कहानी का अंत / मंगलमूर्ति
यह एक अजीब कहानी है जिसे मैं पिछले कुछ दिनों से लिखने की कोशिश कर रहा हूँ। कई बार आधी-अधूरी लिखकर छोड़ चुका, लेकिन जैसे यही मेरा पीछा नहीं छोड़ रही हो। कहना कठिन है कौन किसके पीछे पड़ा है। सोते-जागते मैं इसीके बारे में सोचता रहता हूँ। कभी लगता है, किसी भूलभुलैया में फंस गया हूँ - कहाँ से अंदर आया और कैसे बाहर निकल सकूँगा, कुछ समझ नहीं पाता। एक अजीब दास्तां है जिसके बारे में पता नहीं-कहाँ शुरू हुई, और कहाँ खतम होगी। लेकिन मेरी कोशिश जारी है। हालांकि बार-बार कोशिश के बाद भी कहानी की कोई साफ शक्ल मेरे जे़हन में नहीं बन पाती। बस एक धुंआँ-धुंआँ, एक कुहासा-सा दिमाग में भरा रहता है। कलम चलती है और कहीं पहुंचकर खु़द-ब-ख़ुद रुक जाती है। लेकिन यह सिलसिला है कि रुकता नहीं। आज एक बार फिर इसे शुरू किया है। पता नहीं इस बार क्या होगा। नहीं जानता कब और कैसे मेरी यह कहानी पूरी होगी। हालांकि मेरा यह जुनून बताता है कि एक-न-एक दिन यह पूरी होकर ही रहेगी, और उस दिन इससे मुझको ज़रूर निज़ात मिल सकेगी।
मुझे अब तक यह भी ठीक-ठीक नहीं मालूम यह कहानी होगी कैसी। किसकी कहानी होगी। किसकी बातें होंगी इसमें। सच कहूँ तो इस कहानी को लिख डालने की बात एक दिन मन में तब आई जब उस दिन अचानक खु़द कहानी से ही मेरी मुलाकात हो गई। बिलकुल एक अप्रत्याशित भेंट। मैंने देखा वह एक नाज़ुक, लजीली, शर्मीली और उदास-सी कहानी थी। मुझे कुछ-कुछ याद आया, शायद वह मेरे पड़ोस में ही कहीं रहतीहै। लेकिन दिखाई बहुत कम ही देती है। उस दिन न जाने कैसे मेरे सामने आ गई थी। मैंने उससे पूछा - तुम कहाँ रहती हो। मुझे यह तो मालूम था कि तुम कहीं पड़ोस में ही रहती हो, लेकिन बहुत दिन से तो तुम्हें देखा भी नहीं था। कैसी हो तुम, ठीक तो हो। सुनकर वह हल्के-से मुस्कुराई, पर कुछ बोली नहीं। मैंने फिर कहा - मैं एक कहानी लिखना चाहता हूँ। तुम्हारी जैसी ही एक कहानी। तुम्हारी जैसी, लेकिन वैसी तो मैंभला कब लिख सकूँगा। वह थेाड़ा हंसी, पर कुछ बोली नहीं। मुझे मालूम था वह बहुत कम बोलती थी। औरों से भी ऐसा सुना था। लेकिन उस दिन तो लगा जैसे वह मुझको कब से जानती है। मेंने हिम्मत करके उससे आगे बात बढ़ाई। वह भी खड़ी-खड़ी मेरी बातें ध्यान से सुनती रही। फिर धीरे-से बोली-मैंने भी तुम्हारे बारे में सुना था, लेकिन कहानियाँ भी लिखते हो, यह नहीं जानती थी। जल्दी से मैंने कहा-नहीं,नहीं, लिखता नहीं था, लिखना चाहता हूँ। यही शायद मेरी पहली कहानी होगी जिसे मैं लिखना चाहता हूँ। आज तुमसे यों ही मुलाकात हो गई है, तो लगता है शुरूआत अच्छी है। शायद अब मैं अपनी कहानी ज़रूर लिख सकूँगा। वह फिर थोड़ा हंसी, पर कुछ बोली नहीं। मुझे मालूम था वह बहुत कम बोलती थी।
