कहानी एक काव्यशाला की / कुमार रवीन्द्र

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कहानी एक काव्यशाला की उर्फ़ किस्सा शहर-ए-फ़िरोज़ा की कविताई का

१३ जुलाई १९७० प्रातः ६.०० बजे

यही वह दिन था और यही वह समय, जब हिसार शहर में हमारा प्रवेश हुआ। हरियाणा राज्य को बने तीन साल आठ महीने बारह दिन हो चुके थे और नये मुख्यमंत्री चौधरी बंसीलाल की देख-रेख में हरियाणा के विकास की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। दो घटनाएँ, जो हमारे आने के साथ ही हिसार शहर में हुईं, वे थीं हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना और नहर के मीठे पानी की हिसार के घरों में आमद। शिशिर ( मेरे सहयोगी-मित्र प्रो. एस. दास ) पहले ही दो चक्कर लगा चुके थे हिसार शहर के हमारे यहाँ ट्रांसफर की पूर्वपीठिका के सिलसिले में और हमें बता भी चुके थे कि जालन्धर से यहाँ पहुँचने पर हमें घोर निराशा होगी। जालंधर उस समय भी एक बड़ा शहर था - पंजाब का एक माना हुआ पुराना नगर, सारी आधुनिक सुख-सुविधाओं से संपन्न भी - एक प्रकार से पंजाब की शैक्षिक एवं सांस्कृतिक राजधानी जैसा। जो नई समृद्धि विभाजन-पूर्व के तथाकथित पूर्वी पंजाब में विस्थापित पंजाबी परिवारों की उद्यमशील प्रवृत्ति से पिछले तेईस सालों में आई थी, उसका भी एक महत्त्वपूर्ण केंद्र। और हिसार - पंजाब में ईस्वी सन १९६६ तक शामिल रहे हिंदी-भाषी क्षेत्र के एकदम पिछड़े दक्षिणी रेगिस्तानी भू-भाग का सिर्फ नाम का एक छोटा-सा शहर। जालन्धर के मुकाबले हिसार बड़ा सिकुड़ा-सिमटा निरीह-सा लगा हमें। हर दृष्टि से बंजर और सुनसान।कॉलेज यानी दयानन्द कॉलेज भी जालन्धर के डी. ए. वी. कॉलेज के मुक़ाबले में बहुत ही छोटा, पुराने ढंग का और अधूरा-सा। डी. ए. वी. कॉलेज में तभी छः विभाग स्नातकोत्तर थे और वह संयुक्त पंजाब का सर्वोत्तम कॉलेज माना जाता था। केवल छात्रों और अध्यापकों की संख्या के आधार पर ही नहीं, बल्कि अपनी बहुमुखी शैक्षणिक उपलब्धियों के कारण भी। हर वर्ष वहाँ के बी.ए., एम. ए. के छात्र पंजाब विश्वविद्यालय की परीक्षाओं की योग्यता-सूची में प्रमुख स्थान पाते थे। वहाँ के पढ़े हुए कई खिलाडी भारत की ओलम्पिक में हिससाय लेने वाली राष्ट्रीय हॉकी टीम के सदस्य थे। आज के अत्यंत प्रतिष्ठित ग़ज़ल-गायक जगजीत सिंह हमारे सामने ही वहन के बी.ए. के छात्र थे। प्राध्यापकों में कइयों की लिखी पुस्तकें राष्ट्रीय स्तर पर पढ़ाई जा रही थीं। हिंदी की समकालीन कहानी की त्रिकुटी के एक सदसय , मोहन राकेश वहन हिंदी के प्राध्यापक रह चुके थे। वहाँ के पढ़े कई छात्र लेखन के क्षेत्र में प्रतिष्ठित हुए, जिनमें प्रसिद्ध कहानीकार एवं वर्तमान में भारतीय ज्ञानपीठ की मुख-पत्रिका 'नया ज्ञानोदय' के सम्पादक डॉ. रवीन्द्र कालिया का नाम प्रमुख है। डी.ए.