कहानी-कला / शिवपूजन सहाय
साहित्य का एक प्रमुख और ललित अंग है कहानी। देश के कलाकारों का वृहत्तर भाग इसी अंग की परिपुष्टि में लगा रहता है। संसार की सभी समृद्ध भाषाओं के साहित्य में कहानी की भरमार है। यद्यपि कहानी-कला कोई सरल कला नहीं, तथापि साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश कर नेवाले महत्त्वाकांक्षी लोग पहले इसी कला में अपने बूते की आजमाइश करते हैं, पीछे अभिलषित क्षेत्र में पदार्पण करते हैं। साहित्य के ऐसे महत्वपूर्ण अंग को अपनी परिभाषाओं की कमी नहीं है, किन्तु परिभाषाओं के सम्बन्ध में आलोचकों में मतभेद है। एक अंग्रेज विद्वान् का मत है कि “कहानी परम्परा-संबद्ध महत्त्वपूर्ण घटनाओं का क्रम है जो किसी परिणाम पर पहुंचता है।” पंडित भगवती प्रसाद वाजपेयी के अनुसार “छोटी कहानी जीवन के किसी एक अंग किंवा अवस्था का चित्रण है जिसके द्वारा एक ही प्रभाव या एक ही संवेदना की उत्पत्ति होती है।” ह्यू वाकर ने कहा है कि “जो कुछ मनुष्य करे वही कहानी है।” सूक्ष्मदर्शिता से विचारा जाय तो संसार के प्राणियों का जीवन स्वयं एक कहानी है। एटगर एलेन-पो ने कहानी की परिभाषा इस प्रकार दी है “कहानी एक वर्णनात्मक गद्य है जिसके पढ़ने में आधा घंटे से लेकर एक घंटे तक का समय लगता है। अर्थात् एक बैठक में पढ़ी जा सके वही कहानी है।”
कहानियों के विस्तार के संबंध में आलोचकों में विचार-विभेद है। किसी-किसी आलोचक के अनुसार कहानीकार को विस्तार-संबंधी पूर्ण स्वतंत्रता है, पर अधिकांश ऐसे ही आलोचक हैं जो कहानी को सीमित आकार देकर कलाकार की स्वच्छंदता नियंत्रित करना चाहते हैं। किन्तु कहानी की रोचकता इसके विस्तार पर भी आश्रित है, बशर्त लेखक की भाषा में कलात्मक चमत्कार हो, शैली में ललित अभिव्यंजनाएं हों, कथोपकथन में बाँकपन हो और चरित्र-चित्रण में मनोवैज्ञानिक सूझ की गहराई भी हो। हां, लम्बी कहानियों को देखकर कभी-कभी लोग इन्हें पढ़ने की कोशिश ही नहीं करते, और लम्बी कहानियां अधिकांश नीरस होती भी हैं; क्योंकि भावों और विचारों में ठोसपन नहीं रह पाता, वे बिखरे-बिखरे से जान पड़ते हैं। कहानीकार अनावश्यक विस्तार में उलझाकर अपने पाठक को कब तक उत्कंठित-उत्साहित रख सकता है? घटनाओं के वेग में, वर्णन-शैली और कथोपकथन में नीरसता एवं शिथिलता हुई कि पाठक की उत्सुकता भी सीमित हो जाती है, उसका सारा उत्साह अचानक शांत हो जाता है। इसलिए साधारणतया कहानियां ऐसी होनी चाहिए जो एक ही बैठक मैं, अधिक-से-अधिक एक-आध ही घंटे में, मनोयोग एवं आकर्षण के साथ पढ़ी जा सकें। कुछ कहानियां ऐसी भी हैं जो आकार-प्रकार में छोटे उपन्यास-जैसी लगती हैं, पर इनमें प्रायः कहानी के उस गुण का अभाव हुआ करता है, जिसके कारण वह जन-मन को सरस और उत्साह-परिप्लुत करती है।
