कसौटी / पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'

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‘रास्ता रोक के कह लूँगा जो कहना होगा

क्या मिलोगे न कभी राह में आते जाते।।’

इलाहाबाद के पंडित रामनरेशजी त्रिपाठी हिन्दी-कविता साहित्यह में बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। वह स्वहयं सुकवि हैं, सुलेखक हैं, काव्य मर्मज्ञ हैं, देश-भक्तव हैं, सम्पािदक हैं, और भी न जाने क्याे-क्या, हैं! आपकी कृपा से कविता-प्रेमियों को बहुत लाभ पहुँचा है। आपके द्वारा सम्पाजदित कविता-कौमुदी के दो भाग पहले निकल चुके हैं और उनका आदर भी हिन्दीा-संसार में खूब हुआ है। अब उन्हों ने कविता-कौमुदी का तृतीय-भाग प्रकाशित किया है। इसमें संस्कृत-भाषा के 57 कवियों की कविताएँ संगृहीत हैं और सरल भाषा में उनका अर्थ भी दे दिया गया है। इसका सम्पा्दन एक साहित्याभचार्य महोदय ने किया है। हमें इस संग्रह में कुछ त्रुटियाँ प्रतीत हुई हैं, और हम उन्हीं पर कुछ निवेदन करना चाहते हैं। आशा है, हमें त्रिपाठी जी के कोपानल में दग्ध। न होना पड़ेगा।

संस्कृशत भाषा कई सहस्र वर्षों तक कविता की एकमात्र भाषा रही है। समय-समय पर अनेक सुकवि अपनी-अपनी रचनाओं से संस्कृषत-साहित्यष को अलंकृत करते रहे हैं। यद्यपि उनकी सब कृतियाँ आज उपलब्धश नहीं हैं, तो भी जो कुछ मिलती हैं, वही इस जमाने में, जबकि संस्कृतत-भाषा किसी-किसी के मतानुसार मृत है, किसी भी सभ्यी और जीवित भाषा से टक्कोर लेने के लिए पर्याप्ति है। आर्य कवीश्वारों की यशोरक्षा के लिए अलम् हैं। भले ही उनमें पूर्व और पश्चिम के सन्धि-स्थपल में खड़ा होने की क्षमता न हो! और वे, आर्य कविगण विश्व –साहित्य में स्था्न पाने के अनुपयुक्तह हों, फिर भी जो कुछ उन्होंाने कहा है, वह उनका अपना है। उस पर उनकी छाप लगी हुई है। वह उनकी अपनी सूझ-बूझ है। वह उनके हृदय की, उनके मस्तिष्कउ की उपज है। किसी की चोरी नहीं है। यद्यपि इस छोटी सी पुस्तूक में उन सब कवियों का स्थाउन नहीं हो सकता था, दिया भी नहीं गया, किंतु संग्रह किस क्रम से हुआ है, यह हमारी समझ में न आया। समझ में आये कैसे? सम्पादक-महोदय ने भूमिका लिखने में पूरी कंजूसी की है। हाँ पूरी कंजूसी! अजी साहब, सम्पा दकीय वक्तकव्यय है ही नहीं, अतएव यह जानने का कोई उपाय नहीं है, कि इन 57 कवियों की रचनाओं को ही सम्पापदक ने क्योंव पसन्दह किया? और योग्य होने पर भी अन्यप कवियों को इस संग्रह में स्थारन क्यों् नहीं मिला। स्थायनाभाव का कारण तो नहीं है, इतना हम अपनी ओर से बलपूर्वक कह सकते हैं। कारण, पुस्त्क के अन्ति में एक बहुत विस्तृंत कौमुदी-कुंज है, अभी तक तो लता कुंज, आदि ही सुन पड़ते थे, अब त्रिपाठी जी की कृपा से कौमुदी-कुंज के भी दर्शन होने लगे। हिन्दीव भाषा-भाषियों का सौभाग्य ! हाँ, तो स्थाकनाभाव के अतिरिक्ती कोई और ही गूढ़ कारण होगा? इस रहस्यि पर प्रकाशक महोदय ने भी अपनी भूमिका में कुछ प्रकाश डालने का कष्ट़ नहीं स्वीनकार किया।