मैं कुछ सोचने लगा। तभी वह बोली-मैं भी आजकल एक कहानी लिखने की सोच रही हूँ। हो सकता है वह तुम्हारी ही कहानी हो। लेकिन अभी शुरू नहीं कर पाई हूँ।आज तुमसे अचानक मुलाकात हो गई है तो लगता है, अब शायद शुरू कर पाउंगी। मुझे बड़ा अचरज हुआ, और थेाड़ी घबराहट भी हुई। मैं सोचने लगा, क्या इसे मेरे बारे में सब कुछ मालूम हैद्व अगर ऐसा हुआ तब तो मेरे बारे में यह क्या कुछ लिख देगी, क्या पता। मुझे सोच में पड़ा देख कर वह फिर थोड़ा हंसी और बोली - लेकिन अभी सोचा नहीं है उसमे तुम्हारी शक्ल तुमसे कितनी मिल पाएगी। यह सुनकर मुझको थोड़ी तसल्ली हुई। शायद उसकी कहानी में मेरी शक्ल कुछ और ही उभरे। शायद उसमें मेरी कहानी कुछ अच्छी ही हो। और उसे देखकर तो कतई ऐसा नहीं लगता कि वह किसी के बारे में कुछ बुरा लिख सकती है। और यह भी तो हो सकता है कि मेरे बारे में कुछ बुरा लिखना उसको अच्छा न लगे। मैं अपनी सारी बुराइयों को जल्दी-जल्दी मन में छुपाने लगा। वह उसी तरह मुस्कुराती रही। मैं अपनी उलझन को मन की और गहराई में दबा लेना चाहता था। मैंने देखा, वह दूसरी तरफ देखने लगी थी।
मैंने फिर हिम्मत करके उससे पूछा-मेरे बारे में, मेरी कहानी क्या तुम्हें पूरी मालूम हैद्व वह फिर हँसने लगी; बोली-सब कुछ कहाँ किसी को मालूम होता है। तुमको, मेरी बात छोड़ो, अपने ही बारे में सब कुछ मालूम है, दावे के साथ तुम ऐसा कह सकते होद्व मैं एकाएक बिलकुल सकपका गया। उसकी बात में मुझे एक गहरी सचाई दिखाई दी। सचमुच मैं आजतक अपने को ही तो ठीक-ठीक नहीं जानता। कब क्या किया,या करना है,या फिर कब क्या कर बैठूंगा - खुद कहाँ समझ पाता हूँ। अपने को समझना तो शायद दूसरे को समझने से भी ज्यादा मुश्किल है। मुझे उसकी बात में बहुत वजन लगा। वह उसी तरह मुस्कुराती रही। मैं भी अपनी उलझन में डूबता-उतराता रहा। मुझे लगा उसकी गहरी नीली आँखें मेरे मन के अंदर के उलझन को उलट- पुलट कर देख रही हैं।
मैंने उसका ध्यान बंटाने के लिए कहा-मुझे तो अपने जीवन में ऐसा कुछ भी मतलब का नहीं दीखता जिसका तुम्हारी कहानी में कोई उपयोग हो। मैं तो एक बिलकुल आम आदमी हू - गलतियों और कमजोरियों का एक बड़ा-सा पुलिंदा। मेरे जीवन में कोई ऐसी उपलब्धि नहीं है जिसका ज़िक्र कहीं हो सके। एक सपाट, बेमानी जीवन समझो। लेकिन हो सकता है तुमको उस कचरे में भी कोई काम की चीज मिल जाए। तुम तो खुद कहानी हो, किसी की भी कहानी को एक अच्छी इबारत दे सकती हो। यह तो मेरी ख़ुशकिस्मती कहो कि आज तुमसे यों ही मुलाकात हो गई। अब इस मुलाकात के बाद शायद मेरी कहानी भी एक अच्छी कहानी बन सकेगी। यह सब कुछ मैं एक सांस में कह गया। और मैंने देखा, वह ध्यान से मेरी बातें सुन रही थी। मुझे उसकी आँखें अब कुछ ज्यादा ही गहरी और नीली लगने लगी थी- एक झील जैसी गहरी और पारदर्शी।
