कहानी का अन्तःसदन / कृष्ण किशोर
एक अन्धा आदमी सड़क के किनारे हाथ फैलाए खड़ा है। कुछ चबा रहा है - च्युईंग गम या कुछ और। चबाते हुए लगता है जैसे हंस रहा हो। उस की आंखें कैसे गईं - इसका कोई सवाल नहीं है। बस वह इस दुनिया में है और अन्धा है। सड़कों पर गाड़ियां, ट्रैमें वगैरह दौड़ रहे हैं। एक औरत अपनी ट्रैम में बैठे हुए ही, उसे देखती है। लगभग आधा मिनट को ही ट्रैम उस स्टॉप पर रुकी है। औरत घूर कर उसे देखती रहती है। उसे लगता है वह अन्धा उसी की तरफ़ देख रहा है। अपनी पूरी खुली आंखों से उसे देख रहा है। यह चित्र उस की चेतना में फ्रीज़ हो जाता है। एक संवेदना उसे जकड़ लेती है। उस अन्धे के प्रति अतिसंवेदनशीलता उसमें एक भय जागृत करती है। सारी दुनिया क्रूर है, संदिग्ध है, अनिश्चित है। यहां कभी भी, किसी भी क्षण कुछ भी हो सकता है। जिस वजह से वह व्यक्ति अन्धा हुआ है, वे सारी वजहें हमारे सारे वातावरण में फैली हुई हैं। कुछ भी सुरक्षित नहीं है। अतिसंवेदना, अतिभयावहता में बदलती है। इस भयावहता का इतना विस्तार एक क्षणिक दृश्य से पैदा होता है। लेकिन मूल में वही संवेदना है। कुछ चबाता हुआ, हंसता सा लगता हुआ, बाँह फैलाए, सड़क के किनारे खड़ा वह अन्धा आदमी किस यथार्थ का प्रतीक है! सर्वव्यापी लाइलाज क्रूर स्थितियों का - जहां जीवन का सारा विनाश ऋण्खलित है। एक दूसरे के ऊपर भरभरा कर गिरती हुई छोटी बड़ी विनाश स्थितियां, जीवन का सारा तामझाम समेट कर रखने, बचा कर रखने जैसी हास्यास्पद स्थिति। लेटिन अमरीकी कथाकार क्लेरिस लिस्पेक्टर की यह कहानी 'लव' कुछ इसी तरह की स्थिति बुनती है - अतिसंवेदनशीलता से पैदा होने वाला असुरक्षाबोध।
वह औरत ट्रैम के चल पड़ने के झटके से गिरा हुआ सामान संभालती है। अन्धा आदमी अभी अभी पीछे छूटा है। कहानी बढ़ती है, क्षति हो चुकी थी। उस की गोद में रखे टूट गए अण्डों का पीला गाढ़ा पानी बाहर रिस रहा था। अपने समय से एक दम निर्वासित होकर वह महसूस करने लगी जैसे गलियों में चलते हुए लोग खतरे में हैं। जैसे इस अन्धेरे में वे मुश्किल से अपना सन्तुलन बनाए हुए हैं और जैसे उन्हें कुछ पता नहीं कि किधर जाना है। एक दम ही ऐसा अहसास हुआ कि जैसे कोई कानून, व्यवस्था नहीं है। उसने अपने आगे वाली सीट कस कर पकड़ ली। उसे लगा जैसे सब कुछ चुपचाप उथल पुथल हो जाएगा। फिर भी, लगेगा जैसे सब कुछ वैसे ही है जैसे पहले था, जब व्यवस्था थी।
घर पहुंच कर अपने सात-आठ साल के बेटे को देखती है, उस की टांगें उसे बहुत पतली और लम्बी लगती हैं। बेटे को इतनी जोर से भींच कर गले लगाती है कि वह डर जाता है। स्टोव के भड़कने की आवाज़ से चौंक कर, अपने पति को डरी हुई नज़रों से देखती है। उस की बांहों में शिथिल होकर लड़खड़ा जाती है। 'स्टोव को भड़कने से तुम नहीं रोक सकती', वह उसे हाथ पकड़कर बैडरूम की ओर ले जाता है। इस तरह जैसे वह उसे जीने के खतरे से दूर ले जा रहा हो। 'संवेदना का नशा उतर चुका था, उसे लगा जैसे उसने प्यार और उसके नर्क को पार कर लिया हो। अब वह शीशे के सामने अपने बालों में कंघी कर रही थी। कोई भी बाहरी संसार अब उस के मन में नहीं था। बिस्तर में जाने से पहले उसने दिन में पैदा हुई लौ को ऐसे बुझा दिया जैसे कैंडल बुझा रही हो।'
एक चित्र तो यह है कि हम अपनी सुरक्षा के बन्दोबस्त कड़े करने में लगे हुए हैं। हर चौराहे पर बांहें फैलाए खड़ी अशक्तताओं को देख कर डरे हुए हैं। भयावह स्थितियों की कल्पना करते हैं। अपनी सुविधा और सुरक्षा के दबड़ों में पहुंच जाने की आत्मलिप्त जल्दी में हैं। विनाश जिस का है, सिर्फ़ उसी का है। हम उसमें कहीं शामिल नहीं। भय सिर्फ़ तभी है जब हम निशाने पर हों। कैसी विडम्बना है कि भय यही है कि हर वक्त हम निशाने पर हैं। वह अन्धा आदमी हमें ही देख रहा है।
यह हंसता सा लगता हुआ अन्धा आदमी हमारी ज़िन्दगी का प्रतीक बना हुआ है। हमारी स्थितियों का, छोटे बड़े दैनिक डरों का, आतंकों का, कल क्या होगा की अनिश्चितताओं का, अन्धेरे में प्रवेश करते मानव सम्बन्धों का। उन सारे दबावों का जो हमारे समाज ने पैदा नहीं किए, कहीं बाहर से आकर जिन्होंने हमें दबोच लिया है और जिन का हम हंसते हुए, गम चबाते हुए एक अन्धे की तरह स्वागत भी कर रहे हैं। राजनीतिक अंधेरगर्दियों का - जिन से हम बचे रहना चाहते हैं। प्रणय सम्बन्धों का - जो सिर्फ़ छू कर ही समझ आ सकते हैं। अप्रत्याशाओं का - जो नितांत सहज स्थितियां बन गई हैं। यहां दयनीय कुछ नहीं। ट्रेजेडी, कॉमेडी कुछ नहीं। सिर्फ़ स्थितियां हैं, स्वप्न नहीं है। यही सपनों का न होना हमारा आज का दुःस्वप्न है। और यही दुःस्वप्न हमारा आज का यथार्थ है। ऐसा दुःस्वप्न जिससे मुक्ति की तलाश भी हमें नहीं। इस दुःस्वप्न को हम हंसते हुए, गम चबाते हुए जी लेना चाहते हैं। हमारी यही मध्यवर्गीय आत्मस्वीकृत विवशता, यही निरंकुश स्थितिबोध हमारी आज की कहानियों में अधिकतर व्यक्त हो रहा है।
अधिकतर रचनाओं की भीतरी संभावनाएं बहुत विस्तृत होती हैं। बहुत सहज भाव से उनके निकट जाना पड़ता है। बनी बनाई कठोरता हमारे काम नहीं आती। क्योंकि हमारी कठोरता का संघर्ष रचना से शुरू हो जाता है और अगर रचना शक्तिशाली न हो तो पाठक की कठोरता रचना को अपनी पूर्णता से पहले ही तिरस्कृत कर देती है। सिर्फ़ इतना भर हम यहां कहना चाहते हैं कि पाठक को भी अपने समय और स्थिति को बींधने वाली संवेदनात्मक ऊर्जा से भर कर रचना से संवाद की स्थिति में आना ज़रूरी है। लेकिन पाठक से इतनी बड़ी अपेक्षा करना भी उसी स्त्रोत से आया है जहां से पाठक को एक निर्णायक की हैसियत हासिल हुई और जब से पाठक की अपनी अगल सत्ता अस्तित्व में आई, उसे आलोचक का दर्जा भी हासिल हुआ। एक जनतांत्रिक सिद्धांत के अनुसार, लेखक को अपने अधिनायक मंच से उतरना पड़ा और पाठक की अपेक्षाओं को समझना पड़ा।
यह दोहरी अपेक्षाएं और ज़िम्मेवारियां पाठक और लेखक को एक दूसरे से एक क्षण भी जुदा नहीं होने देतीं। एक साथ रचना में उपस्थित रहना दोनों के लिए जोखिम भरा काम है। सिर्फ़ आंख मूंदने से दूसरा अनुपस्थित नहीं हो जाता, बल्कि और विराटता से सामने आता है। वस्तु की अपेक्षा वस्तु का आभास ज़्यादा दबाव डालता है। यह आत्मिक पारस्परिकता आज के लेखक की अगर शक्ति बना हुआ है तो चुनौती भी। इससे वे तमाम संघर्ष पैदा होते हैं जहां लेखकीय यथार्थ और यथार्थ की अपेक्षाएं समानांतर बनी रहती हैं, एक नहीं होतीं, जुड़ती नहीं। आमने सामने रह कर दूर तक साथ चलती हैं। यथार्थ और अपेक्षित यथार्थ एक अंतर बनाए रखते हैं।
हम अपना यथार्थ रचना में देखने की अपेक्षा करते हैं, लेकिन रचना सिर्फ़ उस का वायदा करती है, उस की संभावना रचती है। उस वायदे पर हम कितना भरोसा करते हैं या उस संभावना को कितना स्वीकार करते हैं, इसी में रचना की शक्ति है। लेकिन अगर लेखक का यथार्थ बिल्कुल किसी और ही अनुभव स्त्रोत से आ रहा हो तो रचना पाठक के समानांतर चलते हुए एक निरन्तर साथ बने रहने का अनुभव रचती है और आदान प्रदान का संवाद भीतर ही भीतर रचती है। लेखकीय अनुभव चाहे जिस धरातल पर भी हो, और चाहे जितना भिन्न क्यों न हो, उस की शक्ति इन दो स्थितियों में ही है। पाठक को समानान्तर बनाए रखने में या कहीं एक दूरी के बाद अपने अनुभव के धरातल पर स्थानान्तरित कर सकने की अदभुत सामंजस्य क्षमता में। लेखकीय सवर्ण भाव अधिकतर पाठक की इन दोनों स्थितियों को केवल खंडित ही करता है।
लेखन का ऐसा जनतांत्रिक स्वरूप बहुत बाद में शुरू हुआ। लगभग तीन साढ़े तीन हज़ार साल पहले जब महाकाव्यात्मक लेखन शुरू हुआ, तब लेखक की यही सवर्णता और अधिनायकत्व की स्थिति थी और लगभग अठारहवीं सदी तक यही स्थिति रही। लेखक चाहे अकेला हो या कोई सामूहिक लेखन हो, वहां पाठक अपनी पूरी तन्मयता से लेखन को समर्पित था। हमारे वेद पुराण, महाभारत, होमर, विरजिल इत्यादि लगभग एक ही समय के तथाकथित त्रिकालदर्शी सर्जक थे। पाठक उन दिनों केवल श्रोता ही था, अपनी पूरी आस्था में अपना हाथ लेखक को पकड़ा देता था। वह उसे चाहे जिधर ले जाए। राह केवल लेखक की थी। पाठक को किसी घटना, चरित्र या कथानक को संदेह की दृष्टि से देखने का विधान नहीं था। राम हर स्थिति में नायक है और रावण खलनायक। मान कर चलना था कि कौरव ही अपराधी हैं और पांडव निर्दोष। होमर के इलियाड में भी ग्रीस वाले निर्दोष और ट्राय वाले दोषी। उस समय ये पूरी तरह धर्म की शक्ति से वरद रचनाएं नहीं थीं, भले ही इन में उस ज़माने के देवी देवताओं का ज़िक्र भरपूर आता है। पाठक का स्वतन्त्र अस्तित्व प्लाटो, एरिस्टोटल के प्रथम आलोचनात्मक सिद्धांतों में भी कहीं उभर कर नहीं आया। उन्होंने रचना के गुणों, अवगुणों और अवयवों, तत्वों-सूत्रों की बात की। हमारे मनीषियों ने सौंदर्यशास्त्रीय सूत्र दिए। रचना के रूप और प्रभावोत्पादकता की बात भी की। हालांकि ऐरिस्टोटल का 'कैथार्सिस' जैसा सिद्धांत पाठक पर प्रभाव से ही सम्बन्धित है, लेकिन पाठक की अपनी स्वतन्त्र सत्ता की बात वहां नहीं आई। एक नृप के समान ही लेखक भी पाठक का एक तरह से पोषणकर्ता है। दोनों के प्रति पाठक केवल नतमस्तक है, पाठक का केवल समर्पण भाव है। प्राचीन संस्कृत महाकाव्यों और सैद्धान्तिकियों में भी यह नृप स्थिति है या कल्पना-प्रसूत सौंदर्य सृष्टि है। रचना में साधारणजन का उपस्थित होना या छुटपुट सामाजिक स्थितियों का औरा-ब्यौरा किन्हीं भी जनतांत्रिक लेखकीय मनस्थितियों को प्रकट नहीं करता। इस बात का महत्व बहुत बाद में समझ आया कि लेखन भी समाज के संविधान की तरह एक शक्ति है, जो दण्ड देने की शक्ति भले ही न रखता हो, ठीक और गलत साबित करने का अधिकार अवश्य रखता है।