कहानी और उपन्यास में काफी अन्तर है। कहानी जीवन के एक अंग अथवा अंश का सूख्म-रेखामय चित्रण करती है, उपन्यास समाज एवं जीवन का सांगोपांग चित्र उपस्थित करता है। उपन्यास के विस्तृत क्षेत्र में लम्बी और टेढ़ी पगडंडियों पर चलते-चलते जब औपन्यासिक श्रांत हो जाता है, तब किनारे के झुरमुटों की सौरभयुक्त छाया में कुछ देर बैठ विश्राम भी कर लेता है। वह नई-नई जगहों, नये-नये लोगों के दर्शन करता हुआ आगे बढ़ता है; इनसे परिचित होने में काफी समय बिताता है। पर कहानीकार को एक सीमित क्षेत्र में रहना पड़ता है, जिसकी चहारदीवारी वह लांघ नहीं सकता। एक कुशल नट की तरह अपने अंगों को बड़े कौशल से समेटकर उसे एक कुण्डली से बाहर निकलना पड़ता है। उसकी अनुभूतियों की अभिव्यक्तियां यदि ध्वन्यात्मक हों तो वह थोड़े में बहुत-कुछ कहने में समर्थ होकर फालतू विस्तार-दोष से बच सकता है। उसका एक-एक क्षण बहुमूल्य होता है, उसकी कला अनवच्छिन्न सतर्कता चाहती है। उसकी नजर हमेशा जासूसी होनी चाहिए। उसे एक-एक शब्द पर ध्यान देना पड़ता है। वह उपदेशक के मंच से लम्बे-लम्बे भाषण नहीं कर सकता, प्रकृति का विस्तारपूर्वक वर्णन नहीं कर सकता।
कहानी में किसी अनावश्यक प्रसंग की गुंजाइश नहीं होती। उसका प्रत्येक चरण उसके प्रधान उद्देश्य की पूर्ति की दिशा में (अग्रसर) होना चाहिए। कहानी का पहिया किसी एक ही तथ्य-के-धुरे पर घूमता है। उपन्यास भी निश्चित ध्येय से लिखा जाता है; पर उस ध्येय तक पहुंचते-पहुंचते औपनयासिक कई और तथ्यों का भी वर्णन कर देता है। कहानी में पात्रों और घटनाओं का बाहुल्य नहीं होता, होना भी नहीं चाहिए। इससे हमें किसी एक ही महत्त्वपूर्ण घटना का परिचय मिलता है। इसमें चरित्र-चित्रण विशद तो होता है, पर बहुत विस्तार से नहीं।
“उपन्यास में प्रत्येक पात्र के चरित्र पर घटनाओं ओर परिस्थितियों द्वारा इच्छानुकूल प्रकाश डाला जाता है। कहानी में पात्रों की अतिसमीपी परिस्थितियों का वर्णन हो सकता है; पर उपन्यास में केवल उस समय की परिस्थिति और उप-परिस्थितियों का ही वर्णन नहीं होता, बल्कि उस समय की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति की अंतरंग, बहिरंग, उलटी, सीधी और तिरछी लहरों का भी पूरा चित्र चित्रित किया जा सकता है।”
कथावस्तु अथवा कथानक ही कहानी का आधार होता है। कहानी की सम्पूर्ण रोचकता इसी कथावस्तु में अन्तर्भूत रहती है। इसके बिना कहानी निष्प्राण, नीरस लगती है। इसी के सौन्दर्य पर कहानी का समस्त सौन्दर्य आश्रित रहता है। इसलिए कथावस्तु के चुनाव में कहानीकार को बहुत सतर्क रहना पड़ता है। उसकी दृष्टि और भावना सर्वत्र खुली तथा सजग रहती है। घर में, बाजार में, यात्रा में, मेले-ठेले में, सभी लौकिक व्यवहारों और समस्त प्राणियों की प्रकृति एवं प्रवृत्ति में उसकी पैनी निगाह की पैठ होती है। जैसे मधुमक्षिका असंख्य फल-फूलों से रस-संचय करती है, वैसे ही वह भी जीवन के सभी क्षेत्रों और व्यवहारों से भाव ग्रहण करके अपनी कल्पना के मधुकोष में संचित करता है। यदि वह ऐसा सतर्क न रहे, उसकी कहानी को एक सुन्दर कथानक न मिले, तो उसकी कृति लोगों का मनोरंजन करने में विफल रहेगी। कथानक के लिए लेखक केवल ऐसी घटनाएं लेता है, जो सम्मिलित रूप् में उसका कोई निश्चित मंतव्य करने की क्षमता रखती हैं। मर्मस्पर्शिनी, चमत्कारपूर्ण, रोचक और भावोद्रेक करनेवाली घटनाओं से ही सुन्दर कथानक का निर्माण होता है।