वी. कॉलेज जालन्धर के पढ़े हुए कितने ही डॉक्टर-इंजीनियर-प्रशासक पूरे देश में प्रतिष्ठित ओहदों पर थे। कॉलेज का पूरे पश्चिमोत्तर भारत में ऐसा सर्वतोमुखी दबदबा और यश था कि उस क्षेत्र के सर्वोच्च प्रतिभा-संपन्न विद्यार्थी-खिलाड़ी-कलाकार वहाँ प्रवेश पाकर गौरव का अनुभव करते थे। उसके मुकाबले में हसर का कॉलेज एकदम बौना था। पंजाब विश्वविद्यालय की उपलब्धियों की वार्षिक सूची में दूर-दूर तक उसका कहीं नाम नहीं था। वह तो दो वर्षों के बाद जब नये-नये बने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अंतर्गत हरियाणा के कॉलेजों को स्थानांतरित कर दिया गया, तब कहीं पता चला कि दयानन्द कॉलेज हरियाणा प्रदेश का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण शिक्षण-संस्थान है। उन दिनों हिसार शहर में एक ही क़ायदे की कॉलोनी थी मॉडल टाउन, जिसमें पढ़े-लिखे और संभ्रांत लोग अधिकांशतः रहते थे। शहर से उसके अलग-थलग होने और कॉलेज से उसकी लगभग चार किलोमीटर की दूरी होते हुए भी हम वहीं बस गये। जालन्धर में भी हम मॉडल टाउन में ही रहते थे और उसकी भी डी.ए.वी. कॉलेज से दूरी लगभग उतनी ही थी। इसलिए हमें यह दूरी खली नहीं। वैसे यहाँ का मॉडल टाउन जालन्धर के मॉडल टाउन का एक-चौथाई भी नहीं था। काफी सुनसान और उजाड़ भी लगा वह हमें। शुरू के एक-आध साल इसीलिए ऊब और थकन के रहे मेरे लिए।

डी.ए.वी. कॉलेज,जालन्धर से हम यानी शिशिर और मैं यहाँ के प्राचार्य के विशेष अनुरोध पर ट्रांसफर करके लाये गये थे, इसलिए एक वर्ष तो हमें लग गया यहाँ अपनी कीर्ति के अनुरूप अपने को सिद्ध करने में। कविताई का मेरा शौक़ गुपचुप चलता रहा, किन्तु स्थानीय कवियों से मेरा परिचय हिसार आने के दूसरे साल ही हो पाया। और जब यह परिचय हुआ तो फिर ऐसा हुआ कि शीघ्र ही हमारी महफ़िलें नियमित रूप से जमने लगीं। हर पन्द्रह दिन में कभी घरों में, कभी सुशीला भवन के लॉन पर होने वाली हमारी बैठकें कब एक सजग काव्यशाला का रूप अख्तियार कर गईं, हमें पता ही नहीं चला। कुछ सदस्य स्थायी रूप से हर महफ़िल में होते थे। उनमें निर्दोष हिसारी, राधेश्याम शुक्ल, हरिद्वार शर्मा और मैं ख़ास थे। बाद में हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के जेनेटिक्स विभाग के प्रोफेसर-अध्यक्ष डॉ. रामकठिन सिंह भी हमारे उस समूह के स्थायी सदस्य बन गये। डॉ. रामकठिन सिंह उर्फ़ डॉ. आर.के. सिंह अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिक थे, किन्तु उनकी कविता में अभिरुचि और उनकी कविताई, दोनों ही अत्यंत उच्च स्तर की थीं। वे प्रख्यात 'हल्दीघाटी' काव्य के प्रणेता पं. श्यामनारायण पाण्डेय के गाँव के थे और 'हल्दीघाटी' के ही छंद में उन्होंने अपने स्वतंत्र लघुकाव्य 'मेरी गुडिया' का प्रणयन किया था। उनकी कविताई में वही प्रवाह, वही ओज गुण था, जो पाण्डेय जी के काव्य में था। हमारी इस पंचायतन के अतिरिक्त उर्दू के जाने-माने शायर ज़ख्मी हिसारी साहब भी हमारी इन महफ़िलों की शोभा बढ़ाने अक्सर आ जाते थे। वैसे वे उर्दू शायरी के मुक़ाबले में हिंदी कविता को बड़ा हेच समझते थे। इसलिए उनकी उपस्थिति हमारे लिए एक चुनौती हो जाती थी। वे कम बोलते थे, इसलिए उनका कहा एक-एक शब्द हमारे लिए बेशकीमती होता था और उनके मुँह से एक 'वाह' सुनकर ही हम धन्य हो जाते थे। वे छोटे-से क़द के, बहुत ही दुबले-पतले आदमी थे। उनकी आवाज़ भी बड़ी धीमी -कमजोर सी थी। किन्तु उनकी शायरी की बड़ी तारीफ़ थी। पंजाब-हरियाणा के उस्ताद शायरों में उनकी शुमार थी। हमारी महफ़िल तो कहीं पखवाड़े में एक जमती