उस के बाद जो धार्मिक गाथाओं, कथाओं के अंबार रहे, उन में उस समय के समाजों की थोड़ी बहुत झलक चाहे मिलती हो, साधारण जीवन से उठाए हुए चरित्र भले ही वहां आए हों लेकिन वे सब मोहरे थे - एक ही उद्देश्य की तरफ़ बढ़ते हुए। उन कथाओं में समाज का अन्तःसदन कहीं नहीं है। साधारण जन उन में आते हैं उसी निश्चयात्मकता और महिमा के कील पेंच बन कर।
शेक्सपीयर को आज हम महानतम लेखकों में गिनने के आदी हो गए हैं। उन्होंने भाषायी चमत्कार के माध्यम से सूत्रों का एक अपार भंडार हमें दिया। शायद सब से ज़्यादा उद्धृत होने वाले लेखकों में वे रहे (धार्मिक सूत्रों की बात यदि हम रहने दें)। इतने महानायकों, खलनायकों, अतिनायकों और सामान्य चरित्रों से शेक्सपीयर का आकाश दिपदिपा रहा है। लेकिन आमजन की आशाएं, निराशाएं, अपेक्षाएं, आसनिरास, प्रेम-वासना, सामाजिक संघर्ष, पारिवारिक ऊहापोह, दैनिक निरन्तरता वहां नहीं है। हमारा अन्तःसदन वहां नहीं है। यह ठीक है कि मानव स्वभाव अपने से ऊपर उठकर उन सारी स्थितियों, होनियों, अनहोनियों, चमत्कारों और उन से जुड़े महानायकों की तरफ़ भी बड़ी उत्सुकता से देखता है। अपने जीवन से ऊपर या दूर हट कर बहुत कुछ अनदेखा, अजाना है जिसे मानव स्वभाव जानना भी चाहता है और जिस तिस रूप में उन के रहस्योद्घाटनों को स्वीकार भी करता है। आश्चर्यचकित होना और उससे उपजा आपद या अवसाद मानव मन की सब से अधिक अप्रत्याशित लेकिन स्वीकार्य स्थिति रही है। बड़ी-बड़ी निराशाएं भी इंसान की व्यक्तिगत असफ़लताओं से उतनी सम्बन्धित नहीं रहीं जितनी किसी अव्यक्त व्यवस्था से उपजी असहायता से सम्बन्धित रही हैं। ठीक ऐसा ही कि जो संभावित है, वही ओझल है और अपनी तमाम स्थितियों में हम जो कुछ करने को बाध्य हैं, बस उसी का परिणाम देखने को निलम्बित सा हमारा अस्तित्व बना रहता है। अपनी इस स्थिति को हमने सदियों तक अपने साहित्य में, अपनी कथाओं में व्यक्त होने दिया है और उन में अपने आप को कहीं न पाकर भी एक स्तुत्य भाव से स्वीकार किया है। भाव विह्वलता हमारा प्रधान तत्व बना रहा।
हमारी सारी विडम्बनाएं इसी स्वीकृति से पैदा होती हैं, चाहे वो घटनाओं में हों, चाहे चरित्रों में, चाहे परिणामों में। इन विडम्बनाओं में हम अपना आत्मसूत्र ढूंढते हैं। जो निकट यथार्थ है, उस से ऊपर उठते हैं, कितनी ही अवास्तविकताओं को सहजता से स्वीकार करते हैं। और हमारी चेतना एक ऐसा यथार्थ निर्मित करती है जो संसार के बनाए किन्हीं भी मूल्यों से निर्धारित नहीं होता। सम्पूर्ण यथार्थ इसीलिए तथ्यों और स्थितियों की पकड़ में आने से रह जाता है। उस का आभास हमें उन्हीं सूत्रों में व्यक्त हुआ मिलता है, जिन में हम व्यक्त रूप से अनुपस्थित हैं। और जिन में वर्गीय और स्थानीय भिन्नताओं का अतिक्रमण हुआ मिलता है। और वास्तविकता इस तरह उजागर होती है जिस का समयांशों से कोई सम्बन्ध नहीं होता। इसीलिए आज भी उन महान कृतियों का दूरस्थ संवाद हमारे कानों में पड़ता ही रहता है और हम उस के लिए अपने कान ही नहीं, मन भी खुला रखते हैं। ये कृतियां हमारे जीवन का प्रेत पुनर्मंचन करती हैं लेकिन साहित्य को हम केवल अपना प्रेत निर्देशक नहीं, आत्मीय दोस्त भी बनाना चाहते हैं जो हमारे दंभ को पेड़ पर उल्टा लटका सके।
लेखक का मुंह ताकते रहने की हमारी विवशता बहुत लम्बी उम्र पा गई। सतारहवीं, अठारहवीं सदी तक भी तरह तरह के लुभावने चरित्र चित्रण, चरित्रों के साहसिक या मसखरी कारनामों का लम्बा वर्णन ही पढ़ते पढ़ते हम समझते रहे कि हम साहित्य पढ़ रहे हैं। दोनों बातें जो हमारे उसके बाद के लेखन को साहित्य बनाती हैं, वे 19 सवीं सदी में ही शुरू हुईं। हमने साहित्य को अपनी बात कहने का माध्यम बनाया। अपनी नई क्रूर स्थितियों का दर्पण भी बनाया और उसी से धीरे धीरे जनमानस में, अपने जीवन मूल्यों की छवियां उजागर होने लगीं। उन्नीसवीं सदी एक जादू की तरह आकाश से धरती पर उतरी थी। सदियों से गुलामी में जीती हुई कौमों का दम घुटने लगा था। आज़ादी एक ऐसा मूल्य बन गया था, जिस की धार पर चढ़ कर धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक असमानताएं और भिन्नताएं स्वतः कुंठित हो रही थीं और एक ही मंच पर आने को बाध्य हो रही थीं। एक साहसिक सामाजिक और धार्मिक उदारता जिसे हम पुनर्जागरण के नाम से जानते हैं, नए संघर्षों का कारण भी बन रही थी। औद्योगिक क्राँति योरोप में ही नहीं, पिछड़े और गुलाम देशों में भी जनसाधारण को अपनी जड़ों से उखाड़ रही थी। नई स्थितियों और संघर्षों से पैदा होने वाली नई साहसिक मुखरता ने साधारणजन की उपस्थिति को इस तरह दर्ज कराया कि उन्हें धर्म, राजनीति, उद्योग, कला, साहित्य, संगीत इत्यादि कोई भी अनदेखा नहीं कर सका। सभी क्षेत्रों में साधारण जन के सुखदुख की बात की जाने लगी। उन्हें आंका जाने लगा। सारा फोकस ही बदल गया। बात शासकों से उतर कर शासितों पर केन्द्रित होने लगी। संस्कृति का अर्थ बदल गया। संस्कृति सिर्फ़ ऊपरी तबके से संबंधित शब्द नहीं रह गया। लोक संस्कृति का उदय हुआ। कला, साहित्य, संस्कृति इत्यादि का लोक स्वरूप केवल-मात्र चित्रण और लेखन-अंकन में ही उपस्थित नहीं हुआ। बल्कि उससे पहले तक जितने भी स्थापित शक्ति स्त्रोत थे, उनके विरोध में खड़ा होना ही लोक कलाओं का केन्द्रीय बिन्दु बनना शुरू हुआ।
किसी की निर्धनता, असहायता या गुलामी या क्रूरता का चित्रण पहले भी होता था। लेकिन जिस वजह से ये स्थितियां हैं, उन के कारणों, उन शक्तियों की भर्त्सना और विरोध का उदय इसी समय में हुआ। धार्मिकता भी अपने सामाजिक संदर्भ में ज़्यादा उजागर होने लगी और समाज में राजनीतिक चेतना का स्वर प्रखर होता चला गया। साहित्य में आने वाले असहाय और अशक्त इन्सान और उनकी दयनीयता अब केवल वर्णनों से उठकर उसके कारणों से जुड़ने लगी। और कारणों के विरोध का स्वर हमारी राजनैतिक चेतना, पक्षधरता और सामूहिक सत्ता के रूप में हर माध्यम में नज़र आने लगा। साहित्य इस बदलाव का उतना ही बड़ा कारण बना जिनता समाजवादी दर्शन। जन साहित्य और समाजवादी दर्शन हमारी सब से बड़ी उपलब्धियां बनीं। यद्यपि चार्ल्स डिकेन्ज़ किसी समाजवादी दर्शन के प्रभाव में नहीं लिख रहे थे, लेकिन उन के लेखन में समाज का ऐसा सटीक, वास्तविक और निर्मम चित्र था जिस के आगे सरकार को भी नए कानून बनाने पड़े।
उन दिनों उद्योगों की मरीचिका ने लंडन में अनेक छोटे बड़े स्लम जगह जगह फैला दिए थे। रिहायशी बाड़े पैदा हो गए थे। उन बाड़ों में सिर्फ़ रोज़ी रोटी का संघर्ष ही नहीं दिखाई देता था, भरभरा कर गिरती हुई सामाजिक मान्यताओं की तस्वीर भी थे ये बाड़े। उनके लेखन में गलियों, शराबखानों, भिखारियों, चोर-उचक्कों, अभिजात्य/उच्च वर्गों, नितान्त कीड़े मकौड़ों जैसी चरमराते फट्टों के नीचे, दरारों, दराज़ों में जीती हुई दीमक की तरह दीवारें चाटती ज़िन्दगी की तस्वीरें इतनी ज़्यादा हैं कि पाठक को लगता है - मैं सारे लण्डन को जानता हूं। अतिश्योक्तियां बहुत आईं उनके लेखन में, जिस की वजह से उन से उम्र में काफी छोटे हैनरी जेम्स तथा अन्य समकालीन आलोचकों ने उन पर अतिभावुकता का दोष भी लगाया। लेकिन डिकेन्स लोगों के दुख में शामिल हो कर दुख का बयान कर रहे थे। रोने वालों के साथ रोना और हंसने वालों के साथ हंसना बांट रहे थे।
तटस्थता अनुभव अर्जित करने से पहले की स्थिति नहीं होती। वह तमाम अनुभवों को प्राप्त करने के बाद आती है। एक चिन्तन जो स्वतः उन अनुभवों और उन से अर्जित कलात्मक दिशाओं और संभावनाओं से पैदा होता है - वही उस तटस्थता को भी जन्म देता है। ऐसी तटस्थता शायद डिकेन्स में हर जगह नहीं थी, लेकिन उन की जनपक्षधरता से उत्पन्न भावनात्मक आप्लावन को अतिभावुकता कह कर हम खारिज नहीं कर सकते। आज हम से वे व्यथा कथाएं दूर हैं, आवाज़ें दूर हैं। इसीलिए वे सिर्फ़ भावुक नहीं, बल्कि सहज लगती हैं।
इधर भारत में उन्नीसवीं सदी भले ही पुनर्जागरण के आन्दोलनों का समय रहा हो, राजनीतिक चेतना के जागृत होने का समय रहा हो, हमारे ग्रामीण या शहरों के, कस्बों के निर्धनों, बेरोज़गारों और अछूत दलितों की स्थिति का मुकाबला डिकेन्स के इंगलैंड की सामाजिक स्थितियों से नहीं किया जा सकता। वहां नये नये औद्योगीकरण की मार थी। लेकिन हमारे यहां जैसी स्थितियां थीं उन्हें मानवीय स्थितियां भी नहीं कहा जा सकता। उन स्थितियों को इतिहास नहीं बखान सकता। केवल साहित्य ही पकड़ सकता है। उन्नीसवीं सदी के पुनर्जागरण का लाभ अगली पीढ़ी को हुआ। बीसवीं सदी के शुरू में ही प्रेमचन्द ने गले से पकड़ कर इन स्थितियों को झिंझोड़ दिया। कफ़न उन्हीं बेजोड़ कहानियों में एक है जिस पर एक ख़ास किस्म की कमजोरी का आरोप भी लगाया जाता है। कहानी के पात्र घीसू और माधव की स्थिति को सामाजिकता से अलग उन के बोध और अबोध के भीतर जा कर ही देखा जा सकता है।