चरित्र-चित्रण भी कहानी का एक अनिवार्य अंग है। सुन्दर चरित्र-चित्रण के कारण ही कुछ कहानियां हमारे मानस-लोक में अमर हो आती हैं। जब कोई पात्र अपने सद्गुणों के बल पर हमारी श्रद्धा और भक्ति का आलंबन बन जाता है। तब हम उसके दुख से दुखी और उसके सुख से सुखी होते हैं। पर ऐसा तभी होता है जब चरित्र-चित्रण उच्चकोटि का हो। इसके लिए लेखक को सतर्क रहना पड़ता है, उसे मनुष्य के अन्तस् में बैठकर उसकी मनोवृत्तियों की परीक्षा करनी पड़ती है। सफल कहानियों के पात्र अपनी-अपनी चारित्रिक विशिष्टता लिये हुए होते हैं, सजीव लगते और स्वाभाविक जान पड़ते हैं। मनुष्य अथवा पात्र-पात्रों में अतिशय देवत्व का आरोप कहानी की स्वाभाविकता को नष्ट कर देता है।
कथोपकथन पर भी कहानी की स्वाभाविकता और सुन्दरता आश्रित रहती है। सुन्दर कथोपथन चरित्र-चित्रण का एक प्रमुख साधन है। पात्रों के कथन से उनकी चरित्र-सम्बन्धी विशेषताएं झलक जाती हैं, और जब वे एक दूसरे के चरित्र पर परस्पर टीका-टिप्पणी करते हैं, तब तो उनका अन्तर-बाह्य बिलकुल स्पष्ट ही हो जाता है। कथोपकथन को स्वाभाविक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि पात्र अपने व्यक्तित्व और जीवन-स्तर के अनुकूल भाषा का प्रयोग करें। पात्रानुकूल भाषा कहानी की स्वाभाविकता में योग देती है और उसके सौन्दर्य की वृद्धि भी करती है।
कहानियों की सृष्टि पाठकों के मनोरंजन के लिए होती है। कहानी के रोचक होने पर पाठक उसमें इस तरह तल्लीन हो जाता है कि उसे आसपास की वस्तुओं का परिस्थितियों का ज्ञान नहीं रह जाता। जब वह कहानी पढ़ने में सर्वथा डूब जाता है, तब उसे कोई अवरोध नहीं सुहाता, वह चाहता है कि कहानी एक ही बैठक में निर्विध्न समाप्त हो जाय। लोग शब्दकोश अथवा सहायक ग्रंथों को पास रखकर कहानियां नहीं पढ़ते; इसलिए इनकी भाषा सरल और रुचिकर होनी चाहिये। लेखक को अपनी गूढ़-से-गूढ़ भावनाओं को खूब स्पष्ट और रोचक ढंग से व्यक्त करना चाहिए।
“कहानी की सुन्दरता, आकर्षण तथा सफलता में लेखक की वर्णन-शैली बहुत-कुछ सहयोग देती है। सफल शैली वही है जिसके कारण कहानी में रोचकता आवे, विशेषता आवे, चमत्कार दिखाई पड़े और कहानी की सफलता निर्विवाद हो जाय।”
हिन्दी की सबसे पहली सैयद इंशाअल्ला खां की ‘रानी केतकी की कहानी’ है, जिसका रचना-काल सन् 1803 ई. के आसपास माना गया है। मुसलमान लेखक की यह कृति हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी है। इसकी मौलिकता और चुलबुली-चटकीली भाषा ने बहुतों को कहानी की ओर आकृष्ट किया। इसके बाद ‘राजा भोज का सपना’ दूसरी मौलिक कहानी है जिसके लेखक राजा शिवप्रसाद ‘सितारेहिन्द’ हैं। इन कहानियों के अतिरिक्त उन्नीसवीं सदी में कहानियों का सूत्र लगातार नहीं मिलता। यद्यपि ‘बैतालपचीसी’, ‘सिहासनबत्तीसी’ आदि जैसी कथा-पुस्तकों का क्रम चलता रहा, तथापि इस सदी में हिन्दी-कथा-साहित्य उन्नति न कर सका। यहां तक कि बीसवीं सदी शुरू होने पर भी मौलिक कहानियां कम ही लिखी गईं। हां, अनूदित कहानियां बाढ़ के वेग से निकल पड़ीं।
