कसौटी / सत्य के प्रयोग / महात्मा गांधी

Gadya Kosh से
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जहाज धक्के पर लगा। यात्री उतरे। पर मेरे बारे में मि. एस्कम्ब ने कप्तान से कहलाया था : 'गाँधी को और उसके परिवार को शाम को उतारियेगा। उसके विरुद्ध गोरे बहुत उत्तेजित हो गये हैं और उनके प्राण संकट में हैं। पोर्ट सुपरिटेण्डेण्ट मि. टेटम उन्हे शामको अपने साथ ले जायेंगे।'

कप्तान मे मुझे इस संदेश की खबर दी। मैने तदनुसार चलना स्वीकर किया। लेकिन इस संदेश को मिले आधा घंटा भी न हुआ कि इतने में मि. लाटन आये और कप्तान से मिलकर बोले, 'यदि मि. गाँधी मेरे साथ चले , तो मैं उन्हें अपनी जिम्मेदारी पर ले जाना चाहता हूँ। स्टीमर के एजेण्ट के वकील के नाते मैं आपसे कहता हूँ कि मि. गाँधी के बारे में जो संदेख आपको मिला है उसके बन्धन से आप मुक्त हैं।' इस प्रकार कप्तान से बातचीत करके वे मेरे पास आये और मुझ से कुछ इस मतलब की बातें कहीँ : 'आपको जीवन का डर न हो तो मैं चाहता हूँ कि श्रीमती गाँधी और बच्चे गाड़ी में रुस्तमजी सेठ के घर जाये और आप तथा मैं आम रास्ते से पैदल चले। मुझे यह बिल्कुल अच्छा नहीं लगता कि आप अंधेरा होने पर चुपचाप शहर दाखिल हो। मेरा ख्याल हैं कि आपका बाल भी बाँका न होगा। अब तो सब कुध शान्त हैं। गोरे सब तितर-बितर हो गये हैं। पर कुछ भी क्यों न हो, मेरी राय हैं कि आपको छिपे तौर पर शहर में कभी न जाना चाहिये। '


मैं सहमत हो गया। मेरी धर्मपत्नी और बच्चे गाड़ी में बैठकर रुस्तमजी सेठ के घर सही - सलामत पहुँच गये। कप्तान की अनुमति लेकर मैं मि. लाटन के साथ उतरा। रुस्तमजी सेठ का घर वहाँ से लगभग दो मील दूर था।

जैसे ही हम जहाज से उतरे, कुछ लड़को ने मुझे पहचान लिया और वे 'गाँधी, गाँधी' चिल्लाने लगे। तुरन्त ही कुछ लोग इकट्ठा हो गये और चिल्लाहट बढ गयी। मि. लाटन ने देखा कि भीड़ बढ जायगी, इसलिए उन्होंने रिक्शा मँगवाया। मुझे उसमे बैठना कभी अच्छा न लगता था। उस पर सवार होने का मुझे यह पहला ही अनुभव होने जा रहा था। पर लड़के क्यों बैठने देते ? उन्होंने रिक्शावाले को धमकाया और वह भाग खड़ा हुआ।

हम आगे बढे। भीड़ भी बढती गयी। खासी भीड़ जमा हो गयी। सबसे पहले तो भीड़वालों ने मुझे मि. लाटन से अलग कर दिया। फिर मुझ पर कंकरों और सड़े अण्डों की वर्षा शुरु हुई। किसी ने मेरी पगडी उछाल कर फेंक दी। फिर लाते शुरु हूई।

मुझे गश आ गया। मैने पास के घर की जाली पकड़ ली और दम लिया। वहाँ खड़ा रहना तो सम्भव ही न था। तमाचे पड़ने लगे।

इतने मे पुलिस अधिकारी की स्त्री जो मुझे पहचानती थी, रास्ते से गुजरी। मुझे देखते ही वह मेरी बगल मे आकर खड़ी हो गयी और धूप के न रहते भी उसने अपनी छतरी खोल ली। इससे भीड़ कुछ नरम पड़ी। अब मुझ पर प्रहार करने हो , तो मिसेज एलेक्जेण्डर को बचाकर ही किये जा सकते थे।

इस बीच मुझ पर मार पड़ते देखकर कोई हिन्दुस्तानी नौजवान पुलिसथाने पर दौड़ गया। सुपरिटेण्डेण्ट एलेक्जेण्डर ने एक टुकड़ी मुझे घेर कर बचा लेने के लिए भेजी। वह समय पर पहुँची। मेरा रास्ता पुलिस थाने के पास ही होकर जाता था। सुपरिटेण्डेण्ट ने मुझे थाने में आश्रय लेने की सलाह दी। मैने इन्कार किया और कहा , 'जब लोगों को अपनी भूल मालूम हो जायेगी, तो वे शान्त हो जायेंगे। मुझे उनकी न्यायबुद्धि पर विश्वास हैं।'

