कसाब डॉट गांधी@यरवदा डॉट इन (कहानी) / पंकज सुबीर
हवा कुछ भारी-सी हो रही है। इन दीवारों को इस भारीपन की आदत है। आदत है क्योंकि ये तनाव इन दीवारों के आस पास अक्सर होता रहता है। तनाव आज भी है, कारण है सी-7096. ये नवंबर की रात है। मंगलवार की रात। ठीक एक सप्ताह पहले मंगलवार की रात को पूरे देश में धमाके पर धमाके हो रहे थे, दीपावली के पटाखों के और ये दीपावली का ठीक अगला मंगलवार है। एक और धमाके की तैयारी। धमाके के ही लिये सी-7096 को यहाँ ले आया गया है। पच्चीस साल के सी-7096 के ही कारण हवा आज भारी है।
सी-7096 ख़ामोश है। अब उसके पास इस ख़ामोशी के अलावा और कुछ नहीं बचा है। उसके दिमाग़ में बहुत कुछ चल रहा है। मगर यहाँ कोई नहीं जिसके साथ वह दिमाग़ में चल रहे बहुत कुछ को साझा कर सके। रात धीरे-धीरे गहरा रही है। सी-7096 इस गहरी होती रात के साथ उस सुबह की आहट को सुनने की कोशिश कर रहा है जो उसके लिये अनंत रात लेकर आ रही है। सी-7096 ने यहाँ लाये जाने से कुछ पहले सत्य के साथ किसी के प्रयोगों को पढ़ा है। सत्य के साथ किये गये प्रयोगों ने उसे हैरत में डाला है। ये सत्य उस सत्य से बहुत अलग था जो सत्य उसे बताया गया था। सत्य का ये एक बिल्कुल नया स्वरूप उसके सामने आया था। अब जब अंतिम सत्य से साक्षात्कार का समय सामने है तो उसे अपने सत्य भी याद आ रहे हैं। दहशतज़दा, मौत के ख़ौफ़ से घबरा कर भागते लोग। लोग, जिनमें औरतें, बच्चे और बूढ़े शामिल थे। लोग, जो क्लाश्निकोव से निकली बारूदी मौत का स्पर्श पाते ही ज़मीन पर बिछते चले गये थे। लोग, जो निकले थे एक और दिन को जीने के लिये। मौत तो वह भी दूसरों के साथ अपनी भी तय करके निकला था, लेकिन मर कहाँ पाया। वह ज़िंदा बच गया। बच गया ये चार साल बिताने के लिये।
उसे पता है आज जहाँ उसे लाया गया है वहाँ अस्सी साल पहले सत्य के साथ प्रयोग करने वाला भी रह चुका है। ये दीवारें सबको देख चुकी हैं। सत्य के साथ प्रयोग करने वालों को भी और असत्य के साथ प्रयोग करने वालों को भी। रात आधी के आस पास हो चुकी है। सी-7096 दीवारों को छूकर कोशिश कर रहा है उन लोगों का स्पर्श पढ़ने की जो उससे पहले यहाँ रह चुके हैं। इन स्पर्शों में शायद वह एक स्पर्श भी हो।
दीवार पर एक साया उभरा है। सी-7096 चौंक गया। इस समय। अभी तो सुबह में बहुत देर है। साया धीरे-धीरे चलता हुआ उसके पास आ गया है। सी-7096 इस बार पहले से भी अधिक चौंका है। साया ठीक उसके पास खड़ा है। तस्वीरों में उसने देखा है इस साये को। इस साये के कुछ प्रतीक चिह्न हैं जिनसे इसको कोई भी पहचान सकता है। सी-7096 ने भी उन प्रतीक चिह्नों से ही पहचाना है। मगर अब वह असमंजस में है कि क्या करे। साया उसके ठीक पास खड़ा है। साये का चेहरा अब उसे स्पष्ट दिख रहा है। अब वह उसे साया भी नहीं कह सकता। गोल लैंसों वाले एनक से झाँक रही हैं बूढ़ी आँखें। अजीब-सी पोशाक पहने है आज वह साया। नीचे अपनी वही चिर परिचित धोती, मगर ऊपर के बदन पर खादी की चादर की जगह क़ैदियों वाली मोटे कपड़े की मटमैली शर्ट है जिस पर एक चमड़े का बिल्ला लटका है। बिल्ले पर नंबर डला है 189. चेहरे पर वही मुस्कुराहट है जो इस चेहरे की पहचान है। सी-7096 की आँखें एनक से झाँक रही आँखों से टकराईं। सी-7096 असहज हो गया।
'कैसे हो?' मुस्कुराते हुए होंठों के बीच से शब्द निकले हैं। सी-7096 इस प्रश्न में उलझ गया है।
'आप मुझसे पूछ रहे हैं जनाब?' उसने उत्तर में प्रतिप्रश्न किया।
'यहाँ तो बस दो ही हैं, तुम और मैं, इसलिये ज़ाहिर-सी बात है कि मैं तुमसे ही पूछ रहा हूँ।' 189 ने शांत भाव से मुस्कुराते हुए उत्तर दिया।
'नहीं मैं तो ये कह रहा हूँ कि आप आज, इस रात को मुझसे पूछ रहे हैं कि मैं कैसा हूँ। क्या आपको पता नहीं है सब कुछ।' सी-7096 ने अपने स्वर में शुष्कता लाते हुए कहा। उसके कहते ही 189 की मुस्कुराहट कुछ कम हो गई। आँखों में जो सितारे टिमटिमा रहे थे वह भी कुछ मंद से पड़ गये। 189 ने अपने पोपले मुँह में हवा को चबाया। हाथों में पकड़ी लाठी को धीरे से दीवार से टिका दिया और ज़मीन पर बैठने का उपक्रम किया। सी-7096 ने देखा तो वह मदद करने के लिये बढ़ा। 'नहीं नहीं मैं बैठ जाऊँगा, अभी मैं इतना भी बूढ़ा नहीं हुआ।' कहते हुए 189 ने ज़मीन पर घुटने मोड़ कर बैठने का अपना चिरपरिचित पोज़ ले लिया। घुटनों से ऊपर तक की धोती में से पिंजर के समान दो पैर बाहर निकल आये। 189 ने मुस्कुराहट के साथ सी-7096 को देखा। सी-7096 जो अब तक 189 के सारे उपक्रमों को देख रहा था अचानक नज़रें मिलते ही सकपका गया। उसकी सकपकाहट को देख कर 189 की मुस्कुराहट कुछ और गहरी हो गई।
'पूछना तो आज ही पड़ेगा न कि तुम कैसे हो। आज ही।' 189 ने दूसरी बार आज ही को कुछ ज़ोर लगा कर कहा। सी-7096 ने कोई उत्तर नहीं दिया वह उसी प्रकार से चुपचाप खड़ा रहा। 189 ने मुड़े हुए घुटने पर रखी कमर से लटक रही हाथ घड़ी को सीधा करके टाइम देखा, घड़ी को देखते ही आँखों में चिंता के भाव लहराए। होठों ही होठों में कुछ बुदबुदाहट हुई, क्या हुई ये सी-7096 को नहीं सुनाई दिया।
'तुमने बताया नहीं केशे हो?' 189 ने बहुत प्रयास किया उच्चारण को ठीक रखने का लेकिन कैसे के स्थान पर केशे ही निकला।
'अच्छा हूँ।' सी-7096 ने सपाट-सा उत्तर दिया।
'अच्छे हो...? सचमुच?' 189 की इच्छा तंज़ करने की नहीं थी लेकिन फिर भी सी-7096 को ऐसा लगा कि उस पर तंज़ किया गया है।
'क्यों...? क्यों अच्छा नहीं हो सकता? ऐसा क्या हो रहा है जो अच्छा नहीं महसूस करूँ?' सी-7096 कुछ तैश में आ गया उस तंज़ को महसूस करके।
'मेरा मतलब वह नहीं था, मैं तो कहना चहा रहा था कि...' 189 ने बात को स्पष्ट करने का प्रयास किया लेकिन उसके पहले ही सी-7096 ने बात को काट दिया 'क्या कहना चाह रहे थे...? कि मैं डरूँ, घबराऊँ? ज़िंदगी की भीख माँगू, मेरे चेहरे पर मौत का ख़ौफ़ नज़र आये? सुनिये जनाब मैं तो ये सब पहले से ही जानता था और ये सब जानकर ही आया था यहाँ पर, मेरे हिसाब से तो उस सब में देर हो गई चार साल की। मेरे साथ वाले तो चार साल पहले ही जन्नत पा चुके हैं।' सी-7096 का स्वर बहुत ऊँचा हो गया और उसमें तल्ख़ी भी बहुत ज़्यादा थी। 189 को तल्ख बातें सुनने की आदत है। पहले भी बहुत सुनी हैं और उसके विरोध में अपना मौन का हथियार इस्तेमाल किया है। 189 ने घुटने को कुछ और मोड़ा तथा अपने उल्टे हाथ की पूरी हथेली को फैला कर फ़र्श पर टिका दिया, इस प्रकार कि शरीर थोड़ा-सा एक तरफ़ झुक जाये। ये 189 की विरोध में जाने की अपनी मुद्रा है। इसके बाद कोई हलचल नहीं हुई। सी-7096 इंतज़ार में था कि 189 की तरफ़ से कोई उत्तर आयेगा।