जब ज़िन्दगी को बचाए रखने के लालच और साधन समाप्त हो जाएं तो अपराध बोझ भी समाप्त होने लगता है। साधारण से भी नीचे के स्तर पर जाकर ज़िन्दगी अपनी शर्मिन्दगी खो देती है। एक बदहवासी बच रहती है और ज़िन्दगी एक भोंडी, निरर्थक घटना की तरह अपनी ही आंखों से ओझल हुई रहती है। ऐसी स्थितियों को चित्रित करने के लिए संवेदना, कला और कल्पना तीनों चाहिए जो हमारे अवचेतन को चेतन के धरातल पर ला कर उस यथार्थ की रचना कर सकें जो अनदेखा भी रहा जाता है और अविश्वसनीय भी बना रहता है। इसी अविश्वसनीय अवचेतन को हम प्रेमचन्द की कहानी कफ़न में धरातल पर आया देखते हैं।
कफ़न के दोनों पात्र सामाजिक समझ और मान्यताओं के विपरीत अपनी तमाम शर्मिन्दगियों, अपमानों और डरों से मुक्त एक स्थिति में पहुंच कर लापरवाह हो जाते हैं। जहां उन का अवचेतन अपमानों, गालियों, भुखमरियों, निक्कमेपन, खुशामदी, टटुआपन और एक भोंडी अर्थहीनता से निर्मित हुआ है, उसी की जमी हुई बर्फ उस अप्रत्याशित उष्णता से पिघल कर बह निकली है। इसे धूर्तता कहना ठीक नहीं है। यह उस अवचेतन की पूरी जागृतावस्था है जहां उनके लिए संसार अर्थहीन है। सामाजिक कारोबार, रस्मोरिवाज़ और कर्तव्य-बोध पूरी तरह निलम्बित है। यह सामान्य व्यवहारिकता उन जैसों की ज़िन्दगी का हिस्सा थी ही नहीं। और फिर अवचेतन इस बात के लिए भी चेतन है कि औरत का मोल आखिर है क्या? सारे समाज में ही औरत का मोल कितना था! जितना था, वह भी सिर्फ़ बेहोशी में ही नहीं, अपने पूरे होश में भी, वे जानते हैं। नशे की हालत में जो भी अवास्तविक है, ओढ़ा हुआ है, थोपा हुआ है, सांसारिक है, रिवाज़ी है, सब कुछ भाप बन कर उड़ जाता है। भाप बन कर उड़ता भी इसीलिए है कि एक पत्थर की तरह मज़बूत सामाजिक मूल्यबद्ध स्थिति उन की कभी थी ही नहीं। उनका बाप-बेटा होना एक सामाजिक मान्यता से अधिक कुछ नहीं। अब स्थिति में वे सिर्फ़ दो आदमी हैं, अपनी सामाजिकता की स्थिति से ऊपर उठे हुए। यानी अपनी तिरस्कृत यथार्थ को प्राप्त किए हुए। उनके जीवन में, असम्बद्धताओं, विकृतियों और और ऊपरी जुगाड़ों को बेनकाब करती हुई वह स्थिति है जिसे संवेदनहीनता की मानसिकता कह कर नकारना केवल ऊपरी स्थितियों को भी न समझ पाना है। एक गहरी संवेदना ही अपारदर्शी स्थितियों के वास्तविक यथार्थ को उजागर कर सकती है। ऐसी संभावनाएं प्रेमचंद जैसे रचनाकार के हाथों पड़ कर असम्भव की कल्पना नहीं करतीं। और न ही कोई अमानवीय यथार्थ रचती हैं। वे उस तरह के आधारहीन, साधनहीन, बोधहीन, निर्धन तबके का ऐसा मारक क्षण पकड़ रहे थे जहां समाजबोध बिल्कुल समाप्त हो जाता है। पहले की अवशता और बाद की, कभी-कभी बहुत बाद की अवसादपूर्ण स्थितियों को ऐसे चरित्रों में एक साथ पकड़ पाना मुश्किल होता है। कहानी का फ़लक इतने फैलाव की इजाज़त नहीं देता।
यह कहानी हमारे सामाजिक आग्रहों और पूर्वाग्रहों की कड़ी बांच करती है। हमारे समाजबोध को कटघरे में खड़ा करती है। ऐसे प्रश्न पूछती है, जिनका उत्तर हम हां या न में नहीं दे सकते। विश्वास और अविश्वास दोनों इस स्थिति की तराज़ू में ऊपर नीचे होते रहते हैं। लेकिन उन पात्रों का अदृश्य या अन्तरालित अवसाद भी सामने होता तो पात्रों की तन्द्रात्मक बोधहीनता के यथार्थ की स्थिति में विश्वास का पलड़ा ही भारी पड़ता। एक महीन रेखा इस बोधहीन अतिशयता और फैंटेसी के बीच यहां देखी जा सकती है।
अपने बाहरी जगत के बोध को त्याग कर पूरे भीतर उतर जाने की मनस्थितियां 'कफ़न' के इलावा और भी कई सशक्त कहानियों में आई हैं। हम यहां चेखव़ की 'ग्रीफ़' और गैब्रियल गार्सिया मार्केस की 'बैल्थाज़ार की शानदार सांझ' को देखते हैं। तीनों कहानियों का बाहरी यथार्थ अलग है लेकिन मानसिक परिणति वही है, अपनी अतीन्द्रियता या अनीन्द्रियता में पहुंच जाना। बाहरी जगत अपना दबाव छोड़ देता है और विराट अन्तस्थली खुल जाती है एक दूसरी ही तरह की आत्मकेंद्रिता की। ये तीनों कहानियां अलग अलग टुकड़े हैं जिन्हें जोड़कर देखने से हमारे अन्तस की एक तस्वीर मुकम्मिल होती नज़र आती है। हमारी भीतरी अबाधित स्वतन्त्रता की। जीने, मरने या कुछ भी करने की हमारी आतंरिक अविरल स्वायत्ता की। बाहर का तालमेल जहां ख़त्म हो जाता है।
दूसरी कहानी - मार्केस की 'बैल्थाज़ार की शानदार सांझ' है। बैल्थाज़ार ने अपनी ज़िन्दगी का सबसे खूबसूरत पिंजरा बनाया, एक अमीर आदमी के बेटे के लिए। भीड़ लग गई पिंजरा देखने वालों की। एक डाक्टर ने देखा तो बोला - पिंजरा मुझे बेच दो, पैसे जितने मर्ज़ी लेना। बैल्थाज़ार अमीर आदमी के बच्चे के साथ विश्वासघात नहीं करना चाहता। बैल्थाज़ार की पत्नी खूब सारे पैसे मिलने की उम्मीद से खुश है। पिंजरा उठाए वह अमीर आदमी के घर जाता है। गर्व से पिंजरा डाइनिंग टेबल पर रखता है। अमीर आदमी बाथरूम से बाहर आता है - 'किस ने कहा ये पिंजरा बनाने को?' 'आप के बेटे ने', कारीगर बोला। बेटे को बुलाया गया। एक थप्पड़ की मार से बेटा बिलखता हुआ फर्श पर गिर पड़ा, पिंजरा लेने की ज़िद में। अमीर आदमी बैल्थाज़ार को डांटता है - 'पिंजरा लेकर दफ़ा क्यों नहीं होता? कुत्ते का पिल्ला।' बैल्थाज़ार बच्चे को पिंजरा थमाते हुए कहता है - 'मैंने इसी के लिए यह बनाया है। पैसे मुझे नहीं चाहिए। एक उपहार की तरह रख लो।' पिंजरा रख कर बिना कुछ लिए वह बाहर आया। बाहर खड़े लोगों ने पूछा - 'पचास पीसो मिले?' वह कहता है - 'पचास नहीं साठ।' सब उस पर गर्व कर उठे, कितना महत्वपूर्ण कलाकार है। शाम हो चुकी थी। बैल्थाज़ार सीधा शराबखाने गया। वह पहली बार शराब पी रहा था। उसने खुद भी पी, बाकी सब को भी पिलाई। दिन छिपने तक वह पूरे नशे में था। बोलता जा रहा था - “हज़ार पिंजरे बनाऊंगा, साठ का एक। फिर एक लाख पिंजरे बनाऊंगा। साठ लाख पीसो। हमें इन अमीर लोगों के लिए बहुत सी चीजें - बनानी हैं, इन सब के मरने के पहले। ये सब बहुत बीमार हैं और मरने ही वाले हैं।” वह नशे में धुत था, पगलाया हुआ। दो घण्टे तक वह संगीत सुनता रहा, पैसे फेंकता रहा। सब लोग उसकी खुशकिस्मती की दाद देते रहे। खाना खाने के समय तक सब जा चुके थे, उसे अकेला छोड़ कर। उसकी पत्नी आधी रात तक इंतज़ार करती रही। बैल्थाज़ार वहीं पड़ा सपने लेता रहा - एक खुले नृत्य मंच के, एक बड़े हाल के, सुंदर पक्षियों के। उसने महसूस किया कि वह बहुत थक गया है, एक भी कदम और नहीं उठा सकता। उसका मन किया - एक ही बिस्तर पर दो सुन्दर औरतों के साथ सोने के लिए। वह अब खाली हाथ, खाली जेब था। अपनी घड़ी तक वह दे चुका था, उधार के लिए। अगली सुबह, वह गली में पसरा पड़ा था। उसे लगा था जैसे कोई उसके जूते उतार कर ले जा रहा था लेकिन वह अपने जीवन के सब से सुन्दर सपने को बर्बाद नहीं करना चाहता था।
जीवन के इस वीभत्स्य का सूत्र भी बाहर की बदहवासी और भीतर की जगमग दुनिया में खुलता है, उस यथार्थ को देखने के लिए जो इन बदहवास स्थितियों से सिर्फ़ दो कदम दूर खड़ा है।
तीसरी कहानी है चेख़व की 'दुख'। कहानी का बूढ़ा अपनी बीमार बूढ़ी पत्नी को एक बर्फ़ीली तूफानी शाम में घोड़ा गाड़ी में लादकर डाक्टर के यहां ले जा रहा है। कफ़न कहानी के पात्रों की नितान्त बोधहीन स्थिति से यहां वक्त दो कदम आगे निकल गया है। इस अवसादपूर्ण स्थिति में पश्चाताप और प्रायश्चित की बुड़बुड़ाहट है। बूढ़ा शराब के नशे में है, मौसम बूढ़े-बूढ़ी की दशा जैसा ही बेहद ख़राब है। बर्फ़ के तूफान में कुछ रास्ता दिखाई नहीं देता। सारी उम्र जो पत्नी से दुर्व्यवहार करता रहा, उसे पीटता रहा - अब जैसे जानता है कि ये अंतिम क्षण सारी ज़िन्दगी से बड़े हैं, सारी ज़िन्दगी पर भारी हैं। बाहर के मौसम और अपने जाग उठे भीतर से झगड़ता हुआ बूढ़ा बुड़बुड़ा रहा है - कि देखो मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूं, इतनी तूफ़ानी रात में तुम्हें डाक्टर को दिखाने ले जा रहा हूं। अब तुम्हें कभी नहीं पीटूंगा, कभी बुरा व्यवहार नहीं करूंगा। अन्तःप्रकाश में भरकर कहता है कि अगर तुम बच गई तो तुम्हें बहुत प्यार करूंगा। बूढ़ी का सिर गाड़ी की लकड़ी से टकरा कर ठक-ठक की आवाज़ कर रहा था। हाथ छूने पर बूढ़ा जान जाता है कि पत्नी नहीं रही। गाड़ी मोड़ लेता है, वापिस पहुंच कर दफ़नाने का इन्तज़ाम करना है। यहां शराब का नशा, पत्नी की मृत्यु और बर्फ़ीला तूफ़ान मिल कर एक स्थगन पैदा करते हैं जिसे अंतिम सन्तुलन भी कह सकते हैं। बूढ़ा लगाम छोड़कर बैठ जाता है, उस बर्फ़ानी तूफान में भीतर की झंझा शिथिल पड़ जाती है और परिणाम ओझल। घोड़ा रास्ता जानता ही है, कौन है ये घोड़ा जो रास्ता जानता है? हम सभी के भीतर है ये घोड़ा जो रास्ता जानता ही है। सुबह बूढ़ा अस्पताल में है। बांहे-टांगें कटी हुई हैं। सर्दी में जम कर निर्जीव होने पर काटनी पड़ी थीं। धुंध छंटती है, प्रकाश होता है, लेकिन सब कुछ समाप्त होने के कुछ क्षण पहले। कफ़न कहानी में धुंध छटने का क्षण नहीं आया। उसके बाद शायद छंटी हो, ज़िन्दगी की पूरी कहानी कहां कही जा सकती है एक ही कहानी में।
