कस्तूरी कुंडल बसै... / इष्‍ट देव सांकृत्‍यायन

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पता नहीं, भ्रष्टाचार जी ने कुछ लोगों का क्या बिगाड़ा है जो वे आए दिन उनके पीछे ही पड़े रहते हैं। कभी धरना दे रहे हैं कि भ्रष्टाचार मिटाओ, कभी प्रदर्शन, नारेबाजी, रास्ताजाम... और न जाने क्या-क्या! कभी दिल्ली का रामलीला मैदान भर डाला और कभी जंतर-मंतर पर लोगों का आना-जाना दुश्वार कर दिया। खैर, भ्रष्टाचार जी को इससे फर्क ही क्या पड़ता है! उन्होंने ऐसे बहुत लोगों को आते-जाते देखा है। इसीलिए तो वह पूरे आत्मविश्वास के साथ गाते रहते हैं, ‘तुमसे पहले कितने जोकर आए और आकर चले गए / कुछ जेबें भरकर गुजर गए कुछ जूते खाकर चले गए...’। एक वही हैं जिनके लिए जाने कहाँ से लगातार यह सदा आती रहती है, 'वीर तुम बढ़े चलो / धीर तुम बढ़े चलो / ...सामने पहाड़ हो / सिंह की दहाड़ हो / तुम निडर हटो नहीं / तुम निडर डटो वहीं...’। फिलहाल तक की हिस्ट्री तो यही है कि उन्हें भगाने जितने आए, खुद ही भाग गए। अब यह अलग बात है कि चले जाने के सबके अपने अलग-अलग तरीके थे। कुछ तोप चलाकर चले गए, कुछ जाँच कराकर चले गए, कुछ हल्ला मचाकर चले गए, कुछ इलेक्ट्रॉनिक कैंपेन चलाकर चले गए, कुछ सलवार-समीज पहन कर चले गए, कुछ जूस पीकर चले गए... पर चले सभी गए।

एक भ्रष्टाचार जी ही हैं, जो अपनी सहोदरी भगिनी महँगाई की तरह लगातार बढ़ते गए हैं। पता नहीं, लोग क्यों उनके पीछे पड़े रहते हैं, जबकि उन्होंने भारतभूमि की महान परंपराओं का हमेशा पूरे मनोयोग से अनुपालन किया है। सच पूछिए तो उनके इस दूने रात चौगुने विकास का रहस्य भी यही है। कुछ लोग बताते हैं कि बहन महँगाई जी उनसे दो-चार दिन बड़ी हैं, कुछ कहते हैं कि दो-चार दिन छोटी और कुछ तो बताते हैं कि जुड़वाँ हैं। जो भी हो, पर दोनों देखे हमेशा साथ-साथ जाते हैं, हमेशा एक-दूसरे के सहयोग में प्राणप्रण से जुटे हुए। कभी भ्रष्टाचार जी आगे बढ़कर महँगाई जी को आगे निकलने का रास्ता दे देते हैं और कभी महँगाई जी थोड़ा आगे चलकर भ्रष्टाचार जी के लिए रास्ता बना देती हैं। आम तौर पर देखा यही जाता है कि जहाँ पुरुष अधिक होते हैं, वहाँ भाई यानी भ्रष्टाचार जी आगे बढ़कर बहन महँगाई जी के लिए रास्ता खाली करा देते हैं और जहाँ महिलाएँ अधिक होती हैं, वहाँ महँगाई जी आगे बढ़कर भाई के लिए रास्ता खाली करा देती हैं। जिन सरकारी महकमों को सामंजस्य की कमी के लिए सबसे ज्यादा कोसा जाता है, वहाँ इनके सामंजस्य और समन्वय का असर तो देखते ही बनता है। रेलवे आरक्षण की खिड़की से लेकर सरकारी अस्पताल के मुर्दाघर तक... आप कहाँ-कहाँ देखना चाहते हैं, बताइए न। अब अगर ये आगे नहीं बढ़ेंगे तो और कौन बढ़ेगा? हिंदी के साहित्यकार, जो दिन-रात केवल एक-दूसरे की टाँग खिंचाई में लगे रहते हैं?

