इम्पासिबल, “मुझे तो भार्इ साहब, अगर गरीबों के लिए सिर भी कटवाना पड़े तो... लेकिन यह जो परधानजी हैं....”
“शि! शि! मुझे सब मालूम है, सिर्फ ठोस सबूत चाहिए। अगर आपका सहयोग...”
“आपके लिए तन-मन... सब हाजिर है। मैं चाहता हूँ कि परधान...”
“देखिए, हार्इ अथॉरिटीज के इंटरफियर से कभी-कभी बनती बात भी बिगड़ जाती है। सुना है, आपने डायरेक्ट डी.एम. को दरखास्त भेज दी। अब बताइए, जाँच-पड़ताल मुझे करनी है या डी.एम. को? और फिर एक बात यह भी याद रखिए कि जो जितनी ऊँची कुर्सी पर बैठा है, वह उतना ही नालायक है। गलत कहूँ तो मुँह पर झापड़ मार देना। इस मामले को, जितनी बारीकी से एक दरोगा हल करेगा, उतना दस डी.एम. भी मिलकर नहीं कर सकते।”
“बेशक... बेशक। कहावत है - जेकर काम उही से होय, गदहा कहै कुकुर से रोय। मगर माफ कीजिएगा, आपने मुझे टोटली गलत समझा। क्या यह कभी सम्भव था कि मैं आपसे मिले बिना दरखास्त भेज देता?” वे कुर्ते की जेब से तीन पन्नेवाली दरखास्त निकालते हैं, “और जब जाँच का काम इतनी तत्परता से हो रहा है तो दरखास्त देने का क्या औचित्य है? लीजिए, चाहे फाड़िए, चाहे जलाइए, लेकिन हाँ, जाँच जरा जल्दी क्योंकि इस बार मैं भी...”
“जरूर खड़े होइए साहब, माना कि आपको परधानी का लालच नहीं, लेकिन अपने गाँव के कल्याण के लिए कुछ-न-कुछ त्याग... और हाँ, मैं जल्दी ही आ रहा हूँ गाँव में इन्क्वायरी के लिए, शिकार के बहाने।”
“अच्छा, वह मेरे खिलाफ जाँचवाली बात?” लीडरजी निश्चिंत हो जाना चाहते हैं।
“ओ डोंट वरी फार दैट, मैं फाइनल रिपोर्ट लगा दूँगा, आपके फेवर में। और हाँ, उस बुढ़िया को क्या अनशन कराकर मार ही डालोगे?”
“वह तो जरूरी है पांडेजी, हर आदमी को अपने ढंग से प्रोटेस्ट का राइट है। मेरे पॉलिटिकल प्रास्पेक्ट पर भी तो गौर कीजिए। परधानी के इलेक्शन में मेरी एकमात्र गोट ही वही है।”
लीडरजी कुछ गम्भीर किस्म की चीज सोचते हुए लौट रहे हैं। आधे रास्ते तक आकर सहसा वे रुक जाते हैं और जेब से डायरी निकालकर नोट करते हैं - 'मिनिस्टर होते ही सबसे पहले इस दरोगा से हिसाब चुकाना होगा। गाली दी है। मुझे नहीं, मेरी टोपी को।' और वापस आते ही उन्होंने सूचित किया है सबको, “जो दरखास्त मैंने डी.एम. को दी थी, उस पर नोट लगाकर उन्होंने दरोगाजी के पास भेज दी है - कड़ी जाँच की जाए। दरोगा बहुत जल्द जाँच करने आएगा।” लेकिन अधपगले अधरंगी का मुँह कैसे बंद करें लीडरजी? वह कहता घूम रहा है, “परधान और लीडर दोनों गेहुँअन साँप हैं। कलक्टर के पास दरखास देते समय किसी को साथ क्यों नहीं ले गया लीडर? दरोगा से भी अकेले मिल आया। इसमें रहस-बात है, सोचने की बात।”
उधर परधानजी के गुर्गे हल्ला कर रहे हैं कि दरोगाजी ने लीडर को थाने पर दो घंटे तक मुर्गा बनाए रखा।
बिल्डिंग के बरामदे में रखी जालीदार पेटी के अंदर बंद बनमुर्गियाँ कुडकुड़ा रहीं हैं - कुड़क, कुड़क... क्रेआँ, क्रेआँ!!