अनुभव, संवेदना और दृष्टि तीनों ही एक दूसरे तक आती हुईं और एक दूसरे में समाहित होती हुई धाराएं हैं। एक दूसरे की पूरक भी और नए कलात्मक आयामों की संभावना स्थली भी। एक रचनाकार की कल्पना और कला ज़िन्दगी की ऊपरी त्वचाबोधक वास्तविकताओं का अक्सर अतिक्रमण कर जाती है। इस प्रक्रिया में वास्तविक यथार्थ को पकड़ने का आयोजन करती है। तरह-तरह के स्वांग भरती है। वस्तुओं, घटनाओं, दृश्यों, स्थितियों के आसपास, ऊपर नीचे भिनभिनाती रहती है। कभी कभी वास्तविक यथार्थ को पकड़ने के लिए नए नए और दिखने में असम्बद्ध यथार्थों की रचना करती है। क्योंकि अपने आप में कोई भी यथार्थ एकायामी या स्थितिबद्ध नहीं होता। कल्पना तरह तरह के पंख लगाकर दूरियां और गहराईयां नापती है। फैंटेसी रचती है, तन्द्राओं में जाकर अवचेतन में, अर्धनिद्रावस्था में, तनावों में, स्खलनों, अतृप्तियों, स्मृतियों, विस्मृतियों में यथार्थ ढूंढती है। इन्सानी स्वभाव के कब्रिस्तानों में, रातों उठ उठकर विचरते प्रेत लालचों, आकांक्षाओं, मर कर भी ज़िन्दा रहती हुई ज़िन्दगी की स्पष्ट अस्पष्ट मरीचिकाओं के भीतर-बाहर, ऊपर-नीचे, यथार्थ या उस का आभास मंडराता रहता है। एक कल्पनाशील कलाकार अक्सर अपनी बाहरी सामाजिक स्थितियों और मान्यताओं की अनदेखी करता हुआ अपना साहस दिखाता है, उस यथार्थ को पकड़ने की कोशिश करता है। चाहे उसे कितनी ही भर्त्सना का सामना क्यों न करना पड़े।
इसी तरह की अलग अलग संभावनाओं, संवेदनाओं, फंतासियों, कल्पनाओं के हाथों महान कलाकृतियों की रचनाएं हुई हैं। आधुनिक कहानी के इतिहास का लगभग आरम्भ ही एक ऐसी रचना से हुआ जो आज तक हमारी कला का मापदण्ड बनी हुई है। निकोलाई गोगोल की कृति - 'ओवरकोट'। दोस्तयोवस्की ने कहा था कि हम सब गोगोल के ओवरकोट से निकल कर आए हैं। जिन पाठकों ने 'ओवरकोट' नहीं पढ़ी, उन के लिए ही यह कहानी का संक्षिप्तिकरण है। एक बूढ़ा व्यक्ति है जिसे व्यक्ति कहना, तमाम बिखरे हुए सूत्रों को एक आकृति का रूप देने जैसा प्रयत्न होगा। नाम है अकाई अकाकियेविच। वह एक डिपार्टमैन्ट में काम करता है। शुरू से ही, कोई भारी चीज़ पकड़ने जैसा आभास गोगोल हमें करा देते हैं। वे कहते हैं, “बहुत बेचैन करने वाला शब्द है ये - डिपार्टमैन्ट। यानी सारे दफ़्तर, रेजिमेन्टस, कोर्ट कचहरियां, सब सरकारी विभाग, प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि इन में सारे समाज का अपमान समाया हुआ है।”
उस व्यक्ति के पास एक बहुत फटा पुराना सा ओवरकोट है। वही रोज पहने हुए काम पर जाता है। लोग उसे याद दिलाते रहते हैं, नया कोट ले लो। वह उसी को मुरम्मत कराने की सोचता है। कारीगर कहता है कि इसे मुरम्मत नहीं किया जा सकता। अपने वेतन में से जोड़ जोड़ कर और एक अतिरिक्त बोनस मिलने पर वह एक नया ओवरकोट खरीद लेता है। इतनी बड़ी आकांक्षा पूरी होती है। ओवरकोट एक प्रतीक है। एक ऐसा प्रतीक जो सारी बाहरी गलीज़ ज़िन्दगी को उघाड़े भी फिरता है और ढके भी रखता है। उस व्यक्ति को लोगों की नज़र में हास्यस्पद भी बनाता है और उसे एक भीतरी गंभीरता भी प्रदान करता है। उसकी आकांक्षा का प्रतीक, ऐसी विडम्बना का प्रतीक जैसे आकांक्षा पूरा होने का विधान उस के एकदम समाप्त होने के लिए ही रचा गया हो। पहले ही दिन, ओवरकोट पहन कर रात को घर जाते हुए कुछ उचक्के उसे धर दबोचते हैं, उस का कोट ले भागते हैं। इसी मोड़ पर अपने पूरे भदेस, निरर्थक, आत्मघाती, और अचूक क्रूर व्यवस्था का शिकार होती है ज़िन्दगी। जैसे कुछ खोने का यथार्थ पूर्ण यथार्थ नहीं है। एक क्षणिक स्थिति भर है जिस का एक राक्षसी मायावी उदर है और उस में वह यथार्थ छिपा है जिसे सामने आने या सामने लाने के लिए कई फंतासियों, जादुई प्रबन्धनों, कला प्रवणताओं को वैसी ही व्यवस्थाओं को रचना होगा जिन का वस्तुकरण हम वास्तविकता में नहीं कर सकते, केवल कल्पना के सहारे कर सकते हैं। वह बूढ़ा व्यक्ति अपना कोट छिन जाने की शिकायत लेकर नीचे के पुलिस कर्मचारियों की अनदेखी करके सीधे बड़े अफ़सर के पास चला जाता है। यथार्थ यही कि नीचे के कर्मचारी बेईमान हैं, कौन सुनेगा। विडम्बना यही कि ऊपर का अफ़सर बहुत ज़्यादा ऊपर है। इस छोटे से बूढ़े की उम्मीद दरासल एक बड़ी हिमाकत है जिस के लिए वह अफसर उसे इतना डांटता है कि घर आकर वह वह बूढ़ा उस दहशत के बोझ से दहल कर मर जाता है। लेकिन प्रेत बन कर वह सड़कों पर लोगों को नज़र आता है। लोगों के ओवरकोट छीन लेता है। उस अफ़सर का ओवरकोट भी छीन लेता है। अफ़सर का ओवरकोट छीनने के बाद बूढ़े का प्रेत नज़र नहीं आता। उस के बाद उन उचक्कों के प्रेत नज़र आते हैं जिन्होंने बूढ़े का कोट छीना था। इन चोर प्रेतों की सूरत उस मुच्छैल अफ़सर से मिलती है जिसने बूढ़े को खूब डांटा था।
इस फैंटेसी में ऐसा यथार्थ है जिसे पाने को हमारी विज्ञ चेतना, हमारा अमूर्त न्यायबोध सामाजिक, राजनीतिक प्रयासों में सिर्फ़ हताश होता है। इसी हताशा से वह ऐन्द्रिक निर्वासन जन्म लेता है। और कल्पना उन व्यवस्थाओं की संभावना निर्मित करती है और कला रचती है 'ओवरकोट' जैसी रचनाएं, जिनमें आने वाली कथा संभावनाएं परिलक्षित होती हैं।
फैंटेसी का प्रयोग कहानी के लिए उतना ही पुराना है जितनी कहानी कला। शुरू से ही, हमारा पुराणकाल ऐसी कथाओं से भरा पड़ा है। फैंटेसी हमारे दिवास्वप्नों और अंधेरे के भय की तरह ही स्थितियां रचती है जिन का सम्बन्ध उन्हीं यथार्थों से होता है जो हमारे बाहरी जीवन की प्रेरणाओं और प्रयासों को संचालित करते हैं। कौन सा भय या आकांक्षा हमें संचालित कर रही है, अपने प्रयासों में ढूंढना सदा ही मुश्किल रहा है। कला की शक्ति यही है कि वह मानवीय विश्वास अर्जित करती है, विशिष्ट को सामान्य और सामान्य को विशिष्ट बनाती है। छोटे मोटे (अविशिष्ट) अनुभव या स्थितियां केवल वही हैं जिन्हें कला के जादू से छुआ नहीं गया।
फैंटेसी को बड़े कलात्मक ढंग से और किसी गहन उद्देश्यपूर्ण अन्तदर्ष्टि के तहत ही प्रयोग किया जाना चाहिए। केवल प्रयोग करने के अति उत्साह में इस टैक्नीक का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। कुछ तथ्य, कथ्य या संभावनाएं इतनी अस्थूल और अशरीरी होती हैं कि उन्हें बोधगम्य बनाने के लिए फंतासी का ही सहारा लेना पड़ता है। कभी कभी वैचारिक तरलता को एक ठोस आकृति देने के लिए, एक सांचे में ढालने के लिए भी फैंटेसी का प्रयोग किया जाता है। इस के अतिरिक्त कुछ कथ्य ऐसे होते हैं जिन्हें पूरी निर्वसन वास्तविकता में कहने के लिए साधारण कथा का कलेवर उपयुक्त ही नहीं होता। फंतासी उसी अनुपयक्तता को ढक लेती है। और जो ग्राह्य नहीं है, वह भी ग्राह्य बन जाता है। इसके अतिरिक्त जहां ऐतिहासिक कथाओं या मिथकों का सहारा लेकर फंतासियां बुनी गई हैं, वहां अक्सर सुबोध इतिहास तत्व या मिथक ही ज़्यादा प्रभावशाली बनते हैं। गोगोल की तरह ही हमारी कहानी यात्रा के लगभग दूसरे पड़ाव पर ही इतिहास-फैंटेसी जैसा प्रयोग हुआ था। एक उदाहरण - अज्ञेय की कहानी 'जयदोल' लिखी गई थी। इस इतिहास-स्वप्न में एक मानवीय कोण है जो इसे अनिवार्य मुद्दे से जोड़ता है और स्वप्न में देखी गई इस इतिहास-कथा को एक आधुनिक उद्देश्य प्रदान करता है।
कथा का पात्र सागर सारी घटना नींद में देखता है। स्वप्न की अपनी वास्तविकताओं को लाघंती हुई यह कहानी इस अर्थ में फैंटेसी बनती है कि सागर स्वयं इस कथा का पात्र बन जाता है। सागर उस अर्धचंद्र बादलों भरी बरसाती रात में महल की दीवार से पीठ टिकाए बैठा है, सोचते सोचते, इतिहास को जीवन्त करते हुए उसे नींद आ जाती है। इतिहास रुकता नहीं। निद्रा में भी वही कड़ी आगे बढ़ती है। एक कर्तव्य बोध सागर में जागता है। अक्षत कुमार को चूलि फा से लड़ाई में मरने से बचाने के लिए सागर गोली चला देता है। और तभी नींद खुल जाती है। इस कहानी में इतिहास भी उतना ही है जितना ऐसी स्थिति में हो सकता है। रानी जयमति को बन्दी बना कर यातना देने पर भी, उसके अडिग रहने की भावुक स्थितियों के उपरान्त भी एक सामाजिक पक्ष कहानी के साथ जुड़ जाता है जो इस सारी कथा को अपनी रोमान्टिक नियति से बाल बाल बचा लेता है। सत्ता बनाये रखने के लिए बाकी सब को अपंग बनाए रखना ज़रूरी है, और यह कि जनता केवल अवसर की तलाश में रहती है नृशंस अन्याय को समाप्त करने के लिए। कहानी का अन्तिम भाग इस ओर संकेत ही नहीं करता, सारी कथा को नये मोड़ पर ला कर समाप्त करता है और इस स्वप्न फैंटेसी को हथेली भर सही, एक अपेक्षित यथार्थ भूमि से जोड़ता है।
दूसरी ओर मुक्तिबोध की कहानी है - ब्रह्मराक्षस का शिष्य। एक सिंहद्वार से भीतर जाकर एक बड़ी महलनुमा हवेली है। हवेली के एकान्त में ब्रह्मराक्षस अपने ज्ञान से दीप्त एक अभिशप्त स्थिति में कर्महीन, प्रेत जीवन जीता है। अपने गंवार, मूर्ख शिष्य को बारह बरस निष्ठापूर्वक ज्ञान प्रदान करने की सक्रियता में ही वह ब्रह्मराक्षस इस संसार के प्रति कुछ कर सकने की स्थिति के बाद शांति महसूस करता है। लेकिन शिष्य को बारह वर्ष बाद बाहर देखकर लोग भूत समझते हैं। क्या वह भी भूत बन कर जिएगा या कर्म में मुक्ति ढूंढेगा। भवन से बाहर आना सांकेतिक है कर्म में प्रवेश का। प्रयोग मिथक शैली में किया गया है। भीतरी बाहरी कुछ भी नहीं। अपने निर्वाह में पूरी तरह मिथकीय इस कहानी को फंतासी कहना अशुद्ध लगता है।