लेकिन अब ईर्ष्या करने वालों का आप क्या कर लेंगे! पवित्र स्नेह के जीवंत उदाहरण बने भाई-बहन के इस जोड़े को लेकर भी जाने लोग कैसी-कैसी उल्टी-सीधी बातें करते रहते हैं। खैर, आप तो जानते ही हैं, इस दुनिया में कुंठितों की कमी नहीं है और कुंठित लोग इसके अलावा और कर ही क्या सकते हैं! कभी कहेंगे जाँच कराओ। जाँच करा के रपट भी मँगा दी तो कहेंगे कि नहीं, अब इससे नहीं उससे कराओ। लो भाई, उससे भी करा दी। तब कहेंगे कि चलो अब कोर्ट में साबित कराओ। कोर्ट भी ससम्मान दोषमुक्त कर दे तो पूछेंगे कि आय से अधिक वाले मामले की जाँच क्यों नहीं होगी? अरे भाई, आय से अधिक का कोई मामला हो ही कैसे सकता है? जितना कुछ आया, वह आय ही तो है! अब जो आया, वह अगर आय नहीं तो और है क्या? और जब आय है तो फिर उससे अधिक की बात कहाँ से आ गई? इतना सीधा सा तर्क भी लोग नहीं समझते। फिर कहते हैं कि कोर्ट ही गलत है। बस यही एक सही हैं, बाकी पूरी दुनिया गलत।

इसीलिए मैं तो कहता हूँ कि कुंठित लोगों की बात ही मत सुनिए। अगर सुनना ही हो तो संतों के वचन सुनें, ज्ञानियों के लेख पढ़ें और विशेषज्ञों की बातें सुनें। अब देखिए, समझदार अर्थशास्त्रियों का मानना है कि भ्रष्टाचार जी असल में विकास जी के बहुत करीबी रिश्तेदार हैं। जहाँ-जहाँ विकास जी जाते हैं, वहाँ-वहाँ भ्रष्टाचार जी अपने आप पहुँच जाते हैं। हालाँकि मुझे यह मामला थोड़ा उलटा दिखाई देता है। (वैसे आपकी सुविधा और मेरे हित के लिए मेरा पहले ही यह मान लेना ठीक रहेगा कि मुझे बहुत सारी चीजें उलटी दिखाई देती हैं। यह शायद किसी जमाने में दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी रहे होने का नतीजा हो। आप उसे अपने हिसाब से समझने के लिए स्वतंत्र हैं। आप मेरे हिसाब से न भी समझें तो मैं आपका कर ही क्या लूँगा?) खैर, तो मुझे ऐसा लगता है कि विकास जी बाद में, भ्रष्टाचार जी पहले पहुँचते हैं। यानी यह मामला आग और धुएँ जैसा है। जिस प्रकार जहाँ-जहाँ आग है वहाँ-वहाँ धुआँ है, ठीक उसी प्रकार जहाँ-जहाँ भ्रष्टाचार जी हैं, वहीं-वहीं विकास जी हैं।

कम से कम अपने बगल वाले शुक्ला जी को देखते हुए तो मैं यह बात दावे के साथ कह सकता हूँ। शुक्ला जी जब तक अपने तृतीय श्रेणी कर्मी पिता के बताए आदर्शों पर चलते रहे, प्रशासनिक अफसर होकर भी बेचारे क्लर्कों जैसा जीवन जीते रहे। पोस्टिंग भी कहीं ढंग की नहीं मिली। वही सचिवालय में फाइलों के ठेले बने रहे...। वो तो भला हो उनकी शिक्षकतनया भार्या का, जिसने महँगाई देवी का हवाला देते हुए उन्हें जमाने का चलन समझाया। जैसे ही शुक्ला जी ने उसकी दी हुई शिक्षा के अनुरूप यह चलन समझा और भ्रष्टाचार जी के शरण में गए, उनके यहाँ विकास जी के आने की फ्रीक्वेंसी ऐसी बढ़ी कि साल बीतते-बीतते कॉलोनी के सारे विकासधर्मा महापुरुष उनसे जलने लगे। तो जनाब यह बात मैं अपने निजी अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ, इसे आप कोई दार्शनिक तर्क न मानें। ऐसे कई और जीवंत प्रमाण मेरे पास हैं, जिनमें आधुनिक विकास जी की प्रक्रिया ही भ्रष्टाचार जी के बाद शुरू हुई और इसीलिए मैं आग भ्रष्टाचार जी को मानता हूँ, बाकी विकास जी तो सिर्फ धुआँ हैं। सेंसेक्स की तरह आते-जाते, चढ़ते-उतरते रहने वाले, अस्थिर और कुछ-कुछ मायावी टाइप।