दस मिनिट, पंद्रह मिनिट, समय बीत रहा है, 189 का मौन क़ायम है। सी-7096 के लिये अब ये मौन भयावह होता जा रहा है। दीवारों पर, फ़र्श पर हर जगह केवल मौन है। जब इन्सान अकेला होता है तो मौन उसके लिये सुकून देने वाला होता है, लेकिन जब दो लोगों के बीच मौन होता है तो वह मौन डराने वाला होता है। दोनों चाहते हैं कि ये मौन जल्दी से जल्दी टूट जाये। यहाँ हालाँकि 189 ने जान बूझ कर मौन लिया है। 189 को वैसे भी डराना बहुत पसंद है। डराना अपने तरीके से, कभी चुप रह कर तो कभी भूखे मर कर। तरह-तरह से डराना, मुस्कुराओ तो भी किसी-किसी को डर लगे। यहाँ भी मौन पसर गया है, 189 का विश्वप्रसिद्ध, विख्यात और कुख्यात मौन। सी-7096 अब छटपटा रहा है, अंदर ही अंदर छटपटाहट बढ़ती जा रही है।
'आपकी ये क़ैदियों वाली ड्रेस तो यहाँ की नहीं है।' सी-7096 ने छटपटाहट से मुक्ति पाने के लिये एक बहुत ही निजी-सा सवाल किया।
'ये...?' 189 ने अपनी शर्ट पर हाथ फेरा और फिर नंबर वाले बिल्ले को उँगली और अँगूठे से पकड़ लिया 'ये यहाँ की नहीं है, साउथ अफ्रीका की है। जब मैं पहली बार जेल गया था तबकी है।'
'मगर यहाँ ये ड्रेस...?' सी-7096 ने पूछा।
'ड्रेस तो एक ही रहती है। जेलें बदलती रहें मगर क़ैद तो वही रहती है। जब हम पहली बार इस ड्रेस को पहनते हैं तो ये हमसे चिपक जाती है। फिर ये उतरती नहीं है। क़ैदी होना आपको भले ही अवस्था लग रही हो किन्तु, वास्तव में तो वह एक व्यवस्था है। इस अवस्था और व्यवस्था के अंतर को समझ जाओगे तो मेरी इस साउथ अफ्रीका की ड्रेस के बारे में भी जान जाओगे।' 189 ने अपनी मुस्कुराहट को कुछ गहरा कर लिया है। मुस्कुराहट के चलते सी-7096 एक बार फिर से अपने आपको असहज महसूस कर रहा है। उसको इस प्रकार की मुस्कुराहटों की आदत नहीं है।
'आप यहाँ...? मेरा मतलब है आप यहाँ ही रहते हैं क्या? मैंने तो सुना था कि आप वहाँ राजधानी में।' सी-7096 मौन को तोड़ने के चक्कर में गड़बड़ा रहा है। जो कुछ भी पूछना चाह रहा है वह पूछ नहीं पा रहा है। 189 के मौन का ख़ौफ़ ही ऐसा है। सी-7096 बात को दूसरी तरफ़ मोड़ना चाह रहा है। अनौपचारिकता की ओर, ताकि असहजता और तल्ख़ी कम हो सके और इस बहाने 189 का मौन भी टूटे।
189 ने उसी मुद्रा में बैठे हुए सिर उठा कर सी-7096 को देखा। अपने अनुभव से 189 ने अनुमान लगा लिया कि मौन का मिशन पूरा हो चुका है। अब मौन तोड़ा जा सकता है। 'बैठ जाओ, कब तक खड़े रहोगे।' सीधे हाथ से बैठने का इशारा करते हुए कहा 189 ने। सी-7096 यंत्रचलित-सा उस इशारे पर कार्य करता हुआ सामने दीवार से टिक कर बैठ गया। मौन का मंतर काम कर गया है। 189 ने अपनी बात को मनवाने के लिये, चीज़ों को अपने पक्ष में करने के लिये हमेशा इस मंतर का उपयोग किया है। एक दो बार को छोड़ कर ये मंतर हमेशा कारगर रहा है। हाँ ये बात अलग है कि एक दो बार जब इस मंतर ने काम नहीं किया वह तब की बात है जब इस मंतर का काम करना सबसे ज़रूरी था। श्रापित कर्ण की ही तरह 189 का मौन का मंतर ठीक उस समय विफल हुआ जब इसका सफल होना सबसे ज़्यादा ज़रूरी था।
अब दोनों एक दूसरे के ठीक आमने सामने बैठे हैं। 189 ने मौन तोड़ दिया है लेकिन कोशिश है कि सी-7096 उस मौन की दहशत से बाहर नहीं निकल पाए। इसलिये, ताकि आने वाली बातचीत में ये दहशत क़ायम रहे। सी-7096 को ये एहसास रहे कि ये मौन कभी भी दुहराया जा सकता है।
'मैं तो यहीं हूँ, यहीं हूँ तबसे ही, राजधानी में मेरे लिये बचा ही क्या था जो मैं वहाँ रहता। तुम्हारी तरह मैं भी चार शाल पहले से ही यहाँ आना चाह रहा था। चार शाल पहले शे। तबशे, जबशे यहाँ से मैं उन दोनों को खोकर लौटा था। अकेले। मैं यहाँ शे जाना ही नहीं चाहता था। दोनों तो यहीं शो रहे थे। उनको छोड़ कर केशे जाता। मगर काम अधूरा था, बल्कि काम पूरा होने पर था, तब दूशरों को मेरी ज़रूरत थी, ख़ुद शे भी ज़्यादा और फिर यहाँ तो आना ही था, आज नहीं तो कल।' 189 ने इस बार स के स्थान पर श के उच्चारण को रोकने की कोशिश नहीं की। 189 के कुछ अक्षरों के उच्चारण मिश्र होते हैं। जैसे स कई बार स ही रहता है तो कई बार श या ष भी हो जाता है। त में ट का, ध में ढ का और द में ड का मिश्रण भी कई बार होता है। इन सबके चलते कई बार 189 के बोलने पर ऐसा लगता है कि हिन्दी फ़िल्मों में कोई पारसी पात्र संवाद बोल रहा है। 189 ने जो कुछ कहा उन बातों में पहेलियाँ बहुत ज़्यादा हैं। इन पहेलियों का अर्थ तलाशने के लिये इतिहास को टटोलना होगा। सी-7096 को भी कुछ समझ में आया कुछ नहीं आया। नहीं आया इसलिये वह चुप ही रहा।
'पहले बत्तीस में और फिर बयालीस में आया था मैं इढर। बत्तीस में तो मैं इढर ही रहा था सेण्ट्रल जेल में मगर बयालीस में इढर नहीं उढर रहा था, महल में। सेण्ट्रल जेल और आग़ा खाँ महल दोनों इढर ही हैं, यरवदा में। ज़रा से फ़ासले पर। टभी टो मैं इढर से उढर आटा जाटा रहता हूँ।' 189 ने हाथ से एक दिशा में इशारा करते हुए कहा। महल की दिशा में।
'और मैं बारह में आया हूँ, बत्तीस, बयालीस और बारह। दिलचस्प है न ये?' सी-7096 ने बात में से बात निकाली।
'हाँ दिलचस्प तो है मगर फ़र्क है तुम्हारे और मेरे आने में। हो सकता है तुम समझते हो कि तुम्हारा और मेरा आना एक समान है, लेकिन, फ़र्क है, बहुत बड़ा फ़र्क है। टुम अभी छोटे हो, पच्चीस साल के ही तो हो, अभी नहीं समझ सकते तुम उस अंतर को।' 189 ने स्थापित करने के अंदाज़ में बात को कहा। सी-7096 ने कोई प्रतिकार नहीं किया।
'बयालीस में जब आया तो बा और महादेव भी साथ थे। महादेव यहाँ आने के बाद बस 6 दिन साथ रहे और चले गये।' 189 की आवाज़ कुछ भारी हो रही है। 'पता है...? महादेव उस पन्द्रह अगस्त के पाँच साल पहले के पन्द्रह अगस्त को ही गये। पन्द्रह अगस्त बयालीस को। मैंने बहुत आवाज़ दी महादेव, महादेव। महादेव ने कभी मेरा कहना नहीं टाला था। मुझे लगा कि आज भी...मगर। वहीं आग़ा खाँ महल में महादेव को सुला दिया।' 189 ने स्वर में किसी भी प्रकार की भावुकता आने की संभावना को बरबस रोक रखा है।
'और दो साल बाद 22 फरवरी को बा भी। दोनों एक के बाद एक चले गये। मैं अकेला रह गया। बा को भी वहीं सुला दिया महल में। मेरे दोनों हाथ, वहीं सो रहे हैं। कुछ उढर ऐसा मंदिर जैसा बना दिया है दोनों की याद में। मैं जब जेल से निकला तो बिना हाथों के निकला था। टब टक बाहर भी बहुत कुछ बदल गया था। चवालीस में यहाँ से रिहा होकर राजधानी गया और राजधानी से भी जब अड़तालीस में रिहा हो गया तो वापस यहाँ चला आया। राजधानी में मेरा कोई काम बाक़ी नहीं रह गया था और राजधनी के लिये भी मैं किसी काम का बाक़ी नहीं रह गया था। बस चार साल में वापस आ गया। उन दोनों के ही कारण मैं इढर रहता हूँ। नहीं जाता और कहीं।' 189 ने आखिरी वाक्य लगभग बुदबुदाते हुए कहा।