पुलिस के दस्ते के साथ मैं सही सलामत पारसी रुस्तमजी के घर पहुँचा। मेरी पीठ पर छिपी मार पड़ी थी। एक जगह थोड़ा खून निकल आया था। स्टीमर के डॉक्टर दादा बरजोर वहीं मौजूद थे। उन्होंने मेरी अच्छी सेवा-शुश्रषा की।

यो भीतर शान्ति थी , पर बाहर गोरो ने घर को घेर लिया। शाम हो चुकी थी। अंधेरा हो चला था। बाहर हजारों लोग तीखी आवाज में शोर कर रहे थे और 'गाँधी को हमें सौंप दो' की पुकार मचा रहे थे। परिस्थिति का ख्याल करके सुपरिटेण्डेण्ट एलेक्जेण्डर वहाँ पहुँच गये थे औऱ भीड़ को धमकी से नहीं , बल्कि उसका मन बहलाकर वश मे रख रहे थे।

फिर भी वे निश्चित तो नहीं थे। उन्होंने मुझे इस आशय का संदेशा भेजा : 'यदि आप अपने मित्र के मकान , माल-असबाब और अपने बाल-बच्चों को बचाना चाहते हो, तो जिस तरह मैं कहूँ उस तरह आपको इस घर से छिपे तौर पर निकल जाना चाहिये।'

एक ही दिन में मुझे एक-दूसरे के विरुद्ध दो काम करने का प्रसंग आया। जब प्राणों का भय केवल काल्पनिक प्रतीत होता था, तब मि. लाटन ने मुझे प्रकट रुप से बाहर निकले की सलाह दी और मैने उसे मान लिया। जब संकट प्रत्यक्ष मेरे सामने आकर खड़ा हो गया , तब दूसरे मित्र ने इससे उल्टी सलाह दी और मैने उसे भी मान लिया। कौन कह सकता हैं कि मै अपने प्राणों के संकट से डरा या मित्र के जान-माल की जोखिम से अथवा अपने परिवार की प्राणहानि से या तीनो से ? कौन निश्चय-पूर्वक कह सकता हैं कि मेरा स्टीमर से हिम्मत दिखाकर उतरना और बाद में संकट से प्रत्यक्ष सामने आने पर छिपकर भाग निकलना उचित था ? पर घटित घटनाओं के बारे में इस तरह की चर्चा ही व्यर्थ हैं। उनका उपयोग यही हैं कि जो हो चुका हैं, उसे समझ ले औऱ उससे जितना सीखने को मिले, सीख ले। अमुक प्रसंग में अमुक मनुष्य ने क्या करेगा , यह निश्चिय पूर्वक कहा ही नहीं जा सकता। इसी तरह हम यह भी देख सकते हैं कि मनुष्य के बाहरी आचरण से उसके गुणों की जो परीक्षा की जाती हैं, वह अधूरी और अनुमात्र-मात्र होती है।

सो कुछ भी हो, भागने के काम मे उलझ जाने से मैं अपनी चोटों को भूल गया। मैने हिन्दुस्तानी सिपाही की वर्दी पहनी। कभी सिर पर मार पड़े तो उससे बचने के लिए माथे पर पीतल की तश्तरी रखी और ऊपर से मद्रासी तर्ज का बड़ा साफा बाँधा। साश में खुफिया पुलिस के दो जवान थे। उनमे से एक ने हिन्दुस्तानी व्यापारी की पोशाक पहनी और अपना चहेरी हिन्दुस्तानी की तरह रंग लिया। दुसरे ने क्या पहना, सो मैं भूल गया हूँ। हम बगल की गली में होकर पड़ोस की दुकान में पहुँचे और गोदाम में लगी हुई बोरों की थप्पियों को अंधेरे में लाँधते हुए दुकान के दरवाजे से भीड़ में घुस कर आगे निकल गये। गली के नुक्कड़ पर गाड़ी खड़ी थी उसमें बैठकर अब मुझे उसी थाने में ले गये , जिसमे आश्रय लेने की सलाह सुपरिटेण्डेण्ट एलेक्जेण्डर ने पहले दी थी। मैने सुपरिटेण्डेण्ट एलेक्जेण्डर और खुफिया पुलिस के अधिकारियों को धन्यवाद दिया।

इस प्रकार जब एक तरफ से मुझे ले जाया जा रहा था, तब दूसरी तरफ सुपरिटेण्डेण्ट एलेक्जेण्डर भीड़ से गाना गवा रहे थे। उस गीत का अनुवाद यह हैं :