फिर काव्यक-प्रकाश रचयिता मम्मकट भट्ट को इसमें स्थायन क्योंि नहीं मिला, यह कह सकना हमारे जैसे नाहर के लिए भी असम्भ-व है। कविता कौमुदी (अवश्यम ही तृतीय भाग) के सब पन्नेड उलट डालिये, तो भी निम्नललिखित कवियों का नाम नहीं मिलेगा। ‘काव्याहदर्श’ और ‘दशकुमारचरित’ आदि के प्रणेता दंडी, काव्या्लंकार निर्माता रुद्रट, ‘चंड कौशिक’ - प्रणेता आर्यक्षेमीश्वरर, ‘मृच्छ कटिक’ के शूद्रक, विक्रम की सभा के नवरत्नि घटकर्पर, ‘भट्टि-काव्यौ’ के भट्टि, ‘पंचतन्त्र ’ के विष्णुकशर्मा... कहाँ तक गिनावें, अभिनवगुप्त , गुणाढ्य, व्यांडि, शिल्हौण और उमापतिधर आदि कवियों को क्योंच इसमें स्था‘न नहीं मिला? इन लोगों की क्यों उपेक्षा की गयी है, यह बतलाना सम्पा्दक महाशय का काम है। हमारा नहीं! यदि कौमुदी-कुंज कुछ संक्षिप्तो कर दिया जाता, और उस रिक्त्-स्थामन में यदि उन उपयुक्तत कवियों के विषय में संक्षेप में ही कुछ कह दिया जाता, तो शायद ‘कविता-कौमुदी’ की शोभा में किसी प्रकार की बाधा न उपस्थित होती। लेकिन सम्पाादक हैं, साहित्याकचार्य, अतएव उनसे कुछ कहते भी डर लगता है। एक बात और है, उसमें वर्णानुक्रम से कवियों को स्थाशन मिला है! अन्य,भागों से इसमें यह व्यडतिक्रम क्योंऔ हुआ? यह हम नहीं जानते! कविता-कौमुदी के प्रथम और द्वितीय भाग में समय के अनुसार और एक ही समय के कवियों को शायद गुणानुसार स्थाहन दिया गया है! किन्तु तृतीय भाग में बूढ़े बाबा बाल्मीिकि पीछे भटक रहे हैं, और अकाल-जलद, महाशय आगे ही गम्भी र-घोष कर रहे हैं। सम्भवबत: इसमें भी कोई रहस्यह ही होगा।

महाशयो, थोड़ा-सा निवेदन अभी और है, वह यह कि इसमें प्रूफ की गलतियाँ बहुत हैं, प्रकाशक महाशय ने यद्यपि इसके लिए खेद प्रकट कर दिया है और ‘पाठकों से क्षमा प्रार्थना भी कर लिया है, तथापि हमें तो इससे जरा भी सन्तोरष नहीं हुआ। पुस्त क शुद्ध रूप में निकालने में शायद कुछ ही अधिक देर लगती, किन्तु् वह न करके अगले संस्क रण में सुधारने का वादा किया है। इससे जबरदस्त हानि होने की सम्भा,वना है। पढ़नेवाले सब धनाढ्य नहीं होते। न हर एक संस्ककरण की पुस्तेक ही बार-बार खरीदी जा सकती है। ऐसी दशा में जिनके हाथ में इस संस्कोरण की पुस्तंक रहेगी, उन्हें गलतियों से आप कैसे बचाइएगा?’ हम केवल दो उदाहरण रखते हैं, ये श्लोकक हैं, पंडितराज जगन्ना थ के। पृ.सं. 104 प. 18 से 21

‘आमूलाद्रत्नै सानोर्मलय वलयिता दाचकूलात्पहयोधे, आबन्त्: सन्तिकाव्यव प्रणेन पटवसो विशङ्क बदन्तु,! मृद्वीकामध्यत निर्यन्मासृण पद धुरी माधुरी साग्य साजां बाचाभाचार्यतया पदमनुभवितुं कोऽस्मि धन्यो मदन्यस:’ सम्प्रचत्युुज्झितमासनं मधुरीमध्येी हरि: सेव्युते।

और भी इसी प्रकार की प्रूफ की अगणित गलतियों से पुस्तोक परिपूर्ण है। क्याय ऐसी भद्दी भूलों के लिए भी क्षमा प्रार्थना की जा सकती है? श्लोपकों के अर्थ जो सरल भाषा में लिखे गये हैं, उन पर बहुत कुछ कहना है सो तो फिर कहेंगे। आज इतना कहे देते हैं, कि अधिकांश अर्थों में श्लोेकों का भाव ठीक-ठीक व्यिक्त नहीं हो सका। कम से कम हम तो हजार चेष्टा करने पर भी नहीं समझ सके। कवियों की कृतियों की विशेषताओं पर कुछ नहीं कहा गया पदों का अर्थ कहकर पिंड छुड़ाया गया है। ऐसी दशा में संस्कृकत कवियों की बहुत गौरव हानि हुई है। बानगी फिर पेश करेंगे। आज तो अब विदा होते हैं। अच्छा्। त्रिपाठी जी, प्रणाम।