थी, पर उनके घर पर रोज़ शाम महफ़िल जमती थी, जिसमें शराबनोशी के साथ शायरी नैन-नक्श दुरुस्त किये जाते थे। मैंने उस महफ़िल का ज़िक्र भर सुना था। हमारी पंचायतन के निर्दोष हिसारी ही उसमें रोज़ शामिल होते थे। निर्दोष को इसका भुगतान भी करना पड़ा, जब ईस्वी सन १९९० में शराब की उनकी लत के कारण केवल बावन साल की उम्र में ही उनका असामयिक निधन हो गया। ज़ख्मी साहब अपने ऊपर नियंत्रण रखते थे और उन्होंने पूरी उम्र पाई। एक और बुज़ुर्ग शायर थे भारद्वाज अमृतसरी, जी हमारी बैठकों में अक्सर आते थे। वे वामपंथी विचारधारा के व्यक्ति थे और अपनी युवावस्था में कम्यूनिस्ट पार्टी से जुड़े रहे थे। उनका ऊँचा क़द, हाथ में कंधे से ऊँची लाठी, उनकी ठेठ पेंडू ( ग्रामीण ) पंजाबी धज यानी मोटे कपड़े की मटमैली तहमद और कमीज़ की शुद्ध देहाती पहन, उनका अक्खड़पन, उनकी शायरी की सीधी-सादी कहन उन्हें हम सब से अलगाती थी। वे मुझे और मेरी पत्नी को बेहद पसंद करते थे| मेरी कविताई के भी वे प्रशंसक थे| हम लोगों की संगत में वे हिंदी में भी दोहे-गीत-ग़ज़ल लिखने लगे थे। उनकी राय एकदम बेबाक, सटीक और सारगर्भित होती थी। हमारे लिए उसकी बड़ी क़ीमत थी। हाथ में लाठी पकड़े, पूरे शहर में पैदल घूमता वह फक्कड़ बुज़ुरगक उन दिनों भी एक अज़ूबा ही था|अगर उसे आधुनिक समय का हिसार का कबीर कहा जाये, तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी| इन दोनों बुज़ुर्गों के अलावा हमारी इन पाक्षिक बैठकों में और भी कई लोग थे, जो कभी-कभार शामिल होते थे, मसलन यूनिवर्सिटी के ही मेहता दम्पत्ति - श्रीमती नीरजा मेहता छन्दमुक्त कविताएँ लिखती थीं; सजन हिसारी, जो पेशे से एक घड़ीसाज़ थे और जिनकी छोटी-सी एक दर की दूकान ज़ख्मी साहब के मकान के बाहर के हिस्से में थी; सुरेश मिश्र, जिनकी टेलरिंग की दूकान थी; टेलीग्राफ ऑफिस के जगतराम 'जगत'; हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के प्रेस में कार्यरत 'शिशु' जी आदि-आदि। हरियाणा राज्य के प्रथम राज्यकवि, जिनसे हरियाणा और हिसार की पहचान थी, उन दिनों हिसार से बाहर थे। प्रादेशिक हिंदी साहित्य सम्मेलन, हिसार शाखा के उन दिनों नियंता थे श्री राजेन्द्र प्रसाद जैन, जो एक कुशल संयोजक थे और नगर में साहित्यिक गतिविधियों को गति देने में उनका विशेष योगदान रहा था। बाद में, प्रादेशिक हिंदी साहित्य सम्मेलन की हिसार इकाई पर अधिकार करने की हम युवा रचनाकारों की कोशिश से हमारा और उनका मनमुटाव भी हुआ। हमारे निर्देशन में साहित्य सम्मेलन की सक्रियता तो बढ़ी, किन्तु हममें से कोई भी जैन साहब की तरह अर्थ आदि की व्यवस्था करने में पटु नहीं था। अस्तु, दो वर्षों में ही संस्था समाप्त हो गयी और फिर उसकी पुनर्स्थापना नहीं हो पाई। हाँ, उन दो वर्षों में हमने कुछ अच्छे काव्य-समारोह अवश्य आयोजित किये और 'बूँद-बूँद पीड़ा' शीर्षक से हिसार के कवि-शायरों की रचनाओं का एक स्तरीय संकलन भी प्रकाशित किया।