परधानजी ने शहर से एक पेटी बनमुर्गियाँ मँगवायी हैं। दरोगाजी ने कहा था - इंतजाम करके रखना। हो गया इंतजाम। शिकार के समय ताल के किनारे ले जाकर बक्से का मुँह खुलवा देंगे - करो शिकार हुजूर।
बिरादरी की आवाज सुनकर ताल की बनमुर्गियाँ भी शाम होते ही बिलिडंग के चारों ओर चक्कर काट रही हैं- कुड़-कुड! कुर्र-कुर्र!
लीडरजी रात में लेटे-लेटे लीडराइन को कनविंस कर रहे हैं, “दो-चार दिन जाकर तू भी कर दे अनशन। परधानी के इलेक्शन में बड़ी सपोर्ट मिलेगी... क्या कहा? गाँव की कोर्इ औरत नहीं जाती? अरे गाँव की साली, परधान तेरे भतार को बनना है कि गाँववालियों के? ...गाली देने का काम ही करती है तू। खुद मुख्यमंत्री आकर संतरे का रस पिलाएँगे।”
पर नहीं। नहीं मानती वह। लीडरजी सोच रहे हैं - इल्लिटरेट मास को कनविंस करना इम्पोंसिबल। हारिबल। टेरिबल। अनपढ़ लोगों को कैसे समझाए कोर्इ? असम्भव, नामुमकिन!
दरोगाजी शिकार खेलने आ गए। साथ में पाँच-छह सिपाही। परधानजी बनमुर्गियों वाली पेटी ताल के किनारे लाकर उसका ढक्कन खोल देते हैं। दसियों बनमुर्गियाँ ताल में कूदती हैं, लेकिन दरोगाजी किंचित मायूस हो जाते हैं। उनकी तमन्ना थी 'ए' ग्रेड शिकार करने की। कभी बैठकर, कभी उकड़ूँ, कभी लेटकर, कभी दौड़कर। कहीं चट्टान की रगड़ से घुटने छिलते। कहीं झाड़ी से उलझकर खाकी कमीज की बाँह फटती। यह क्या वेजीटेरियन टाइप का शिकार? खैर!
पहला फायर दरोगाजी करते हैं, और फिर सारे सिपाही, लेकिन यह क्या? पलभर में सारी बनमुर्गियाँ भीटे की झाड़ियों में गायब। परधानजी का मुँह छोटा हो जाता है। अभी बिगडेंगे दरोगाजी - यही है तुम्हारा इंतजाम? गाँव की मुर्गियों पर ही केंट्रोल नहीं तो आदमियों पर कैसे?
“दोहार्इ मार्इ-बाप! रच्छा करो सरकार!” शनिचरी आकर दरोगाजी के पैरों पर लोट जाती है। लीडरजी ने पहले ही सिखा दिया है, “घबड़ाना बिलकुल नहीं। तेरे लिए ही आए हैं दरोगाजी। परधान की सारी करतूत...”
“क्या है? कौन है ये?” दरोगा पैर झटकते हैं, “क्या बात है?”
“सरकार, एर्इ परधानजी। गाँव-भर की बिटिया बेंच दिए। इनका फाँसी देव हुजूर, नाहीं तौ हमें गोली मारि देव। हमार बिटिया गुलरी क फूल...”
दरोगाजी पल मात्र में सब कुछ समझ जाते हैं, “हूँ, लड़की बेचकर अब नकल करने चली है साली। क्यों पैदा किया गूलर के फूल जैसी बिटिया? बोल, मुझसे पूछकर पैदा किया?”
