कहाँ मिलेगी माँ? / धनेन्द्र "प्रवाही"
बहू अपने कमरे में दर्द और बुखार से कराह रही थी। तीसरी बार उसका भ्रूण वध हुआ था। हत्यारिन दाई ऐसी जालिम कि खुद औरत हो कर भी औरतों के जी को कभी जी नहीं समझती थी।जैसे भी हो, नोच चोथ कर भी मादा भ्रूण को गर्भ से बहार निकाल फेंकना ही उसका पेशा था।
इस बार सास और पति के इशारे पर जान बूझ कर असुरक्षित तरीका अपनाया गया था। ताकि बहू इन्फेक्शन या किसी जानलेवा बीमारी की चपेट में आ कर चल बसे और दूसरी पतोहू लाने का रास्ता साफ़ हो जाए।
अब इसे कन्या भ्रूण ह्त्या का पुण्य फल कहें या और कुछ! दूसरे ही दिन घर की गाभिन गाय ने पहली ही ब्यान में बछिया दे दी।"......पशू को बेटी " और क्या चाहिए?
सभी खुश थे।
परंपरा अनुसार गाय के खुर धोये गए।माथे पर घी सिंदूर टिक कर गले में फूल माला पहनाई गयी।
सासु माँ गाय के आगे हाथ जोड़ रही थी-
"हमारे खानदान में भी एक गोपाल दे दो माता। हमारे एकलौते बेटे को भी बेटा दे दो माँ।"
इस तरह गिड़गिडाती हुई वह नवजात बछिया को पुचकारने के लिए जैसे ही झुकने लगी कि गाय भड़क गयी।
उसके नुकीले सिंग से उन्हें चेहरे पर जो चोट लगी उससे लहू बहने लगा।
निकट ही खड़े उनके आज्ञाकारी सपूत खुद को बचाने में ऐसे गिरे कि कलाइयों से नीचे उनके दोनों हाथ झूल गए।
माँ बेटा जमीन पर गिरकर भय और दर्द से छटपटाने और कराहने लगे।
दुर्बलतन बहू खिड़की के पतले परदे के पीछे से सब कुछ देख सुन रही थी।
अपनी बेटियों के क्रूर हत्यारों को तड़पते देखकर उसका चेहरा कठोर हो गया।
गाय अभी गुस्से में उन दोनों पर फों-फों कर रही थी।उसकी ओर देखती बहू खुद को धिक्कार उठी -
"तू तो इस मूक पशु से भी गयी बीती है री औरत!अपनी कोख को दरिंदो से नुचवाने के लिए खुद बिछ जाती है।
तू माँ बनेगी... बेटी की माँ... माँ...!!!