कहाँ ढूँढे रे बन्दे / चंद्र रेखा ढडवाल
कल न्यायालय,बाबरी मस्जिद पर निर्णय देने वाला है, तो आज सुबह से ही दूरदर्शन केन्द्रों पर एक भूचाल आने की स्थिति के अंदेशों के आकार प्रकार की चर्चा ज़ोरों पर थी। सामान्य भावुक व्यक्ति आने वाले संकट की इबारत पढ़ रहा था-बहुत मुश्किल होगा जी। लोगों को रोकना आसान नहीं होता। इतने सालों से पता नहीं कौन, क्या उम्मीद लगा कर बैठा है । उसकी उम्मीद के विरूद्ध निर्णय हुआ तो? इस‘तो’ की धार निरन्तर पैनी हुई जा रही थी। विभिन्न राजनैतिक दलों से सम्बद्ध वक्ता इस तरह और इतनी बार सोहार्द व शांतिपूर्ण वातावरण बनाए रखने की बात कर रहे थे कि सोहार्द व शांति के शत प्रतिशत भंग होने की अघोषित सूचना ने लोगों में आक्रामक हड़बड़ाहट भर दी। धार्मिक संस्थानों के मठाधीश, अभिनेता या किसी भी पक्ष के अग्रणीय व्यक्ति प्रेम व शांति बनाए रखने का आग्रह कर रहे थे। सोचिए!हमें कैसा भारत चाहिए?” यह पंक्ति तो जैसे अटक ही गई दिमाग में। बल्कि मुझे लगा जैसे मैं अधर में हूँ। पैरों तले ज़मीन नहीं और सिर पर कोई आसमान नहीं है। मेरे देश का रूपाकार और स्वरूप निर्माणाधीन है क्या ? प्रश्न इतना बड़ा होता चला गया कि मेरे सब उत्तर व समाधान इसमें समा गए। पता नहीं किसे समझाने को मैं बड़बड़ाती रही पूरी दोपहर। धर्म व जाति से बड़ा है जीवन। सही और ग़लत को निर्पेक्ष भाव से परखना होगा। मन्दिर-मस्जिद नहीं, घर हमारी ज़रूरत है। काबा और काशी की दौलत लेकर क्या करेंगे यदि हम एक दूसरे से दूर होते चले गए । अपने गुरु होने का दम्भ किया पर आश्वस्त नहीं हो सकी । हर नए निदान को, नई जिज्ञासा ने निरस्त कर दिया।
लाल और सूजी हुई आंखे लिए, सुहास को चाय का प्याला थमा कर, उनके सामने बैठी तो चिन्तातुर होकर बोले वे " आज दोपहर सोई नहीं क्या ? ऐसी सुर्ख और भारी-भारी क्यों हो रही हैं आंखे ?“ कहने को हुई, फिर अपने को संभाल लिया मैंने। इतनी भावुकता कि अनहुए की भयावहता को लेकर आंसू बहाना, अब मुझे भी अटपटा लग रहा था। सो अभी-अभी याद आई बात कह दी - सच्च ही सो नहीं पाई मैं। रंजन शर्मा की तरफ ध्यान चला गया। बेचारे मुष्किल समय से गुज़रे हैं। अब भी महीनों लग जाएंगे पूरी तरह ठीक होने में और हम उनके इतना पास रहते हुए भी उनसे मिलने नहीं जा पाए।“ मेरी बात की परवाह की उन्होंने और अभी चलने को तत्पर हो गए। पर मैंने ही चाहा कि कल चलें।
हम करीब साढ़े दस बजे घर से निकल पड़े ताकि बेटे के लौटने से पहले घर पहुंच सकें। सुबह का नाष्ता बनाते हुए दोपहर के भोजन का प्रबन्ध भी कर लिया मैंने। क्योंकि बेटू को स्कूल से आते ही खाना चाहिए और सुहास को तो घड़ी की सूइयों के साथ साथ चल पाने के लिए भागना भी पड़े तो भागेंगे। भले ही हांप-हांप कर खुद भी थकें और दूसरे को भी थका दें। वैसे उनकी इस आदत से घर निरन्तर व्यवस्थित होता जा रहा था साथ ही साथ जीवन भी। मुझे लिखने पढ़ने को पर्याप्त समय मिलने लगा था, सुहास के समय-प्रबन्धन पर आचरण करने से। सप्ताह भर पहले, किसी से पता चला था कि रंजन सुबह की सैर करते हुए मोटर सइकिल से टकरा गए। बल्कि कहने वाले ने बताया कि बाइक सवार ने सड़क के किनारे चल रहे रंजन को टक्कर मार दी। उनके साथ उनकी पत्नी भी थी और सुबह-सुबह और भी लोग सैर के लिए निकले हुए थे। इसलिए बहुत जल्दी उन्हें अस्पताल पहुंचा दिया गया। ज्यादा चोट भी टांग में ही लगी थी इसलिए खतरे की बात नहीं थी। पर दस हफ्ते के लिए, प्लास्टर चढ़ा कर घर तो बैठ ही गए। लम्बी सैर और नियमित व्यायाम करने वाले खिलंदड़ आदमी के लिए मुश्किल बात थी। उनसे मिल कर अच्छा लगा। उनकी आवाज़ में वही उत्साह था। अपने साथ घटित की चर्चा से पहले हमारा हाल पूछा। आपने उस मोटर साइकिल सवार की ख़बर नहीं ली।