भारतेन्दुजी ने भी कहानी-कला को एक नयी दिशा प्रदान की। इनकी पहली कहानी थी ‘एक कहानी कुछ आप-बीती कुछ जग-बीती’ जो अधूरी रह गयी। इस दिशा में गिरिजा कुमार घोष की भी सेवा उल्लेखनीय है।
सन् 1900 ई. में उधर ‘सरस्वती’ पत्रिका का प्रकाशन प्रयाग से आरम्भ हुआ, इधर कहानियों का भाग्य चमक उठा। उसी साल पं. किशोरीलाल गोस्वामी की ‘इन्दुमती’ शीर्षक मौलिक कहानी उक्त पत्रिका में प्रकाशित हुई। इसके दो-तीन साल बाद लाला पार्वतीनन्दन के नाम से बाबू गिरिजा कुमार घोष और पं. रामचन्द्र शुक्ल तथा श्रीमती बंगमहिला ने भी उत्तम मौलिक कहानियां ‘सरस्वती’ में ही लिखीं। आगे चलकर पं. ज्वालादत्त शर्मा, पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, पं. विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ और स्वामी सत्यदेव की कहानियां भी इसमें प्रकाशित होती रहीं। ‘सरस्वती’ की कहानियों को लोग बड़े चाव से पढ़ने लगेः उसके कर्मठ संपाद पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कई लेखकों को कहानी लिखने के लिए उत्साहित किया।
सन् 1906 ई. की ‘सरस्वती’ के एक अंक में आचार्य रामचंद्र शुक्ल की एक मौलिक कहानी ‘ग्यारह बजे का समय’ नाम से प्रकाशित हुई थी। इसके बाद पत्र-पत्रिकाओं में कहानियों की बाढ़-सी आ गयी। कुछ लेखकों ने कथा-साहित्य को नयी सूझ और नयी शैली दी।
सन् 1910 में काशी से ‘इन्दु’ के प्रकाशित होते ही हिन्दी में मौलिक कहानियाँ जोर-शोर से लिखी जाने लगीं। सन् 1911 ई. में बाबू जयशंकर ‘प्रसाद’ की पहली कहानी ‘आम’ इसी में प्रकाशित हुई। सन् 1913 ई. में सूर्यपुरा के राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह की ‘कानों में कँगना’ शीर्षक भावुकतापूर्ण कहानी भी इसी में छपी। पं. विश्वम्भरनाथ जिज्जा की ‘परदेसी’ शीर्षक कहानी भी लोगों को खूब पसन्द आई।
‘प्रसाद’ जी और राजासाहब तथा ‘कौशिक’ जी का हिन्दी-कहानी-लेखकों में प्रमुख स्थान है; क्योंकि मौलिक कहानियों के विकास-युग के आरम्भ का संकेत इन्हीं के प्रतिभा-प्रसाद से मिलता है। ‘प्रसाद’ जी की भाषा संस्कृतगर्भित है। उनकी कहानियों में कल्पना और भावुकता की प्रचुरता है, शैली कवित्वपूर्ण है। यथार्थवादी होते हुए भी वे भावुक अधिक हैं। वे नाटककार हैं, इसी कारण उनके कथोपकथन में आवेग एवं उत्कर्ष है। उनकी कला की विशेषता यही है कि वे पाठकों के मन के सूक्ष्म-से-सूक्ष्म भावों को जगाते हुए चलते हैं, और अन्त में उन्हें ऐसे सथान पर छोड़ते हैं जहां वे एक कसक लिये बेसुध पड़े रह जाते हैं। उनकी कहानियों का आरम्भ भी चित्ताकर्षक और अन्ततः अपने ढंग का निराला होता है “भावपूर्ण, ध्वन्यात्मक, और सहसा प्ए़ने के बाद पाठक का मन झकझोर उठता हैं।”