तीनों कहानियां अलग अलग रूप में सांसारिक मांसल यथार्थ के माध्यम से गुज़रे बिना अपना यथार्थ प्रेषित करती हैं। गोगोल और मुक्तिबोध सीधी सामाजिक चेतना और अपेक्षित यथार्थ की बात करते हैं।
अज्ञेय अपनी मानवीय दृष्टि को एक रोमांचक इतिहासात्मक कथा में प्रस्तुत करते हैं। एक प्रत्यक्ष या परोक्ष जीवनदृष्टि तीनों में है। बड़े सर्जकों में केवल यथास्थित्यात्मक कुछ नहीं होता।
कहानी चाहे लम्बी हो या छोटी, अन्तःसूत्रता या सूत्र केंद्रिता उसका ऐसा ही नियम है जैसे गुरुत्वाकर्षण। परिधि से सब कुछ एक अनिवार्यता के साथ केन्द्र की तरफ़ बढ़ता हुआ, केन्द्र से परिधि की तरफ़ नहीं। शिल्प द्वारा समय, स्थान, घटनाएं और अन्य कार्य-कारण तत्व इस तरह अन्तर्गुफित होते हैं कि उन तत्वों के बीच की आवाजाही उस प्रभाव को खण्डित नहीं करती जो धीरे-धीरे निर्मित होकर एक शीर्षबिन्दु पर पहुंचता है। लम्बी कहानियों में वे शीर्षबिन्दु एक से ज़्यादा हो सकते हैं लेकिन संगीत के अलग सुरों की तरह वे एक लयबद्धता ही पैदा करते हैं। एकाग्रता और संवेदना का घनीभूत क्षण तिरोहित नहीं होने देते। लम्बी कहानियों में शिल्प की कटिबद्धता स्थान, समय, घटनाओं और तत्वों की सहज एकता में ही उजागर होती है।
हमारी बहुत सी लम्बी कहानियों में यह सहजता और एकता खंडित होती नज़र आती है। विशेष तौर पर कुछ नए कहानीकारों की बृहत संभावनाओं को देखते हुए यह चिन्ता जागती है। एक ही साथ, एक ही समय और एक ही जगह बहुत कुछ कहने की नितान्त अनिवार्यता हो, तो भी कहानी का उद्देश्य प्रभाव की एकाग्रता और सघनता होता है।
लम्बी कहानी की बात करते हैं हम आज की प्रमुख भारतीय अमरीकी कथाकार झुम्पा लाहिड़ी से। मानव सम्बन्धों में अप्रत्याशित की चितेरी। भारत हमेशा उनकी रचनाओं में मौजूद ही नहीं रहता बल्कि केन्द्रीय कथा सूत्र उन्हीं चरित्रों से आते हैं जो भारतीय मूल के हैं। अमरीकी मूल के लोगों के साथ अन्तर्सम्बन्ध और जीने की कला ही उन की रचनाओं का ज़्यादातर आधार बनते हैं। जीने की कला का अर्थ है - एक ही जैसे मूल्यों और परिवेश में रहते हुए भी ज़िन्दगी को देखने का कोण ही सब कुछ तय करता है। धरातल केवल छद्म है। एक 'अप्रत्याशित' सम्बन्धों के आधार में कुंडली मार कर बैठा रहता है। वह सामने आता है उस परस्परता में जहां उस की हम सब से कम उम्मीद करते हैं। यह परस्परता वास्तव में एक आकर्षक अन्तर्विरोध की स्थिति पैदा करती है। किसी भी घटना से वह अप्रत्याशित सामने आ जाता है। हमेशा ही दुःस्वप्न की तरह नहीं। कभी कभी अन्धेरे में अचानक रोशनी हो जाने की तरह। एक अतिरिक्त समझ पैदा करता है यह अप्रत्याशित और टूटने-जुड़ने की प्रक्रिया को सह्य और सहज भी बनाता है।
झुम्पा की नई कहानी 'Unaccutomed Earth' (अनएकस्टम्ड अर्थ - उन के नये कहानी संग्रह का नाम भी) थोड़ी अलग तरह के अप्रत्याशित की कहानी है। बेटी रूमा अपने अमरीकी पति Adam के साथ और पांच साल के बेटे आकाश के साथ रहती है। लगभग एक वर्ष पहले मां की मृत्यु हो गई। पिता दूसरे शहर में अकेले हो गये, एक साल पहले मां की मृत्यु के बाद ही पिता रिटायर हो गये। लगभग सत्तर की उम्र है उन की। पिछले वर्ष से मां के देहान्त के बाद से ही वे इधर उधर की यात्राओं पर गये रहते हैं। अब वे एक सप्ताह के लिए बेटी के पास रहने आ रहे हैं। आते ही आकाश के साथ मग्न हो जाते हैं। बेटी के यार्ड, में नये फूल पौधे लगा देते हैं नई क्यारियां बना कर। बेटे आकाश के लिए भी एक क्यारी जिस में वह अपने रबर, पैन्सिल और खिलौने उगायेगा। पति एडम काम के सिलसिले में बाहर गया है। इस सप्ताह बाप, बेटी और नाती आकाश अपने एकान्त में बहुत मधुर समय गुज़ारते हैं। पिता अपनी पिछली योरोप यात्रा का वीडियो दिखाते हैं। वीडियो में टूरिस्ट बस की बराबर वाली सीट पर दो एक बार एक औरत की सिर्फ़ बांह दिखाई देती है, औरत नहीं। वापिस जाने के एक दिन पहले पिता ने बेटी से एक पोस्टल स्टैम्प मांगा था। अगले दिन वे अपना पोस्टकार्ड ढूंढते रहे जिस पर उन्होंने वह स्टैम्प लगाया था। एअरपोर्ट जाने की जल्दी में वह पोस्टकार्ड के बिना ही निकल गए। उन के जाने के बाद बेटी को आकाश की क्यारी में वह पोस्टकार्ड आधा गड़ा हुआ मिलता है। उस पर बांग्ला में कुछ लिखा हुआ था। लड़की को बांग्ला पढ़नी नहीं आती। पता अंग्रेज़ी में था - किसी मिसेज मीनाक्षी बख्शी के नाम। बेटी वह कार्ड पोस्ट कर देती है। जब एडम अपने टूर से वापिस आता है, फूलों की क्यारियां देखता है। पूछता है - पिता का वहां रहना कैसा रहा। बेटी कहती है - इतने सहज वे पहले कभी नहीं थे। एडम पूछता है - क्यों।
'ही इज़ इन लव' बेटी कहती है। कहानी इसी अप्रत्याशित के साथ समाप्त होती है।
एक लम्बे समय को समेटती है यह करीब चालीस पन्नों की कहानी। जब मां जीवित थी, तब वे भारत जाया करते थे। जब बेटी की शादी नहीं हुई थी, शादी के बाद की ज़िन्दगी - सब कुछ सहजता से खुलता चला जाता है। कहानी अपनी परतें खोलती है, समय में आगे पीछे जाने के शिल्प द्वारा, लेकिन यह विचरण एक स्मृति जैसा ही है जो घटनाओं के तरल माध्यम में कहानी को खोलता है, आगे बढ़ता है। पीछे जाने की बात एक कथा सूत्र से शुरू होती है और वापिस बिना किसी व्यवधान के वहीं आ जाती है। संवेदना का तार कहीं टूटता नहीं। किसी हिस्से को इतना तोड़ता नहीं कि उसे काट कर अलग पढ़ा जा सके। पाठक की उत्सुकता या संवेदना एक अटूट संदर्भ में आगे बढ़ती है। कोई भी ऐसा संदर्भ जिसे बिल्कुल अलग से पढ़ा जा सकता हो, उस संवेदनाऊर्जा को स्थगित ही नहीं, कभी कभी स्खलित भी कर देता है। यह शिल्प की असावधानी या तो अनुभव की कमी से पैदा होती है या उस अविज्ञता से जहां लेखक अपने आप को पाठक से ऊपर समझ लेता है। इस तरह की मनमानी झुम्पा की कहानियों में नहीं है। झुम्पा का अप्रत्याशित कहीं भी सम्भावनाओं से ऊपर नहीं है। लेकिन इस में कोई शक नहीं कि झुम्पा अनुभवों के व्यापक संसार की रचनाकार नहीं है, जहां इन्सान की भीतरी शक्तियों की परीक्षा होती है और इन्सानी स्वभाव को साहसिक आधार मिलते हैं और सम्भावनाओं को विस्तार मिलता है। अपने समय की चुनौतियां भी वहां नहीं हैं। प्रतिपक्ष का आईना भी नहीं है। इसीलिए, बदलने का संघर्ष भी नहीं। यह सब जो ग्रेट मास्टरज़ (Great Masters) का हिस्सा है, वह झुम्पा में नहीं है।
झुम्पा की यह कहानी मां की मृत्यु के बाद का अप्रत्याशित देखती है। इसी बात के बराबर मां के संदर्भ को उठाती हुई हिन्दी की युवा कथाकार कविता की कहानी है 'उलटबांसी'। यहां हमारे समाज का अमरीकी समाज से बिल्कुल अलग होना साफ़ दिखता है। मां का शादी करना अमरीकी समाज में उतनी ही साधारण बात है जितना किसी अविवाहित युवा बेटी का शादी करना। किसी भी आयु की औरत अपना साथी चुनकर अपने ढंग से रह सकती है। सम्बन्धों के आधार हमारे यहां इतने बदले नहीं हैं। मां जैसे केवल एक संस्था है जिसे पारिवारिक मूल्य घर भर के लिए संभाल कर जीते रहना है। इतनी ज़्यादा अकेली पड़ी हुई मां का साथ देने वाली बेटी भी अपने लिए कांपती हुई लौ देखती है अपने पति की असहमति में। सिर्फ़ पोती निष्कम्प है, बेटी से भी ज़्यादा निष्कम्प। अगली पीढ़ी की बात भी इसमें लक्षित है और एक किशोरी का असांसारिक निश्च्छल मानवीय उत्साह भी, जहां आज़ादियों और सपनों को खुली धरती मिलती है। सिर्फ़ स्त्री होना काफी नहीं रहता। स्त्रियां तो इस कहानी में और भी हैं - दो भाभियां। ज़रूरी नहीं कि सभी बेटियां इस कहानी की अप्पू की तरह व्यवहार करें। मां को समझने, उस की स्थिति में एक गहन संवेदनात्मक प्रवेश ही इस पक्षधरता को रचता है, केवल स्त्री-चेतना नहीं। आधी दुनिया मांओं और बेटियों की है, लेकिन पारिवारिक सम्बन्धों में उनकी अबाधता विरल है, हर जगह धार अवरुद्ध है।
धार इस कहानी में भी अवरुद्ध है। मां के पक्ष में खड़ी होने वाली बेटी मां के नए साथी को मिलना ज़रूरी नहीं समझती। पिता का स्थान लेने वाले व्यक्ति से मिलना सहज बनाने के लिए कहानी को और आयामों में प्रवेश करना पड़ता। वह शायद अप्पू की कड़ी परीक्षा होती। जो अप्रत्याशित है, वह इस कहानी में सहजता से प्रवेश करता है। एक ही आयाम, एक ही संदर्भ की कहानी है, इसलिए शिल्प का अधिक जोखिम नहीं, जहां संवेदना की धार टूटने या अवरुद्ध होने का खतरा हो। इस कहानी का शिल्प हर स्थिति को ठीक समय पर खोलता है। कहानी के शुरू में अप्पू की अन्तः यात्रा कुछ लम्बी हो गई है। कथा की वैचारिकता को कथा से ही व्यक्त होने देना ज़रूरी है। कथा नियति की अबाधता के मार्मिक प्रस्फुटन के साथ अन्त होती है -
'मां ने आखिर मुझे ये चाबियां क्यों दीं? क्या समझ लिया मां ने सब कुछ... फिर भी... ? तो क्या मुझे लौटना होगा मां की उस कोठरी तक, मां के उसी अकेलेपन के पास?'