“ सुहास को गुस्सा था और उन्होंने पहली बात यही पूछी। ख़बर तो मैंने उसी समय ले ली, दो झांपड़ तो टूटी टांग पर खडे़ हो कर मार ही दिए। पर फिर मुझे उस पर तरस आने लगा था। वह हमारे साथ अस्पताल गया। बाद में भी लगातार आता रहा। तिब्बती लड़का था, उसने बताया कि कुछ समय पहले उसकी मां नहीं रहीं। पिता की अपनी व्यवस्तताएं हैं और वह बहुत अकेला पड़ गया है रात देर तक नींद नहीं आई और सुबह-सुबह बाइक लेकर, बगैर किसी काम के सड़क पर आ गया था।“ वह उस लड़के के प्रति सहानुभूति जता रहे थे। उसे दुर्घटना से अलग रखते हुए। क्षमा करता हुआ आदमी सहसा एक ऊंचाई पर स्थित हो जाता है। दूसरे को मुक्त करके स्वयं भी मुक्त हो जाता है।
हम लोगों ने कई साल साथ-साथ काम किया है। बातचीत के बहुत सूत्र थे। उनके बड़े भाई साहब तथा भाभी भी गपषप में षामिल हो गए। किसी बात पर ज़ोर का ठहाका लगा तो उनकी मां तेज़ी से भीतर आई, शायद पिछले बरामदे में धूप सेंक रही होंगी। उनकी कमर पूरी तरह झुक गई थी सो हमें देखने की जगह ज़मीन की ओर देखते हुए ही कमरे से होकर अगले बरामदे की ओर जाने लगीं। रंजन के भाई तत्परता से उठे - चाई जी (मां जी) बाहर जाना है ?“
-होर मेरे लिए थां कहां है ? इतना बड़ा घर था लाहौर में; यहां डब्बियों में बन्द कर दिया।“ उनकी पत्नी भी साथ ही उठ खड़ी हुई और मां जी को कन्धों से घेर कर फिर से पीछे के बरामदे तक ले जाने का प्रयास करने लगीं कि वह गुस्से से उनका हाथ झटकते हुए, धम्म से सोफे पर बैठ गईं। फिर लाठी पर काम्पते हाथों की पकड़ मजबूत करते हुए बोलीं - नहीं जाना मैंने बरामदे में। इथ्ये बैठना है।“ - लगभग पिच्चानवे साल की हैं यह। वैसे अभी भी ठीक हैं पर भूलने लगी हैं, खास तौर पर वर्तमान से जुड़े प्रसंग। ज़्यादातर अपने बचपन में रहती हैं ।“ रंजन ने बताया।
- यहीं बैठिए। आपका यह घर भी तो काफी बड़ा है मां जी। सुहास ने कहा तो नाराज़ हो गईं जैसे क्यूं झूठ बोलता है: बड़ी ज़मीन थी मेरे बाबूजी के पास। बहुत बड़ा मकान था हमारा लाहौर में। मेरी शादी भी बाबू जी ने वहीं की थी।“" किससे हुई थी आप की शादी ?“" किससे होणी थी, बाबूजी ने की थी। सुहास को सीधे देखते हुए बोलीं फिर सहसा अपनी सफेद सूती ओढनी आंखों पर रख कर धीरे-धीरे अजीब खाली सी आवाज़ में बोलीं - हाय किन्नी काली रात थी। बाबू जी ने बड़े लाट्टू लगाए थे पर असीं सब बुझा के बैठे थे। मेरा तां साह ही नही परतण च आया जब बूटों की आवाज आई । हमारे घर के पास बहुत बड़ा मकान था उनका। उन्होंने भी मुझे सूट दिया। गहने तो नहीं दित्ते, यह झूठ मैं नी बोलना। पर ट्रंक में डाल कर सूट दिया। लाल परांदा और चूड़ियां भी।“ "आप लाहौर से कब आईं ?"" उन्होंने भेज दित्ता। वही, बड़े मकान वालों ने। हम मंजों के नीचे छुप गए। वो हमारा सब कुछ ले गए। कुछ नहीं छड्डेया। जरा सी लो हुई तो, मकान वाले आए। मुंह ढक के निकले असी। वे हमें अमृतसर वाली गड्डी में बिठा के ही मुड़े। मुसलमान थे पर बड़े चंगे थे।” फिर वह रोने लग गईं। हम सभी का मन भर आया था।पूरियों पर आलू की सब्जी रख कर हमें खाने को दी टेषन पर लोगों ने। पर कुछ लोग वहां दहाड़ां मार कर रो रहे थे। बालते हैं गड्डी के इक डब्बे में लोथां सी,पता नहीं किदियां होण गियां,असी कब भरांगे उन्हां दा दित्ता। खाया है न, देणा तो होगा ही" "चाई जी आपका मायका कहां था, मतलब फिर किस गाँव में रहीं आप?”