हिन्दी के कहानी-लेखकों में भावव्यंजक एवं हृदयग्राही कथोपकथन लिखने के कौशल में ‘कौशिक’ जी का नाम अमर है। उसकी कहानियां रोचक, सोद्देश्य और सर्वप्रिय हैं। उन्होंने भारतीय गार्हस्थ्य-जीवन के बड़े सुन्दर चित्रा अंकित किए हैं। उनकी भाषा मँजी हुई और स्वाभाविक तथा सुन्दर है। ‘चित्रशाला’, ‘गल्प-मन्दिर’, और ‘प्रेम-प्रतिमा’ उनकी कहानियों के संग्रह हैं।
राजासाहब “हिन्दी के एक अत्यन्त भावुक और भाषा की शक्तियों पर अभ्दुत अधिकार रखनेवाले” यशस्वी कथाकार हैं। उनकी कहानियां बड़ी सजीव और सलोनी हैं। उनमें कहानी-लेखक के गुण उत्तरोत्तर विकसित होते गए और आज हम उन्हें एक सफल कहानीकार के रूप में जानते हैं। वे अपनी फड़कती हुई लोचदार भाषा के लिए प्रसिद्ध हैं। अंग्रेजी, फारसी और उर्दू के शब्दों का वे जिस कौशल से प्रयोग करते हैं, उससे उनकी भाषा चमक उठती है। उनकी भाषा में मुहावरों की बन्दिश और चरित्र-चित्रण में अन्तर्द्वन्द्व-प्रदर्शन से कहानियों में मनोवैज्ञानिकता आ जाती है। ‘गल्पकुसुमावली’, ‘नवजीवन-प्रेमलहरी’, ‘तरंग’, ‘गांधी-टोपी’, ‘सावनी-समां’, ‘पुरुष और नारी’, ‘सूरदास’, ‘टूटा तारा’, ‘संस्कार’, ‘राम-रहीम,, ‘नारी क्या-एक पहेली’, ‘देव और दानव’, ‘हवेली और झोपड़ी’, ‘पूरब और पच्छिम’, ‘वे और हम’, ‘चुम्बन और चांटा’ आदि उनकी प्रसिद्ध रचनाएं हैं।
सन् 1914 ई. में श्रीचतुरसेन शास्त्री की पहली कहानी ‘गृह-लक्ष्मी’ प्रकाशित हुई। शास्त्रीजी एक उच्चकोटि के कहानी-लेखक थे। इनकी भाषा-शैली सफल कथाकार की मँजी शैली है। ऐतिहासिक कहानियों की रचना में ये सिद्धहस्त थे। इनकी ‘दे खुदा की राह पर’, ‘दुखवा मैं कासे कहूं मेरी सजनी’, ‘पानवाली’ आदि कहानियां हिन्दी-साहित्य में विख्यात हैं।
सन् 1916 ई. में प्रेमचन्दजी की पहली कहानी ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुई। पहले ये उर्दू में लिखा करते थे। जब इनकी कहानियां हिन्दी-संसार के सम्मुख आईं तब लोगों ने बड़े उत्साह से इनका स्वागत किया। आज भी ये हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कहानी-लेखक माने जाते हैं। इनकी रचना के अपने अनेक गुण हैं जो अन्यन्त्र नहीं मिलते। ग्रामीण जीवन का जैसा मर्मस्पर्शी चित्र इनकी कहानियों में मिलता है, वैसा बहुत कम देखा जाता है। मानव-स्वभाव के मार्मिक और सुन्दर चित्र अंकित करने में इन्होंने अपूर्व कला-कुशलता दिखाई है। पुरुष और नारी के हृदय के इतने अधिक रंग-बिरंगे चित्र इनकी रचनाओं में मिलते हैं कि जगत् और जीवन के सुविस्तृत क्षेत्रों में इनकी प्रतिभा की सूक्ष्म दृष्टि का व्यापक प्रसाद दीख पड़ता है। इनकी कहानियां पढ़ने के अनन्तर मनुष्य पर हमारी श्रद्धा बढ़ जाती है। इनकी भाषा भी ग्रामीण जीवन-सी सीधी-सादी है हिन्दी-उर्दू के सम्मिश्रण से बनी हुई। इनमें जटिलता और दुर्बोधता की कोई गुंजाइश नहीं है। भाषा भी काफी मुहावरेदार है। समाज के सभी वर्गों से इन्होंने अपने पात्र चुने हैं, तथा पात्र और प्रसंग के अनुकूल ही भाषा भी रखी है। ‘सप्त सरोज’, ‘नवनिधि’, ‘प्रेम-पूर्णिमा’, ‘मानसरोवर’ ‘सप्त सुमन’ आदि इनकी कहानियों के संग्रह हैं। इनमें लगभग ढाई-तीन सौ कहानियां संगृहीत हैं। इनके उपन्यास जैसे अपने युग के दर्पण हैं, वैसे ही इनकी कहानियां भी समाज की अन्तर्दशा की द्योतिका हैं।