अचानक वह बोली - किसी के बारे में सब कुछ कोई नहीं जानता, केवल एक नाकाम कोशिश-भर होती है। इसीलिए जितना अनजाना, अनकहा रह जाता है, असली कहानी उसी में छिपी रह जाती है। आदमी ही की तरह हर कहानी भी अधूरी रहकर ही खत्म हो जाती है। उसके खत्म होने को ही हमें उसका पूरा होना मान लेना पड़ता है। शायद इसी लिए कोई कहानी कभी पूरी नहीं होती। मुझे देखकर भी यह न समझना कि मैं ख़ुद पूरी हो चुकी हूँ। सच तो ये है कि मैं अब तक अधूरी ही हूँ। लेकिन मुझको इसकी कोई गिला नहीं है। मैं अपनी इस सचाई से वाक़िफ़ हूँ, और बेफ़िक्र भी।
न जाने क्यों मुझे लगा कहीं वह मेरी उलझन की ही बात तो अपनी तरह से नही ंकर रही है। मैं ख़ुद भी तो कुछ इसी तरह की उलझन में बराबर मुब्तला रहा करता हूँ। वह अपनी रवानी में बोल रही थी। लेकिन मेरे मन में भी कई सवाल घुमड़ने लगे थे। मैंने उसे बीच में ही रोकते हुए कहा - अच्छा यह बताओ, तुमने तो बहुत कहानियाँ लिखी होंगी। मुझे भी कुछ बताओ कि कहानी कैसे लिखी जाती है। माना कि हर कहानी अधूरी ही रह जाती है, लेकिन वह कहीं से शुरू और कहीं पर ख़त्म तो होती ही है, और सिर-पैर के बीच में उसका कोई धड़ भी तो होता ही है।
इस बार वह कुछ गंभीर-सी लगी। बड़ी संजीदगी से बोली - बात तुम्हारी सही है, और गलत भी। कहानी कोई जिस्म नहीं होती; वह तो एक रूह होती है। उसको सिर-पैर और धड़ की शक्ल में देखने की कोशिश सही नहीं। और किसी की रूह को तुम किसी जिस्मानी शक्ल में तो देख भी नहीं सकते। वह तो आज़ाद होती है। किसी बंधे-बंधाए चौखटे में उसे देखने की कोशिश बेकार है। उसको देखना है तो आँखों को बंद रखना पड़ता है। खुली आँखेंा से उसे नहीं देखा जा सकता। इसीलिए उससे तुम भीड़-भाड़ या हलतलबी में नहीं मिल सकते। हमेशा उससे अकेले में ही मिलना हो सकता है। जब तुम बिलकुल ख़ाली हो, कुछ आधे जगे आधे सोए जैसे हाल में।
उसकी बात सुनकर मुझको थोड़ा अचरज हुआ, क्योंकि अभी उससे मेरी यह मुलाकात भी कुछ ऐसे ही माहौल में हो रही थी। वहाँ सचमुच कोई और नहीं था- बस हमीं दोनों थे। और ख़ुद मैं भी जैसे एक तंद्रा में था। मुझे लगा उसकी बातें कितनी सच थीं। मैंने कहाँ सोचा था कि मेरी मुलाकात आज उससे होने वाली है। मैं तो उस कहानी के बारे में सोच रहा था जो मैं लिखना चाहता था। सोचता ही जा रहा था कि अचानक उसको अपने सामने देखा। वह ख़ुद भी किसी सोच में डूबी चली आ रही थी। यह एक अजीब इत्तिफ़ाक ही था, आज मेरा उससे मिलना। आज वह ख़ुद मुझे मिल गई जिससे मैं न जाने कब से मिलना चाहता था, क्योंकि पिछले कितने दिनों से मैं एक कहानी लिखने की सोच ही रहा था।