उन दिनों जो हमारी घरेलू बैठकें होती थीं, उनमें हम कविता का पूरा आनन्द प्राप्त करते थे। मुझे याद आ रही है शरद पूनो की रात को मेरे ही आवास पर आयोजित एक गोष्ठी, जिसमें केवल श्रृंगार गीतों का ही पाठ हुआ था। ऊपर ज्योत्स्ना-नहाई रजनी और नीचे हमारे युवा कवि-मन में हिलोरें लेती शृंगारानुभूति की मादक जुन्हाई। वह सुख, वह गीत-पर्व ! सच में, अद्भुत थी वह अर्द्धरात्रि तक चली गोष्ठी और उसमें उपजी हमारी सुखानुभूति।

निर्दोष हिसारी हमारी पंचायतन के सबसे जीवंत सदस्य थे। यह कहना मुश्किल है कि वे ज्यादा अच्छे कवि थे या ज्यादा अच्छे इन्सान। एक कृती के रूप में वे बड़े ही प्रतिभावान थे। उनमे एक महान कवि होने की सारी संभावनाएँ थीं| किशोरावस्था और उठती ज़वानी में मेरी ही तरह वे भी चित्रकारी करते थे। कथ्य की दृष्टि से उनकी रचनाएँ पारंपरिक ही कही जाएँगी, पर उनकी कहन में एक अतीन्द्रिय अनूठापन था। बच्चन उनके प्रिय कवि एवं आदर्श थे। उनके कई गीतों में 'पाप-पुण्य की रेखाएँ', उनकी उलझनों-द्वन्द्वों को परखने, उनमें उलझने की प्रवृत्ति स्पष्ट दिखाई देती हैं। उनकी रचनाओं में उन्हें परिभाषित करने का आभास अक्सर देखने को मिलता है। एक दार्शनिक दृष्टि, जो किसी भी कवि को महान बनाती है, निश्चित ही उनके पास थी, किन्तु वे उसे पूरी तरह पहचान नहीं दे पाये। बच्चन जी की कविताई के प्रभाव-क्षेत्र से वे बाहर निकलते-निकलते रह गये। उनकी एक रचना है 'समय: एक आत्मकथ्य', जो कालजयी होने की दहलीज़ तक पहुँचती है। जख्मी साहब की संगत में उनकी ग़ज़लगोई में निखर आया था और वे उर्दू शायरी के एक मुकम्मिल हस्ताक्षर बन सकते थे। उनमें लंबी रचनाएँ करने का भी पर्याप्त धैर्य था। भगवान महावीर के जीवन पर आधृत उनकी महाकाव्यात्मक कृति 'मृत्युंजय महावीर' उनकी इस क्षमता की साक्षी है। एक उपन्यास भी उन्होंने लिखा था, जो उनके जीवनकाल में ही प्रकाशित भी हुआ था। 'व्याकुल लहरें ' शीर्षक वह उपन्यास उनकी व्यक्तिगत कुंठाओं से उपजा था, इसी से उसकी सर्जनात्मक गुणवत्ता संदिग्ध हो गई। अपनी असामयिक मृत्यु से कुछ पूर्व वे महाकवि कालिदास के 'मेघदूत' की तर्ज़ पर 'दरबारी दूत' शीर्षक एक व्यंग्यात्मक रचना कर रहे थे, जिसमें आज के भ्रष्ट राजनैतिक परिवेश का खुलासा बड़े ही सशक्त ढंग से हुआ था। बच्चन जी से उनका पत्राचार निरंतर बना रहा था| उन पत्रों से उनके काव्यपरक चिन्तन का पता चल सकता है| अकाल मृत्यु ने एक परिपक्व एवं अमित संभावनाओं वाले रचनाकार को हिंदी काव्य-जगत से छीन लिया, इसमें कोई संदेह नहीं है| एक व्यक्ति के रूप में निर्दोष मेरी काव्य-यात्रा के मात्र सहपंथी ही नहीं थे, वे एक अत्यंत स्नेहिल बंधु भी थे| वे कई बार अकस्मात ही शाम के समय मॉडल टाउन स्थित मेरे मकान पर आ जाते थे। वे बीड़ी पीते थे और मेरे घर में कोई कायदे की ऐश-ट्रे तक नहीं थी। आते ही मेरी बेटी को आवाज़ देते थे - 'अपर्णा बेटी, वह जो हैंडल टूटा कप रक्खा है, वह मुझे देना जरा'। हाँ, वही उनकी ऐश-ट्रे थी। एक नहीं कई ऐसे प्रसंग हैं, जिनमें उनके निश्छल स्नेहिल स्वभाव की झलक मुझे यदा-कदा मिलती रही। उन सबकी आख्या कहना यहाँ संभव नहीं है। केवल एक प्रसंग मैं यहाँ लूँगा। बात मई १९८१ की है। मैंने अपने पहले काव्य-नाटक 'एक और कौन्तेय' की रचना उन्हीं दिनों की थी। छुट्टी का दिन था। लगभग ग्यारह बजे होंगे, जब वे आये। पत्नी के बाद संभवतः वे ही उस काव्य-नाटक के श्रोता बने। उस