कहानी का बीजरूप नहीं है लघुकथा / सुकेश साहनी
लघुकथा को लेकर अक्सर कहा जाता रहा है कि लघुकथा कहानी का बीजरूप है, लघुकथा में जीवन की व्याख्या संभव नहीं है,जिन विषयों पर कहानी, उपन्यास आदि लिखे जाते हैं उनपर लघुकथाएँ नहीं लिखी जा सकतीं। जीवन की सच्चाई इतनी गहरी है कि लघुकथा में समाहित नहीं हो सकती, लघुकथा जीवन की विसंगतियों की झलक दे सकती है, बस।
इन टिप्पणियों में से अधिकतर का उत्तर आज लिखी जा रही लघुकथाओं ने दे दिया है; पर इसके विषय लेकर को भ्रम की आज भी स्थिति बनी हुई है। क्या पुलिस, भिखारी, नेता, भ्रष्टाचार आदि ही लघुकथा के विषय हो सकते हैं? क्या उपन्यास कहानी के विषय और लघुकथा के विषय भिन्न–भिन्न प्रकार के होते हैं? जिस विषय पर लघुकथा लिखी गई हो, उस पर कहानी नहीं लिखी जा सकती या ठीक इससे उलट जैसी टिप्पणियाँ लघुकथा विषयक लेखों में प्राय: देखने को मिल जाती हैं।
लघुकथा में विषय को लेकर जब हम विचार करते है तो एक बात बिल्कुल स्पष्ट होकर सामने आती है कि लघुकथा भी साहित्य की दूसरी विधाओं की भाँति किसी भी विषय पर लिखी जा सकती है। भ्रम की स्थिति वहां उत्पन्न होती है जहाँ विषय को लघुकथा के कथ्य के साथ गड्ड–मड्ड करके देखा जाता है। लघुकथा भी अन्य विधाओं की भाँति किसी विषय विशेष को रेशे–रेशे की पड़ताल करने में सक्षम है। ऐसी सशक्त लघुकथाओं के संकलन सम्पादित करने की बात मेरे मन में आई थी। इन संकलनों की रचनाएँ इस दृष्टि से आश्वस्त करती हैं कि लघुकथा लेखकों ने एक ही विषय के विभिन्न पहलुओं पर अपनी कलम चलाई है और उस विषय का कोई कोना उनके लेखन से अछूता नहीं है। लघुकथा इस दृष्टि से काफी समृद्ध हो चुकी है।
यहाँ यह भ्रम की स्थिति भी दूर होनी चाहिए कि जिन विषयों पर लघुकथाएँ लिखी गई हों,उनपर कहानी नहीं लिखी जा सकती या लिखी गई कहानी के विषय पर लघुकथा के साथ जुड़े लघु शब्द को उसके शाब्दिक अर्थ में न समझा जाए बल्कि आकारगत लघुता की दृष्टि से देखा जाए। कई प्रतिष्ठित रचनाकार भी इस अंतर को समझने का प्रयास नहीं करते। मेरे एक वरिष्ठ कवि मित्र हैं, वे लघुकथा को कहानी का बीजरूप मानते हैं। उनकी दृष्टि में लघुकथा लिखना आसान है और कहानी लिखना मुश्किल। चूँकि बात विषय को लेकर चल रही थी तो इसी सन्दर्भ में बात आगे बढ़ाना उचित होगा। 'कस्तूरी कुण्डल बसे, मृग ढूढ़े बन माँहि' इस विषय पर उपन्यास भी लिखा गया है, कहानी और लघुकथा भी। तो यहाँ प्रश्न उठता है कि विषय की दृष्टि से कौन सी ऐसी विभाजक रेखा है जो लघुकथा को अन्य विधाओं से अलग करती है?
