कहानी: एक शुद्ध विधा / निर्मल वर्मा
पिछले वर्षों में साहित्यिक विधाओं के भीतर एक अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ है। पहले जो विधाएँ अपने को आत्म-केंद्रित दायरों में सुरक्षित रखती थीं, अब वे धीरे-धीरे अपनी हदों का अतिक्रमण करके दूसरी विधाओं में प्रवेश करने लगी हैं। उन्होंने अपने बंद दरवाजों को खोल कर न केवल बाहर झाँका है, बल्कि अपनी देहरी को लाँघ कर दूसरी विधाओं के संसार में विचरने की उन्मुक्तता दिखाई है। अब वे मुक्त रूप से एक-दूसरे से घुलती-मिलती हैं। पत्रकारिता का प्रवेश साहित्य में होता है। आँखों-देखी रिपोर्ताज कहानी की विधा में स्फूर्त होती है और जब कभी इन 'संभोगी' प्रयासों से किसी नई किंतु अशुद्ध और मिश्रित विधा का जन्म होता है (जैसे - नोबोकोव का उपन्यास ‘पेलफायर’ या मेलर का आत्मपरक रिपोर्ताज ‘आर्मीज ऑव द नाइट’) तो उन्हें पढ़ कर हमारे भीतर जो प्रतिक्रिया होती है उसे हम आसानी से अब तक की परंपरागत, साहित्यिक विधाओं में परिभाषित या विभाजित नहीं कर सकते। कोई साहित्यिक विधा अखंडित रूप से शुद्ध और पवित्र हो सकती है, इस बात में एक ऐसी धार्मिक शुद्धता का धूप-कपूर में रचा-बसा वातावरण याद हो आता है जिसके भीतर मलार्मे जैसे कवि तो फल-फूल सकते हैं, लेकिन मेलर जैसे बहुमुखी कथाकार जरूर मुरझा जाएँगे। जहाँ तक गद्य का प्रश्न है, हम उत्तरोत्तर एक ऐसी स्थिति में पहुँच गए हैं जहाँ साहित्यिक विधाएँ अपनी संकीर्ण लक्ष्मण रेखाओं से उठ कर खुली हवा में एक-दूसरे के साथ मिलने-जुलने लगी हैं। किंतु यह भी सच है कि यदि विधाओं की सीमाएँ धुँधली पड़ गई हैं तो भी इसके बावजूद कहानी, कविता और उपन्यास के बीच अंतर अब भी कायम है। विभिन्न विधाओं के ढाँचे जरूर ढीले पड़ गए हों, लेकिन वे विघटित नहीं हुए हैं। कहानी सिर्फ इसीलिए कम कहानी या अकहानी नहीं हो जाती, यदि उसने कथा कहने की अपनी पुरानी विधि को त्याग दिया है। एक काव्यात्मक रूपक कथा के समूचे लैंडस्केप को अपनी नोंक से बींध सकता है और कोई बिंब बार-बार हाँट करता हुआ, अपने को दोहराता हुआ कथा की परंपरागत शैली को तोड़ कर घटना के क्रम को एक नया अर्थ दे सकता है।
किंतु कहानी का बिंब या रूपक अपनी अर्थवत्ता किसी देह के भीतर ही उपलब्ध कर सकते हैं - गद्य की देह के भीतर। किंतु इसका उल्टा भी हो सकता है - कोई कविता किसी कहानी में आकार ले सकती है - पुश्किन की लंबी कविता 'यूजिन ऑनेगिन' इसकी मिसाल है - किंतु यहाँ कहानी की घटनाएँ केवल उस देह में स्फूर्त होती हैं, जो कविता ने उन्हें दी है, इसलिए यहाँ रचना का अंतिम और चरम अनुभव कहानी की घटनाओं के बावजूद केवल कविता में ही अनावृत्त होता है। अत: साहित्यिक विधाओं का चयन स्वेच्छाचारी ढंग से नहीं हो सकता, वह अनुभव की प्रकृति में ही निहित होता है। कोई लेखक अपने अनुभव को एक विधा से दूसरी विधा में अपनी मन-मरजी से स्थानांतरित नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसा करने से अनुभव का जीवंत स्फुरण ही नष्ट हो जाएगा। यह बात