वैसे प्रवचन-लेख, साक्ष्य-विधि वाले थोथे तर्कों के बूते की यह बात भी नहीं है कि वे भ्रष्टाचार जी को साबित कर सकें। यकीन न हो तो आज़ादी के बाद से लेकर अब तक के सारे मामलों पर नजर डाल लें। भ्रष्टाचार जी वस्तुतः सिर्फ अनुभवगम्य हैं। अपने निजी अनुभव के अलावा और किसी भी तरह से उन्हें जाना नहीं जा सकता। वैसे ही जैसे कि भगवान। कहीं न होते हुए भी वह हर जगह हैं, कण-कण में व्याप्त हैं। 'हो भी नहीं और हर जाँ (जगह) हो...’ टाइप। वह किसी को दिखाई नहीं देते हैं, लेकिन असल में सबकी आँखों के नूर वही हैं। अगर किसी की आँखों में वह नहीं हैं, तो उसकी आँखों में जो नूर है... धत्तेरे की, भला वह भी कोई नूर है! इसीलिए सीबीआई उन्हें ढूँढ़ने जाती है और नहीं पाती। माननीय न्यायालय में विद्वान न्यायाधीश साक्ष्यों पर सदियों सिर धुनते हैं और उन्हें नहीं पाते। हीरों के भंडार खत्म हो जाते हैं, लेकिन कोयले की खदानों के आवंटन में भ्रष्टाचार जी की भूमिका की जाँच पूरी नहीं हो पाती। ...और भारतवर्ष के किसी भी सरकारी दफ्तर में उनके बगैर कोई काम नहीं होता। आप इसे कुछ यूँ भी समझ सकते हैं कि हर मंत्री-अफसर बड़े गर्व से यह घोषणा करता है कि उसके विभाग में बिलकुल भ्रष्टाचार नहीं है और दूसरी तरफ उसे मिटाने के दावे भी करता है। दफ्तरों के बाहर भ्रष्टाचार जी के ख़िलाफ बड़े-बड़े इश्तहार टंगे हैं, क़ानून की किताबों में बड़ी भयानक क़िस्म की, लगभग दैत्य टाइप, धाराएँ छुपी पड़ी हैं। सबमें दावे हैं कि इस तरह से भ्रष्टाचार को मिटाना है। यह कुछ उन गुरुओं की आस्था जैसा मामला है जो एक तरफ तो कहते हैं कि भगवान सब देख रहा है और दूसरी तरफ न देखने लायक सारे काम भी किए जा रहे हैं।

इसीलिए जब कोई मंत्री या अफसर अपने विभाग में भ्रष्टाचार जी के न होने का दावा करता है और उन्हें इनाम देने की घोषणा करता है जो भ्रष्टाचार जी को ढुँढ़वाने में मदद करें तो मुझे कबीर याद आते हैं, 'कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूँढ़त बन माहिं...’। तो हे वत्स, भ्रष्टाचार जी को जानने के लिए तर्कों और इंद्रियगम्य साधनों का सहारा लेना छोड़ दें। साफ तौर पर जान लें कि इन्हें सिर्फ अपने अनुभव से ही जाना जाता है और अनुभवगम्य मामलों को समझने में बाहरी कर्मकांड बहुत काम नहीं आते। जिस प्रकार पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन से भगवान को प्रसन्न तो किया जा सकता है पर जाना नहीं जा सकता, ठीक उसी प्रकार भ्रष्टाचार जी को भी दान और स्तुतिगान से प्रसन्न तो किया जा सकता है, लेकिन जाना नहीं जा सकता। परमपिता परमेश्वर की ही तरह उन्हें भी जानने के लिए अंतर्दृष्टि की आवश्यकता होती है और आप तो जानते ही हैं, यह कम ही महापुरुषों के पास होती है। जिनके पास होती है, वे जानते हैं कि जो सबसे ज्यादा बढ़-चढ़ कर भ्रष्टाचार जी का विरोध कर रहा है, वास्तव में वही उनका सबसे बड़ा सेवक है। आप तो जानते हैं कि बड़े भक्तों ने भगवान को गालियाँ तक दी हैं और भगवान ने बर्दाश्त ही नहीं किया, उन्हें इसके बावजूद आशीष और वरदान भी दिए हैं। यह कुछ वैसा ही मामला है, जैसे कुछ बुद्धिजीवी सेमिनारों में अनीश्वरवाद पर लंबे प्रवचन देने के बाद घर पहुँचते ही श्री सत्यनारायण व्रत कथा सुनते हैं। ग्रह शांति कराते हैं। बकलोल लोग उनकी अनीश्वरवादिता पर मुग्ध और समझदार लोग विद्वानों के झोले ढोकर प्रवचन के निहितार्थ जान लेते हैं। ऐसे ही बकलोल लोग भ्रष्टाचार जी के पीछे पड़े रहते हैं और समझदार लोग आगे बढ़कर उनके स्वागत में रेड कार्पेट बिछा देते हैं। आगे तो आप बस यूँ समझें कि रेस्ट विल बी हिस्ट्री...।