कसौटी / अलका सैनी
उसे असहनीय दर्द हो रहा था। रात आधी हो चुकी थी। उसे प्रसव-शूल शुरू हुआ था। पिछले नौ महीने से वह आने वाले मेहमान का इन्तजार कर रही थी। उसके घर से शहर कुछ दूरी पर था। शहर जाने के लिए किसी भी तरह की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। संजय उसे स्कूटर पर बैठा कर शहर के अस्पताल की ओर ले जा रहा था। उसके पास इसके सिवा कोई और चारा भी नहीं था। कुछ ही दूर जाने पर संजय का स्कूटर अपने आप चलते-चलते रुक गया। पैट्रोल की डिक्की खोल कर उसनें देखा तो उसमे पैट्रोल तो था ही नहीं। इधर उसका प्रसव-शूल तेज हो रहा था। आकांक्षा को लग रहा था कि मानो उसके प्राण निकल जाएँगे। जैसे-तैसे वह लोग घर वापिस पहुँचे और किसी पड़ोसी का स्कूटर माँगकर किसी तरह अस्पताल पहुँचे। रात के अँधेरे में वह प्रसूति गृह उसे काटने को दौड़ रहा था। उसकी वहाँ से भाग जाने की इच्छा हुई। यद्यपि यह उसका दूसरा प्रसव था, फिर भी वह मन ही मन डरी हुई थी। उसको समझ में नहीं आ रहा था कि उसके साथ क्या होने वाला है। प्रसूति-गृह में कई प्रसूता स्त्रियाँ दर्द के मारे छटपटा रही थी। उनको देखकर आकांक्षा को और भी ज्यादा घबराहट होने लगी। दर्द से बेहाल उन औरतों को इस बात से कोई फर्क नहीं था कि कमरे में चेकअप करने के लिए आने वाले डॉक्टर मर्द है या औरत। कमरे में सफाई करने वाले कर्मचारी इधर-उधर घूम रहे थे। उस समय दर्द से कराहती औरतें स्वाभाविक नारी-लज्जा से कोसों दूर थी। आकांक्षा उस समय जल्द से जल्द उस दर्द से छुटकारा पाना चाहती थी। वह पिछले पाँच घंटो से दर्द से तड़प रही थी। बीच-बीच में वह जोर से चीख भी पड़ती थी ओर कभी दर्द से निढाल हो जाती थी। उसकी चीखें सुनकर उसकी माँ, बहन, भाई तथा सब रिश्तेदार उसके बेड के पास इकट्ठे हो गए। उसकी माँ भाई से कह रही थी, "जाओ, जल्दी डॉक्टर को बुला कर ले आओ। इससे दर्द सहन नहीं हो रहा है। डॉक्टर को कहकर सीजेरियन करवा देते है, ऐसे तो दर्द से यह मर ही जाएगी।"
आकांक्षा मन ही मन भगवान् से प्रार्थना कर रही थी कि इस बार उसका बच्चा सही सलामत पैदा हो जाए तो वह फिर से माँ बनने का नाम नहीं लेगी।
उधर आकांक्षा के बी.एड. की परीक्षा का परिणाम भी आने वाला है। दो महीने पहले ही उसने बी ऐड की परीक्षा दी थी। जहाँ सब को उसके होने वाले बच्चे के बारे में जानने की उत्सुकता थी, उसको लड़का होगा या लड़की?। सबको लड़का पैदा होने की उम्मीद थी। सबकी उम्मीदें देखते हुए आकांक्षा भी चाह रही थी कि उसको लड़का ही पैदा हो इस बार। यद्यपि पहले से ही वह सबके कहने पर भ्रूण परीक्षण की परीक्षा भी झेल चुकी थी, फिर भी एक अनजान सा डर उसके मन में समा गया था। उसे बी। एड। के परिणाम के बारे में चिंता नहीं थी वरन उसे पूरा विश्वास था कि वह अच्छे अंकों से उसमे पास हो जाएगी। । जब उसने बी। एड। की परीक्षा के लिए फॉर्म भरा था, तब उसे नहीं पता था कि वह गर्भवती हो जाएगी। परीक्षा देने के लिए उसे पास के शहर चालीस किलोमीटर दूर जाना पड़ता था। फॉर्म भरने के दो महीने बाद उसे अपने दूसरी बार गर्भवती होने का पता चला था। उसकी बेटी अभी दो साल की भी नहीं हुई थी, और दूसरे बच्चे की जिम्मेवारी उठाने के लिए वह अभी मानसिक तौर पर बिल्कुल तैयार भी नहीं थी। वह मन ही मन अपने पति संजय को इसके लिए जिम्मेदार ठहरा रही थी। वह गर्भपात भी नहीं करवाना चाहती थी, और सारे परिवार का भी यही मानना था कि उसके दो बच्चे तो कम से कम होने ही चाहिए। उसकी सासू माँ ने कहा, “देखो, आकांक्षा भगवान् ने हमें दो हाथ, दो कान, दो पैर दिए हैं तब एक बच्चे से तुम्हारा परिवार कैसे चलेगा?, दो बच्चे तो कम से कम होने ही चाहिए। संतुलित जीवन का यही आधार है।"
वह हँस कर अपनी सास की बात को यह कह कर टाल देती थी “देखिए,माँ जी, मैं अभी पढाई कर रही हूँ, दोनों काम एक साथ कैसे हो सकेंगे?बच्चा ठहर जाने से जी बहुत मिचलाता है, उल्टियाँ होती हैं, चक्कर आते हैं, उस अवस्था में मै पढ़ कैसे पाऊँगी?"उसे अपने माता-पिता की वे सारी बातें याद आने लगी,। जो उन्होंने शादी से पहले उसे कही थी। उनके हर कथन यथावत उसके कानों में गूँज रहे थे। शादी हुए तीन साल बीत गए थे, शादी से पहले उसने स्नातक तक की पढाई पूरी कर ली थी। घर में व्यर्थ बैठकर समय बर्बाद करने से अच्छा नौकरी करने का सोचकर उसने चारों तरफ नौकरी ढूँढने का प्रयास किया। घर में रहते-रहते वह विगत तीन सालों में मानसिक रोगी बनती जा रही थी। उसके मायके और ससुराल के वातावरण में जमीन-आसमान का अंतर था। बचपन से ही उसे खुला परिवेश मिला था,जिस वजह से वह काफी खुले विचारों वाली थी, परन्तु ससुराल में उसका मन एक अजनबी दबाव के तले घुट रहा था। सास-ससुर उससे कुछ ज्यादा ही उम्मीदें करने लगे थे। घर के सारे काम-काज ओर जिम्मेदारियों का निर्वाह करते-करते वह भीतर ही भीतर टूटती जा रही थी। अक्सर उसकी सास कहा करती थी “देखो, बहू, सुबह जल्दी उठकर पूजा-पाठ से निवृत होकर घर के सारे काम काज निबटा लिया करो। ”कहना कितना आसान था न तो उसकी भगवान् में कोई ख़ास आस्था थी न ही वह सुबह जल्दी उठ सकती थी। रात को देर तक तरह-तरह की किताबें पढ़ना उसका बचपन से शौक रहा था।
हर कुँवारी लड़की की तरह उसने भी अपनी आने वाली जिन्दगी और अपने जीवन साथी को लेकर तरह-तरह के अरमान सँजोए थे। यद्यपि उसके माता-पिता इस शादी के पक्ष में नहीं थे, परन्तु उसने एक अदम्य विश्वास के साथ पिता जी से कहा था, “पिताजी आप मेरी चिंता नहीं करे। मुझे संजय पर पूरा भरोसा है, वह मुझे बहुत प्यार करते है, ओर वह मुझे हर तरह से खुश रखेंगे।"
आकांक्षा के इस अटूट विश्वास को देखकर पिताजी ने कहा, "अगर तुम्हे संजय और खुद पर इतना ही भरोसा है, तो मै तुम्हारे रास्ते में नहीं आउँगा ओर तुम लोग ख़ुशी से शादी कर सकते हो। पिताजी के आश्वासन के बाद माँ भी कुछ नरम हो गई थी।