दूसरी है कि एक बार मर जाने के बाद कोई भी अनुभव किसी भी विधा में रूपायित किया जा सकता है - नाटक में, कविता में या कहानी में; किंतु तब वह एक मृत नाटक होगा, एक मृत कविता और एक मृतक कहानी। ऐसा कभी नहीं होता कि लेखक कुछ अनुभव करे और फिर उस अनुभव को किसी कलात्मक फॉर्म में रूपायित करे, उलटे होता यह है कि स्वयं अनुभव अपने फॉर्म के साथ उपस्थित होता है। लेखक अपने अनुभव का फॉर्म नहीं चुनता, अनुभव एक खास फॉर्म में ही लेखक के भीतर उदित होता है, इसलिए हम यह नहीं कह सकते कि किसी अनुभव को कहानी में पकड़ा गया है - कला में 'पकड़ा' कुछ भी नहीं जाता - यह ज्यादा सही होगा कि अमुक अनुभव केवल कहानी में ही, कहानी के फॉर्म में ही रूपायित हो सकता था - अन्य किसी फॉर्म में नहीं। हम कहानी को शब्दों में पढ़ते हैं, किंतु क्या ये वही शब्द हैं जो हम किसी कविता या अखबारी रपट में पढ़ते हैं? अखबारी रपट के शब्द सिर्फ माध्यम हैं, वे हमें दुनिया और लोगों के बारे में सूचना देते हैं। एक बार सूचना पढ़ लेने के बाद उसके शब्द अपना समूचा अर्थ खर्च कर देते हैं, खाली हो जाते हैं। कविता में शब्द अपेक्षाकृत अधिक स्वायत्त होते हैं। शब्द के अर्थ किसी बाहरी माध्यम को पूरा नहीं करते, वे शब्द की आत्म-केंद्रित इकाइयों में ही अंतर्निहित होते हैं; किंतु कहानी में शब्द न सिर्फ रपट की तरह माध्यम होते हैं, न किसी की तरह स्वायत्त होते हैं। उनके भीतर एक तनाव भरी चमक रहती है। एक कहानी बाहर की दुनिया की रपट को अपने सत्य की भाषा में परिणत करती है। जिंदगी और कला के बीच मँडराते हुए कहानी का सत्य शब्द में बिंधा रहता है और यही शब्द वाक्यों में बिंधे रहते हैं, और एक वाक्य दूसरे वाक्य की तरफ जाता हुआ एक ऐसा जाल बुनता है जिसमें जीवन की धड़कन को फाँस लिया जाता है, किंतु एक लेखक मकड़ी नहीं है जो जिंदगी को मक्खी की तरह बाहर से पकड़ कर भीतर लाता है, बल्कि वाक्यों के बनने के साथ-साथ कहानी का सत्य उद्घाटित होता रहता है और जाले में जो जीवन पकड़ा जाता है वह उन रेशों से अलग नहीं होता जिनसे जाला बुना जाता है। कहानी की कला में हम मक्खी को जाले से अलग नहीं कर सकते, जिस तरह हम उसकी फॉर्म को उसके कथ्य से अलग नहीं कर सकते; दोनों अविच्छिन्न हैं। अत: किसी कला-विधा की पवित्रता वास्तव में वह फॉर्म या रूप है जिसमें लेखक का समूचा दर्शन, स्वप्नजगत और कथ्य समाहित हो जाता है। कहानी का कथ्य छोटा या बड़ा किया जा सकता है, किंतु जिस फॉर्म में कहानी ने अपना रूप और सत्य ग्रहण किया है वह अपनी विशिष्टता में अद्वितीय है और किसी भी हेर-फेर की अपेक्षा नहीं करता। चेखव की कहानी का अंदरूनी और अंतिम अनुभव इसमें निहित नहीं है कि कहानी क्या कहती है, क्योंकि कहानी में जो कहा गया है वह कमोबेश अलग-अलग ढंग से चेखव के अनेक समकालीन लेखकों ने व्यक्त किया था; अगर चेखव की कहानियाँ एक अनोखे ढंग से अपनी स्मृति की छाप हम पर छोड़ जाती हैं, तो अपनी सघन प्राज्ज्वलता के कारण, जिसके होते लगता है कि हम उनकी कहानियों में