तख़्तपुर में था। तैनूं नहीं पता। उत्थे एक बड्डी हवेली थी। साहड़े हिस्से में भी बथेरे कमरे थे। वैसे चाचे कोल ज्यादा थे, पर बथेरे थे। लाहौर में था बहुत बड्डा मकान। ज़मीन जायदाद वाले थे असी।“ उनकी बाते सुन रहे रंजन हंस पड़े - लाहौर में कोई अपना मकान या ज़मीन नहीं थी। हां सरकारी मकान ज़रूर अच्छा व खुला रहा होगा। स्टेशन मास्टर थे हमारे नाना जी। मुझे मां जी की बातों में मज़ा आ रहा था, तख्तपुर में और कौन कौन था घर में ?
"घर में कौण होता है ? मेरे भरा-बहन थे। मासी थी एक और उनका पुत्तर। सारा दिन कच्ची अम्मियां खाता रहता। बीमार पड़ गया तो मरने को हो गया पर बाबूजी दवाई ले आए लाहौर से।“ हंस पड़े सभी। घूम फिर कर लाहौर आ जाता है इनकी ज़वान पर। कोशिश करके भी वर्तमान की ज़मीन पर नहीं ला सके हम उन्हें। अगर पूछा आप के बेटे क्या करते हैं तो बोलीं - पढ़ते होंगे लाहौर में ।“ उन्हें देखते-सुनते हुए अपनी अम्मा याद आ गई मुझे। मैं उनकी कोई बात सुना रही थीं तो ज़ोर से बोलीं - इद्दर आ मेरे पास बैठ। मैंनू बता कौण थी तेरी मां ? तूने मेरी मां देखी है ? वह कहती थी कि जगदत्ता बड़ा बुरा आदमी है।
"जगदत्ता कौन चाई जी।" सुहास को उनकी बातों में बाबू जी के बाद आए इस नाम ने चौंकाया।- तू नहीं जाणता जगदत्ता को ?- कौण था वह चाई जी। तुहाड़ा की लगता था ?” रंजन की पत्नी ने पूछा। कोई पहली बार नहीं बता रहीं होंगी वह ये सब बातें। उन्हें ये सब प्रसंग शब्द-शब्द पता होंगे। पर वह जानती थी। कि चाई जी को बातें करना अच्छा लगता है और हम षैाक से उनकी बातें सुन रहे हैं तो वह सहज उत्साहित हो उठीं थीं।
- मेरा कुछ नी लगता था। परलेआं दा पु़त्तर था। बड़ा कुकर्म कित्ता उसने। हमारी चुनिया रंगने वाले रफ़ीक अते उसके प¬ुत्तर को मारते पिटते ले गया और कुंऐ में धकेल दिया सुख्खा कुँआ था। अपणे साथ इक होर को भी लाया, कुंए में सूखी घास फैंकी और अग्ग लगा दी ,हाय राम बड़ा कुकर्म कित्ता। मेरी मां बोलती थी राम जी उसका भला नहीं करनगे। सहसा वह ऊंचे-ऊंचे चिल्लाने लगीं - तेरा बेड़ा गर्क हो जगदत्ता “ चुप होकर, धीरे- धीरे सुबकने लगी वह। उनके आंसू पोंछते पोंछते मैं भी रो पड़ी। सभी उदास थे। रंजन के भाई साहब ने बताया कि यह जगदत्त शर्मा की बात कर रहीं हैं। मशहूर आदमी थे। विधायक बने, मंत्री भी रहे। आजकल दिल्ली में हैं।“
उनके घर से चलते हुए रोती हुई चाई जी के हाथों को माथे से छुआते हुए मैंने सोचा कि पूछूं,आप जैसों का एक ही वोट क्यों होता है? प्रार्थना में बुदबुदाई मैं ,ऐसी सच्ची सुथरी संवेदनाओं को हमारे बीच रखा विधाता! इन्हीं में तो है बल्कि यही तो है मेरा भारत।