सुदर्शनजी की पहली कहानी 1920 ई. में प्रकाशित हुई। प्रेमचन्द की तरह ये भी पहले उर्दू में लिखते थे। ये भी हिन्दी के अमर कहानी लेखकों में हैं। इनकी भाषा अत्यन्त रोचक, हिन्दी-उर्दू के संयोग से बनी हुई, चुस्त और भावमयी होती है। चरित्रा-चित्रण में प्रेमचन्दजी की तरह इन्हें भी अभ्दुत कौशल प्राप्त है। कथानक के चुनाव में इनकी भी बड़ी पैनी दृष्टि है। ‘कवि की स्त्री’, ‘एथेंस का सत्यार्थी’, ‘अंधेर’, ‘एक स्त्राी की डायरी’, आदि कहानियां हिन्दी की अमूल्य निधि हैं। ‘सुदर्शन-सुधा’, ‘तीर्थयात्रा’, ‘सुप्रभात’, ‘पनघट’, ‘प्योद’ आदि इनकी कहानियों के सुन्दर संग्रह हैं। ये नाटककार भी हैं।
हिन्दी-साहित्य में पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की एक अपनी निराली ही ठसक है। शैली में भला कोई इनसे टक्कर तो ले। इनकी भाषा-शैली में ही इनकी समस्त प्रतिभा चमकती हुई दिखाई पड़ती है। इनकी गङ्गा-जमुनी भाषा अपना सानी नहीं रखती। यदि इनकी कहानियों का कुछ दोष है तो इनकी अतिशय यथार्थवादिता। ये निर्भीय एवं साहसी यथार्थवादी हैं पूरे और सच्चे यथार्थवादी। कहीं-कहीं इनकी यथार्थवादिता का प्रत्यक्ष रूप देखकर इनकी उन्मुक्त प्रतिभा की स्वच्छन्दता पर चकित-स्तब्ध रह जाना पड़ता है। चुभते हास्य और व्यंग्य का पुट भी इनके वर्णनोें में मिलता है। दो-टूक बात कहकर समाज की नस पर चोट करने में ये सिद्धहस्त हैं।
श्रीजैनेन्द्र कुमार की कहानियां अनेक प्रकार की हैं। जीवन के सभी क्षेत्रों के इन्होंने अपनाया है। इनका कथानक सुलझा हुआ और अत्यन्त मनोज्ञ होता है। इनकी भाषा की सरल गति बड़ी सुहावनी होती है। ‘प्रसाद’ और ‘प्रेमचन्द’ की रचनाओं की तरह उसमें भी कहीं-कहीं सूक्तियां अच्छी मिल जाती हैं। वर्णनशैली में प्रवाह भी होता है। किन्तु कहने के ढंग की भंगी ऐसी विलक्षण हो जाती है कि सूक्ष्मदर्शी या चिन्तनशील पाठक ही अन्त तक इनके साथ निबह सकता है। ये अपनी “कहानियों में अपने दार्शनिक ज्ञान के बारीक विश्लेषण का मोह नहीं छोड़ सकते, और इनका यही मोह इनकी कितनी ही कहानियों को जन-साधारण के लिए एक पहेली बना देता है। दर्शनज्ञान की इस माया ने इन पर ऐसा जादू डाला है कि इनकी हर कहानी, कहानी के बजाय, दार्शनिक प्रवचन-सी दुरूह हो पड़ती है।” हां, इनकी कहानियों में मनोवैज्ञानिक संकेत बड़े मार्के के और अनूठे मिलते हैं।
हिन्दी के अन्यान्य कथाकारों में जो हमारा ध्यान बरबस आकृष्ट करते हैं, उनमें पं. भगवती प्रसाद वाजपेयी, श्रीअज्ञेय, पं. विनोदशंकर व्यास, श्रीबेनीपुरी और पं. जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। वाजपेयीजी पुराने कहानी-लेखक हैं और सामाजिक कहानियां बहुत अच्छी लिखते हैं इनकी शैली चुस्त, अभिव्यक्ति सरल और मर्मस्पर्शिनी होती है। ये मानव-स्वभाव का सजीव, स्वाभाविक और मनोरम चित्रा खींचने में सिद्धहस्त हैं। ‘अज्ञेय’ जी की कला में वक्रता और शक्ति है। इनके हृदय