जीवन के हाड़-मांस को छू रहे हैं, जबकि वास्तव में हम छू रहे होते हैं सिर्फ - उनके गद्य की देह-मज्जा को। यहाँ शब्दों का इस्तेमाल न आत्मकेंद्रित इकाइयों के रूप में होता है और न ही सूचना देने के माध्यम के रूप में; वे केवल एक विस्तार रचते हैं जिसमें होता सबकुछ है लेकिन व्याख्यायित कुछ भी नहीं किया जाता। कथ्यात्मक गद्य की यह विशुद्धता उस समय प्रगट हुई थी जब कहानी का विकास एक स्वायत्त सत्ता के रूप में हो चुका था। कहानी को अपने आधुनिक रूप में विकसित होने के लिए छापेखाने की प्रतीक्षा करनी पड़ी ताकि पत्र-पत्रिकाओं में उसे एक के बाद स्वतंत्र रूप में प्रकाशित किया जा सके। यह नहीं कि कहानियाँ पहले नहीं लिखी जाती थीं, किंतु पहले वे नीति-कथाओं (पंचतंत्र) या रोमांचकारी किस्सों (अरेबियन नाइट्स) या पौराणिक कथाओं की हैसियत से प्रचलित थीं। कमोबेश वे एक मौखिक परंपरा के भीतर आती थीं जहाँ कहानी-किस्सों को किसी संप्रदाय के सदस्यों को सुनाया जाता था, जिनके अनुभवों और स्मृतियों का एक सामान्य केंद्र बिंदु (पॉइंट ऑव् रेफरेंस) हुआ करता था। शायद कथा-वाचक का नाम भी कोई नहीं जानता था, कम-से-कम महत्वपूर्ण नहीं था, क्योंकि वह श्रोता-समूह का ही अभिन्न अंग था और जो कहानियाँ वह उन्हें सुनाता था वे कथा-वाचक और श्रोताओं, दोनों की ही स्मृतियों में साझा करती थीं। किंतु आज हम जिस विधा को आधुनिक कहानी के रूप में जानते हैं वह पुरानी कथाओं से केवल इसलिए भिन्न नहीं हैं कि वह अब मुद्रित होती है, सुनी नहीं जाती, किंतु एक-दूसरे बुनियादी अर्थ में भी वह उनसे अलग है: आधुनिक युग तक आते-आते कहानी अपनी सामूहिक स्मृतियों के परिवार से बाहर निकल कर धीरे-धीरे एक व्यक्ति की निजी और प्रायवेट कल्पना को उद्घाटित करने लगी। अब उसकी जड़ें एक लेखक की निजी चेतना में रहती हैं और इस वैयक्तिक चेतना के हस्ताक्षर कहानी पर अंकित रहते हैं। कहानी के विकास में यह एक महत्वपूर्ण मंजिल मानी जाएगी कि जिस दिन कहानी स्वायत्त रूप से प्रौढ़ बनी, उस दिन उसने अपने-आपको स्थानीय विचित्रताओं से भी मुक्त कर लिया; कहानी की आधुनिकता ही उसकी सार्वभौमिकता भी बन गई। यह महज एक संयोग नहीं था कि पेरिस में बैठे हुए कवि बॉदलेयर, एक सुदूर अमेरिकी लेखक, एडगर ऐलन पो की अद्भुत, दु:स्वप्नीय कहानियों से इतना अभिभूत हो गए थे। आज हम जिसे 'तीसरी दुनिया' कहते हैं, स्वयं उसके लेखक भी आधुनिक कहानी के इस सार्वभौमिक प्रभाव से अछूते नहीं रह सके। हमारी शताब्दी के दूसरे शतक में स्वयं प्रेमचंद यूरोप के कथा-साहित्य को, विशेषकर रूस के उन्नीसवीं शताब्दी के कहानीकारों, लेखकों को बड़ी तृष्णा और लालसा से पढ़ते थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि आधुनिक कहानी को स्वायत्त और सार्वभौमिक बनाने का श्रेय सीधा-सीधा उपन्यास को जाता है, जिसने अपने विकास के आरंभिक चरण में कथ्यात्मक विधाओं की आत्मनिर्भर स्वतंत्रता के लिए धरती तैयार की थी। इस धरती पर एक ऐसी नई कथ्यात्मक विधा ने जन्म लिया जो अपने स्वर और परिवेश में पूर्ण रूप से सेक्युलर थी; उसने अपने आपको एकबारगी समस्त पौराणिक और धार्मिक संस्कारों से मुक्त कर लिया था। दूसरी तरफ उपन्यास ने अपनी जवानी की उत्कर्ष घड़ियों में मध्यवर्ग की बुर्जुआ नैतिकता के सर्वव्यापी बंधन से भी मुक्त हो कर अपनी स्वतंत्र कलात्मक सत्ता को प्रतिष्ठित किया था।