लघुकथा में लेखक सम्बंधित विषय का मूल स्वर पकड़ता है। यहाँ यह स्पष्ट करना जरूरी है कि मूल स्वर का अभिप्राय मोटी बात से नहीं है बल्कि इसका तात्पर्य रचना में संबंधित विषय और कथ्य के मूल (सूक्ष्म) स्वर से है। यही बिन्दु लघुकथा को कहानी से अलग करता है।
लघुकथा में लेखक सम्बंधित विषय से जुड़े किसी बिन्दु पर फोकस करता है। फोकस की प्रक्रिया यांत्रिक नहीं होती बल्कि इसमें–(1) लेखक के दिलो दिमाग में बरसों से छाए अहसास (2) अकस्मात् प्राप्त सूक्ष्मदर्शी दृष्टि (3) विषय से सम्बंधित कुछ विचार (कथ्य) सम्मिलित हैं। इस प्रक्रिया में उपन्यास कहानी की भाँति वर्षो लग सकते हैं।
यदि विषय को पेड़ मान लें और लघुकथा में उस पेड़ की एक अथवा दो पत्तियों के हरे पदार्थ, आपसी सम्बंध,स्टॉमेटा और उनसे हो रहे एवैपोट्रांसपरेशन की बात की जाए तो उसे आसान कथारूप या कहानी का बीजरूप कैसे कहा जा सकता है। यह एक जटिल सृजन प्रक्रिया है, जिसे विच्छेदन किए बिना (विषय की डैप्थ में उतरे बिना) प्राप्त करना असम्भव है।
'स्कूल' लघुकथा का उल्लेख करना चाहूँगा–गाँव के छोटे से स्टेशन के प्लेटफार्म पर औरत बेचैनी से अपने बच्चे की राह देख रही है, जो तीन दिन पहले टोकरी भर चने लेकर पहली दफा घर से काम पर निकला है। परेशान औरत बार–बार ट्रेन के बारे में पूछती है तो स्टेशन मास्टर झल्ला जाता है। वह गिड़गिड़ाते हुए उसे बताती है कि बच्चे के पिता नहीं है, वह दरियाँ बुनकर खर्चा चलाती है। बेटा काम करने की जिद करके घर से निकला है। औरत बहुत चिन्तित है क्योंकि उसका बेटा बहुत भोला है, उसे रात में अकेले नींद नहीं आती है, उसी के पास सोता है । इतनी सर्दी में उसके पास ऊनी कपड़े भी तो नहीं हैं। दो रातें उसने कैसे काटी होंगी। सोचकर वह सिसकने लगती है। वह मन ही मन निर्णय करती है कि अपने बेटे को फिर कभी अपने से दूर नहीं भेजेगी।
आखिर ट्रेन शोर मचाती हुई उस सुनसान स्टेशन पर खड़ी होती है।
एक आकृति दौड़ती हुई उसके नजदीक आती है। वह देखती है–तनी हुई गर्दन...बड़ी–बड़ी आत्मविश्वास भरी आँखें....कसे हुए जबड़े.....होठों पर बारीक मुस्कान.....
माँ तुम्हें इतनी रात गए यहां नहीं आना चाहिए था। अपने बेटे की गम्भीर चिन्ता भरी आवाज उसके कानों में पड़ती है। वह हैरान रह जाती है....इन तीन दिनों में उसका बेटा इतना बड़ा कैसे हो गया!
यह दुनिया सबसे बड़ी पाठशाला है,' लघुकथा में इस मूल स्वर को पकड़ने का प्रयास किया गया है। इसी विषय पर मैक्सिम गोर्की का आत्मकथात्मक उपन्यास भी पढ़ने को मिल जाएगा। इस विषय को लेकर कहानी भी लिखी जा सकती है।
लघुकथा की सीमाएँ क्या होनी चाहिए? साहित्य की किसी भी विधा को किसी भी सीमा में बांधना उचित नहीं है। रचनाकार के भीतर स्वाभाविक रूप से तैयार हुई रचना अपने आप में मुकम्मल कृति होती है। लघुकथा भी इसका अपवाद नहीं है। लघुकथा को कई लोगों ने शब्द सीमा में बाँधने की बात की है। पर हम देखते हैं कि सौ शब्दों में गुंथी लघुकथा भी उतना ही प्रभाव छोड़ती है जितना कोई दूसरी पांच–छह सौ शब्दों की लघुकथा लघुकथा का विषय, कथ्य और उससे सम्बन्धित कुछ विचार मिलकर उसका आकार बनाते हैं, फिर उसे शब्द सीमा में कैसे बाँधा जा सकता है?
पहले भी कहा गया है कि लेखक लघुकथा में मूल स्वर पकड़ता है और उसी को केन्द्र में रखकर कथ्य विकास अतिरिक्त रचना कौशल एवं अनुशासन की माँग करता हैं यहां अनुशासन लघुकथा के शीर्षक और समापन बिन्दु पर भी लागू होता है, जिसके अभाव में लघुकथा अपना फ़ॉर्म खो बैठती है। रमेश बत्तरा की लघुकथा 'सूअर' के माध्यम से लघुकथा के लिए अनिवार्य अनुशासन (अंकुश) को समझा जा सकता है। लेखक छोटे–छोटे चुस्त वाक्यों के जरिए कामगार कथानायक की दैनिकचर्या,असामाजिक तत्वों का चरित्र उभारता है। समापन बिन्दु देखें, तो नींद क्यों खराब करते है भाई! रात की पाली में कारखाने जाना है, वह करवट लेकर फिर से सोता हुआ बोला, यहाँ क्या कर रहे हो? जाकर सूअर को मारो न? सूअर में जो अर्थ व्यंजित होता है ;वह सम्पूर्ण साम्प्रदायिक मानसिकता पर प्रहार करता है ।
अत: लघुकथा को सीमाओं में बांधने की बात छोड़कर इसमें अनुशासन की बात को समझा जाना चाहिए ताकि अधिक से अधिक सशक्त लघुकथाएँ सामने आएँ।
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