शनिचरी को चुप पाकर दरोगाजी को अपना तर्क वजनदार लगने लगता है, “बुला अपने खसम को। साले ने क्यों पैदा की ऐसी लड़की?”
शनिचरी घबड़ाती है। उसके सरगवासी आदमी पर तोहमत लग रही है, तब तो सच बोलना ही पड़ेगा, “हुजूर, पैदा तो इनही परधानजी ने किया था। पूछे का मौका भी नहीं दिए। हमारे आदमीजी तो तब परदेश गए रहे।”
“अच्छा... आ... आ...” दरोगाजी गोल मुँह बनाकर तर्क करते हैं ठोस तर्क, “तो कल को अगर परधानजी ने फिर पैदा करके बेच दिया तो मैं फिर रिपोर्ट लिखता फिरूँगा? मुफ्त में? तू पहले थानेवाले शिविर में आकर लूप लगवा। मुंशीजी, नोट करो - शनिचरी, लूप केस।”
“कितनी शनिचरियों के लूप लगवाओगे दारोगा साहेब, जब तक परधानजी की जवानी गरम है। लूप लगवाना है तो परधान के लगवाओ।”
दरोगाजी अप्रतिभ होते हैं, “यह अपाहिज कौन है? कहीं सी.आर्इ.डी. ...
परधानजी तिलमिला गए हैं, “पुराना पागल है हुजूर, इसकी बात पर ध्यान न दें।”
“गाँव का है या बाहर से आया है?”
“गाँव का ही है हुजूर, यहीं पैदा हुआ, अपाहिज हुआ, पागल हुआ।”
दरोगाजी के नथुने फूलने लगे हैं। वे हुमककर अधरंगी के पेट पर लात जमाते हैं, “हरामी के पिल्ले, मैं शिकार खेलने आया हूँ कि जिरह सुनने।”
अधरंगी धड़ाम से गिरता है, लेकिन तुरंत ही उठने का प्रयास करते हुए चिल्लाता है, “आदमी का शिकार करके पेट नहीं भरा तो चिरर्इ का शिकार करके नहीं भरेगा दरोगा बाबू...ऊ...ऊ।”
“मुंशीजी, इसका भी नाम नोट करो।”
तभी एक सिपाही दौड़कर सूचित करता है, “सर, उधर कोनेवाली रूसहनी में दो बनमुर्गियाँ, जरा होशियारी से सर।”
दरोगाजी दबे पाँव बंदूक तानकर दौड़ते हैं। परधानजी और मुंशीजी धक्का मार-मारकर अधरंगी को भगा देते हैं। परेमकुमार आकर परधानजी को सूचित करता है, “बाबूजी, चाह-पकौड़े तैयार हैं।”
“ठीक है, हम दरोगाजी को लेकर अभी आते हैं। अपनी अम्मा से बोलना, साड़ी-वाड़ी कायदे से पहन लें।”
परधानजी दरोगाजी की राह देखने लगते हैं, लेकिन दरगोजी को तो लीडर उसी तरफ से लेकर अपने घर चला गया । शिकस्त! मात!