'जब वह मर गईं तब आपको उनकी क़ीमत पता चली?' सी-7096 ने बहुत देर बाद एक छोटा-सा वाक्य कहा। बूढ़ी ऐनक ने प्रश्न की आँच को महसूस करके नज़र उठाई और सी-7096 की आँखों में आँखें डालीं। इस बार सी-7096 सहज बना हुआ था। अब वह व्यक्तित्व के प्रभामण्डल से बाहर आ चुका था। 189 को सी-7096 की आँखों में बरसों पुरानी आँच महसूस हुई। बरसों पहले एक आँख पर लैंस लगाए किसी की आँख में भी यही आँच थी। 189 को इन सबकी बहुत आदत है।
'नहीं मुझे पहले से पता थी बा की क़ीमत, टभी तो मैं भी उनको बा कहता था।' 189 का स्वर आश्चर्यजनक तरीके से हल्का-सा काँप गया। ये कम्पन सी-7096 को पता नहीं चला।
'तभी आपने पूरी ज़िंदगी उनको नज़रअंदाज़ किया।' सी-7096 ने एक छोटा-सा बड़ा वाक्य कहा।
'नहीं...ऐसा नहीं है। तुमको बहुत कुछ पढ़ना होगा उसको समझने के लिये। जब हम बड़े काम के लिये निकलते हैं तो परिवार पीछे छूट ही जाता है। उनको समझना ही होता है कि हमारा परिवार अब बड़ा हो गया है। अब उनको अपने हिस्से का समय दूसरों को देना ही होगा। बुद्ध हों, राम हों, कृष्ण हों या ईसा हों चाहे मोहम्मद हों, परिवार का मोह तो छोड़ना ही पड़ता है। किसी न किसी को तो छोड़ना ही पड़ता है।' 189 ने बात को अपने ट्रेक पर ही रखने के लिये उत्तर दिया। दीवारों के बाहर रात है मगर सन्नाटा नहीं है। यहाँ रात को सन्नाटा नहीं होता। आज तो वैसे भी सन्नाटे की रात नहीं है। उस सब से ठीक पहले की ये रात सन्नाटे की हो भी कैसे सकती है। 'छोड़ना ही पड़ता है परिवार वालों को हमारा मोह भी, नहीं तो आधी रात को सोती हुई पत्नी को छोड़ कर सत्य की खोज में जंगल जाने वाले से कौन सहमत होगा भला...?' 189 ने ये बात बहुत धीमे स्वर में कही। इसके बाद दोनों के बीच में मौन छा गया। सी-7096 बहुत ग़ौर से 189 के हाथों को देखता रहा, अजानबाहु।
'मैंने भी तो छोड़ा अपने परिवार का मोह और इस जंगल में आ गया।' सी-7096 ने बिना सिर उठाए हुए कहा 'छोड़ आया माँ को, बाप को, बहन को और दो भाइयों को। हमेशा के लिये। मेरी माँ को तो पता भी नहीं होगा कि मैं आज यहाँ।' सी-7096 ने बात को बीच में ही छोड़ दिया।
'फ़र्क है, तुमने परिवार के लिये कुछ करने के लिये ही परिवार का मोह छोड़ा, देश या समाज के लिये कुछ करने के लिये नहीं छोड़ा। अगर वैसा कुछ करते तो बात ही अलग होती।' 189 ने ठंडे स्वर में कहा।
'आपने ग़रीबी न देखी और न भोगी, इसलिये आपके लिये ऐसा कहना आसान है। जब घर में आपके भाई बहन भूख से बिलख रहे हों, जब आप अपने माँ बाप को ग़रीबी के हाथों तिल-तिल कर मरते हुए देख रहे हों तो फिर कोई देश समाज याद नहीं आता। तब एक ही बात याद रहती है, भूख, भूख, भूख।' सी-7096 उत्तेजित हो गया। 'छः लोगों का परिवार था हमारा और कमाने वाले बस एक थे और वह कमाई भी कुछ तय नहीं थी। हो गई तो हो गई, नहीं हुई तो नहीं हुई। चौथी तक पढ़ाई की और उसके बाद छोड़नी पड़ी। फिर उसके बाद कुछ नहीं था करने को। क्या करता? अगर ये सब नहीं करता तो।'
189 ने आक्रोश को महसूस किया और एक बार फिर से मौन को धारण कर लिया। सी-7096की मुट्ठियाँ भिंची हुईं हैं। शायद वह रो भी रहा है। शायद। लेकिन 189 को उसके रोने की आवाज़ नहीं आ रही है।
'आपने जितने भी अवतारों के नाम लिये ये सब महलों में रहते थे, कोई भी ग़रीब परिवार से नहीं आया था। ग़रीब परिवार में जन्म लेते तो सच की तलाश में जंगल में नहीं जाना पड़ता, सच वहीं घरों में मिल जाता।' सी-7096 रो नहीं रहा है, उसकी आवाज़ एकदम साफ़ आ रही है। 'मेरे पिताजी ने ख़ुद मुझे इन लोगों के हाथ सौंप दिया था। क्या कोई पिता अपने बच्चे को ख़ुद मौत के मुँह में दे सकता है? नहीं न? मगर ऐसा हुआ, मेरे ही साथ हुआ। मेरे पिताजी ने ख़ुद मुझसे कहा कि इनके साथ जाओ, अच्छे कपड़े पहनो, अच्छा खाओ और तुम इनके साथ जाओगे तो परिवार को भी पैसे मिलेंगे। पैसे मिलेंगे तो तुम्हारे भाई बहन भी अच्छी ज़िंदगी जी सकेंगे। अच्छे घरों में उनकी शादी हो सकेगी।'
189 ने अपना लम्बा हाथ बढ़ा कर सी-7096 के कंधे पर रख दिया। उस छुअन में कुछ अजीब-सी शिफ़ा थी जिसे महसूस करते ही सी-7096 ने चेहरा उठाया। 189 ने अपनी आदत के अनुसार हवा को चबाया और फीकी-सी मुस्कुराहट दी।
'तुम चौथी तक पढ़ने के बाद सीधे इन लोगों के साथ जुड़ गये थे?' 189 ने मुलायम से स्वर में प्रश्न किया।
'नहीं एकदम से नहीं, पहले मैंने अपने गाँव में ही मज़दूरी की, मगर कुछ नहीं हुआ। बाद में मैं शहर चला गया काम की तलाश में, मगर वहाँ से भी वापस आना पड़ा।' सी-7096 ने उत्तर दिया। 189 ने अपने हाथ से उसके कंधे को दो बार थपथपाते हुए हाथ को वापस अपनी गोद में रख लिया।
'यही मैं कहता था, यही कहता था कि जब तक गाँवों में विकास की रोशनी नहीं पहुँचेगी तब तक आज़ादी अधूरी रहेगी। शहरों को तो वैसे भी कोई विशेष फ़र्क नहीं पड़ता है क़ैद या आज़ादी से। अशली ग़ुलामी तो गाँवों में है और वह ग़ुलामी तो आज तब भी है, वैसी की वैसी ही। मैं शोचता था कि आज़ादी के साथ ही अषमानता की ये खाई कम होगी।' 189 के उच्चारण में बहुत देर के बाद श और ष ने स को स्थानापन्न किया है।
'किस आज़ादी की बात कर रहे हो आप? कौनसी आज़ादी आई? आपके ही देश में आज़ादी कैसी आई ये सबने देखा है। आपके ही देश का एक अमीर आदमी अपनी पत्नी को पाँच हज़ार करोड़ का मकान बना कर उपहार में दे रहा है। पाँच हज़ार करोड़ का? पाँच हज़ार करोड़ जानते हैं न आप कितने होते हैं। आप क्यों नहीं जानेंगे, आपके ही तो फोटो छपते हैं सब पर। अब तो आप ही करंसी हैं। पाँच हज़ार करोड़ में कितने घरों के चूल्हे कितने दिनों तक जल सकते हैं ये ज़रा निकाल कर देखिये। आप खाई की बात करते हैं, जनाब अब कोई खाई वाई नहीं है, अब तो ज़मीन और आसमान का अंतर है। खाई तो पाटी भी जा सकती थी, मगर ज़मीन और आसमान के बीच का अंतर कैसे पाटोगे?' सी-7096 आक्रामक हो गया है। 189 को करंसी कह कर उसने शर्मिंदा करने का प्रयास किया। 189 ने कोई उत्तर नहीं दिया बस एक बार गहरी नज़रों से उसकी आँखों में आँखें डाल कर देखा। उसके बाद एक बार फिर से अपनी जेब घड़ी को पलट कर समय देखा।
'मेरे पिताजी ने मेरी आँखों में आँखें डाले बग़ैर कहा था कि बेटा हम बहुत ग़रीब हैं, तुम इनके साथ जाओगे तो हमारे घर में खाना होगा, पहनने को कपड़े होंगे।' सी-7096 ने 189 को मौन देख कर कहा।
'और तुम्हारी माँ...? उन्होंने क्या कहा...?' 189 ने प्रश्न किया।