आज जब हम 'कला कला के लिए' के नारे के सौंदर्यशास्त्र की भर्त्सना करते हैं तो यह भूल जाते हैं कि यही नारा अपने समय में कितना क्रांतिकारी था। उसमें वास्तविकता से पलायन का भाव नहीं था, बल्कि उसने कला के प्रभुत्व को उस यथार्थ के विरुद्ध स्थापित किया था, जिसे बुर्जुआ वर्ग ने अपनी ओछी और क्षुद्र मान्यताओं से इतना दूषित कर दिया था। आज के तथाकथित क्रांतिकारी युग में जहाँ कला के मूल धर्म को 'कलावाद' कह कर तिरस्कृत किया जाता है, जो हमें याद रखना चाहिए कि 19वीं सदी के अंतिम चरण में यही 'कलावादी' लेखक थे जिन्होंने मध्यवर्ग के सब मूल्यों को अस्वीकार करके समाज में एक विद्रोही 'आउटसाइडर' की हैसियत से रहना पसंद किया था। उन्होंने कला की पवित्रता और स्वायत्तता को ढाल बना कर समाज की उस छद्म चेतना का सामना किया था जो आज हमारे युग का चरम-अभिशाप बन चुकी है। यह वह क्षण था जब कला की स्वतंत्रता छद्म सामाजिक मूल्यों के विरुद्ध एक नैतिक चुनौती का प्रतीक बन गई थी। इसे जाने बिना हम फ्लॉबर जैसे लेखक की पीड़ा नहीं समझ सकते, जो एक तरफ अपने उपन्यास लिखते जाते थे और दूसरी तरफ उस पब्लिक से घोर घृणा करते थे जो उनके उपन्यास पढ़ती थी। यह विडंबना ही मानी जाएगी कि 19वीं सदी के अंतिम और अवसादपूर्ण शतकों के दौरान ही कहानी को अपनी विश्वसनीय आवाज मिली थी। हम जब तॉल्सतॉय, चेखव और मोपासां की कहानियाँ पढ़ते हैं तो हमें कुछ हैरानी-सी होती है कि उनके हाथों कहानी जैसी संक्षिप्त और सुकुमार विधा ने व्यक्ति की घोर पीड़ा और अंतर्द्वंद्व को तो व्यक्त किया ही था किंतु उसके साथ उस समय की दम घोटती और विषादजनक सामाजिक परिस्थितियों पर भी इतनी साफ और संयत टिप्पणी की थी। अब कहानी उपन्यास की गरीब बिरादर नहीं थी, उसने स्वयं अपने पैरों पर खड़े होने का जोखिम उठाया था। यह सही है कि उसमें अब भी पुराने किस्सों का भावनात्मक लिरिसिज्म बचा रह गया था, किंतु उसने अपने अनुभव क्षेत्र के लिए जो दायरा चुना था वह उपन्यास से बहुत अलग था। क्या उपन्यास और कहानी का अंतर इसी में निहित है कि कहानी अपने आकार में छोटी और संक्षिप्त होती है, और क्या इस लाघव्य के कारण कहानी मानवीय स्थिति को उतने सजीव विस्तार और गहनता से अभिव्यक्त नहीं कर पाती जितना एक उपन्यास करता है? अंग्रेजी साहित्यकार और समीक्षक मि. प्रिशेट दोनों के बीच अंतर समझते हुए कहते हैं कि 'उपन्यास हमें सब कुछ बताता है जबकि कहानी सिर्फ एक बात बताती है - पूरी सघनता के साथ।' क्या सचमुच ऐसा है? एक चीज का क्या मतलब है और जिसे मि. प्रिशेट सब कुछ कहते हैं, क्या उपन्यास सचमुच जन्म से ले कर मृत्यु तक मनुष्य के समस्त अनुभवों को अपने में समेट पाने