“अरे, यह क्या? थ्री एक्स?” दरोगाजी भाव-विभोर होकर लीडरजी को गले लगा लेते हैं।
दरोगाजी, बकरे की मूँड़ी चबाते हुए लीडरजी की हर बात में सिर हिला रहे हैं। लीडरजी खुश हो रहे हैं। बहुत ही विश्वस्त सोर्स से पता लगाया था लीडरजी ने कि दरोगाइन पक्की ब्राहम्णी हैं। घर में मीट का नाम भी नहीं ले सकते दरोगाजी। उन्हें बाहर ही मुँह मारना पड़ता है। पढ़ी-लिखी नहीं तो क्या, मीट ए-वन का बनाती हैं फूलकुमारीजी। दरोगाजी से बिना बोले नहीं रहा जाता, “आप रियली कमाल का मीट बनाती हैं। हें...हें...हें...।” दरोगाजी खींसें निपोरकर हँसते हैं।
लीडराइन उर्फ फूलकुमारी उर्फ मनजौका की चूड़ियाँ बज उठती हैं - खनन-खनन।
घंटों बतियाने के बाद जब लीडरजी, दरोगाजी को पगडंडी के मोड़ तक पहुँचाकर वापस लौटते हैं तो परधानजी आकर मिलते हैं सिपाहियों के साथ।
परधानजी, लड़कियों के मामले में आप बुरी तरह इनवाल्व हो चुके हैं। दूसरे आपने बलात्कार भी किया है। अब भलार्इ इसी में है कि जैसे भी हो, बुढ़िया का मसला फौरन साफ करो और थाने पर आकर मुझसे मिलो। वरना लीडर तुम्हें ले डूबेगा।”
सारे गाँव में चर्चा है - दरोगा ने शनिचरी के 'लुप्प' लगा दिया, बुढ़वा पीपल तले।
“लीडरवा के भी लगा दिया।”
“परधान के भी, अधरंगिया के कहने पर।”
लीडराइन को सोच हो गया है। आखिर रहा नहीं जाता तो सिर में तेल-मालिश करते हुए बोल ही पड़ती है, “इसीलिए खबरदार करती थी, मैं, कि पुलुस-दरोगा की दोस्ती... इतना पूड़ी-परौठा, कलिया, दारू, खिलाया-पिलाया, मगर जाते जाते आपके भी लुप्प लगा गया।”
“कौन कहता है रे छछूँदर? आदमी के कहीं लूप...” लीडरजी गुस्से में लीडराइन का हाथ झटककर उठ बैठते हैं, “बिना पढ़ी-लिखी जनाना का साथ... मैं फिर वारनिंग देता हूँ, लास्ट वारनिंग। पढ़ना-लिखना शुरू कर दो, वरना... तेरे जैसी फूहड़ औरत को लेकर कोर्इ एम्मेलेज फ्लैट में कैसे रह सकता है?”
चोरबत्ती लेकर वे बिल्डिंग की ओर चल पड़ते हैं। परधानजी के दोनों हलवाहों ने शनिचरी को घसीटकर दरवाजे से दूर बबूल के ठूँठ के नीचे डाल दिया है। घुटने छिल गए हैं। बैठे रहने में तकलीफ होती है। वह लेटे-लेटे ही सराप रही है। लीडरजी जाकर बगल में बैठ जाते हैं, 'मैंने बहुत कोशिश की काकी, लेकिन परधान एस.पी. साहब को एक हजार की पूजा चढ़ा आया है। एस.पी. ने कह दिया, 'परधान को गिरफ्तार नहीं करना।' दरोगा क्या करे? मैं दरोगा से इसी की काट पूछता रहा, घर में बैठाकर। वह कहता था कि मुख्यमंत्री को दरखास्त दो। उनका आडर हो जाए तो दरोगा एक मिनट में परधान को अंदर कर देगा। मैं कल तड़के ही जाऊँगा, मुख्यमंत्री से मिलने। आप इन कागजों पर निशानी-अँगूठा लगा दीजिए। मैं मुख्यमंत्री को साथ ही लेकर आऊँगा।”
शनिचरी चोरबत्ती की रोशनी में कागजों को देखती है, “र्इ तौ कचहरीवाला कागद है बेटवा, ऊपर की ओर रूपैया जैसी छापी बनी है।”