'ग़रीब घरों में माँएँ कुछ नहीं बोलतीं हैं, वह बस रोती हैं। हर बात पर बस और बस रोती हैं। मेरी माँ भी बस रोकर रह गईं थीं, उसके अलावा और कुछ कर भी नहीं सकती थीं।' सी-7096 भावुक हो गया है। 189 ने एक बार फिर से उसका कंधा थपथपाया और साँत्वना दी। दीवारें चुपचाप सब देख रही हैं।
'मुझे मार देने से क्या ये सब ख़त्म हो जायेगा, मुझे मार दोगे तो क्या मेरे जैसे सब ख़त्म हो जाएँगे? वहाँ बहुत ग़रीबी है। वहाँ बहुत से पिता हैं जो परिवार के लिये दो रोटी और बदन पर कपड़ों के लिये मेरे जैसों को ये सब करने के लिये किसी न किसी के हाथ सौंपते रहेंगे। बहुत से पिता हैं वहाँ, कमी नहीं है। मुझे मार देने से कहानी ख़त्म नहीं हो जायेगी। ये एक छोटे से प्यादे की मौत है, इससे कुछ नहीं बदलने वाला है। कुछ रत्ती भर भी नहीं बदलने वाला इससे।' सी-7096 ने कुछ कड़वे स्वर में कहा। 189 ने स्वर की कड़वाहट को महसूस किया।
'इशीलिये तो मैं नहीं चाहता था कि बँटवारा हो। मैंने तो कहा भी था कि मेरी लाश पर ही बँटवारा होगा, मगर उन्हें मेरी लाश पर भी बँटवारा मंजूर था। मुझे मालूम था कि पुराना दोस्त सबशे बड़ा दुश्मन बन जाता है। बँटवारे के बाद अगर घर की दीवारें मिली रहती हैं तो एक-एक इंच के लिये भाई-भाई में झगड़ा होता है। मुझे मालूम था कि ये जो टूट कर दो हिस्से हो रहे हैं ये कल सबसे बड़े शत्रु के रूप में एक दूसरे के सामने खड़े होंगे और देख लो वही हुआ। तुम उशका शबशे बड़ा शबूत हो।' 189 ने बहुत मद्धम स्वर में कहा। तनाव के दौरान शायद स के स्थान पर श का उच्चारण बढ़ जाता है।
'आप बँटवारा रोकना चाहते थे?' सी-7096 ने प्रश्न किया।
'बिल्कुल रोकना चाहता था, मगर मेरी किसी ने सुनी ही कब?' 189 ने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया।
'धृतराष्ट्र भी यही कहता था कि वह तो महाभारत रोकना चाहता था लेकिन उसकी किसी ने सुनी ही कब। बस ये अलग बात है कि वह दुर्योधन को हस्तिनापुर की गद्दी देना चाहता था। उस मामले में कोई समझौता नहीं, बाक़ी महाभारत नहीं होनी चाहिये। आप ने कुछ देर पहले कहा कि मोह छोड़ना ही पड़ता है, लेकिन आप तो ख़ुद ही पुत्र मोह में पड़े हुए थे।' सी-7096 ने तल्ख स्वर में कहा।
'मैं और पुत्र मोह? इस मामले में तो सबसे ज़्यादा मुझे कटघरे में खड़ा किया गया है कि मैं अपने पुत्रों का ठीक से लालन पालन नहीं कर पाया।' 189 ने अचरज भरे स्वर में कहा। दीवारों के बाहर कुछ हलचल-सी हो रही है। मानो किसी काम को लेकर तैयारियाँ हो रही हों। दबी हुई आवाज़ें आ रही हैं। लोग इधर से उधर आ जा रहे हैं। सी-7096 उन हलचलों से विचलित-सा लग रहा है। उसकी आँखें बार-बार उन आहटों की ओर चली जाती हैं।
'मैं उन बेटों की बात नहीं कर रहा हूँ, उस एक बेटे की बात कर रहा हूँ जिसके पुत्र मोह में आप पड़े हुए थे। आप चाहते थे कि गद्दी पर वही बैठे। उसके अलावा किसी और का गद्दी पर बैठना आपको मंजूर ही कब था। अगर मंजूर होता तो बँटवारा होता ही क्यों। आप तो चाहते ही यही थे कि महाभारत भी नहीं हो और आपका बेटा भी गद्दी पर बैठ जाये।' सी-7096 ने बाहर की ओर देखते हुए कुछ लापरवाही से कहा।
'मैं...? मैं रोकना नहीं चाहता था बँटवारे को? मैंने तो कोशिश भी की थी। मैं तो वह पत्र लेकर भी गया था कि जो गद्दी पर बैठना चाहता है उसे गद्दी दे दो पर ये बँटवारा रोक दो। पर मेरी किसी ने सुनी ही कब? मैं तो हारा हुआ वह पत्र वापस लेकर वापस आया था। मेरे हाथ से सब कुछ निकल गया था। वह लोग किसी भी क़ीमत पर आज़ादी चाहते थे। किसी भी क़ीमत पर और बँटवारा भी उस क़ीमत में शामिल था।' 189 ने कुछ थके हुए स्वर में कहा। सी-7096 ग़ौर से 189 को देख रहा है। 189 के चेहरे पर एक अजीब-सी उदासी है। ये उदासी उसने आज तक देखे गये 189 के चित्रों में कभी नहीं देखी। हमेशा वही पोपली मुस्कुराहट देखी है। महान होने का ये भी एक ख़तरा है, आपकी हँसी, आपकी मुस्कुराहट ही परोसी जाती है। आपकी उदासी को हमेशा छुपा कर रखा जाता है। महान लोग, अवतार लोग भला उदास कैसे हो सकते हैं। वह अगर उदास होंगे तो लोगों का भ्रम ही टूट जायेगा। उदास लोग तो अपनी उदासी का हल इनके ही पास ढूँढने आते हैं। अगर ये ही उदास रहे तो कौन आयेगा इनके पास। सी-7096 के पास 189 द्वारा कही गई बात का एक और कड़वा उत्तर है, बहुत कड़वा उत्तर, मगर 189 की उदासी उसे परेशान कर गई है। न जाने क्यों वह 189 को और उदास नहीं करना चाहता है।
'मगर..., मगर आप चाहते तो सब हो सकता था। ऐसा नहीं था कि आपके हाथ से सब कुछ निकल ही गया था। लोग अभी भी आपके साथ थे। लोग आपकी बात मानते थे, सुनते थे। अगर आप उस पत्र को लेकर सड़क पर उतर आते, लोगों के पास जा जाकर समझाते तो क्या लोग आपकी नहीं सुनते? बिल्कुल सुनते... मगर आप कहीं न कहीं पुत्र मोह में पड़ गये थे। अपने मानस पुत्र के मोह में। आपने कहा कि बँटवारा आपकी लाश पर से होगा तो फिर बँटवारे से पहले आप लाश क्यों नहीं हो गये। नहीं..., आप चाहते तो रुक सकता था वह सब। आपका पुत्र मोह आड़े आ गया और ये महाभारत आज तक चल रही है।' सी-7096 ने बहुत कोशिश की कि वह कुछ कड़वा नहीं कहे। मगर ये बीतता हुआ समय उसे बता रहा है कि समय की रेत तेज़ी के साथ उसके हाथ से फिसल रही है और तेज़ी से बहता समय उसके हिस्से के पलों को चुरा रहा है। बस कुछ ही समय रह गया है शायद। इसीलिये वह सब कुछ बोलने में लगा है। 189 ने इस बार सी-7096 की बात का कोई उत्तर नहीं दिया।
'रोक सकते थे आप उस सबको, लोग आपकी बात मानते थे।' बुदबुदाते हुए कहा सी-7096 ने।
'मैंने कहा था कि अगर ये लोग उस पत्र की बात मान लें तो बाद में लोगों को वह बात मनवाने के लिये मैं देश के कोने-कोने का दौरा करूँगा। उस पत्र को सारे देश से मनवा कर रहूँगा। लेकिन, उसके लिये ज़रूरी था कि मेरे अपने पहले उस पत्र की बातों को स्वीकार करें। जब उन्होंने ही नहीं स्वीकार किया तो फिर मेरे पास बचा ही क्या था। सिवाय इसके कि उस पत्र को वापस ले जाकर लुइस को जैसा का तैसा सौंप दूँ। अपनी हार को स्वीकार कर लूँ कि मैं नाकाम रहा। अब आपको जो करना हो वह आप कर लीजिये। अब मेरे हाथ में कुछ भी नहीं है। मेरे हाथ में कुछ रहता भी कैसे, उनकी पार्टी को तो मैं चौंतीस में ही छोड़ चुका था। मुझे वह सब कुछ रास ही नहीं आया था, इसलिये छोड़ दिया था।' 189 ने इतने धीमे स्वर में कहा मानो स्वयं से ही बातें हो रही हों, वहाँ कोई दूसरा कोई सुनने वाला हो ही नहीं।
'पता है हमको क्या बताया जाता है? हमें बताया जाता है कि बँटवारे के समय उधर के लोगों ने हमारा हक़ मार लिया था, इसीलिये हमारे यहाँ इतनी ग़रीबी है। हमें कहा जाता है कि जाओ और वहाँ से अपना हक़ लूट लाओ। मुझसे भी यही कहा गया था।' सी-7096 ने कहा।