की शक्ति रखता है? सच तो यह है कि इस तरह की कसौटियाँ बिलकुल फेल हो जाती हैं जब हम उन्हें किसी महत्वपूर्ण कलाकृति पर लागू करते हैं। तॉल्सतॉय की कहानी 'ईवान इलिच की मृत्यु' सिर्फ एक चीज के बारे में है, मरने के बारे में, किंतु क्या यह एक चीज उन समस्त अनुभवों को अपने में नहीं समेटती जिसे ईवान इलिच ने अपनी समूची जिंदगी में भोगा है? यह कहानी जीवन के एक ऐसे नैतिक किंतु निर्णायक क्षण पर केंद्रित है, जो पिछले गुजरे हुए वर्षों की घोर निराशा और अँधेरे को सहसा आलोकित कर जाता है और इस तरह उन सब कृत्रिम विभाजनों को नष्ट कर देता है, जिसे आलोचक 'एक और समस्त' के बीच खींचते हैं। और फिर मिसेज डेलोवे का क्या कहेंगे? यह कहानी नहीं पूरा उपन्यास है, किंतु इसकी लेखिका वर्जीनिया वुल्फ को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी कि उसकी नायिका के समूचे जीवन में क्या बीता-गुजरा है।
वह केवल उसके कुछ चुने हुए क्षणों को ही उद्घाटित करती है (मिसेज वुल्फ शायद उन क्षणों को मोमेंट्स ऑव् विजन कहेंगी) किंतु बाकी जिंदगी एक बंद किताब की तरह हमेशा बंद रहती है, उस अतीत के ताले की तरह बंद, जिसे हम कभी नहीं खोल पाएँगे, इसलिए कहानी और उपन्यास के बीच 'एक और अनेक' का विभाजन निरर्थक है। यहाँ शायद हमारे लिए उपनिषद दर्शन ज्यादा कारगर होगा जिसने एक में अनेक और अनेक में एक खोजने का सत्य बताया था और शायद यही सत्य हमें विधाओं को एक-दूसरे से अलग करते समय भी ध्यान में रखना चाहिए। यह कह देने के बाद मैं तुरंत यह जोड़ना चाहूँगा कि कहानी और उपन्यास के बीच गहरा अंतर है किंतु वह अंतर नहीं जिसकी कसौटी मि. प्रिशेट ने निर्धारित की है। दोनों में अंतर एक या अनेक ब्यौरों के बीच नहीं है, बल्कि इन ब्यौरों के प्रति खुद लेखक का क्या रुख है, उनसे वह किस तरह का संबंध बिठाता है, कथा-विधा का फॉर्म इस रुख और संबंध द्वारा अनुशासित होता है। जरूरी नहीं एक कहानी का दर्शन एक उपन्यास की अपेक्षा कम संपूर्ण या कम व्यापक हो - किंतु इस दर्शन के भीतर कहानी का हर डिटेल एक भिन्न किस्म का तनाव और तापमान ग्रहण करता है। उपन्यास की तरह कहानी के ब्यौरे केवल माध्यम मात्र ही नहीं हैं, जो एक-दूसरे से जुड़ते हुए अंत में एक समग्र प्रभाव छोड़ते हैं, बल्कि कहानी में हर डिटेल अपनी ही जिंदगी से स्पंदित होता हुआ एक स्नायुतंत्र है और जब कहानी खत्म होती है तो कुछ भी पूरा नहीं होता, क्योंकि उसमें कभी कुछ भी शुरू नहीं होता। बेशक छपे हुए पन्ने पर कहानी एक बिंदु से शुरू होती है और दूसरे बिंदु पर समाप्त होती जाती है, किंतु चेतना की सतह पर कहानी के जीवन का एक अंश ही दिखाई देता है, अपनी रोशनी में चमकता हुआ। कहानी समय के दरिया में नहीं बहती, जहाँ उपन्यास बहता है, बल्कि वह एक तालाब-सी जमी रहती है जो स्थिर है; स्मृति का स्थिर समय, जिसमें याद करना ही उसकी सतह को थोड़ा-सा हिलाना है। उपन्यास के माध्यम से स्मृति समय की शक्ति के खिलाफ संघर्ष करता है, किंतु कहानी में ऐसा पुरातन तत्व कायम रहता है