यह वही पूर्वाभास है जहां से स्त्री चेतना की व्यावहारिक लड़ाई शुरू होती है।
बाज़ार का दूसरा नाम है अवसर। केवल अवसर, अवसर की समानता नहीं। हालांकि जहां से यह व्यापारी नज़रिया शुरू हुआ, वहीं का नारा है अवसर की समानता। समानता शब्द इस दबाव और आपाधापी में स्वयं कहीं गायब हो गया। समानता की बजाय अब अवसर की चुनौती हमारे सामने है। इस स्थिति को हमारी मानसिकता ने स्वीकार कर लिया है। उसी स्वीकार की अभिव्यक्ति हम अपनी रचनाओं में देखते हैं। यथास्थिति सही तस्वीर है। लेकिन एक के बाद एक इन सही तस्वीरों का तांता लगा हुआ है। इस तस्वीर को पूरी नकार देने वाली या गलत करार देने वाली रचनाएं अभी नहीं हैं। हैं भी तो बहुत कम। शायद अभी यह तस्वीर पूरी होना बाकी है। जैसे बात पूरी होना बाकी रह जाता है। लेकिन हम बात पूरी होने के इन्तज़ार में स्तब्ध हैं और संवाद पूरा करने के लिए एक दूसरी बात भी ज़रूरी है। और दूसरी बात है - जोखिम।
ज़िन्दगी के घोर अन्धेरे और जाखिम में प्रवेश करती सांस्कृतिक आतंकवाद और भुखमरी की एक कहानी है 'ए प्रेयर फ्राम द लिविंग' नाईजीरियन विश्वविख्यात कहानीकार बेन ओकरी की। सांस्कृतिक आतंक कई माध्यमों से फैलाया गया है। ये कहानी है बन्दूकों के माध्यम से दूसरी धरतियों पर जाने, वहां के नागरिक युद्धों में दखल देने और व्यापक नरसंहार को वहीं के लोगों के सिर मढ़ देने की चालाक और नृशंस कुकृत्यों की। अफ्रीकी देश सोमालिया में अमरीकी फौजें नब्बे के दशक में इसी उद्देश्य से घुसी थीं। गृहयुद्ध के इलावा, सब फसलें बरबाद हो जाने और बाहर से की कोई सहायता न मिलने के कारण वहां भयानक अकाल की स्थिति बनी हुई थी। लाशों के ढेर उठाने वाले भी नहीं थे। आकाश में हवा भी इतनी नहीं थी उस दुर्गंध को कहीं उड़ा ले जाए या जज़्ब कर ले। एक शहर है जिस का नाम लेखिका नहीं लेती केवल 'शवों का शहर' कह कर उसे हमारे सामने लाती है। अपने परिवार के लोगों को ढूंढने एक लड़की निकली है। उसके मां, बाप, और प्रेमी उस में मारे गये होने का डर है। उस शहर की सीमा पार कोई शहर या बस्ती नहीं है। केवल मरुस्थल है। घरों के बाहर भी मरुस्थल ही है। उस शहर में वो एक लाशों भरे मैदान में घूम रही है। एक एक शव को उलटती पलटती। कोई परिचित चेहरा मिले तो शान्ति मिले। तीन हफ़्ते की भूख प्यास का भी अब कोई एहसास नहीं। खाना वहां था ही नहीं। ऊपर से, हवाई जहाज़ों से गिराया जाने वाला खाना बन्दूकधारी आतंकी लूट ले जाते थे। ये सब गृह आतंकी 'वार लार्ड' थे। इन्सानों के साथ साथ पशुओं के, गायों, घोड़ों के शव भी थे। सिर्फ़ फौजी सिपाही जीवित थे। एक सूचना के आधार पर वह इस शहर में आई थी। अपने भाई की लाश उसे मिली थी, सूचना ठीक ही थी। आखिरकार, बाहर एक कुंए के पास अपने परिवार की बाकी लाशें मिलीं। उन पर मिट्टी उलीच उलीच कर उसने डाल दी। सिर्फ़ उन के चेहरे ढक सकी। अपने प्रेमी की तलाश में वह अब भी थी। एक उजड़ी हुई स्कूल की इमारत में वह घुसी। एक गाय भी साथ घुसी। वहां भी बहुत से शव थे। उसके प्रेमी का शव भी था। पहचान कर वह उस का हाथ पकड़ कर दीवार के सहारे बैठ गई। गिरने को तैयार। तभी उसकी आंखों में तेज़ रोशनी पड़ी। कैमरों के फ्लैश थे। दो एक पत्रकार थे। उन्हें देख कर वह मुस्कुरा दी। मरने से पहले की अपनी आखिरी हंसी। छोटी सी कहानी समय के गर्त में ले उतरती है। गर्त का अंधेरा कहानी के प्रकाश से जगमगा उठता है।
हर समय दहशत में रहने का जोखिम है। दहशतगर्दी एक आम शब्द बन गया है। क्या इतनी आम हो गई है दहशतगर्दी! लोग दुबक गए हैं घरों में या दहशत में निकल पड़े हैं रास्तों पर। लोग घरों में दुबके हैं और डर के साए रास्तों पर निकल पड़े हैं। इसी आभासीय यथार्थ की कहानी है गीतांजलि श्री की 'आजकल'। कहीं छिप कर भाग न जाना, अपने घर में ही बैठे रहना, अपने आप में एक साहसिक मुद्रा बन गई है। एक व्यक्ति साहस बटोर कर सोचता है कि मैं यहां रहता हूं, सब को पता है। कोई आता है तो आ जाये। डरने की क्या बात है। दरासल 'कोई आता है तो आ जाये' में ही सारा डर छिपा है। बत्ती जला कर बरामदे में बैठे रहना ही डर से भरे रहना है। बाहर सेमल के पेड़ की तरफ़, सड़क को देखते रहना दहशत के सायों को आकार देना है। गीतांजलि श्री की कहानी इस छाती फुला कर बैठने और भय से दम निकलते रहने का ऐसा वातावरण पैदा करती है जिसे हम कई संदर्भों में अपने चारों तरफ़ फैले हुए देखते हैं। इस कहानी में डराने वाला साया साम्प्रदायिकता का है। भीड़ कभी भी यहां आ सकती है। भीड़ का शोर चाहे कम हो लेकिन हम 'कान में हियरिंग एड लगा कर बैठे हैं।' कोई आहट बिना सुनाई दिये बच कर नहीं निकल सकती। सारा अस्तित्व निलम्बित है इन आहटों को पकड़ने में, इन सायों पर नज़र रखने में। कहानी में साया दीवार के साथ चल कर, पेड़ की डाल से उछल कर, दीवार फांद कर घुस आता है घर में। बहुत कुछ समेट कर एक हरे डफ़ल बैग में भर कर वापिस निकल जाता है सड़क पर। दहशत में भरा व्यक्ति सोचता है, जब मैंने उसे घर में नहीं पकड़ा तो बाहर सड़क पर पकड़ने क्या जाऊंगा। व्यक्ति अपने डर में अटल है और साया अपनी दहशतगर्दी में कामयाब।
इस कहानी में यथार्थ ऐसा है जो घटनाओं में नहीं घट रहा। अपने आभास में एक दबाव की तरह हमारे चारों तरफ़ फैला हुआ है। घटनाओं से भागा जा सकता है, टाला जा सकता है उन्हें, लेकिन उनके आभास से कैसे भागें। जो नहीं घटा, उस के घट जाने का डर ही असली दहशत बनी हुई है। दहशत गर्द साये हैं, जिन से आगे या पीछे भाग नहीं सकते। इस अहसास को बखूबी जामा पहनाती है यह कहानी।
पिछले दस बाहर वर्षों की हिन्दी कहानी ने बहुआयामी संदर्भ रचे हैं। परम्परा से विच्छेद उतना ही - जितना परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए ज़रूरी होता है। देखने में लगता है कि अपने परिवेश और सामाजिक समस्याओं से हमारी कहानी कट गई है। ये दूरी महसूस होना ही परम्परा की अगली कड़ी है। कहानी जैसे 3-डी (थ्री-डाईमेन्शनल) हो गई है। अपना समाज, वैश्विक समाज और बीच का अन्तर्प्रवाह। यानी हम यहां भी हैं, वहां भी और बीच में भी। और फिर बहुत सी ऐसी बातें हैं जिन का मूल स्वरूप ही बदल रहा है। आज मानवीय सम्बन्धों की संस्थाबद्धता उस तरह से अपने अति परिभाषित रूप में मौजूद नहीं है जितनी कुछ समय पहले तक थी। पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-बहन, प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे से उतने ही सम्बन्धित हैं कि सन्तुलन बना रहे। लेकिन सन्तुलन बिगड़ना भी कोई दुखद घटना नहीं रह गई जिस का बखान हमारे चेहरों को ज़्यादा देर तक विकृत रख सके। शरीर आज अपनी बन्धक यथास्थितियों से ऊपर उठकर सम्बन्धों के मुक्त यथार्थ को ज़्यादा महत्व देते हैं। प्रणय अवसर की तलाश अपनी गुह्यता से निकल कर खुले आकाश के नीचे आ गई है। सपने केवल दिवास्पप्न नहीं रहे। जिज्ञासाएं अनावृत्त हैं। सपनों और जिज्ञासाओं के पूर्ति प्रकाश में ही प्रणय संबंधों की सार्थकता है। आज निम्नमध्यवर्गीय परिवारों की आकांक्षाओं में भी कोई सापेक्षता नहीं है। वे हर अपेक्षा से बड़ी हैं। हर व्यक्ति का संघर्ष उस के कद से बडा है और विडम्बना यही है कि संघर्षों का समाप्त होना आज की ज़िन्दगी का मकसद नहीं रहा। मध्यवर्गीय परिवार अपनी मानसिकता में मध्यवर्गीय नहीं रहे। आज मध्यवर्गों के घरों में दरवाज़े नहीं हैं। वे पलायन को निर्बाध रखना चाहते हैं और यही बात मध्यवर्गीय सम्बन्धों में भी है। पलायन को निर्बाध रखना।
मृत्युबोध अपनी नई समयहीनता लेकर आया है। मरना अब हारी बीमारी या उम्र से संबंधित नहीं रहा। आतंक सिर्फ़ आतंकवादियों का ही नहीं है। ज़िन्दगी के दैनिक स्वरूप की अकारणता, अनिश्चितता, असम्बद्धता का आतंक है। चीज़ों के निर्णायक हम स्वयं नहीं रहे। छोटी छोटी स्थितियां भी बड़े बमों से अधिक विस्फोटक हैं। उन्हीं का आतंक ज़्यादा है। आज की कहानी में यही कुछ व्यक्त हो रहा है। केवल एक देशीय या स्थानीय मानसिकता से उठकर हिन्दी कहानी वैश्विक मानसिकता की कहानी बन गई है। विश्व के किसी भी हिस्से में पढ़ी जाकर हमारी कहानियां पराई नहीं लगेंगी। हमारी परिस्थतियां अलग हैं। लेकिन सोच हमें अपनी परिस्थिति में सीमित नहीं करती। वैश्विकता का इतना ही अर्थ है कि आज का मध्यवर्ग एशिया, योरोप, अमेरिका, लेटिन अमेरिका यानी दुनिया के बड़े हिस्सों के मध्यवर्ग जैसा ही हो गया है। प्रयत्न और आकांक्षाओं का उद्वेलन एक सरीखा है। वित्तीय स्थिति का अन्तर केवल बाहरी अंतर है, भीतरी प्रवाह वही है जो शक्ति और ह्रास, दोनों का स्त्रोत है। आज की कहानियां अपने अनुभवों के प्रति ईमानदार हैं। और उन्हें कैसे व्यक्त करना है, अपना यथार्थ कैसे प्रेषित करना है, इस प्रयास में शिल्प के नए-से नए प्रयोग किए जा रहे हैं। जहां कहीं अतिशयता, असहजता, सायासता नजर आती है, वह कथ्य को आत्मसात न कर पाने की वजह से नहीं है, वह रचना कौशल के अनुभव की कमी के कारण है। अधिक कसे हुए या ढीले ताने बाने से