बुढ़िया की नजर रात में भी उल्लू की माफिक तेज है। पसीना चुहचुहा आया है लीडरजी के माथे पर।
“मुख्यमंत्री के पास तो वाटर मार्कवाली दरखास्त ही जाती है काकी, बिना कोर्ट फीस और टिकटवाली दरखास्त की कोर्इ वैलू नहीं।”
“कुल लिखौ नाहीं है, कोरा कागद।”
“इसमें मशीन से टाइप करवाकर लिखना होगा। हाथ की लिखार्इ नहीं चलेगी।”
शनिचरी अँगूठा-निशान देती है।
लीडरजी मुख्यमंत्री को लेने चले गए हैं, लेकिन अधरंगी को विश्वास नहीं होता। लीडर की नस्ल का पता तो उसे बहुत पहले से था, लेकिन शनिचरी के कारण चुप था, पर जिस दरोगा ने उसके और शनिचरी के साथ जानवर से भी बुरा व्यवहार किया, उसी को लीडर ने कलिया-गोस और दारू में डुबो दिया तो वह कैसे चुप रहे? वह चीख-चीखकर कहेगा कि लीडर दगाबाज, दोमुँहा, दोगला और दरोगा का चमचा है। उसके करने का कुछ नहीं। दो पुतले बनाए हैं अधरंगी ने। एक परधानजी का, दूसरा उनके बेटे परेमकुमार का। अपनी कमीज फाड़कर दोनों के लिए कुर्ता-पायजामा सिला है। शनिचरी को समझा रहा है, “कोर्इ नहीं आएगा काकी, हमारी मदद के लिए। न परधानमंतरी, न मुखमंतरी। न भगवान, न भगौती। हम खुद अत्याचारी को सजा देंगे।”
दूसरे दिन सवेरे ही वह फटा कनस्तर पीट-पीटकर गाँव-भर में ऐलान कर रहा है, “ आज शाम पाँच बजे। पाँच बजे शाम को बिल्डिंग के सामने बबूल के ठूँठ पर लटकाकर गाँव के बेटी-बेचवा परधान और उसके बेटे परेम को फाँसी दी जाएगी। आप सभी हिजड़ों से हाथ जोड़कर पराथना है कि इस शुभ अवसर पर पधारकर...”
और पाँच बजे शाम को अधरंगी ने दोनों को शनिचरी के हाथों से फाँसी दिला दी। परधान का शव रस्सी के सहारे बबूल के ठूँढ से लटक रहा है। उनके मुँह पर कालिख पोत दी गर्इ है। परेमकुमार का शव बबूल के तने से बाँध दिया गया है, सिर एक तरफ को लटका हुआ। आने-जानेवाले रुककर देखते हैं तो शनिचरी हाथ की छड़ी पुतलों पर मारकर परिचय देती है, “र्इ खिरोधरा आ। र्इ परेमवा। र्इ खिरोधरा...।”
अँधेरा घिरने के बाद शनिचरी लेटे-लेटे कारन करती है, “अरे या परधनऊ, गाँव के नकिया कटाइ के भाग्या। मेहरी कै चुरिया फोरार्इ के भग्या। महल अटरिया गँवार्इ के भाग्या। ऊ-हू-हू-हू...।”
सहसा उठकर खड़ी होती है वह और आकर बिल्डिंग का दरवाजा फटफटाने लगती है, “अरे या रँड़वा, खोल केवड़वा।” सन्नाटे केा बेधती दरवाजा फटफटाने की आवाज वातावरण को भयावह बना रही है। परेमकुमार चौंककर परधानिन से चिपक जाता है, “मार्इ रे, डर लगता है।” परधानिनजी बगल की चारपार्इ पर सोए परधानजी को आवाज देती हैं, “सुनते हो जी। अब नहीं सुना जाता है हम से। एक्कै बेटवा है हमरे। बुढ़ार्इ दाँव की अकेली निशानी। उसको डाइन ने फाँसी चढ़ा दिया। मैं कहती हूँ, का र्इ सच है कि...” वे उठकर परधानजी को झिंझोड़ने लगती हैं।
“चुप ससुरी। चुप्पै सोइ जा नाहीं तो...।”
परधानिन फिर झिंझोड़ती है, “तोहे हमार कसम, अपने अकेल लरिका की कसम। साफै-साफ बताओ। र्इ सब सच्च है?”