दिन नाटक के लगभग एक घंटे के लंबे पाठ के दौरान न तो उन्होंने बीड़ी पी और न ही हिले-डुले। मैं तो आत्म-मुग्धता की नशे की स्थिति में था ही। किन्तु वे भी एक मौन समाधि में डूबे निश्चल बैठे रहे। पाठ समाप्त होते ही वे उठे। बिना कुछ बोले मेरा दाहिना हाथ अपने दोनों हाथों में थामा, उसे अपने होंठों से लगाया और चुपचाप चले गये। दो दिनों बाद ही वे फिर आये। आते ही बोले- रवीन्द्र भाई, उस दिन तो मैं अबोला हो गया था। इस रचना से आप हम सबसे बहुत ऊपर उठ गये हैं।' काश, निर्दोष जैसा श्रोता मैं भी हो पाता। कवियों में पारस्परिक स्पर्धा-ईर्ष्या तो होती ही है, किन्तु निर्दोष में वह राई-रत्ती भी नहीं थी। निर्दोष, मेरा वह बंधु आज न जाने कहाँ निस्पृह अपना स्नेह बाँट रहा होगा।

हमारी महफ़िलों में आने वाले एक विचित्र व्यक्तित्त्व थे श्री शिवशंकर 'शिशु'। वे एक अर्द्ध-विकसित कवि थे और वैसे ही बने रहे। हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय में उनको क्वार्टर मिला हुआ था, जिसमें वे एकाकी ही रहते थे| उनका परिवार जो भी रहा हो, उनसे अलग उनके मूलस्थान मुजफ्फरनगर में ही रहता रहा| लंबी दाढ़ी, आँखों पर मोटा चश्मा, अलग किसिम की पोशाक, कंधे पर लटकता 'शोल्डर बैग', मँझोले क़द-काठी के दुबली-पतली देह-यष्टि वाले 'शिशु' जी को हम सबसे अलगाता था| निर्दोष तो उन्हें हमेशा 'लंबी दाढ़ी वाले शिशु' कहकर चुटकियाँ लिया करते थे| शराब की उन्हें भी लत थी और उनका शरीर उससे धीरे-धीरे जर्जर होता गया था। मोटे चश्मे के पीछे से झाँकती उनकी आँखें एक बच्चे की जैसी भोली थीं। वे स्वभाव से, सच में, एक शिशु ही थे। बच्चों के साथ तो वे एकदम बच्चे हो जाते थे। अपनी जैकेट की ज़ेब से या कभी झोले से निकालकर जब वे टॉफियाँ बच्चों के हाथों में रखते थे, तो उनकी आँखों में तैरती ख़ुशी देखने लायक़ होती थी। उनका अंत बड़ा ही त्रासक रहा। वे एक दिन अपने क्वार्टर में मृतक पाए गये।

हरियाणा के अन्य शहरों के कवियों से मेरा परिचय १९७५ में आकाशवाणी के रोहतक केंद्र की शुरूआत के बाद ही वहां आयोजित काव्य-गोष्ठियों के माध्यम से हुआ। उन गोष्ठियों में अधिकांशतः पारंपरिक कथ्य एवं कहन ही मैंने पाई। नये कथ्य एवं कहन के तेवर तो हरियाणा में एक-डेढ़ दशक बाद ही देखने को मिले। अब तो हरियाणा में रचित कविता किसी भी अन्य हिंदीभाषी क्षेत्र की कविताई से कमतर नहीं है। बहर के उन परिचित कवियों में से पूरन मुदगल, प्रभुदयाल कश्यप 'प्रवासी' एवं कैलाश राठी 'विशाल' से मेरे घनिष्ठ आत्मीय संबंध बने। पूरन मुदगल सिरसावासी हैं और अभी भी सक्रिय हैं। वे मुक्त छंद कविता के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनका गद्य-लेखन भी उतना ही स्तरीय है। वे एक प्रखर -काव्य-चिंतक भी हैं। उनसे मेरा संपर्क बना हुआ है, क्योंकि वे अपनी बेटी, लोकभाषा हरियाणवी की सशक्त लेखिका डॉ. शमीम शर्मा के हिसार स्थित घर आते रहते हैं। कैलाश राठी 'विशाल' का व्यक्तित्त्व बड़ा ही रोचक और अद्भुत था। वे हिसार के निकटवर्ती गाँव सीसवाल के निवासी थे, किन्तु कई वर्ष इंग्लैंड रहकर लौटे थे, इसलिए अंग्रेजी के उच्चारण में अपने सामने किसी को नहीं गिनते