जिसमें चीजें समय के खिलाफ नहीं, बल्कि उसके संदर्भ में याद की जाती हैं। यही कारण है कि कहानी उपन्यास की अपेक्षा शब्दों पर ज्यादा निर्भर रहती है। क्योंकि यहाँ शब्द उन घटनाओं के समानांतर चलते हैं जो हम याद करते हैं, वे महज स्मृति को उजागर करने का साधन नहीं हैं, जो व्यतीत हो गई हैं। यही तथ्य हमें एक महत्वपूर्ण बिंदु की ओर ले जाता है। व्यक्ति की चेतना के बारे में यह एक विचित्र चीज है कि जब वह समय के पैमाने में रूपायित होती है तो अनिवार्यत: उपन्यास की विधा में ही ढल कर आती है, किंतु दूसरे छोर पर जब वह अपने को शब्दों के कालातीत-तंत्र में समेट लेती है तो हमेशा कविता बन कर बाहर निकलती है। किंतु उस चेतना का क्या होता है जो समय की गति को रोकने की तो कोशिश करती है किंतु शब्दों के स्वायत्त तंत्र में डूबना नहीं चाहती? ऐसे क्षण में एक ऐसी साहित्यिक विधा का जन्म होता है जो उपन्यास और कविता के बीच की जगह को समेटती है जिसे अगर हम चाहें तो कहानी का नाम दे सकते हैं, जिसका एकमात्र प्रेरणा-स्रोत यही एक लालसा है कि वह किसी तरह कविता के जमे हुए समय को पिघला कर उस कथ्यात्मक क्षेत्र में बहा सके जो असल में उपन्यास की जमीन है।
कहानी अपनी छोटी-सी जीवन-यात्रा में उस अजानी और खाली जमीन को पार करती है जो भाषा और समय, कविता और इतिहास के बीच फैली है। क्या यह एक दुर्लभ करतब है कि कहानी अपनी संरचना में काव्यात्मक हो किंतु अपने उद्देश्य में कथ्यात्मक? किंतु यही दुर्लभ चमत्कार तो हमें ईसाक बाबेल, हेमिंग्वे, केथरीन मेन्सफील्ड और डी.एच. लॉरेन्स की कुछ कहानियों में मिलता है जिनमें उन्होंने असाधारण पवित्रता और उज्ज्वल सात्विक संयम के साथ कथ्यात्मक ब्यौरों को साधने का दु:साहस किया और उसमें सफल भी हुए। खुद हमारे देश में माणिक वंद्योपाधयाय, जैनेंद्र और प्रेमचंद की कुछ कहानियों में उनके उपन्यासों की अपेक्षा यही संकेंद्रित शक्ति और तन्मयता दिखाई देती है। ये सब लेखक जो एक-दूसरे से इतने भिन्न हैं कम-से-कम एक बात में बिलकुल समान दिखाई देते हैं, जिसे टॉमस मान ने 'पैशन और पवित्रता' का अद्भुत समन्वय माना था। यह बात हमें बाबेल में दिखाई देती है जिन्होंने अपनी कहानियों में अपने समय के इतिहास को इतनी पैनी नोक से भेदा था - तथ्यों और घटनाओं का विवरण दे कर नहीं बल्कि एक नंगी और नुकीली इमेज के द्वारा जिसमें एक सिपाही द्वारा बत्तख का गला मरोड़ने से जो खून फव्वारे की तरह फूटता है और अँतड़ियाँ बदबदा कर बाहर निकलती हैं - यह एक इमेज इतने कम शब्दों में युद्ध की रक्तिम विभीषिका को जिस भयावह आवेग के द्वारा व्यक्त करती है उसे शायद भारी-भरकम युद्ध संबंधी उपन्यास भी व्यक्त नहीं कर पाते। यह चेखव ही तो थे जिन्होंने एक बार गोर्की को सलाह दी थी कि चाँदनी को व्यक्त करने के लिए एक टूटी हुई बोतल के काँच में चाँदनी के अक्स को दिखाना ही काफी है। यदि बाबेल ने इतिहास को एक काव्यात्मक बिंब में परिणत किया था तो चेखव ने दूसरे छोर पर काव्यात्मक बिंब को अपने कथ्यात्मक गद्य के