'चलो, हम गाँधी के फांसी पर लटका दे, इमली के उस पेड़ पर फांसी लटका दे।'

जब सुपरिटेण्डेण्ट एलेक्जेण्डर को मेरे सही-सलामत थाने पर पहुँच जाने की खबर मिली तो उन्होंने भीड़ से कहा, 'आपका शिकार तो इस दुकान से सही सलामत निकल भागा हैं।' भीड़ में किसी को गुस्सा आया, कोई हँसा, बहुतों नें इस बात को मानने से इन्कार किया।

इस पर सुपरिटेण्डेण्ट एलेक्जेण्डर ने कहा, 'तो आप लोग अपने में से जिसे नियुक्त कर दे उसे मैं अन्दर ले जाऊँ और वह तलाश करके देख ले। अगर आप गाँधी को ढूढ़ निकाले तो मैं उसे आपके हवाले कर दूँगा। न ढूढ़ सके तो आपको बिखर जाना होगा। मुझे विश्वास तो हैं ही कि आप पारसी रुस्तमजी का मकान हरगिज नही जलायेंगे और न गाँधी के स्त्री-बच्चों को कष्ट पहुँचायेंगे।'

भीड़ ने प्रतिनिधि नियुक्त किये। उन्होंने तलाशी के बाद उसे निराशाजनक समाचार सुनाये। सब सुपरिटेण्डेण्ट एलेक्जेण्डर की सूझ-बूझ और चतुराई की प्रसंशा करते हुए पर मन ही मन कुछ गुस्सा होते हुए, बिखर गये।

उस समय के उपनिवेश मंत्री स्व. मि. चेम्बरलेन ने तार द्वारा सूचित किया कि मुझ पर हमला करने वालों पर मुकदमा चलाया जाय और मुझे न्याय दिलाया जाय। मि. एस्कम्ब ने मुझे अपने पास बुलाया। मुझे पहुँची हुई चोट के लिए खेद प्रकट करते हुए उन्होंने कहा, 'आप यह तो मानेगे ही कि आपका बाल भी बाँका हो तो मुझे उससे कभी खुशी नहीं हो सकती। आपने मि. लाटन की सलाह मानकर तुरन्त उतर जाने का साहस किया। आपको ऐसा करने का हक था, पर आपने मेरे संदेश को मान लिया होता तो यह दुःखद घटना न घटती। अब अगर हमला करने वालों को पहचान सकें तो मैं उन्हें गिरफ्तार करवाने और उनपर मुकदमा चलाने को तैयार हूँ। मि. चेम्बरलेन भी यही चाहते हैं।'

मैने जवाब दिया, 'मुझे किसी पर मुकदमा नही चलाना हैं। सम्भव हैं , हमला करनेवालों मे से एक-दो को मैं पहचान लूँ , पर उन्हें सजा दिलाने से मुझे क्या लाभ होगा ? फिर, मैं हमला करनेवालो को दोषी भी नहीं मानता। उन्हें तो यह कहा गया हैं कि मैने हिन्दुस्तान में अतिशयोक्तिपूर्ण बाते कहकर नेटाल के गोरों को बदनाम किया हैं। वे इस बात को मानकर गुस्सा हो तो इसमे आश्चर्य क्या हैं ? दोष तो बड़ो का और मुझे कहने की इजाजत दे तो आपका माना जाना चाहिये। आप लोगों को सही रास्ता दिखा सकते थे, पर आपने माना और कल्पना कर ली कि मैने अतिशयोक्ति की होगी। मुझे किसी पर मुकदमा नहीं चलाना हैं। जब वस्तुस्थिति प्रकट होगी और लोगों को पता चलेगा, तो वे खुद पछतायेगे।'

'तो आप मुझे यह बात लिख कर दे देंगे ? मुझे मि. चेम्बरलेन को इस आशय का तार भेजना पड़ेगा। मैं नही चाहता कि आप जल्दी में कुछ लिखकर दे दें। मेरी इच्छा यह हैं कि आप मि. लाटन से औऱ अपने मित्रों सं सलाह करके जो उचित जान पड़े सो करे। हाँ, मैं यह स्वीकार करता हूँ कि यदि आप हमला करनेवालों पर मुकदमा नहीं चलायेंगे तो सब ओर शान्ति स्थापित करने में मुझें बहुत मदद मिलेगी औऱ आपकी प्रतिष्ठा तो निश्चत ही बढेगी।'

मैने जवाब दिया, 'इस विषय मे मेरे विचार पक्के हो चुके हैं। यह निश्चय समझिये कि मुझे किसी पर मुकदमा नही चलाना हैं , इसलिए मैं आपको यहीं लिखकर दे देना चाहता हूँ।'

यह कहकर मैं आवश्यक पत्र लिखकर दे दिया।