फिर घर में शादी की तैयारियां जोर-शोर से शुरू हो गई। । मेहमानों की चहल-पहल लगी हुई थी। आकांक्षा ड्रैसिंग टेबल पर बैठकर अपने आप को निहार रही थी। दुल्हन के परिधान में वह बहुत खूबसूरत दिखाई दे रही थी। देखते-देखते धार्मिक रीति-रिवाजों के साथ शादी का सारा कार्यक्रम धूम-धाम से संपन्न हो गया। माता-पिता ने बहुत ही भरे मन से अपने दिल के टुकड़े को संजय को सौंप दिया। डोली विदा होने के समय उसके पिताजी का मन इतना भरा था कि वह एक कोने में अकेले छुपकर खड़े थे, आकांक्षा को विदा होते हुए नहीं देख सकते थे, परन्तु आकांक्षा की नजरे जाते-जाते पिता जी को ढूंढ रही थी। एक तरफ छुपकर खड़े पिता को देखकर वह गले लगकर फूट-फूटकर रोई थी।
शादी के बाद अगले दिन आकांक्षा के लिए नया घर, नए लोग तथा नया परिवेश उसकी प्रतीक्षा कर रहा था, यहाँ तक कि सूरज की रोशनी भी नए लिबास में लग रही थी, नई नवेली दुल्हन की तरह उसकी लालिमा भी देखने लायक थी। आकांक्षा को सब कुछ बहुत अच्छा लग रहा था। नई नवेली दुल्हन को देखने के लिए रिश्तेदार, मित्र, सगे सम्बन्धी सभी एक-एक कर बहुत उत्साह से आ रहे थे। सभी आकांक्षा की तारीफ कर रहे थे। संजय के जीजा जी ने मजाक करते हुए कहा, “भई, संजय इतनी खूबसूरत दुल्हन कहाँ से ढूंढ कर लाए हो, तुम्हारी दीदी से अगर हमारी शादी नहीं हुई होती तो हम भी तुमसे ही अपनी दुल्हन ढूँढवाते। "
उसकी ननद ने चिढ़ कर कहा, ”जाओ, मना किसने किया है?,अभी भी ढूँढ कर ला सकते हो"
यह सब बाते सुन आकांक्षा मन ही मन फूली नहीं समां रही थी। सब लोग हंसी-मजाक कर रहे थे। नई नवेली दुल्हन की सारी रस्मे वह बहुत ख़ुशी से अदा कर रही थी। मन ही मन आने वाली रात के बारे में सोच कर उसे अजीब-सी सिहरन महसूस हो रही थी। । वह कनखियों से संजय को इधर-उधर आते जाते देख रही थी, उसका सारा ध्यान तो सिर्फ संजय की तरफ लगा था, उसे कोई ओर तो नजर ही नहीं आ रहा था। इतना भरापूरा परिवार पाकर वह बहुत खुश थी। उसके साथ लाया गया सामान एक कमरे में सजाया जा रहा था। कुछ लोग बार बार उस कमरे में आजारहे थे। सुहाग रात के उपलक्ष में आकांक्षा ओर संजय ने घर के बैठक हॉल में केक काटने की रस्म भी अदा की। सभी हर्षौल्लास के साथ करतल ध्वनि से उन दोनों को आने वाली जिन्दगी के लिए बधाई और शुभ-कामानाएँ दे रहे थे। उसके बाद सब मेहमान खाना खाने में व्यस्त हो गए। संजय और आकांक्षा को भी भोजन परोस दिया गया, मगर आकांक्षा को भूख कहाँ?, उसे तो बस उस घडी का इन्तजार था जब वह अपने जीवन साथी से अकेले में मिलकर अपने रंगीन सपने पूरा करेगी ओर आने वाली जिन्दगी के सपने संजोएगी। वह संजय के कान में धीरे से बोली, ”संजय, मै और न खा सकूंगी "
मगर संजय जबरदस्ती कुछ निवाले उसके मुँह में ठूँसते हुए कहने लगा, "अरे, अभी तक तो तुमने कुछ खाया ही नहीं"