शांत प्रवाह में पिरोया था। गद्य में यह चमत्कार - बिना कविता की काव्यात्मकता और उपन्यास के ऐतिहासिक समय का सहारा लिए उपलब्ध कर पाना-एक तरह से कहानी द्वारा उस चुनौती को स्वीकार करना था जो हमारे भीतर उपन्यास और कविता से अलग एक नया भावनात्मक संसार रचा पाती है। यही चुनौती हिंदी कहानी ने स्वीकार की थी, किंतु संदर्भ और परिवेश यूरोप से बिलकुल भिन्न था। भारत जैसे परंपराग्रस्त समाज में अक्सर साहित्य धर्म या सामाजिक विचारधाराओं का अनुचर होता है जिसके कारण उसकी स्वायत्त सत्ता हमेशा खतरे में पड़ी रहती है। यदि साहित्य समाज के विभिन्न सरोकारों के दलदल में धँसा रहे तो वह धर्मशास्त्र या सामाजिक-राजनीति का परजीवी बन जाता है, एक जोंक की तरह उनका खून खींच कर जीवित रहता है और इस तरह आत्मा की आवाज बनने का नैतिक अधिकार खो देता है। यही कारण है कि बीसवीं शताब्दी के आरंभ में हिंदी कहानी ने अपने को विभिन्न सामाजिक, धार्मिक आग्रहों और पूर्वग्रहों से मुक्त करके एक स्वतंत्र साहित्यिक फॉर्म में विकसित होने का सतत और साहसपूर्ण संघर्ष किया था। यह संभव नहीं हो पाता यदि हिंदी कहानी सेक्युलर होने की लंबी और पीड़ायुक्त यात्रा तय न करती। सेक्युलर सबसे अधिक व्यापक अर्थ में - केवल धर्मनिरपेक्षता के अर्थ में नहीं। यदि प्रेमचंद के साथ हिंदी कहानी एक कला-विधा के रूप में इतनी प्रौढ़ हुई तो इसलिए कि वे अपने समय के सबसे अधिक सेक्युलर लेखक थे। किंतु यही शायद प्रेमचंद और उनके अन्य समकालीन लेखकों की सबसे बड़ी सीमा भी थी, क्योंकि भारतीय संदर्भ में महज सेक्युलर होना काफी नहीं है। अपने को धार्मिक रूढ़ियों से मुक्त करना स्वतंत्रता का चिह्न है किंतु आधुनिकता की झोंक में अपने को धर्म-निरपेक्ष बनाना, यह स्वतंत्र नहीं आत्म-उन्मूलन की बीमारी का शिकार होना है। कहानी में जो सेक्यूलेरिज्म एक स्वच्छंद हल्कापन देता है वही उपन्यास में दृष्टि को सीमित कर देता है। हमारे समाज में धर्म निरपेक्षता का आधुनिक आंदोलन दरअसल मुक्ति का आंदोलन न हो कर उन धार्मिक विश्वासों के विघटन को व्यक्त करता है, जो एक समय में भारतीय जनता को इस धरती पर रहने का आश्वासन देते थे। धार्मिक विश्वासों की इस धरती से निष्कासित हो कर हिंदुस्तान का मध्यवर्ग अब एक ऐसे सेक्युलर युग के खुले रेगिस्तान में फेंक दिया गया है जहाँ उसके संस्कारगत मिथक और प्रतीक उसकी मदद नहीं कर सकते।
अतीत से मुक्त हो कर वह वर्तमान में अपने को अजनबी और आत्मनिर्वासित पाता है। हिंदी कहानी ने भारतीय मध्यवर्ग की इस आध्यात्मिक उदासीनता और विषाद को बहुत सशक्त ढंग से व्यक्त किया है, किंतु भारतीय उपन्यास कुछ अपवादों को छोड़ कर नैतिक आदर्शों की खोई हुई पवित्रता से चिपटा रहा है। (रवींद्रनाथ ठाकुर का गोरा एक उदाहरण है, जो न विश्वास की गरिमा दे पाता है न संदेह की पीड़ा को व्यक्त कर पाता है।) इसके विपरीत हिंदी कहानी ने उस कीचड़ में धँसने का थोड़ा-बहुत प्रयास किया, जिसकी गंदगी और गलाजत से आज समूचा भारतीय-जीवन ग्रस्त है।