“तू यह क्यों नहीं पूछती कि जो दोनों कमरों पर लिंटर डाला जा रहा है, उसका पैसा कहाँ से आया? ट्यूबेल की किस्त कहाँ से दी?”
“हे भगवान!” परधानिन चीखकर बेटे से लिपट जाती है।
परधानजी भी सोच में पड़ गए हैं - बड़ा हिस्सा बड़े लोगों ने गपक लिया और सारा 'बिख' अकेले उनकी खोपड़ी पर 'बिखा' रहा है। पहले ही उन्होंने सलाह दी थी कि लीडर को भी हिस्सेदार बना लिया जाए, मगर...
अधरंगी सारे गाँव में भचक-भचककर चीख रहा है, “लिडरा कै नकिया कटार्इ जाए। थानेदरवा कै बरदी उतारि जाए। बिल्डिंग मा अगिया लगार्इ जाए। परधनवा का फाँसी चढ़ार्इ जाए,...चढ़ार्इ जाए...”
लीडरजी ने कहा था, “खुद मुखमंतरीजी संतरे का गिलास लेकर सामने खड़े होंगे - अनशन तोड़िए शनिचरी देवी।” शनिचरी मुख्यमंत्री के आने की राह देख रही है - लेकिन इतनी देर क्यों कर रहे हैं मुख्यमंतरीजी? रह-रहकर वह बापू के चेहरे को अँधेरे में देखने की कोशिश करती है। मुस्कराता हुआ पोपला मुँह दिलासा देता है - जरूर आएँगे।
अधरंगी गाँव की परिक्रमा करने के बाद फिर आकर शनिचरी के पास बैठ जाता है। शनिचरी चिंता व्यक्त करती है, “अभी तक नहीं आए।”
अधरंगी कोर्इ तीखी बात कहना चाहता है, लेकिन टाल जाता है।
“अन्याय कै हद होत है तौ र्इ धरती फाटि जात है अधरंगी बेटवा।”
“अभी तक तो मैंने कभी फटते नहीं देखी।”
“विश्वास से फाटेगी बेटवा, सीता माता के खातिर फाटि रही।”
अधरंगी उठकर चल देता है।
परधानिन सपना देख रही हैं - काली अँधेरी रात। बिल्डिंग के सामने जोर-जोर से चीखते हुए लोगों का झुंड जलती आग में कुछ भून रहा है, भाले की नोक में टाँगकर। 'ऐं, सिर है, कटा हुआ। किसका? परेमकुमार के बाबू ऊ-ऊ-ऊ...'
परधानजी मन-ही-मन गरियाते हैं, “साली सोते हुए भी ब्याज जोड़ रही है।”
परधानिन हड़बड़ाकर उठती हैं और जाकर परधानजी का सिर टटोलने लगती हैं तो परधानजी प्यार से उनका हाथ सहलाते हुए फुसफुसाते हैं, 'आ जाओ, सो गया परेम।”
हाथ झटककर परधानिन बड़बड़ाने लगती हैं, “र्इ गाँव लंका है। इहाँ लंकादहन होवेगा। रावन तू ही हो। लिडरा बना है भिभीखन। तोहरे दूनो के चलते गाँव का सत्यानाश होवेगा। होर्इ रहा है। बहिन-बिटिया बेंचो। हमहूँ का बेचि लेव। रुपया बटोरो। साथ लै जायेब, लेकिन अब हम एहि घरे मा ना रहब। आपन बेटवा लइके भीखकौरा माँगब, मुला...”
परधानजी चिंतित हो गए हैं। नाहक बता दिया। फुसफुसाते हैं, “तो अब क्या करूँ? चिल्लाकर गाँव बटोरने का इरादा है? बदनामी करोगी? जेहल भेजोगी?”