इस तरह कुछ देर दोनों प्यार से एक दूसरे को खाना खिलाते रहे। धीरे-धीरेकर भोजन ग्रहण करने के बाद सब मेहमान अपने अपने घर के लिए रवाना हो गए। सभी परिजन शादी की भागदोड़ से थके हुए थे, । और जो लोग बचे थे, वह भी सोने की तैयारी करने लगे। तभी उसकी ननद उसको उस कमरे में छोड़ आई, जहाँ उसके साथ लाया गया सामान सजाया गया था। वह पहली बार उस कमरे को देख रही थी। उसने बड़े ही अरमानों से प्रत्येक वस्तु को निहारा। पिताजी ने उसकी मन पसंद का सबसे सुन्दर पलंग उसके लिए बनवाया था। माताजी ने पसंद की सबसे बढ़िया फ्रिल वाली चादर उसके लिए खरीदी थी। सब सामान देख कर उसे अपने माता-पिता की तस्वीरे सामने नजर आने लगी। आकांक्षा को लेकर उन्होंने क्या-क्या मन में नहीं सोचा था। इकलौती बेटी के अरमानों को पूरा करने के लिए उन्होंने कितना संघर्ष किया था। पिताजी ने शादी के खर्चे के लिए अपने वृद्धावस्था के लिए जमा राशि प्रोविडेंट फंड भी निकलवा लिया था। आज उसी पलंग पर वही चादर बिछी हुई थी और बीच में फूलों की सजावट की हुई थी। लाल गुलाब के फूलों से हृदयाकार चित्र बना हुआ था जिसमे उसका और संजय का नाम लिखा हुआ था।
दुल्हन की लाल-रंग की पोशाक और उस पर सोने के ढेर सारे गहने पहने हुए वह किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही थी। कमरे में एक तरफ मिठाई के डिब्बें पड़े हुए थे। दूसरी तरफ, उसके साथ लाया हुआ बाकी छोटा मोटा सामान जिसे उसने अपनी पसंद से ख़रीदा था फैला पड़ा था। हर कुंवारी लड़की की तरह उसने भी अपनी आने वाली जिन्दगी के लिए सारा सामान बड़े अरमानों से संजोया था। वह बहुत ही भावुक होकर सब कुछ निहार रही थी। संजय के भाई उसे हँसी-मजाक करते हुए कमरे में धकेल गए। जैसे ही संजय ने कमरे में प्रवेश किया, उसकी सांस तो जैसे थम सी गई। बेशक वह दोनों एक दूसरे को पहले से अच्छी तरह जानते थे, साथ-साथ पढ़ते जो थे, पर उस क्षण उसे ऐसा लगा जैसे वह संजय को पहली बार मिल रही हो।
कमरे में आते ही संजय ने अन्दर से चिटकनी लगा ली और उसके पास आ कर बैठ गए। । आकांक्षा लेटे-लेटे सुहाग रात के हसीन सपनों के बारे में सोच रही थी। यह क्या वह तो सीधे आसमान से धरती पर आ गिरी हो। उसकी सबसे प्यारी सहेली मोनिका ने उसे बताया था कि कैसे उसके पति ने पहली रात को उसकी तारीफों के पुल बाँधे थे और तब वह शर्म से पानी-पानी हो गई थी। मोनिका ने कितने मजे से उसे बताया था, “मेरे पति ने बड़े प्यार से मेरा घूँघट उठाया और मुझे सबसे महँगा तोहफा हीरो से जड़ा हार पहली रात को मुँह दिखाई के रूप में दिया था। और रात भर हमने आने वाली जिन्दगी के बारे में ढेर बातें की और फिर पता ही नहीं चला कब सुबह हो गई। ”आकांक्षा सोच रही थी कि उसको ना ही संजय ने मुँह दिखाई के रूप में कोई तोहफा दिया ना ही उसकी सुन्दरता में दो शब्द कहे। वह सोच रही थी कि धीरे-धीरे उसके पति उसका घूँघट उठाएँगे और उसको अपनी बाहों में जकड लेंगे। उसी क्षण के इन्तजार में उसकी आँखों से नींद कोसो दूर थी लेकिन पास में उसके पति को सोते