साध्य की प्रमुखता जहां ओझल होती दिखाई देती है, वह शिल्प के प्रति अति उत्साह से पैदा होती है। विषयों की विविधता में व्यक्त होती है, हमारे समय की चकाचक, बाज़ारू किस्म की समस्याएं, सम्बन्धों की सरल, तरल, आकारहीन प्रवाहमयता, निम्न और मध्यवर्गीय ज़िन्दगियों की महत्वाकाक्षाएं और उन में छिपी हुई विडम्बनात्मक हास्यास्पदता। हर समय आकारहीन आतंक के आभास से आतंकित हुए, असुरक्षा की फैंटेसी में जीते मरते हुए, कुछ न हो सकने, कुछ न कर पाने के बाज़ारी दबाव को हथेलियों से पीछे धकेलते, स्थितियों को जश्न की तरह भोगते आज के युवाः घरों को अदृश्य बनाती हुईं, कभी भी कहीं भी उठ कर चले जाने, देस को देस, परदेस को परदेस न समझने की हमारी निर्मूलता - इन सब तत्वों को पकड़ने के लिए एकायामी शिल्प काफी नहीं रहता। एक के बाद एक तस्वीर लाने के लिए और उनका तारतम्य बनाए रखने के लिए, प्रभाव की एकाग्रता को अखण्ड रखने के लिए, एक स्लाईड शो जैसा लगने से बचने के लिए जिस शिल्प साध्यता की ज़रूरत होती है, वह आसानी से पैदा नहीं होती। अनुभव के साथ ही वह कला कौशल आता है। विश्व के बड़े बड़े कथाकारों के ताने बाने में भी कभी कभी वह झोल नज़र आता है लेकिन उनकी स्तब्ध कर देने वाली अनुभव दृष्टि उन्हें प्रभावहीन होने से बचा लेती है। जैक लण्डन इस का एक उदाहरण हैं।
हमारे नए कहानीकारों में रवि बुले की तीन कहानियां हैं, बिल्कुल अलग अलग विषय पर अचूक बात कहती हुईं। 'पुरखों का घर', 'आईने, सपने और बसन्त सेना' तथा 'लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने'। पुरखों का घर एक भुतहा प्रदेश जैसा माहौल बुनती है। वक्त के किसी भी हिस्से में इस कहानी को रखा जा सकता है। आज, कल या आने वाले कल या उस से भी ऊपर। पुरानी प्रथाएं यहां सब मौजूद हैं। जिन्न, भूत, चुड़ैल सब मौजूद हैं। ईर्ष्या और डाह इस कद्र मौजूद हैं कि जैसे सारा जीवन इन्हीं की भेंट चढ़ा रहता है। कहानी में कक्का हैं जो इतने शक्तिशाली हैं कि हर जगह मौजूद होने का आभास दे सकते हैं। जिन से कोई काम असाध्य नहीं है। जो पहले घर की धुरी जैसे नज़र आते हैं, उन्हीं की ऐसी दुर्दशा, ऐसा असह्य अन्त। शराब के नशे में धुत पिता का कक्का को जंजीरों से बान्ध कर रखने, उन्हें लाठियों से पीटने, उन के ज़ख्मों से खून बहते रहने पर भी पीटते रहने, अन्त में उनके मर जाने तक पीटते रहने की क्रूरता का वर्णन नितान्त असह्य हो उठता अगर कहानी इसी पिता की दुर्दशा से शुरू न होती। एक चक्र है जिस के खत्म होने पर ही कहानी शुरू होती है। बड़ी निर्ममता से कहानी ज़िन्दगी के इस अन्यार्थ को साधती है। संतान पाने का मोह, ईर्ष्या, क्रोध, संपत्ति का लालच, घर में वैमनस्य, स्त्री मोह, सब मिलकर एक अचूक त्रासदी को जन्म देते हैं। स्त्री के कपड़े पहन कर अपने मरणासन्न पिता के सिरहाने बैठे उन्हें किसी अपूर्व सांत्वना देने का प्रयास करते कक्का, जिन्न कक्का और उन का असह्य अन्त एक अकथ की कथा जैसा है। विषय की आधुनिकता इस कहानी में तलाश करना फिज़ूल है। यह उन घिनौने अनर्थों की कहानी है जो अव्यक्त रूप से कम, एक सांकेतिक रूप से ज़्यादा हमारी ज़िन्दगियों को परत दर परत घेरे रहते हैं। कक्का ऐसा आभास छोड़ जाते हैं जो किसी यथार्थ से पकड़ा नहीं जा सकता। हालांकि अयथार्थ का जादू भी इतना नहीं है कि कहानी की स्थितियों को असांसारिक बना दे। चरित्र अविश्वसनीय हो उठता अगर कहानी के शुरू से ही उसे साधारण की सीमा से कुछ बाहर कर के न रचा गया होता। सब कुछ नष्ट हो जाने की निकट संभावना इस कहानी से भाप की तरह उठती रहती है। बहुत अलग प्रभाव की कहानी है यह। दूसरी कहानी 'आईने, सपने और बसन्त सेना' आज के सम्बन्धों के अप्रकट को रचती है। जिज्ञासाएं हमारा उपलब्ध यथार्थ नहीं हैं। लेकिन हमारे सपनों का आईना बनी रहती हैं। आईने के सामने हमारा अन्तस ज़्यादा उजागर होता है। उपलब्ध यथार्थ, जिज्ञासाओं और सपनों की लुकाछिपी चलती रहती है। स्वप्न और जिज्ञासाएं अन्तःपरिवर्तनीय विस्तार हैं जिन में औरत और मर्द डूबते-उभरते हैं। आदमी औरत को नहीं, बसन्त सेना को भोगना चाहता है। औरत भी बसन्त सेना होना चाहती है, लेकिन आदमी को अपने मनचाहे चेहरे में निर्वस्त्र चाहती है। औरत और मर्द या बसन्त सेना और ओढ़ा हुआ चेहरा। सपना टूटता है तो आईना भी टूटता है। आईने में देखना मुश्किल है अगर वहां बसन्त सेना नहीं है। औरत के सपने में बसन्त सेना और बसन्त सेना के सपनों में औरत है, यह दूसरा द्वन्द्व लोक है जहां दोनों एक होते हुए भी एक नहीं हैं। लेकिन दूसरे चेहरे वाले मर्द को ही बसन्त सेना शरीर का पूरा मधु समर्पित करे - यह मर्द का सपना नहीं, उस का आईना है जो उसे हताश ही करता है। खुलते खुलते कहानी बन्द हो जाती है और बन्द होते होते खुल जाती है, इसी शिल्प संकट में कथ्य असम्पृक्त रह जाता है। यथार्थ को अतिरिक्त स्पष्टता देना ही इन तानो बानो का मकसद होता है। अपनी सारी झिझक छोड़ कर पाठक इन तानो बानो में प्रवेश करता है, सिर्फ़ इसलिए कि उस के बिना उस यथार्थ को खींच कर बाहर प्रकाश में नहीं ला सकता। लेकिन इस कहानी में कथ्य का यथार्थ दरवाज़े से सिर्फ़ झांकता है, बाहर नहीं आता। और पाठक किसी प्रभाव के अन्तर्गत अपना होना स्थगित नहीं कर पाता। कुल मिला कर कहानी उस हसीन लड़की की तरह आंख दबा कर निकल जाती है जो कहानी के अन्त में आती है (कहानी में लड़की आंख नहीं दबाती) और हम खड़े देखते रह जाते हैं उस बुर्ज़ुगवार की तरह जो कहानी में सारी उम्र आईने बेचते हैं। कहानी, एक अत्यन्त साहसिक प्रयास है जो बसन्त सेना के मिथक को बड़े सार्थक रूप में प्रयोग करती है।
दूसरे युवा कथाकार हैं चन्दन पांडे। विस्तृत संभावनाओं वाले प्रतिभाशाली कहानीकार जिन के पास संवेदना और उस के उपयुक्त भाषा शैली है और एक अंकुश भी जो कथा के आत्यान्तिक वर्णनों और विह्वलताओं को कथा से खिलवाड़ नहीं करने देता। यथार्थ और यथास्थिति का अन्तर एक शीर्ष बिन्दु पर आकर स्पष्ट होता है। उन की कहानियां हमेशा ही यथास्थिति को मात्र एक आभास की तरह बिखरा कर वास्तविक यथार्थ की खोज की तरफ़ बढ़ जाती हैं। यह अन्तरदृष्टि और कल्पना के सम्बन्ध की अनिवार्यता से उपजी कला है जो चन्दन की कहानियों को निर्मम तटस्थता देती है और कथ्य की वस्तुपरकता को भी अक्षुण्ण रखती है। चन्दन की अधिकतर कहानियों में घटित से पहले घटित की मूल संभावनाएं प्रकट होती हैं। इसलिए घटनाओं के सूत्र ढूंढने के लिए अक्सर पीछे मुड़ना पड़ता है। पीछे की यह यात्रा अर्थसंवाहक बनकर कहानी में निहित अन्तर्द्वन्द्वों को खोलने में मदद करती है। चन्दन की कुछ कहानियां एक से अधिक विषय अपनी अन्तर्कथाओं में लेकर चलती हैं। 'रेखाचित्र में धोखे की भूमिका' में प्रेम, गांवों से शहर की तरफ़ पलायन, एक खास किस्म का, मुंबई जैसे शहरों में आतंकवाद और कस्बाई या देहाती समाज में चलने वाली गुंडई इत्यादि विषयों को एक ही कहानी में समेटा गया है। इन में प्रत्येक विषय पर एक समुचित प्रभाव की कहानी हो सकती है। कहानी में नारायण और उस लड़के (वाचक) की अत्यन्त रोचक भिन्नता पर, उन दोनों की आयु के अन्तर को लांघते हुए नैसर्गिक एकात्मक वैभव पर और उन की एकान्तता पर एक अलग उज्जवल कहानी हो सकती है। लेकिन इस कहानी में ये सब धाराएं जैसे एक ही धारा को और सशक्त बनाने के लिए प्रस्फुटित होती हैं। नारायण और वाचक की दीदी का प्रेम। शायद प्रेम ही वह विस्फोटक रसायन है जो विशेष ऊर्जा पैदा करता है। यहां यह ऊर्जा विध्वंसात्मक है। नारायण का अन्त अपने आप में ऐसा विध्वंस बनता है जिस के सामने सैंकड़ों सैंकड़ों आतंक-प्रताड़ित - मुंबई से लुंज पुंज होकर आए हुए लोगों के विध्वंस को मात्र एक पृष्ठभूमि बना कर रख देता है जिसमें यह महत् त्रासदी घटित होती है। नारायण के हाथ पैर बान्ध कर मरने के लिए कहीं फेंक दिया जाना किसी के लिए भी कुछ न होकर रह गया - उस के लिए भी जो बाद में अपने घर बार की होकर रह गई। सुनाई जा सकने जैसी यह कहानी नहीं है। कहानी के भीतर इतने ठण्डे और गरम पानी के सोते हैं कि उन का शीत और ताप ही कहानी का प्रभाव निर्मित करता है। और जैसे ठण्डा और गरम पानी देर तक ठंडा और गरम रहता है, कहानी का प्रभाव भी देर तक सामान्य नहीं होने देता। कहीं कहीं कहानी में जैसे एक दृश्य से दूसरे दृश्य में बदलने के लिए पर्दा उठाने और गिराने जैसा अवरोध भी महसूस होता है। मुंबई में गुंडों द्वारा चाल में रहने वाले देहातियों पर जुल्म का प्रसंग अलग से कटा हुआ सा पड़ा है। वापिस उसी संवेदना से जुड़ना एक टहनी से दूसरी टहनी पर छलांग लगाने जैसा सरल, सहज भी नहीं रहता। और भी दो-एक ऐसे अवरोधी प्रसंग हैं। कहानी का आकार इस का कारण नहीं बनना चाहिए।