'आज तक कोई ऐसा बँटवारा नहीं हुआ है जिसमें बड़े भाई को ये इल्ज़ाम नहीं झेलना पड़ा हो कि उसने छोटे भाई का हक़ मारा है। बेईमानी को आरोप हमेशा बड़े के ही सिर आता है। आज तक कभी किसी ने ऐसा नहीं कहा कि बँटवारे में छोटे भाई ने बड़े भाई का हक़ मार दिया है। बड़े होने के अपने दुःख हैं। हर असफल समाज अपनी असफलता के लिये बाहर कारण ढूँढता है ताकि वह बता सके कि उसकी असफलता उसके कारण नहीं है। ये समाज जो हमने बनाया ये असमानता पर आधारित है। यहाँ अमीर दिन ब दिन और अमीर हो रहा है और ग़रीब दिन ब दिन और ग़रीब हो रहा है। जिश ग़रीबी की तुम बात करते हो, वह ग़रीबी तो यहाँ भी है। उतनी या उससे भी ज़्यादा। तुम्हारे पास शमय नहीं है, नहीं तो मैं तुमको अपना देश दिखाता, यहाँ की ग़रीबी दिखाता। मैंने घूम-घूम कर देखा था अपने देश को, यहाँ की ग़रीबी को। यहाँ सब कुछ वैसा नहीं है जैशा दिखाया जाता है। जो दिखाया जाता है वह शहरों के उजले रास्ते हैं। शहरों की अंधेरी गलियाँ और गाँवों की भूखी पगडंडियाँ दिखाई ही कब जाती हैं? शारी आज़ादी कुछ बड़ी तिजोरियों को और बड़ा करने में व्यर्थ हो गई। कुछ नहीं मिला उस लम्बे संघर्ष से, बल्कि अब तो ये लगता है...' 189 ने सोचते हुए बात को छोड़ा 'लगता है कि वह सब कुछ व्यर्थ ही किया हमने, सब कुछ अकारथ हो गया। सब कुछ अकारथ हो गया।' 189 ने बात पूरी की। सी-7096 ने अपना हाथ धीरे से आगे बढ़ा कर 189 की ज़मीन पर फैली उँगलियों पर रख दिया। अपनी उँगलियों के पोरों से वह उन उँगलियों से कुछ पीने की कोशिश कर रहा है। यक़ीन दिलाना चाह रहा है अपने आप को कि वह 189 के साथ ही बैठा है।
'आप चाहें तो ले चल सकते हैं मुझे अपना देश दिखाने। आपका कहा कौन टालेगा। जो कल होना है वह कुछ दिनों के लिये टाला जा सकता है। आपके साथ आपका देश देख लूँ, फिर आकर ये सब हो जाए। इस सब के लिये मना नहीं कर रहा हूँ, ना ही डर रहा हूँ इस सबसे। मगर देखना तो चाहता हूँ कि क्या वह ही ग़रीबी यहाँ पर भी है जो मैं भोग कर, देख कर आया हूँ। ऐसा करेंगे मैं यहाँ का आपके साथ देख लेता हूँ उसके बाद मैं आपको दिखाने चलूँगा उधर की ग़रीबी, उधर की भूख। वैसे तो उधर का सब आपका देखा ही हुआ है मगर आज़ादी के बाद का उधर भी तो देखें आप। आप तो वैसे भी उधर जाना ही चाहते थे। बल्कि जाने ही वाले थे।' सी-7096 उसी प्रकार से 189 की उँगलियों पर उँगलियाँ रखे हुए बोला।
'मेरी कौन शुनेगा...? कोई भी नहीं शुनेगा, मेरी शुनना तो लोगों ने कब का बंद कर दिया था। उश शमय ही शबने शुनना बंद कर दिया था तो आज कौन शुनेगा। शुनो मेरी बात, ये शमाज जिशकी तश्वीर लगाता है, पूजा करता है उशकी बात भी माने ये ज़रूरी नहीं है। तश्वीर तो फैशन के हिशाब शे भी लगा ली जाती है।' 189 पर एक बार फिर से श का दौरा पड़ा है।
'मैं तो भूल गया था आप बोलोगे भी क्यों? आपने तो 23 मार्च 1931 को भी लाहौर की सेंट्रल जेल में सुबह सात बजे उस फंदे को लग जाने दिया था, जबकि आप उसको रोक सकते थे। आपके एक इशारे पर वह फंदा रुक जाता। मगर आपने तो सहमति में अपना सिर झुका दिया था। हो जाने दिया था वह सब कुछ।' सी-7096 ने पहली बार उपहास के स्वर में बात की है।
'उन लोगों ने हिंशा की थी। मैं अगर उनको बचा लेता तो पूरा देश हिंशा पर उतर आता। हिंशा का शमर्थन मैं किसी भी रूप में नहीं कर सकता था। हिंशा शे कुछ भी नहीं मिलता और अगर मिल भी जाता तो वह मुझे मंजूर नहीं था। मैं तो अहिंशा का अपना रास्ता नहीं छोड़ने वाला था।' 189 का स्वर एक बार फिर से कुछ दृढ़ हो गया है।
'अहिंसा...? है कहाँ अहिंसा, हर तरफ़ तो हिंसा है। जंगल में शेर हिरण को मार रहा है, आसमान में बाज चिड़िया को मार रहा है, समंदर में बड़ी मछली छोटी को निकल रही है, हर जगह तो हिंसा है। जंगल का कानून हर जगह पर है जनाब, अगर आप मारने वालों में नहीं हो तो आप मरने वालों में हो। फ़ैसला तो आपको ही करना है कि आप किसी तरफ़ रहना पसंद करेंगे। इस दुनिया को जंगल की ही तरह बनाया गया है। जिसमें ज़िंदा रहने के लिये हिंसा करनी ही पड़ेगी। बिना हिंसा के काम नहीं चलने वाला।' सी-7096 के स्वर में उपहास का पुट अभी भी पहले की ही तरह है।
'ठीक है मगर मेरे अपने सिद्धांत हैं, मैं हिंसा का समर्थन नहीं कर सकता था। उन लोगों ने हिंसा की थी तो उनको उसकी सजा मिलनी ही थी, मैं क्यों उनको बचाने सामने आता और मेरे बचाने से क्या वह लोग बच जाने वाले थे।' 189 ने उपहास को महसूस कर अपने स्वर को और दृढ़ कर लिया है।
'और इसीलिये आपने 23 मार्च 1931 के ठीक अठारह दिन पहले 5 मार्च को वह समझौता कर लिया। ठीक अठारह दिन पहले। क्या ये आपकी एक चाल नहीं थी। उस समझौते में ये बात शामिल थी कि सभी राजनीतिक क़ैदी छोड़ दिये जाएँगे, तो फिर उसको वैसा ही रहने देना था। उस बात में ये बात क्यों जोड़ी गयी कि सभी राजनीतिक क़ैदी छोड़े जाएँगे, सिवाय उनके जो हिंसा के मामलों में दोषी हैं। इस एक लाइन को जोड़ कर आपने 23 मार्च को तय नहीं कर दिया था। हिंसा के दोषी तो बस वह ही थे न जो आपकी विचारधारा के नहीं थे, आपके समर्थक तो सब अहिंसावादी थे। आपने समझौता करके अपने सारे समर्थकों को बचा लिया और जो आपके विरोधी थे, जो आपकी अहिंसावादी विचारधारा नहीं मानते थे उन सबको आपने लटकवा दिया। उस समझौते से सब कुछ तो आपको ही मिला। आपकी पार्टी पर से बैन हट गया, आपके लोगों की संपत्तियाँ वापस हो गईं। लोग यूँ ही तो नहीं कहते कि आप बहुत शातिर थे।' सी-7096 ने लम्बी बात कही। बाहर की हलचल अब कुछ और बढ़ गईं हैं। लोगों की बातचीत अब कुछ ऊँचे स्वर में हो रही है। फ़र्श पर इधर से उधर जाते हुए जूतों के स्वर भी रह-रह कर आ रहे हैं।
'मैंने कहा न कि अहिंसा मेरा सिद्धांत था और रहेगा, मैं हिंसा के समर्थन में कभी भी कुछ भी नहीं कर सकता। न तब कुछ कर सकता था न अब कर सकता हूँ। जो भी, जब भी किसी भी प्रकार की हिंसा करता है तो उसको उस हिंसा का परिणाम भुगतने के लिये तैयार भी रहना चाहिये।' 189 ने लम्बी बात से पूरी तरह से अप्रभावित रहते हुए अपनी बात कही।
