कहानी की कहानी /रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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मेरी शिक्षण -यात्रा

आदमी ने एक दूसरे से जुड़ने की जब बात सोची होगी, तब कहानी उसका माध्यम बनी होगी। आदमी ने जब किसी को संकट से उबारने के लिए हिम्मत बड़ाने की बात कही होगी, तब कहानी उसकी सहायिका बनकर साथ खड़ी होगी। अलाव पर गर्माहट लेते वक्त चुपचाप बैठना कठिन था; तो उस समय किसी बुज़ुर्ग ने कहानी सुनाकर सबकी दिन भर की थकान उतारी होगी। जब जीवन में कुछ करने का संकल्प लिया होगा, तब किसी संघर्षशील व्यक्ति की कथा सामने आई होगी। मुझे आज भी याद है हमारे दूर के रिश्ते के एक मौसा जी जब बरसात में खेती-बाड़ी का काम संपन्न हो जाता था तो हमारे चाचा जी के यहाँ आते थे। पहले दिन से ही उनकी घेरेबंदी शुरू हो जाती थी-कहानी सुनाने के लिए. उन अनपढ़ मौसा जी के पास कहानियों का खज़ाना था। कहानियों के पात्र परियाँ, दानव, राजा आदि हुआ करते थे। साथ ही कहानी कहने की ऐसी कला भी उनके पास थी कि हम बचपन की सबसे बड़ी संपत्ति निद्रा देवी को त्यागकर उनकी कहानी सुनने के लिए अपनी चौपाल में इकट्ठा हो जाते थे। मन ही मन मनाते थे कि मौसा जी अधिक से अधिक दिन हम लोगों के यहाँ ठहरें। बाकी समय में मेरे ताऊ जी यह काम सँभाले रखते थे। बकरी, शेर और घास को नदी पार ले जाने की ताऊ जी की गणित की रोचक कहानीनुमा समस्या कथा आज भी याद है। पता नहीं क्यों हम इन कथावाचकों को अपने मन के बहुत पास पाते थे।

पाठ्यक्रम की कहानियों से हटकर सबसे पहले मुझे 'कठपुतली' पुस्तक पढ़ने को मिल गई. ये पुस्तकें जिला बोर्ड से हमारे प्राइमरी स्कूल में आई थी। बरसात के कारण हमारे शिक्षक श्री कदम सिंह जी और मलखान सिंह जी स्कूल में ही रुक जाते। हम शाम को उनके पास आ जाते तो वे कुछ न कुछ वहीं बैठकर पढ़ने के लिए दे देते। प्राथमिक कक्षा में पढ़ी सचित्र कहानी मेरे बालमन को छू गई थी।

कुछ समय बाद गाँव में आर्यसमाज के कार्यक्रम होने लगे तो उसमें भजनीकों और उपदेशकों को बुलाया जाता था। श्रोता उसी को सुनना पसंद करते थे, जो हल्की-फुलकी कहानियों के माध्यम से अपनी बात कहना जानते थे। इस अवसर पर धर्म-कर्म की गम्भीर बातों को हम लोग न ध्यान से सुनते और न कम उम्र में ये बातें हमारी समझ में आतीं थीं। बच्चों को ध्यान में रखकर वैसे भी ज़्यादा कुछ बताया नहीं जाता था। प्रकांड विद्वानों को बाद में बोलने का मौका दिया जाता था। उबाऊ भाषण से बचने के लिए लोग खिसकना शुरू हो जाते थे। इसका उपाय यह सोचा गया कि सर्वाधिक लोकप्रिय भजनीक या उपदेशक को सबसे बाद में बुलवाएँ ताकि श्रोता उसको सुनने के लोभ में टिके रहें। ये वे लोग होते थे, जो जीवन की जटिल बातों को भी कहानियों में पिरोकर जनमानस तक पहुँचाने की क्षमता रखते थे। इनमे अर्जुनदेव ऐसे ही गायक थे, जो अपनी कहानियों, हल्के-फुलके गीतों और अपने चेहरे की विभिन्न मुद्राओं से सुनने वालों को लोट-पोट कर देते। बंदर का चेहरा बनाने में इन्हें विशेष महारत हासिल थी। बच्चों की तरफ से इस तरह की फरमाइश कार्यक्रम शुरू होने से पहले ही कर दी जाती थी। ज़्यादा पढ़े-लिखे न होने पर भी इनकी मूल शक्ति थी-कहानी कहने की कला। इनकी इस कला का प्रभाव सभी श्रोताओं पर पड़ा। आर्यसमाज के इस सालाना जलसे के समय हमारे क्षेत्र के मुसलमान भी (जिनमें ज़्यादातर अनपढ़ ही थे) आने लगे। कुछ लोग तो अपनी बुर्कानशीन पत्नियों को भी लाते थे, ताकि वे भी घर-परिवार को सुखी बनाने की बातें सीख लें।