में जो अग्नि प्रज्वलित है, उसी की ज्वाला इनकी कला में भी झलक जाती है। इन्होंने नवीन पाश्चात्य कथा-शैली को अपनाया है। उसकी स्पष्ट छाया ‘प्रतिध्वनियों’, और ‘कड़ियां’ शीर्षक कहानियों में हैं। व्यासजी बड़े भावुक कहानी-लेखक हैं। इनकी कहानियों से हृदय पर मीठी चोट लगती है। इनमें समाज-सुधार की कोई धुन नहीं, इसलिए इनकी कहानियां किसी सिद्धान्त पर आश्रित नहीं होतीं इनकी भाषा सुबोध, भाव-व्यंजक तथा प्रभावोत्पादक होती है।
बेनीपुरीजी की कहानियों का आधार कठोर वास्तविकता है इनकी भाषाशैली अत्यन्त हृदयग्राहिणी और चित्रमय होती है समाज के संतप्त वर्ग के लिए इनके हृदय में जो अथाह सहानुभूति है उसके चिह्न इनकी कहानियों में भी वर्तमान हैं। जब ये किसी पात्र-विशेष के व्यक्तित्व अथवा चरित्र का वर्णन करने लगते हैं तब उस पात्र का यथावत् चित्र ही अंकित कर देते हैं, वह पात्र हमारे मानस-लोक में घूमने लगता है। ‘द्विज’ जी के भाव अत्यन्त मार्मिक और कारुणिक, भाषा मधुर और ओजस्विनी, शैली प्रसादमयी और साहित्यिक, लालित्य से अनुरंजित, तथा चरित्र-चित्रण में त्यागमयी सेवा और निष्कलंक प्रेम की झलक होती है। ये बड़े संवेदनशील कहानी-लेखक और भावुक कवि भी हैं।
हिन्दी के कतिपय प्रतिनिधि कहानी-लेखकों की चर्चा तो हुई; पर यह न समझना चाहिए कि बस इतने ही कलाकार, हिन्दी में, कहानियों के कुशल स्रष्टा हैं। यदि प्रमुख कहानीकारों के भी नाम यहां गिनाये जायं तो बहुत बड़ी तालिका तैयार हो जायगी। तब भी महाकवि ‘निराला’, आचार्य नलिनविलोचन शर्मा, डॉक्टर दिवाकर प्रसाद विद्यार्थी, श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान आदि के नाम सादर स्मरणीय हैं। कहानी का क्षेत्र जिनसे उर्वर और हरा-भरा हुआ है उनमें रायकृष्णदासजी, पं. इलाचंद्र जोशी, श्रीभगवतीचरण वर्मा, श्रीमती उषादेवी मित्रा, श्रीअनूपलाल मंडल, आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री, श्रीराधाकृष्ण जी, श्रीविश्वमोहन कुमार सिंह, श्री राधाकृष्ण प्रसाद आदि के नाम भी विशेष उल्लेखनीय हैं। हिन्दी में हास्यरस की कहानियां लिखकर श्रीकृष्णदेव प्रसाद गौड़ ‘बेढब बनारसी’, श्रीअन्नपूर्णानन्दजी, श्री जी.पी. श्रीवास्तव आदि हिनदीजगत् में पर्याप्त प्रसिद्धि पा चुके हैं। आज के कहानी-क्षेत्र में लेखकों और उनकी कृतियों की बाढ़-सी आ गई है, जिसे हम हिन्दी-साहित्य के लिए परम सौभाग्य की बात कह सकते हैं, और साथ-ही-साथ इसके दुर्भाग्य का लक्षण भी; क्योंकि कुछ लोग तो हिन्दी में कहानी-रचना को सुगम समझकर अनधिकार चेष्टा कर रहे हैं, जिससे भाषा की मर्यादा तो भंग होती ही है, साहित्य की पवित्रता और प्रतिष्ठा को भी धक्का पहुंचता है। हां, कुछ प्रतिभासम्पन्न कहानीकार, साहित्य-सेवा की परम विशद भावना से प्रेरित हो, कहानियों की सृष्टि कर रहे हैं। उनकी रचनाओं में वर्त्तमान युग की विविध प्रवृत्तियों और विचारधाराओं के दर्शन हो रहे हैं। और, उन्हीं की रचनाओं से हिन्दी का कथा-साहित्य रमणीय बन रहा है तथा आगे भी बन सकेगा।