थे। महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक के सांध्य महाविद्यालय में वे अंग्रेजी के व्याख्याता थे। हिंदी के वे बहुत अच्छे कवि थे। संस्कृत भाषा का भी उन्हें अच्छा ज्ञान था। ऐसा गुनी व्यक्ति, किन्तु अति कुंठाग्रस्त। परिवार से अलग रोहतक में अकेले ही रहते थे। हर कवि को अपने से हेय समझते थे। पता नहीं कैसे उन्हें मेरी कविता पसंद थी। उनका अंत बड़ा ही दुखद रहा। शराबनोशी उन्हें भी खा गई। रोहतक के किराये के मकान में उनका निधन किसी रात को अचानक हो गया। दो दिन बाद उनका मृत शरीर दरवाज़ा तोड़कर निकाला गया। उनका लहीम-शहीम स्वरूपवान शरीर, उनकी विद्वता, उनकी कविताई, सब कुछ अद्भुत था, पर वे अपनी कुंठाओं का शिकार हो गये। प्रवासी जी मूलतः बृजभूमि होडल के निवासी थे और उनकी बोली-बानी एवं कविताई में बृजभाषा का ही लालित्य एवं रस था। वे एक सीधे-सरल व्यक्ति और पारंपरिक गीतकवि थे। देहयष्टि और स्वर प्रसिद्ध गीतकार 'नीरज' से मिलते थे। अपने को हरियाणा का 'नीरज' समझते थे। उनकी धर्मपत्नी भी उनकी ही तरह सरल-चित्त एवं स्नेहिल थीं। रोगिणी होते हुए भी मेहमाननवाज़ी में कोई कसर नहीं छोडती थीं। वे जल्दी ही चली गईं। हमारा और 'प्रवासी' जी का परिचय तो तभी से हो गया था, जब वे हिसार में थे, किन्तु पारिवारिक संबंध रोहतक में ही बना। वे आकाशवाणी और पुलिस लाईन के पीछे की कॉलोनी में रहते थे और रोहतक के राजकीय महिला कॉलेज में हिंदी के प्रवक्ता थे। जब कभी मैं और मेरी पत्नी आकाशवाणी में रिकार्डिंग के लिए गये, 'प्रवासी' जी के घर भी अवश्य गये। इन दिनों 'प्रवासी' जी अपने बेटे के परिवार के साथ रह रहे हैं और वहां की साहित्यिक गतिविधियों में पूरी तरह सक्रिय हैं। इनके अतिरिक्त प्रख्यात कवि-चिंतक-समालोचक डॉ. जयनाथ 'नलिन', जो कभी दयानन्द कॉलेज हिसार में भी रहे थे और कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से सेवा निवृत्त होकर भिवानी में स्थायी रूप से निवास करने लगे थे, अक्सर मेरे पास आते रहते थे। कई बार वे रात में मेरे आवास पर ही रह जाते थे। उनका सान्निध्य-स्नेहाशीष मुझे मिला, यह मेरा सौभाग्य था।

हिसार एवं हरियाणा के बाहर के कई कवि-लेखक थे, जो हिसार आने पर अपना स्नेह मुझे अवश्य देते थे। प्रसिद्ध नवगीतकार रवीन्द्र भ्रमर तो रात्रि-आवास मेरे पास ही करते थे। प्रतिष्ठित नवगीत-ग़ज़ल-दोहाकार डॉ. कुँअर बेचैन भी कवि सम्मेलनों में जब कभी आये, मेरे आवास पर भी अवश्य आये। 'जुआड़ी' और 'शकुनि मामा' जैसे चर्चित उपन्यासों के रचयिता सत्यपाल विद्यालंकार भी हिसार आर्यसमाज के वार्षिकोत्सव में सम्मिलित होकर मेरे पास ही रात्रि-विश्राम के लिए आ जाते थे। और इन सबसे बढ़कर परमपूज्य राष्ट्रकवि पं. सोहनलाल द्विवेदी का स्नेह-दुलार। सन १९७३ के फरवरी माह में हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. भुवनेश्वर गुरमैता के निवास स्थान पर पंडित जी के सम्मान आयोजित एक गोष्ठी में मेरे काव्य-पाठ को उनका पहला आशीर्वाद मिला और फिर तो जैसे माँ सरस्वती का मुझे वरदान ही मिल गया। वे जब-जब भी आये, कई-कई दिनों के लिए आये और उसमें से एकाध दिन मेरे पास रहकर मुझे अपने प्रेरक सान्निध्य से कृतार्थ किया। उनके संपर्क से मेरी कविताई को तो जैसे पंख लग गये। उनके साथ जुड़े संस्मरण इतने अधिक हैं कि उनका उल्लेख इस सामान्य आलेख में करना संभव नहीं है। पिछली सदी के अस्सी के दशक में मेरे ही प्रयास से नवगीत विधा के अधिष्ठाता डॉ. शंभुनाथ सिंह का हिसार आगमन दो बार हुआ। उनके साथ आज के प्रमुख नवगीत- हस्ताक्षर माहेश्वर तिवारी, उमाशंकर तिवारी और डॉ. सुरेश भी आये। वे सभी मेरे आवास पर ही चार-पाँच रोज़ रहे। उस दौरान दयानन्द कॉलेज में एक विशुद्ध नवगीत का कवि सम्मेलन भी हुआ, जिसकी अध्यक्षता पूज्य पं. सोहनलाल द्विवेदी जी ने की। अज नवगीत के वरिष्ठतम व्यक्तित्व श्री देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' का बड़े भाई जैसा स्नेह मुझे पिछले तीस वर्षों से भी अधिक से निरंतर मिलता रहा है। उन्हीं के सान्निध्य से मेरे नवगीतकार को दिशा मिली और अखिल भारतीय आयाम भी प्राप्त हुआ। सन १९८२ से उनकी बेटी-दामाद के यहाँ आ जाने से उनका हिसार से आत्मीय जुड़ाव और भी घनिष्ठ हो गया। आ वे बहुत कम पाए, पर जब कभी भी आये, एक सारस्वत उत्सव यहाँ रचा गये। नवगीत के एक अन्य यशस्वी हस्ताक्षर जिला जीन्द के ग्राम वराहकलाँ के मूल निवासी और अब दिल्ली विश्वविद्यालय में रीडर पद पर कार्यरत डॉ. राजेन्द्र गौतम का भी हिसार आना-जाना लगा रहा है। नवगीतकार डॉ. श्याम निर्मम भी एकाधिक बार हिसार आ चुके हैं। मुंबई के प्रसिद्ध गीतकार-संपादक श्री मधुकर गौड़ भी कई बार हिसार पधार चुके हैं। लखनऊ के नवगीतकार-द्वय श्री मधुकर अस्थाना एवं श्री निर्मल शुक्ल ( प्रतिष्ठित पत्रिका 'उत्तरायण' के संपादक ) और कानपुर के नवगीतकार देवेन्द्र सफल भी मेरे आमन्त्रण पर हिसार आ चुके हैं। उर्दू-हिंदी ग़ज़ल के जाने-माने हस्ताक्षर श्री बी. डी. कालिया 'हमदम' तो एक समय हमारी नियमित संगोष्ठियों की ज़ान हुआ करते थे। प्रसिद्ध कहानीकार रवीन्द्र कालिया एवं कवि-कथाकार पाल भसीन भी कुछ समय के लिए हिसार में रह चुके हैं।

सो यह है हिसार-ए-फिरोज़ा की वह काव्यशाला, जिसमें अन्य सहपाठियों इ साथ मैंने कविता के नित-नये पाठ सीखे । आज लगभग चार दशक पूर्व की इस मूल काव्यशाला के केवल दो सहपाठी शेष रह गये है। वे हैं डॉ. राधेश्याम शुक्ल और मैं यानी कुमार रवीन्द्र। सुक्ल जी के पारिवारिक सन्दर्भ के कालजयी दोहों ने उन्हें एक दोहाकार के रूप में उन्हें पर्याप्त ख्याति एवं प्रतिष्ठा दिलाई है। एक नवगीतकार एवं गज़लकार के रूप में भी उनकी अखिल भारतीय पहचान है। हिसार की काव्यशाला आज भी सक्रिय है। उसमें पिछले दसेक सालों में कुछ नये काव्य-हस्ताक्षर शामिल हुए हैं। राज्यकवि श्री उदयभानु 'हंस' के प्रेरक सान्निध्य से यहाँ की काव्यशाला का विस्तार अखिल-हरियाणा स्तर तक हो गया है। उनके द्वारा स्थापित 'साहित्य कला संगम' के द्वारा प्रदत्त 'हंस कविता पुरस्कार' हरियाणा का एकमात्र ऐसा निजी पुरस्कार है, जिसे पाकर कोई भी कवि गौरवान्वित महसूस करता है। अखिल भारतीय साहित्य परिषद की हिसार शाखा अस्सी के दशक में डॉ. भुवनेश्वर गुरमैता द्वारा स्थापित की गयी थी। कई वर्षों तक निष्क्रिय रहने के बाद श्री मदनगोपाल शास्त्री की देख-रेख में वह संस्था एक-बार फिर दोबारा प्राणवान हो गई है। 