'जिन राम का नाम हमेशा आपके मुँह पर रहा, मरते समय भी आपने हे राम कहा, वह राम तो हिंसा के समर्थक थे। वे तो अहिंसा में विश्वास ही नहीं रखते थे। कितना बड़ा हिंसक युद्ध लड़ा था आपके राम ने। तो फिर आप जैसा अहिंसा का पुजारी हर समय उनके नाम को अपने मुँह पर क्यों रखता है। उनकी हिंसा क्या आपको हिंसा नहीं लगती? और जिस गीता को आप हमेशा अपने साथ रखते हैं वह क्या है? सबसे बड़ी हिंसा को शुरू करने से पहले दिया गया भाषण। एक यौद्धा जो अहिंसा के पक्ष में जाने के लिये अपने हथियार फेंक रहा है उसे फिर से हिंसा के पक्ष में करने के लिये जो कहा गया वह ही तो गीता है। आप तो अच्छी तरह से जानते हैं कि वह युद्ध मानव के ज्ञात इतिहास की सबसे बड़ी हिंसा थी। उस हिंसा के शुरू होने के ठीक पहले, उस हिंसा को शुरू करवाने के लिये जो कुछ कहा गया आप उसे हमेशा अपने साथ रखते हो और अहिंसा की बात करते हो।' सी-7096 कुछ और आक्रामक हो गया है। 189 ने कोई उत्तर नहीं दिया। एक बार आदत के अनुसार हवा को चबाया, जिससे कमरे में चप-चप की आवाज़ गूँजी। असहज प्रश्न पर उत्तर देने से बचने का अपना तरीका।
'और आप ही क्या रोक पाए उस हिंसा को जो बँटती हुई दो क़ौमों के दस लाख लोगों की जान ले गई। कितने बेघर हुए, कितने लापता हुए, उनकी तो कोई गिनती ही नहीं। उस हिंसा के बाद आई आज़ादी को भी तो आप सबने स्वीकार ही किया न? आतिशबाज़ियाँ की, ढोल ढमाके से स्वागत किया उस आज़ादी का।' 189 के हवा चबाने की क्रिया से सी-7096 उत्तेजित हो गया और कुछ तीखे स्वर में बोला। 189 ने एक बार फिर से कोई उत्तर नहीं दिया। मुड़े हुए घुटने पर रखे दूसरे हाथ में हल्की-सी जुम्बिश हुई बस और कुछ नहीं। दोनों के बीच एक बार फिर से मौन पसर गया।
'और...' एक बार फिर सी-7096 ने मौन तोड़ा 'और वह हत्यारा जिसने हज़ारों बेगुनाहों की हत्याएँ की, वह हथियारों का दलाल, उसकी हिंसा आपको दिखाई नहीं दी। वह ख़ूनी भेड़िया जब छः साल पहले आपके देश आया तो अपने खून सने पंजों और ताज़ा मांस के लोथड़ों से भरी दाढ़ों के साथ आपकी समाधि पर भी आया था। आज वह दुनिया का राजा है तो उसकी हिंसा जायज़ है? आपका देश उसके ख़ून से सने पंजों के स्वागत में लाल कालीन की तरह बिछ जाता है? आप वहाँ समाधि में सोए पड़े उसको देखते रहे, उसके खून से सने फूल स्वीकार कर लिये? वह अपने समय का सबसे बड़ा युद्ध अपराधी है, उसको आपके ही देश ने निमंत्रण दिया था आपकी समाधि पर आने का। 2 मार्च 2006 के उस काले गुरूवार को आपकी समाधि, आपकी अहिंसा, आपके सिद्धांत सब नापाक हो गये, अपवित्र हो गये उस हत्यारे के फूल स्वीकार करने के बाद। कुछ नहीं बचा जिस पर आप नाज़ कर सकें।' सी-7096 ग़ुस्से से भरा हुआ बोलता गया, 189 ने सारी बातें चुपचाप सुनीं। क्रोध भरी बातें सुनने की 189 को बहुत आदत है।
'कम से कम उसका तो विरोध किया ही जाना था, उसने जिन लोगों की हत्याएँ कीं वह सारा ख़ून इसी ज़मीन के बड़े टुकड़े का था। वह सारा ख़ून एक ही था, जिसे आप लोग आर्यों का ख़ून कहते हो। यहाँ से लेकर वहाँ तक वह एक ही तो ख़ून फैला है। उसका ख़ून तो अलग था, आपको तो अपने ख़ून के पक्ष में बोलना था। तब तो कम से कम अपनी इस अहिंसा का सिद्धांत उसके कानों में चिल्ला-चिल्ला कर बोलना था। मगर कोई नहीं बोला, कुछ भी नहीं बोला। आप तो ये बेहतर जानते होंगे की चुप रहना भी एक प्रकार की सहमति होती है और चुप रह कर आपने भी उसकी हिंसा का समर्थन किया है, इसलिये ये अहिंसा की बात करने का अब आपको या किसी को कोई हक़ नहीं है। वह दुनिया के जिस भी हिस्से में चाहे, जहाँ भी चाहे अपनी फ़ौज भेज दे। जिसको भी चाहे उसे मौत की सज़ा सुना दे। उसका बाप भी भेड़िया था और वह भी भेड़िया था। बहुत पहले उसका बाप आया था अपनी फौजें लेकर, एक लाख बेगुनाहों को मौत की नींद सुला कर चला गया। फिलीस्तीन से लेकर इराक तक हर जगह पर इन भेड़ियों के नाख़ूनों और दाँतों के निशान हैं। मगर आपको वह नहीं दिखेंगे।' सी-7096 ने आवाज़ को कुछ नीचे रखते हुए कहा। इसके बाद कुछ देर के लिये मौन हो गया। 189 ने चुप रह कर उसे बोलने का ख़ूब मौका दिया है। अपने तरीके से। जब 189 को लगा कि सी-7096 सब कुछ बोल चुका है, अब उसके पास कुछ और बोलने के लिये नहीं है तो 189 ने अपनी बैठने की मुद्रा को बदला। घुटनों को एक तरफ़ से मोड़ कर दूसरी ओर कर लिया। बाहर की गतिविधियाँ अब और तेज़ हो रही हैं।
'थोड़ा शा पानी...' 189 ने धीमे से कहा। सी-7096 ने तुरंत गिलास में पानी भरा और 189 की ओर बढ़ा दिया। 189 ने धीमे-धीमे उस पानी को पिया। फिर गिलास को वापस बढ़ा दिया 'वैशे में रात को कुनकुना पानी ही पीता था, पर अब तो इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि पानी कैसा है। अब तो किसी भी चीज़ से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।' कह कर 189 ने धोती का नीचे का सिरा ठीक किया 'टब की बाट और ठी, टब तो शब कुछ नियम शे ही करने की आदत थी। लेकिन अच्छी आदतों को ज़िंदगी भर बनाए रखना बड़ा मुश्किल काम है।' पोपली और फीकी मुस्कुराहट 189 के चेहरे पर फैली हुई है।
'तुम्हारे भाई क्या करते हैं?' 189 ने बाहर से आती आवाज़ों को तेज़ होते देख कर बात को दूसरी ओर मोड़ने के उद्देश्य से सवाल किया।
'अब तो पता नहीं क्या करते होंगे, पाँच साल पहले जब मैं चला था तब बड़ा खेतों पर मज़दूरी करता था और छोटा स्कूल जाता था। अब तो कुछ पता नहीं कि वह किस हाल में हैं।' सी-7096 की आवाज़ भारी हो गई, उसने अपना सिर झुका लिया। 'मैंने ये सब किया इसके बदले में उनको कुछ मिला भी या नहीं कुछ नहीं पता मुझे।'
'तुम्हारे पिताजी क्या करते थे?' 189 ने सी-7096 को कुछ नरम होते देखा तो दूसरा प्रश्न किया।
'दही बड़े बेचते थे घर-घर जाकर, कभी गाँव में तो कभी उधर शहर जाकर। मगर मिलता कुछ नहीं था, बस जैसे तैसे चलता था काम।' उसने सिर झुकाए हुए ही उत्तर दिया।
'कब छोड़ा था तुमने घर?' 189 ने अपना हाथ एक बार फिर से सी-7096 के कंधे पर रख दिया।
'पाँच साल हो गये अब तो। उसी समय पूरब की बेटी की हत्या हुई थी जब मैंने घर छोड़ा था। सर्दियाँ चल रही थीं उस समय। शायद दिसम्बर का महीना था।' सी-7096 ने अपने कंधे पर रखे हुए 189 के हाथ पर अपना हाथ रख दिया है मगर सिर ऊपर नहीं उठाया है। उसी प्रकार सिर झुकाए हुए बैठा है वो।
'किसके साथ गये थे तुम?' 189 ने एक और प्रश्न किया।
'चाचा के साथ, पिताजी ने उनके ही हाथों सौंप दिया था मुझे ये कह कर कि जहाँ ये रहेंगे तुम उनके साथ रहना। बस मैं बिना कुछ पूछे उनके साथ चला गया।' सी-7096 ने कुछ उदास से स्वर में कहा और 189 के हाथ पर रखा अपना हाथ हटा कर ज़मीन पर टिका दिया। 189 ने कोई प्रश्न नहीं किया दोनों उसी प्रकार कुछ देर तक चुप बैठे रहे।
'मैं अपनी माँ से...बहुत...बहुत प्यार करता था..., करता हूँ...वो मेरे सबसे क़रीब थीं। वह मेरे लिये।' सी-7096 की आवाज़ आगे नहीं निकल पाई। 189 ने उसका कंधे पर अपनी उँगलियों को मज़बूत कर दिया।