मुझको सोच में डूबा देखकर वह मुस्कुराकर बोली - क्या सोचने लगे। मुझसे मिलकर तुम्हें अच्छा नहीं लगा। मैं तो यों ही आज इधर टहलने चली आई थी। तुम्हें देखा कुछ सोचते आ रहे हो, तो रुक गई। मैं तो अमूमन बहुत कम ही कहीं निकलती हूँ। एक तरह समझो तो आज ख़ुद को ही ढूँढती निकल आई इधर, या शाय तुमको ही ढ़ूंढ़ने निकली थी। और इसीलिए शायद तुमसे मुलाकात भी हो गई।
मुझे उसकी बातें अब कुछ अजीब लग रही थीं। वह ख़ुद को ढूँढती इधर क्यांे आई, और फिर मुझे क्यांे ढूँढ रही थी। मुझे तो इस मुहल्ले में कोई नहीं जानता। और उसको कैसे मालूम था कि मैं इस सुनसान इलाके में भटक रहा हूँ। मुझको उसकी बातें एक भूलभुलैया जैसी लग रही थीं। लेकिन उनमें एक अजीब कशिश थी जो मुझको अपनी ओर बेतरह खींच रही थी। ख़ासकर उसकी झील जैसी गहरी नीली आँखें जिनसे, अक्सर जब वह बोलती थी, तो एक अजीब तरह की रोशनी फूट पड़ती थी।
तभी मुझे लगा अब बहुत देर हो चुकी है, और मुझे वापस लौटना चाहिए। लेकिन मेरे मन के सवाल अभी तक वैसे ही अंदर घुमड़ रहे थे। और मैं जो कहानी लिखना चाहता था, अब उसकी जगह मैं ज्यादा इस सोचमें पड़ गया था कि वह मेरी कहानी कैसी लिखेगी। वह भी तो उसके मुताबिक एक अधूरी ही कहानी होगी। उलझन ये भी थी कि मेरी कहानी वह ख़त्म कहाँ करेगी। मैंने बात को बदलते हुए कहा-एक बात पूछ सकता हूँ? क्या अगली बार जब तुमसे भेंट होगी तो कुछ बता सकोगी, मेरी कहानी जो तुम लिख रही हो, कैसी बन रही हैद्व मैं यह भी चाहता हूँ कि फिर तुमसे जब मिलूं तो मैं जो कहानी लिखने की कोशिश कर रहा हूँ, मेरी वह कहानी कैसी उतर रही है, तुमसे उसका कुछ जिक्र करूँ। आखि़र इसमें तो कोई हर्ज़ नहीं कि हम जो कहानियाँ लिख रहे होंगे, एक-दूसरे से उस पर राय-मशविरा करें। कम-से-कम मैंे जो कहानी लिखूँगा उसके बारे में तुमसे तो मैं ज़रूर कुछ सीख सकूँगा, और शायद तुम भी मेरे बारे में किस तरह सोचती हो, कुछ पता चलेगा।
इस बार वह ज़ोर से हँस पड़ी। बोली - हाँ, हमलोग फिर मिलें यह तो अच्छा होगा लेकिन पता नहीं उस वक्ततक हमारी कहानियाँ कहाँ तक पहुंची होंगी, और हम उनके बारे में क्या बातें कर सकंेगे। कहानियों के बारे में एक बात तो मैं जानती हूँ कि वे कहीं भी, कभी भी, किसी ओर मुड़ जा सकती हैं। हमें उनके साथ अलग-अलग ही चलना पड़ेगा। हम उनके रूबरू कोई बातचीत शायद ही कर सकेंगे। वे बहुत तुनुकमिजाज़ होती हैं। वे हमारी तरह एक-दूसरे से बात करना पसंद नहीं करतीं। वे अपना रास्ता चुपचाप ही तय करती हैं। हम बस उनके पीछे-पीछे चल सकते हैं। बातचीत या छेड़छाड़ उन्हें कतई पसंद नहीं। वे जिस्म नहीं, रूह होती हैं न। अचानक ही वे आँखों से ओझल हो जाती हैं, फिर तुम उनको आँखें बंद करके भी नहीं देख सकते।
और मैंने देखा, सचमुच इतना कहते-कहते वह अचानक मेरी आँखों से ओझल हो गई। उसकी बात बिलकुल सच निकली। अपनी आँखें बंद कर लेने पर भी वह मुझे कहीं दिखाई नहीं दी।