“बदनामी-जेहल का डर रहा तो बेंचा काहे? लाइके वापस करौ।”
परधानजी को दरोगा की बात याद आती है - जल्दी साफ करो।
“शनिचरी अनशन तोड़ दे तो मैं थिर मन से दो-चार दिन में ढूँढ़कर लाने की कोशिश भी करूँ।”
“हम मनाउब, ओेकरे पैर पड़ि के, हाथ जोड़ि के।”
परधानजी कलेजा मजबूत करते हैं। थोड़ी देर बाद दोनों प्राणी बाहर आते हैं। आगे-आगे परधानिन, हाथ में दूध का कटोरा लिये हुए। पीछे-पीछे परधानजी। आहट पाकर शनिचरी उठ बैठती है, “तो अब आए मुखमंतरी।”
कटोरा रखकर परधानिन पैर पकड़ लेती हैं शनिचरी के, “हमें माफ करौ बहिनी, ये कल ही जाइके रूपमती समेत सबका वापस लइहैं। अब बरत तोड़ौ।”
“मुझे अफसोस है शनिचरी, मैं सबेरे ही जाऊँगा।”
गदगद हो गर्इ है शनिचरी। धन्न हो! धन्न हो! लेकिन अनशन तो वह नहीं तोड़ सकती। फिर मुखमंतरी को कौन-सा मुँह दिखाएगी।
लेकिन परधानिन इतनी आसानी से माननेवाली नहीं। वे दूध का कटोरा मुँह से लगा देती हैं। परधानजी शनिचरी के दोनों हाथ पकड़ लेते हैं। ऐं, मुँह बंद कर लिया। परधानिन बंद मुँह खोलना जानती हैं... गटर, गटर।
भोर के चार बजे परधानिन की आँख लग जाती है तो परधानजी दबे पाँव शनिचरी के पास आते हैं। छाती छूकर देखते हैं - ठंडी। साँस बंद। गुड्ड। अब कुछ कहेगी साली तो डरा दूँगा कि दूध तो तूने ही पिलाया था। तूने ही मिलाया होगा जो कुछ मिलाया होगा दूध में।
सवेरे जानवरों को चराने जाते समय अधरंगी देखता है - काकी अभी तक सो रही हैं, दो घंटा दिन चढ़ते-चढ़ते खबर फैलती है - शनिचरी मर गर्इ। सब आकर बारी-बारी देख जाते हैं, लेकिन लाश ठिकाने कौन लगाए? अनशन करते हुए मरी है बुढ़िया। क्या पता लाश पुलिस ले जाए। लीडरजी अभी मुखमंतरी को लेकर नहीं लौटे। दो-एक गाँववाले आगे आने की हिम्मत भी करते हैं तो उनकी औरतें खड़ी हो जाती हैं सामने, “दरोगा ने उसके लुप्प लगाया है। कल को लहास जलाने के बाद आकर अपना लुप्प माँगने लगा तो कहाँ से दोगे? कहती हूँ, मत जाओ लहास के पास। और जाना ही है तो पहले मेरी लहास गिराकर जाओ, हाँ।”
दोपहरी ढल चुकी है। शनिचरी का मुर्दा शरीर काला पड़ गया है। लावारिस समझकर एक गीदड़ उसे पास के अरहर के खेत में घसीटना शुरू कर देता है। दो कदम घसीटता है और भागकर खेत में छिप जाता है। परधानजी बिल्डिंग की खिड़की से झाँक-झाँककर कुढ़ रहे हैं - साला एक कदम भी नहीं घसीटता और खेत में घुसकर घंटों सुस्ताता है।
शाम को वापस आने पर अधरंगी को खबर मिलती है। वह जानवरों को जल्दी-जल्दी ठिकाने लगाता है और शनिचरी की झिलंगा खटिया लेकर लाश के पास पहुँचता है। खटिया उलटकर लाश को लादता है और सिरहाना पकड़कर घसीटते हुए लाकर उसकी झोंपड़ी के सामने रखता है। झोंपड़ी उजाड़कर उसे चिता की शक्ल देता है और लाश को खटिया समेट बीच में घसीटकर आग लगा देता है। सहसा कुछ याद करके बबूल के ठूँठ की तरफ भागता है। ठूँठ से लटके परधानजी और परेम को उतारकर वापस लौटता है तो बिल्डिंग की छत से परधानिन चिल्लाने लगती हैं। अधरंगी पहले परधानजी को टाँग पकड़कर चिता में फेंकता है, फिर परेमकुमार को। तभी दौड़ते-दौड़ते परधानजी आते हैं और परेमकुमार की टाँग पकड़कर खींच लेते हैं। अपनी टाँग उन्हें ढूँढे नहीं मिल रही। सिर्फ परेमकुमार को लेकर लौट पड़ते हैं। अधरंगी चिल्लाता है, “ले जाओ, ले जाओ। उसे भूना जाएगा, जब बिल्डिंग को तोड़कर चिता बनार्इ जाएगी।”
चिता की परिक्रमा करते-करते सहसा वह बैठ जाता है और झुककर धरती को घूरने लगता है। शनिचरी कहती थी - अन्याय की हद होती है तो धरती फट जाती है...