'हम सब अपनी माँओं से बहुत प्यार करते हैं, हम सब। अगर माँओं के हाथ में दुनिया सौंप दी जाए तो ये सारा ख़ून ख़राबा ये सारी हिंसा ही रुक जाए। मगर हम ऐसा कभी नहीं होने देंगे। क्योंकि माँएँ इस दुनिया को बदल कर रख देंगीं। वे बुहार देंगी दुनिया के नक़्शे पर खींची गई सारी लकीरों को, इधर से उधर तक सब एक-सा कर देंगीं। झाड़ू लेकर साफ़ कर देंगी सारी बारूदों को और फेंक आएँगी उसे कूड़ेदान में। वह जानती हैं कि बारूद हमेशा किसी माँ की कोख को ही झुलसाती है। वे इस दुनिया को सचमुच रहने के लायक बना देंगीं, अगर हम ये दुनिया उनको सौंप दें। हमने अपनी दुनिया को प्रेमिकाओं को सौंपा, पत्नियों को सौंपा, रखैलों को सौंपा, लेकिन कभी किसी माँ को नहीं सौंपा। हम डरते हैं, डरते है कि माँ ने अगर पूरी दुनिया में प्रेम फैला दिया तो हम कहाँ जाएँगे, कैसे जिएँगे उस प्रेम भरी दुनिया में। हमें तो आदत ही नहीं है उसकी।' 189 ने प्रेम भरे स्वर में कहा। सी-7096 उसी प्रकार सिर झुकाए बैठा है। दोनों एक दूसरे को अपनी-अपनी ख़ामोशियों के जरिए पढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।
'जब भी कहीं बारूद फूटती है तो सबसे पहले जो चीख उठती है वह माँ की होती है। कहीं न कहीं, किसी न किसी माँ की। दुनिया भर की सारी माँएँ कितनी नफ़रत करती हैं इस बारूद से, उसका अंदाज़ा तुम लगा ही नहीं सकते।' 189 का स्वर प्रतिध्वनित हो रहा है।
'जानता हूँ, अच्छी तरह से जानता हूँ, मेरी माँ को भी बहुत नफ़रत है बारूद से। मगर केवल नफ़रत करने से ही तो चीज़ें ख़त्म नहीं हो जातीं। वह तो क़ायम रहती हैं अपनी जगह पर। आपकी सारी नफ़रतों के बावजूद भी।' सी-7096 की आवाज़ में अचानक ढेर सारी उदासी घुल गई है।
'जब तुमको वहाँ भेजा गया तो तुमने विरोध क्यों नहीं किया, तुम तो तब बीस साल के थे अपना अच्छा बुरा समझते थे। मना भी कर सकते थे कि मैं नहीं जाना चाहता वहाँ।' 189 ने सही समय देख कर प्रश्न किया।
'आप जानते हैं मैं सात साल पहले स्कूल जाना छोड़ चुका था, तेरह साल की उम्र में। उसके बाद से कुछ नहीं किया। कुछ था ही नहीं करने को। कभी मज़दूरी भी की तो बस एक दो दिन। आप बताओ कौन मना कर सकता था उस समय?' सी-7096 ने प्रश्न के उत्तर में प्रश्न किया।
'वहाँ जाकर भी तुमको नहीं लगा कि तुमको ये काम नहीं करना चाहिये, लौट जाना चाहिये?' 189 का स्वर अब बहुत ठंडा हो गया है।
'लगा था, मैंने कहा भी था कि मैं ये नहीं कर सकता मगर मेरी सुनता कौन? कहने सुनने का समय तो मैं पीछे छोड़ कर आ गया था। वहाँ से वापस आने का कोई रास्ता ही नहीं था। एक ही रास्ता था जो उनके कहे अनुसार जन्नत की तरफ़ जाता था। उसे रास्ते पर चलने के अलावा और कोई चारा नहीं था। वहाँ उन पहाड़ियों में मैं था और मेरे जैसे बीस-पच्चीस और थे ग़रीब, भूखे लड़के। वह सब भी अपने घर को दोज़ख़ से जन्नत में बदलना चाहते थे और मैं भी। वह सब भी जानते थे कि इसके लिये हमें ख़ुद को जन्नत में जाना पड़ सकता है और मैं भी। उन पहाड़ियों में ही हमें बारूद से खेलना सिखलाया गया। बारूद का हर रूप हमने वहाँ देखा, हर रंग वहाँ देखा और उस पर क़ाबू पाना भी सीखा। क़ाबू करके अपने लिये उसका इस्तेमाल करना।' सी-7096 की आवाज़ धीरे-धीरे सामान्य हो रही है। 'मैंने कहा था कि मैं ये नहीं कर सकता। कहा था मैंने।' वह अब बुदबुदा रहा है।
'और... और जब तुमको यहाँ भेजा गया तो तुम जानते थे कि तुमको क्यों भेजा जा रहा है?' 189 ने स्वर को कुछ नरम बनाते हुए पूछा।
'जानता था, हम सब जानते थे। हमें यहाँ मारने के लिये भेजा था...और...और मरने के लिये। जानते थे, हम सब जानते थे कि हमें यहाँ क्यों भेजा जा रहा है। हमें तैयार ही इसलिये किया गया था। हमारे परिवारों को पैसे ही इस बात के लिये दिये गये थे। आज नहीं तो कल हमें तो यहाँ आना ही था। हाँ हमें यहाँ मारने के लिये भेजा था।' सी-7096 ने उत्तर दिया।
'किसको?' 189 ने फिर सवाल किया।
'किसी को भी, जो सामने आ जाए उसको ही।' सी-7096 की आवाज़ दबती जा रही है।
'कितनों को मारा तुमने वहाँ...उस स्टेशन पर?' 189 ने दबती हुई आवाज़ पर सवाल का एक और पत्थर रख दिया।
'नहीं जानता..., लेकिन... मैंने ढाई मैग्जीन खाली कर दी थी। मैं बस... फायरिंग करता रहा। मुझे कहा गया था कि... उनको मारो तब ही हम ज़िंदा रहेंगे। बस मैं मारता गया। मुझे कुछ नहीं पता कि कितनों को मारा मैंने।' सी-7096 ने बहुत रुक-रुक कर दबे स्वर में उत्तर दे रहा है।
'तुम इस सब का मतलब समझते हो? जानते हो कि क्यों तुम सबसे ये सब करवाया गया, करवाया जा रहा है?' 189 ने भी कुछ धीमे स्वर में ही पूछा।
'नहीं' सी-7096 ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया।
'फिर...?' 189 ने पूछा।
'खाते पीते घर का कोई क्यों करेगा ये सब? करेंगे तो मेरे ही जैसे न, पैसों के लालच में।' इस बार सी-7096 ने सिर उठा कर उत्तर दिया। आँखों में आँखें डाल कर और उसी प्रकार से 189 की आँखों में आँखें डाल कर देखता रहा। 189 की आँखें भी स्थिर रहीं। दोनों एक दूसरे की आँखों में उसी प्रकार देखते हुए कुछ देर तक ख़ामोश रहे। कुछ देर तक या बहुत देर तक। बहुत देर तक केवल आँखों में ही बातें होती रहीं। ज़बान ख़ामोश रहीं। बहुत देर बाद 189 ने सी-7096 के कंधे पर रखा अपना हाथ हटाया और उसके एक हाथ की हथेली को अपनी दोनों हथेलियों के बीच दबा लिया। सी-7096 ने अपनी हथेली से उन हाथों की ऊष्मा को महसूस किया। उस ऊष्मा को जिसके ताप को कभी पूरी दुनिया ने भी महसूस किया था। 189 ने धीरे-धीरे सी-7096 की हथेली को अपनी ऊपर वाली हथेली से थपथपाया।
'आपको...आपको मुझसे नफ़रत नहीं है?' सी-7096 जो उस ऊष्मा की आँच को महसूस कर रहा था उसने बहुत देर बाद एक प्रश्न किया।
'नहीं...मैंने तो...हमेशा कहा है...कि...पाप से नफ़रत करो...पापी से नहीं। अपराध से घृणा करो, अपराधी से नहीं। मैंने हमेशा गुनाह को ख़त्म करने की बात कहीं है गुनाहगार को ख़त्म करने की बात कभी नहीं कही। मैंने हिंसा का जवाब हिंसा से देने की बात, नफ़रत का जवाब नफ़रत से देने की बात कभी नहीं की। मैं तुमसे ही क्या, किसी भी गुनाहगार से नफ़रत नहीं करता और अगर वह गुनाहगार अपने गुनाहों से ख़ुद नफ़रत करने लगे तो फिर मैं तो उससे प्रेम करता हूँ। क्योंकि उसको उस समय उसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है। सबसे ज़्यादा।' 189 ने कुछ मीठे स्वर में हाथ को उसी प्रकार से थपथपाते हुए कहा और एक बार फिर से सी-7096 की आँखों में अपनी आँखें डाल दीं। सी-7096 ने कुछ भी नहीं कहा वह चुपचाप ऐनक के पीछे से झाँक रहीं उन बूढ़ी आँखों में देखता रहा।