चन्दन की 'भूलना' कहानी आज के निम्न मध्यवर्गीय परिवारों की आकांक्षाओं का विद्रूप और विडम्बना एक यांत्रिक निर्ममता के साथ सामने लाती है। परिवार के छोटे बेटे गुलशन की परीक्षा में सफ़लता सारे परिवार का आशा स्तम्भ है। लेकिन अब अन्धा, बहरा, अलग कोठरी में सीमित गुलशन एक ऐसा प्रेत प्रतीक है जो उस कोठरी से बाहर निकल कर चारों तरफ़ परिवार में, गांव में, कस्बे-शहर में, देस-परदेस में, चाहे जहां बैठ सकता है और अपनी अन्धी आंखें-देखने वालों की आंखों की ऊंचाई तक उठाकर, हंस कर, उनसे बात कर सकता है, बाहर के समाचार पूछ सकता है और उन्हें लगातार याद दिलाए रख सकता है कि मैं तुम्हारी अन्धी, बाज़ारी आकांक्षाओं की विकलांगता हूं, मैं तुम्हारा भुतहा स्वप्न भंग हूं और तुम्हारी अन्धी व्यवस्था के ज़ुल्म और अन्याय को हर घर की कोठरी में स्थापित करता हुआ प्रबन्धन हूं। ऐसी यांत्रिक एकाग्रता है उस परिवार में गुलशन की सफ़लता के लिए कि वे उसे अपनी अध्ययन स्थिति में ही अलग नहीं करते, उसे उसकी सम्पूर्णता में ओझल कर देते हैं। यह एकाग्रता आतंकित करने वाली है। गुलशन की सफ़लता का आभास इस एकाग्रता में भयावह हो उठता है। उस का उठना बैठना उस आकांक्षा समधिस्थ परिवार की तन्द्रा भंग नहीं करता। उसका बाथरूम में जाना किसी को मालूम नहीं। कोई आतंकी है बाथरूम में। पुलिस को तो आतंकी की तलाश थी ही। पुलिस द्वारा अन्धा बहरा बनाया गुलशन कहां, क्या फ़र्क डालता है। परिवार वैसे ही चलता है और गुलशन तो आज हर घर में है।
कहानी में कहीं कहीं अतिरंजना के कारण तथ्य और तर्क का सामंजस्य नहीं बनता। कहीं कहीं कथ्य का कथा में परिणित होना असहज और अविश्वसनीय भी हो उठता है। कहानी अपनी अविरलता और अखण्डता में ही कहानी बनी रह सकती है। सब कुछ संभव हो सकता है, कहकर बात समाप्त नहीं की जा सकती। कला की शक्ति और निरंकुशता में यही अन्तर है। अविश्वसनीय को विश्वसनीय बना देना कला की शक्ति है और निरंकुशता है इसी शक्ति को आत्मसात किए बगैर असंतुलित हो उठना, बिफर, बिखर जाना। लेकिन फिर भी 'भूलना' आसानी से भूलने वाली कहानी नहीं।
सशक्त कहानीकारों की पहली पांत में ही खड़े हुए हैं कुणाल सिंह भी, जो अपनी कहानियों को निस्संदेह उन प्रदेशों में ले जाते हैं जहां जाकर लोग अपनी आंखों पर हाथ रखना नहीं भूलते या हाथ रखे हुए दिखना चाहते हैं। सिर्फ़ यही नहीं है, कुणाल ने अपनी लम्बी कहानी - 'रोमियो, जूलिएट और अंधेरा' में आज की ज्वलन्त समस्या पर भी चाकू रखा है। अन्तर्प्रदेशीय असहिष्णुता। छोटी छोटी परिस्थितियों के माध्यम से कहानी में असमिया आक्रोश जीवन्त हो उठा है। अनुभा और मनोज जिस आक्रोश की भेंट चढ़ जाते है, वहां गुडंई भी है उन युवाओं की जो ऐसी स्थितियों में ज़्यादा ही हिंस्र हो उठती है। सिर्फ़ वहीं नहीं, कहीं भी। कहानी का वातावरण एक अनवरत आभास पैदा करता है कि अलग सा कुछ है जहां सब की सांझ नहीं है। अनुभा और मनोज के प्रणय दृश्य नितान्त स्वाभाविक हैं। उत्तेजक या अश्लील कहीं भी नहीं। पाठक उनके छुटपुट मिलन से प्यार कर उठता है और अनुभा के दर्दनाक अन्त की पीड़ा एक दीवार की तरह हम पर गिरती है। और हम छिटक कर अलग हो जाने की, बच जाने की मनस्थिति में भी नहीं रह जाते। इस शक्ति के बावजूद कहानी अपने लम्बे कद की वजह से ही बेडौल सी हो जाती है। पृष्ठ भर लम्बे संवाद कोई अंतर नहीं डालते, कहीं नहीं ले जाते, स्थितियों की बजाय मनस्थितियों का फैलाव और विश्लेषण कभी कभी तो मनमोहक लगता है लेकिन यहां ज़्यादा हो गया है। कहीं कहीं असम्बद्ध विवरण हैं, दूसरे मामूली पात्रों की क्रियाओं के। एक और बात कि लेखक लगातार इस कहानी में एक अतिरिक्त पात्र बना रहता है। उसकी इतनी घुसपैठ ठीक नहीं। फिर भी, पाठक के पास फुर्सत हो तो यह कहानी उसे अपने मोहजाल में जकड़ कर ही छोड़ती है, बांह छुड़ा कर भागने नहीं देती।
एक और कहानी है कुणाल की - 'उपसंहार'। छोटी सी यह कहानी लम्बी छलांग है एक ज़्यादातर अनदेखे प्रदेश में। नव्येन्दु की पत्नी झुम्पा का बाज़ार में अपने अपमान से जन्मा आक्रोश जो दिशा और अनुपात ग्रहण करता है, वह संभव ही नहीं, निश्चित भी है। नव्येन्दु का उस घटना के बाद उस तरह अनुद्वेलित रह जाना, किसी भी तरह, बाद में भी उस की मनस्थिति में शामिल न होना, झुम्पा को टुस्सी के प्रति ऐसा व्यवहार करने को उकसाता है। हिंस्र पुरुष फिर आघात करता है झुम्पा पर। घर का वातावरण ऐसा यौन विषाक्त हो उठता है कि पिता अपनी विधवा पुत्री रमा (मेज दी) को भी कहीं तृप्ति ढूंढ लेने का स्पष्ट संकेत देते हैं। अनहोनी लगती है यह बात। उस बंगाली समाज में, भारतीय समाज में अनहोनी लगती है, पिता के मुंह से कही गई यह बात। लेकिन यहां पिता अपने अवसाद और घर में भरी यौन गन्ध से क्षण भर के लिए भ्रमित अवस्था में एक दुराशा में प्रवेश करते हैं और उन का आहत मन जिन शब्दों में बाहर आता है, वह यथार्थ या पिता सदृश्यता से चाहे दूर हो लेकिन ऐसी जघन्यता भी नहीं है जो उस घर में घट रही थी। यहां यौन परिदृश्य पशुता से पैदा होने वाला असहाय भाव ही पैदा करता है, उत्तेजना नहीं।
और भी बहुत सामयिक स्थितियों को पिछले कुछ वर्षों की कहानियों ने रचनात्मक तन्मयता से उठाया है। मध्यमवर्गीय महत्वाकांक्षाओं, बाज़ार के दबाव, घरों के कलह, पाखण्ड, लालच इत्यादि, व्यवस्था, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों और प्रेम के विषयों को खूब अभिव्यक्त किया है। गांव भी हमारी कहानी में आए हैं, लेकिन बहुत कम। सिर्फ़ नाम ले देने से काम नहीं चलता, उनकी कहानियों को विस्तार में देखना ज़रूरी है। पंकज मित्र, राकेश बिहारी, प्रत्यक्षा, कैलाश बनवासी, ए.असफल, कमल, मोहम्मद आरिफ़, अनवर सुहैल, शर्मिला बोहरा, अल्पना मित्र, अकील कैस, तरुण भटनागर आदि की कहानियों पर विस्तृत दृष्टि उतनी ही ज़रूरी है। लेकिन एक ही जगह यह सब सम्भव नहीं है। उन पर पहले भी बहुत कुछ लिखा गया है, लेकिन हमारा अपना अलग प्रयास भी जारी रहेगा। एक बात और कि भारतीय ज्ञानपीठ ने कुछ कहानीकारों के पहले संग्रह प्रकाशित करके बहुत महत्वपूर्ण कार्य किया है। हम जैसे दूर दराज़ बैठे लोगों को एक साथ ही, एक ही जगह उन की कहानियां पढ़ने को उपलब्ध हुईं।
आज की कहानी सिर्फ़ उन लोगों का लेखन ही नहीं है जो पिछले दसबारह सालों में सामने आए हैं। आज तीन पीढ़ियां आमने सामने हैं। यहां हम केवल उन्हीं की बात कर रहे हैं जिन के बारे में कहने सुनने की अभी बहुत गुंजायश है। पहली दो पीढ़ियां सृजन के उस पड़ाव पर हैं जहां पिछले एक डेढ़ दशक से लिख रहे कहानीकारों के लिए वे एक संचित निधि के रूप में उन के साथ हैं। जब चाहें वहां से शक्ति बटोर सकते हैं। आज के युवा कहानीकारों की यह खुशकिस्मती है कि अभी बहुत से चिराग जल रहे हैं जिन की रोशनी में हिन्दी कहानी ने अपनी यात्रा का बड़ा भाग तय किया। दुनिया चाहे कितनी भी बदल गई हो, ज़िन्दगी जीने के आधार मूल्य वहीं हैं जिन से हम आज भी और आगे भी घुसपैठिए मूल्यों को खारिज करते हैं और करते रहेंगे, नए रचनात्मक मूल्यों को अपनी परम्परा में शामिल करते रहेंगे। अपने आप को बिल्कुल अलग खड़ा हुआ देखना नितान्त भ्रामक स्थिति होती है। हम केवल एक काल खण्ड हो सकते हैं, कभी भी हम पूर्ण समय नहीं हो सकते।
इस स्थिति बोध की क्षणभंगुरता में बहुत कुछ है जो हमारी नई रचनाओं में छूटा भी जा रहा है। जहां जहां हम नहीं हैं, वह सब छूटा जा रहा है। उसे जानने पाने की ललक भी नहीं है। अगर हम गांव में नहीं हैं तो गांव हमारे भाव में, संवेदना में, कल्पना में, यथार्थ में, रचना में नहीं है। अगर हम बेसहारा आत्महत्या की स्थिति में आए हुए मज़दूर किसान नहीं हैं तो हमारी सृजनात्मक पहुंच वहां तक नहीं है। हम वहां नहीं हैं। अगर हम बेघर हो कर रोज़ी रोटी के लिए शहर के बाहर स्लम में नहीं पड़े हैं तो हम अपनी रचना में वहां नहीं हैं। अगर बन्द होते कामधंधों, मजदूरों, प्रताड़ित स्त्रियों, बेमानी स्कूलों, दफ्तरों, झोपड़-पट्टियों, संस्थानों, होटलों, जादुई व्यवस्थाओं का हिस्सा अगर हम नहीं हैं तो अपनी कल्पना और सृजन में भी वहां नहीं हैं। हम बस जहां हैं, वहीं हैं। अपने सीमित अनुभवों के संसार का अतिक्रमण करने वाली साहसिकता अगर हम में नहीं है तो नहीं है। कोई बड़ा सपना हमारे सामने न है और न ही उसे रचने का दुस्साहस। हम अपनी स्थितियों की संभावनाओं को रचते हैं। लिस्पेक्टर की कहानी के उस अन्धे आदमी से बचकर निकल जाते हैं जो हमे देख नहीं सकता लेकिन फिर भी हमारा मज़ाक उड़ाने की स्थिति में हर वक्त बना रहता है। हम किसी असमंजस में नहीं रहना चाहते। जो हम जीते हैं, वही रचते हैं। फिर भी हमारी रचनाएं कैमरा कृतियां नहीं हैं। और हमारा यथार्थ भी केवल यथास्थिति से रेखांकित नहीं हो सकता। हमारी संभावनाएं चित्रों के चारों तरफ़ खिंचे हुए वृत्तों में हैं। उन में समय क्या रंग भरेगा, इस का आभास हमें है, ऐसा आभास जो हमारी रचनाओं के पीछे से कभी कभी झांकता भी है।
कुछ और आगे चलकर क्या पता हमारे अंतस प्रदेश में चकाचौंध उजालों का सूरज डूबने के बाद हमारी छिपी हुई उदासियों से वे सपने भी उभरें जो हमें उन तमाम इन्सानी संघर्षों की धरती पर उतारें जहां हम अभी नहीं हैं।
(नवम्बर 2008)