लीडरजी एक घंटा रात बीते वापस आते हैं, मुख्यमंत्री से मिलकर। उनके आने के पहले ही गाँव में खबर फैल गर्इ है कि शनिचरी अपना दो बीघा खेत लीडरजी के नाम लिख गर्इ है।
असल में घिसियावन एक घंटा दिन रहते ही वापस आ गया था, तहसील दफ्तर से गाते हुए, “राज की बात कह दूँ तो...” उसी ने बतार्इ है राज की बात, “लीडर वाटर मार्कवाली दरखास लेकर कल से ही तहसील में चक्कर काट रहा है।”
कुफार सुनते-सुनते लिडराइन के कान पक गए हैं। वह लेटते ही पूछती हैं, “सारे गाँव में चर्चा है कि आपने शनिचरी का खेत धोखे से अपने नाम लिखा लिया।”
ऐन सोने के बखत नखरा करती है फूलकुमारी, “अरे, फूल दि ग्रेट, इसमें धोखा क्या है? मैं नहीं कराता तो परधान कराता।”
तिनककर बैठ जाती हैं लीडराइन, “धोखेबाज, बेर्इमान। तुम्हारे ही पाप के कारन मेरी कोख नहीं फल रही है। मैं...”
कितने चाव से बेसन, जीरा वगैरह खरीदकर लाए थे लीडरजी कि आज फुलौरी बनवाकर खाएँगे। साल-भर हुआ फुलौरी खाए हुए, लेकिन यहाँ पहले ही करेमुआ का साग और बजड़ी की रोटी पाथ रखी थी इस बेहूदी ने, ऊपर से सोते समय पचड़ा शुरू कर दिया। वे लीडराइन का हाथ पकड़कर लेटाने की कोशिश करते हैं, “मैं तो पहले ही पाँच-छह सौ का धक्का खाकर लौटा हूँ भगवान, मेरा खून मत पियो। यही है तुम्हारी अकल। मास्टराइन के काबिल भी नहीं, मिनिस्टराइन के काबिल तो क्या होगी? अरे पागल, कर्मक्षेत्रे-युद्धक्षेत्रे सब जायज है।”
“तुम लोग कसार्इ हो। सारा गाँव कसार्इबाड़ा है। मैं नहीं रहूँगी इस गाँव में।” वह हाथ झटककर आँगन में आ जाती है।
“रह साली, कर नखरा, लेकिन याद रखना, जब हम मिनिस्टर होंगे... और हाँ...” सहसा वे सीरियस हो जाते हैं। तीली रगड़कर ढिबरी जलाते हैं और डायरी खोलकर नोट करते हैं - मिनिस्टर होते ही सबसे पहले शनिचरी की मौत के कारणों की जाँच के लिए एक जाँच-आयोग बैठवाऊँगा।