'तुमने कुछ देर पहले हिंसा के समर्थन में बड़ी-बड़ी बातें कीं। मैंने चुपचाप सब सुना। तुम्हारे सारे तर्क मैंने चुपचाप सुने। मैंने तुमको नहीं रोका। असहमत होते हुए भी नहीं रोका। इसलिये नहीं रोका क्योंकि मैं ये मानता हूँ कि दुनिया का हर विचार अपने साथ अपने असहमत विचार को भी लेकर पैदा होता है। कोई भी विचार ऐसा नहीं है जो सर्वसम्मत रहा हो। यदि कुछ भी ऐसा है जो सर्व सम्मत है, तो जान लो कि वह विचार है ही नहीं। मैं तुम्हारी उन सारी बातों में से कुछ को छोड़ कर बाक़ी सब बातों से असहमत ही था। मगर...फिर भी मैंने उसे व्यक्त नहीं किया। असहमति की अभिव्यक्ति को रोकना भी एक प्रकार की हिंसा है। बल्कि मैं तो कहूँगा कि किसी भी स्वस्थ समाज के लिये सबसे बड़ी हिंसा यही है, असहमति की अभिव्यक्ति को रोकना।' कहते हुए 189 ने एक छोटा-सा वक़्फ़ा लिया। एक बार अपनी घड़ी की ओर देखा जो जाँघ पर रखी हुई है।
'मगर...अब मुझे लगता है कि अब मुझे तुमसे वह एक सवाल पूछ लेना चाहिए जिसे पूछने के लिये मैं बहुत देर से दूसरे प्रश्न कर रहा हूँ।' कह कर 189 ने एक बार फिर थोड़ी देर के लिये चुप्पी साध ली।
'अब...अब तुम मेरे इस सवाल का उत्तर दो। तुमने बहुत सारी बातें हिंसा के समर्थन में कीं। कई-कई उदाहरण मेरे सामने रखे। मगर मैं चाहता हूँ कि तुम दूसरों के उदाहरण के बजाय अपने ही उदाहरण पर मेरे प्रश्न का उत्तर दो। क्या तुम अपनी उस हिंसा से सहमत हो? वह जो तुमने वहाँ किया, क्या उससे आज, इस वक़्त सहमत होे? इस वक़्त की तुम्हारी सहमति और असहमति ही सबसे मायने रखती है, क्योंकि, वही अंतिम सत्य है। न उसके पहले कुछ सत्य था और न उसके बाद कुछ सत्य होगा।' 189 की आवाज़ बहुत स्पष्ट और ऊँची हो गई है। एक-एक शब्द गूँजता हुआ आ रहा है। अपने पूरे प्रभाव के साथ। सी-7096 उस गूँज के प्रभाव में कुछ देर तक खोया रहा। कुछ देर तक उसने एकटक 189 की आँखों में देखा और उसके बाद सिर झुका लिया।
'नहीं, मैं सहमत नहीं हूँ, बिल्कुल सहमत नहीं हूँ।' उसी प्रकार अपने सिर को झुकाए हुए ही बहुत धीमे से उत्तर दिया सी-7096 ने।
'यही अंतिम सत्य है, बस इसीको याद रखो। यदि तुम अपनी ही हिंसा से असहमत हो तो जो कुछ कल होने वाला है उसे तुम पूरी शांति के साथ स्वीकार कर पाओगे। पूरी शांति के साथ। बस इस असहमति को याद रखो।' 189 ने मिठास और प्रेम से भरे स्वर में कहा। सी-7096 ने स्वीकारोक्ति में सिर को हिला दिया।
'और विश्वास रखो ये भूख ये ग़रीबी, बहुत दिनों तक ये सब नहीं चलने वाला। एक दिन आएगा जब लोग फिर से लौटेंगे। उस दिन... उस दिन इसी लाठी से तोड़ डालूँगा उस पाँच हज़ार करोड़ की इमारत को, उस जैसी सारी इमारतों को और बिखेर दूँगा उनके टुकड़े इस पूरे भूखंड में, पूरे बर्रे-सग़ीर में। वहाँ तक, जहाँ तुम्हारा घर है और उससे भी आगे। टूटना होगा इन नरभक्षी इमारतों को जो हज़ारों, लाखों लोगों का हिस्सा चूस-चूस कर अपने अंदर भर रही हैं। जो जन्म दे रही हैं तुमको और तुम जैसे न जाने कितनों को। जिस दिन ये इमारतें टूट जाएँगी उस दिन सब ठीक हो जाएगा। आएगा एक दिन, विश्वास रखो, आएगा वह एक दिन, इसी लाठी से तोड़ूंगा एक-एक इमारत।' 189 ने अपने पास रखी लाठी को उठा कर हवा में लहराया। आवाज़ हर शब्द के साथ और बुलंद होती जा रही है। सी-7096 सम्मोहित-सा उस पूरे दृश्य को देख रहा है। बाहर की आवाज़ें तेज़ हो गईं हैं। शायद सुबह भी होने को है बाहर। 189 ने अपने आप को समेटा और उठने का उपक्रम किया। सी-7096 ने तेज़ी से बढ़कर 189 को थामा और खड़े होने में मदद की। अब दोनों खड़े हो गये हैं। एक दूसरे के ठीक सामने।
'अब कोई डर तो नहीं है?' 189 ने आँखों में आँखें डालते हुए पूछा।
'नहीं...लेकिन बस माँ का डर है।' सी-7096 ने भी उसी प्रकार आँखों में आँखें डाले हुए उत्तर दिया।
'माँ का डर, क्यों?' 189 ने फिर पूछा।
'नाराज़ होंगी मुझसे।' सी-7096 ने उदास-सा उत्तर दिया।
'हम्मम, तब तो ये डर अच्छा है, बहुत अच्छा है।' 189 ने सी-7096 के कंधे को थपथपाते हुए मुस्कुरा कर कहा। सी-7096 ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह पहली बार हल्के से मुस्कुराया।
'तुम्हारी मौत पर मुझे भी एक डर है।' 189 ने कहा। 'डर ये कि तुम्हारी मौत के बाद वहाँ तुमको वह लोग हीरो बना देंगे। तुम्हारे क़िस्से सुना-सुना कर तुम्हारे जैसे और कई भोले भाले लड़कों को भावनाओं में बहा कर इस रास्ते पर ले आएँगे। तुम्हारी मौत को शहादत का दर्जा दिया जाएगा। तुम मरने के बाद भी उनके काम आते रहोगे। ये सबसे बड़ा नुक़सान होगा। जिससे मैं डर रहा हूँ। हिंसा को शहादत में बदल देना सारे मापदंडों को बदल देता है। समाज को सबसे बड़ा नुक़सान उसी से होता है। मैं हिंसा के इसी दुष्परिणाम से सबसे ज़्यादा डरता हूँ। हिंसा के रास्ते पर चलने वाले जब शहीद कहलाने लगते हैं तो पूरा समाज हिंसा से भर जाता है।' 189 ने कुछ थके से स्वर में कहा। सी-7096 उसी प्रकार मौन खड़ा रहा।
'जानते हो कल तुम्हारी मौत पर देश भर में आतिशबाजी होगी। चौराहों पर मिठाइयाँ बाँटी जाएँगी, ढोल ढमाके बजाए जाएँगे। लोग ख़ूब नाचेंगे, गाएँगे। तुम्हारे पुतले जलाएँगे।' 189 ने सी-7096 की आँखों में गहरे झाँकते हुए कहा।
'जानता हूँ, मगर ये सब तो आपकी मौत पर भी हुआ था। भले ही कम लोगों ने किया था, मगर किया तो था।' सी-7096 ने भी उसी प्रकार आँखों में उतरते हुए उत्तर दिया।
'हम्मम... सही कहा, मेरी मौत पर भी मिठाइयाँ बँटी थीं।' 189 के स्वर में कुछ उपहास-सा है, अपने ही प्रति उपहास। सी-7096 ने कुछ नहीं कहा वह चुपचाप देखता रहा उस पोपले उपहास को।
'अच्छा चलता हूँ, प्रार्थना का समय होने वाला है, बा इंतज़ार कर रहीं होंगी और तुम्हारा भी समय अब हो रहा है शायद, बाहर से आवाज़ें आ रही हैं।' कहते हुए 189 ने नमस्कार में हाथ जोड़ लिये। सी-7096 अवाक्-सा खड़ा है, किंकर्तव्यविमूढ़ सा।
'चलता हूँ।' कहते हुए 189 ने चलने के लिये क़दम बढ़ा दिये।
'सुनिये।' 189 को थोड़ा आगे बढ़ते ही पीछे से सी-7096 की आवाज़ आई। आवाज़ सुन कर कमरे के दूसरे सिरे तक पहुँच चुके 189 के क़दम वहीं रुक गये। 189 ने वहीं से पलट कर देखा।
'मेरी अम्मी को बता देना।' सी-7096 ने गहरे स्वर में कहा।
दोनों कमरे के दो सिरों पर खड़े हैं, चुपाचाप। गहरे अँधेरे का एक स्याह टुकड़ा उन दोनों के बीच में बिछा हुआ है, यहाँ से वहाँ तक। बाहर से कई सारे क़दमों की, क़दमों के जूतों की, जूतों में ठुकी लोहे की नालों की आवाज़ें आ रही हैं। आवाज़ें जो धीरे-धीरे तेज़ हो रही हैं। आवाज़ें जो कमरे की ओर बढ़ रही हैं। बढ़ती आ रही हैं।