भारतीय मनुष्य सिर्फ आर्थिक मनुष्य नहीं है, न ही उसका औपनिवेशिक त्रास केवल उसकी आर्थिक पीड़ा को व्यक्त करके चुक जाता है। भारतीय मनुष्य का आधुनिक संकट समस्त औपनिवेशिक अपवित्रताओं से ग्रस्त है जो उसकी संस्कृति का संकट है। यहीं कथ्यात्मक कला की सबसे बड़ी विडंबना दिखाई देती है। हम जिसे अभी तक फॉर्म की पवित्रता मानते आए थे वह अनुभव के उस कूड़े-करकट की अपवित्रताओं से बनती है, जिसे जीवन हमारे पास छोड़ जाता है।
हम प्रेम करते हैं और घृणा करते हैं और दुख भोगते हैं और सारे समय हम अनुभवों के घटाटोप में घिरे रहते हैं, एक ऐसा घटाटोप जिसकी कोई तार्किक संगति नहीं, जिसका कोई पैटर्न, कोई अर्थ समझ में नहीं आता। हमारे अनुभव क्षेत्र की अराजकता जितनी ही बढ़ती है, उतना ही हमारे ऊपर विचारधाराओं के विभिन्न मठाधीशों का आतंक बढ़ता जाता है, जो हमारी असंगत स्थिति को किसी-न-किसी ऐतिहासिक या मनोवैज्ञानिक शास्त्र द्वारा सुलझा देना चाहते हैं। जितना ही संकट गहन होता है उतनी ही मसीहों और मठाधीशों की आवाजें ज्यादा ऊँची और कर्णभेदी होने लगती हैं, स्वयं कला इन आवाजों द्वारा आच्छादित होने लगती है। यदि कला इन सत्ताधारी मसीहाओं की भाषा बोलने से इनकार कर देती है तो उसे चुप रहने के लिए बाध्य किया जाता है और सचमुच दुनिया के उन देशों में उसे चुप कर दिया गया है, जहाँ सत्ता ने भाषा की जड़ों को ही भ्रष्ट और निष्प्राण कर दिया है। एक बार फिर ईसाक बाबेल की याद आती है, जो शायद हमारे युग के सबसे असाधारण कहानी लेखक थे; उन्होंने बहुत पहले सोवियत लेखक सम्मेलन में एक भाषण देते हुए कहा था, 'मैं एक नई साहित्यिक विधा का इस्तेमाल करने जा रहा हूँ और वह है - मौन की विधा;' किंतु गूँगे नारों के कोलाहल के बीच मौन भी विरोध का प्रतीक हो जाता है।
ईसाक बाबेल को अपने मौन के लिए लेबर कैंप में मरना पड़ा। इससे हमें एक शिक्षा तो मिलती ही है - आज के युग में जहाँ हर तरह की चालबाजी और आतंक द्वारा मनुष्य की नैतिक चेतना को संत्रस्त किया जाता है, कला ही एक ऐसी चीज बची रह गई है जो सत्य की भाषा के प्रति संपूर्ण रूप से प्रतिबद्ध है, एक ऐसी प्रतिबद्धता जिसके बिना समस्त सामाजिक प्रतिबद्धताएँ मूल्यहीन हो जाती हैं। मनुष्य को नष्ट करने से पहले उसकी भाषा को नष्ट किया जाता है, किंतु उसे नष्ट करने की जरूरत ही नहीं। आदमी जीवित ही नहीं रहता यदि उसकी भाषा मृत हो जाती है। इसलिए जब हम कहानी की विधागत पवित्रता की बात करते हैं तो हम कला के रहस्यवादी सौंदर्य की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि भाषा की अंत:शक्ति और कल्पना की अंतहीन ऊर्जा की बात कर रहे हैं, जो अपने सत्य को बाहरी आवाजों से भ्रष्ट नहीं होने देती। हम उसकी फुसफुसाहट में अपने सत्य को सुनते हैं। कलात्मक विधाएँ सार्वभौमिक हो सकती हैं किंतु कलात्मक सत्य नहीं, वे अनिवार्यत: उस भाषा में लिपटे होते हैं, जिसमें वे संप्रेषित किए जाते हैं। यदि यह भाषा जीवित नहीं रहती तो हम अपने समय में कला और मानवीय गरिमा को भी नहीं बचा सकते।