ही गहरी नींद आ गई थी। । आकांक्षा को रह-रहकर रात को कही अपनी ननद की बातें याद आ रही थी, "भाभी, सुबह जल्दी उठजाना सब रिश्तेदार अभी घर में है इसलिए भोर-भोर उठकर नहा धोकर तैयार हो जाना। यह सब सोचते सोचते कब उसकी आँख लगी उसे पता ही नहीं चला। जब वह नींद से उठी तब सूरज सिर पर दस्तक दे रहा था। एक क्षण को उसे लगा, वह अभी अपने माता-पिता के घर में ही है। कैसे उसकी माता जी सुबह उसे उठाती थी यह कहकर, "आकांक्षा, उठ जाओ, आधा दिन बीत गया है! ससुराल में इतनी देर तक सोओगी, तो सब क्या कहेंगे कि माँ ने कुछ भी नहीं सिखाया। उसपर पिता जी हंस कर कहते थे, “अरे, मै मेरी बेटी को एक बड़ा अफसर बनाउँगा कि इसकी सेवा में कई नौकर चाकर हर समय खड़े रहेंगे, अरे, सोने दो न बेचारी रात देर तक पढ़ाई कर रही थी।"
तभी उसकी ननद ने जोर से आवाज दी, "भाभी, क्या बात है, उठना नहीं है क्या?, सब लोग तैयार हो गए है “उसने देखा संजय अभी तक गहरी नींद सो रहे थे। रात की इस घटना ने भीतर से उसे बुरी तरह विचलित कर दिया था, परन्तु फिर भी वह बड़ी हिम्मत जुटा कर उठ गई। उसको बड़ी घुटन सी होने लगी। रह रह कर माता-पिता की याद आ रही थी। आकांक्षा फिर भी काफी हिम्मत वाली थी। उसने बहुत कोशिश की सब घर वालों को खुश रखने की। पर हर बार नाकाम ही रही। कोई भी बात घर में हो जाती तो संजय हर बार उसका ही कसूर निकालते। उसकी लाख कोशिशों के बावजूद वह किसी की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पा रही थी। उसके सास-ससुर की उससे कुछ ज्यादा ही उम्मीदे थी। संजय भी हर बार अपने माता-पिता का ही पक्ष लेते थे। वह भीतर ही भीतर टूटती जा रही थी। मानसिक स्तर पर वह शिथिल पड़ गई थी। रह-रहकर माता-पिता के कहे कथन कानों में गूंजने लगे। उसकी शादी हुए सात महीने बीत चुके थे, वह चाहकर भी ना ही खुद खुश रह पा रही थी, ना ही किसी को खुश रखने में समर्थ थी। काफी कोशिशों के बावजूद उसको कोई अच्छी नौकरी भी नहीं मिल पाई। कई जगह उसने अपना बायो-डाटा दिया पर कोई फायदा नहीं हुआ। धीरे-धीरे वह अवसाद की उस श्रेणी में पहुँच गई, जहां से लौटना शायद काफी मुश्किल होता है। अवसाद ग्रस्त हालत में उसने एक बार नींद की गोलियाँ खाकर अपनी जीवन लीला समाप्त करने का भी प्रयास किया। कभी मन में सोचती थी कि कहीं दूर भाग जाए और इसी कोशिश में घर छोड़ने का भी प्रयास किया। पर हर बार विफल होती गई तो हारकर आकांक्षा ने संजय के सामने माँ बनने की इच्छा प्रकट की। उसे लगा कि नए मेहमान के आने से उसका दिल भी लगा रहेगा और शायद परिस्थितियाँ कुछ सुधर जाए। मगर मातृत्व के लिए इतना कष्ट, इतनी कड़ी परीक्षा सोचते-सोचते उसकी आँखों में से आँसुओं की धारा बह निकली और अपने जीवन के सारे रंगीन सपनों को टूटता-बिखरता देख अनमने भाव से निर्वाक होकर शून्य की तरफ देखने लगी। वह समझ नहीं पा रही थी, आख़िरकर जीवन के मापदंडों की अंतिम कसौटी क्या होती है?