'प्रेरणा परिवार' के नाम से युवा कवियों की एक संस्था इधर के वर्षों में नई पीढ़ी में सारस्वत चेतना जगाने का काम कर रही है। किन्तु आज अधिकांशतः दृष्टि नाम के प्रचार-प्रसार की ओर अधिक है, काव्य-साधना और गुणवत्ता की ओर कम। वह मस्ती, वह विशुद्ध काव्य-आस्वाद लेने की इच्छा जो हम महसूस करते थे, जो कविता के प्रति अनन्य रागात्मकता उन दिनों थी, आज हिसार की विस्तृत काव्यशाला में मुझे महसूस नहीं होती। पिछले एक दशक में स्थापित नामों के आलावा जिस एक कृती ने कविता के प्रति पूरी निष्ठा और समर्पित भाव से हिसार की काव्यशाला को विशिष्टता प्रदान की है, वह है सतीश कौशिक। वे जितने अच्छे गीतकार हैं, उससे भी अच्छे ग़ज़लकार हैं। मैंने जब पहली बार उन्हें सुना, तो मुझे निर्दोष की याद आई । लगा कि जैसे निर्दोष ही दोबारा जीवित होकर आ गये हों। गीत की वही उठान, वही लयात्मकता, वही काव्य-पाठ की शैली । व्यक्ति के रूप में भी वैसे ही सहज-निश्छल, उतने ही स्नेहिल । वे मेरे अनुज-तुल्य हैं। वर्तमान में मेरी निजी काव्यशाला की एकमात्र उपलब्धि हैं भाई सतीश कौशिक। उनके गीत-ग़ज़ल एक ओर आधुनिक भाव-बोध से हमारा परिचय कराते हैं, तो दूसरी ओर अधुनातन ताज़ी-टटकी अनूठी कहन की भी बानगी देते हैं। वे निरंतर संस्कार-रत हैं और हर बार उन्हें सुनने पर किसी-न-किसी नये-ताज़े बिम्ब से, अछूती भाव-भंगिमा एवं भाषिक संरचना से वे चकित-विस्मित करते रहते हैं। भाई देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' ने एक बार हिसार के काव्य-चतुष्टय की बात उठाते हुए आदरणीय उदयभानु 'हंस', राधेश्याम शुक्ल, सतीश कौशिक एवं मुझे उसमें शामिल करते हुए कहा था कि आप चारों ही हिसार को कविता के क्षेत्र में अखिल भारतीय पहचान देते हैं। मेरा सौभाग्य कि मैं भी हिसार की काव्यशाला की पहचान बन सका।

अब तो बस बात इतनी-सी कि हिसार की काव्यशाला ज़िंदा है और मेरी कविताई का निरंतर संस्कार करती जा रही है। कई बार मैं सोचता हूँ कि यह काव्यशाला हिसार में ही क्यों बनी। हिसार तो एक बंजर 'बनी' था किसी ज़माने में। हाँ, दिल्ली के सुल्तानों की शिकारगाह। फिर ऐसा क्या हुआ कि यहाँ कविताई के बीज पनप आये। शुक्र है तुगलक बादशाह फीरोजशाह का, जो यहाँ शिकार के लिए आते-जाते एक गूजरी-बाला के इश्क़ की गिरफ्त में आ गया और हिसार की शिकारगाह एक इश्कगाह में तब्दील हो गई। हिसार का ऐतिहासिक गूजरीमहल चौदहवीं सदी में हुए उस हसीन वाकये की दास्तान आज भी कहता है। आखेट-स्थली से प्रेम-स्थली बने इस रेतीले भू-भाग की आबोहवा में कविता के ज़रासीम का आ जाना लाज़िमी था। वे ज़रासीम ज्यादा ही सक्रिय हो गये हमारी पीढ़ी में और हिसार एक खूबसूरत कविता-शाला में बदल गया। वस्तुतः हिसार में आकर-बसकर जितने लोगों की कविताई में निखार आया, उतना संभवतः हरियाणा में अन्य किसी स्थान पर नहीं। अखिल भारतीय स्तर पर हिंदी कविता में अपनी पहचान बनाने वाले जितने हस्ताक्षर हिसार की काव्यशाला ने दिये, उतने शायद हरियाणा के किसी अन्य स्थान ने नहीं। मेरी राय में, हिसार की मिट्टी में जो इश्कमिज़ाजी का बीज पनपा, उसी से यहाँ की हवा में शायरी यानी कविताई की रंगो-बू आ गयी।