कक्षा 6-12 तक हमे हिन्दी पढ़ाने वाले ज्यादातर शिक्षक 'तू पढ़' विधि वाले थे। कक्षा 11-12 में तो विज्ञान के विद्यार्थियों की हालत और भी दयनीय हो गई. पढ़ाई का कालांश शुरू होता। चाहे कहानी हो या अन्य गद्य, हम एक दो छात्रों को बिना रुके लागातार पढ़ना पढ़ता। गुरुजी कुर्सी में धँसकर उबासी लेते हुए हमे कृतज्ञ भाव से देखते रहते। कहानी खत्म हुई. किताब अगले दिन तक के लिए बंद हो गई. गुरुजी का काम पूरा हो गया। वाचक छात्र पानी पीने के लिए नल पर चल दिया। हमारे ये अरोचक शिक्षक किसी महाविद्यालय का बेड़ा गर्क करने चले गए. कहानी की रोचकता उसकी तात्त्विक विवेचन तक ही थी; जिसके आधार पर परीक्षा में अंक मिल जाएँ। इन क्रूर विधियों ने कितने साहित्य रसिकों को अरसिक बनाया होगा, इसका केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है

यहाँ के ग्रंथपाल श्री रामपाल सिंह को मैं कभी नहीं भूल सकता। उन्होंने मुझे खाली पीरियड में लाइब्रेरी का नया रजिस्टर बनाने का काम दिया। इसके बदले में मुझे किताबें पढ़ने की छूट मिल गई. देवकीनंदन खत्राी, शरत्, बंकिम, प्रेमचंद, वृंदालाल वर्मा, प्रसाद का पुस्तकालय में उपलब्ध सारा कथा-साहित्य पढ़ लिया। यह अवसर न मिलता, तो मेरा हिन्दी के कथा साहित्य से नाता ही टूट गया होता।

कक्षा 12वीं उत्तीर्ण करके मुझे 15 जुलाई 1968 को शिक्षण में आना पढ़ा। मेरे सामने मौसा जी को और इन आर्यसमाजी प्रचारकों को छोड़ शिक्षण का कोई आदर्श नहीं था। मैं पहले दिन आठवीं कक्षा में हिन्दी पढ़ाने गया। नीची गर्दन करके खुद ही पढ़ता गया। बच्चे तो खुश थे, लेकिन मैं घोर असंतुष्ट। यह तो पढ़ाने का कोई तरीका नहीं हुआ। अगले दिन से विधि बदल दी। गद्य के कठिन प्रसंगों को समझाने के लिए छोटे-छोटे दृष्टांत और कथाएँ प्रस्तुत कीं। आज गर्दन उठाकर देखा-बच्चों की आँखों में तैरती चमक दिखाई दी। कक्षा से बाहर निकला, तो मेरे कानों में कुछ छात्रों की आवाज आई-'आज तो मज़ा आ गया।'

मेरे पैर धरती पर नहीं पढ़ रहे थे। मेरे छात्रों ने मुझे उत्तीर्ण कर दिया था। हिन्दी और संस्कृत पढ़ाते समय कथाओं और दृष्टांतों का उपयोग मैंने जारी रखा।

सत्र 1974-75 में जैन डिग्री कॉलेज सहारनपुर से बी.एड। किया। हिन्दी शिक्षण की जानकारी देने वाले पचौरी जी शिक्षकों को नया सिखाने की स्थिति में नहीं थे। उनका स्वयं का शिक्षण घिसा-पिटा, शुष्क और सामान्य था। शिक्षण की उनकी अप्रोच भी किताबी ज़्यादा, व्यावहारिक कम थी। मैं जोर देकर कहना चाहूँगा कि ये संस्थान स्टीरियो टाइप का शिक्षण ही करा सकते हैं, सही और जीवंत शिक्षण तो बच्चों की अभिरुचि, अवस्था, परिवेश के अनुरूप बच्चों के बीच में से, बच्चों से होकर ही निकलता है। कुक्कुरमुत्ता की तरह उगे स्तरहीन शिक्षण-संस्थान सही और सार्थक विधियों से अनभिज्ञ ही हैं।

7 अक्तूबर को मेरी नियुक्ति केन्द्रीय विद्यालय एयर फोर्स बैरकपुर में हुई. बंगाल के इस विद्यालय में भारत भर से विभिन्न भाषा-भाषी छात्र थे। इन अधिकतर अहिन्दी भाषी छात्रों को हिन्दी पढ़ाना उत्तर प्रदेश के छात्रों को हिन्दी पढ़ाने जैसा आसान नहीं था। विषय पढ़ाने से पहले हिन्दी की ओर आकर्षित करना कठिन काम था। यहाँ काम करते मुझे दो-तीन दिन ही हुए थे। एयर फोर्स के इस विद्यालय में हिन्दी का बारी सारे विषयों के बाद आती थी। हिन्दी शिक्षक को भी उसी तरह कमतर आँका जाता था। मेरे युवा स्वाभिमान को यह बात काँटे की तरह गढ़ती थी। बैरकपुर शहर में हिन्दी की पत्रिकाएँ उपलब्ध थीं। सन्मार्ग दैनिक भी बाज़ार में उपलब्ध था। मैंने कक्षा में पूछताछ की तो पता चला कि गिने-चुने कुछ घरों में हिन्दी अखबार आता है। आर्थिक स्थिति सभी के परिवारों कि ठीक-ठाक ही थी। मैंने नंदन, पराग, चंपक, आदि पत्रिकाओं को मँगाकर पढ़ने का सुझाव दिया। बच्चे खुश थे कि उनके ऊपर पाठ्यक्रम का बोझ न लादकर उन्हें कक्षा में भी पत्रिकाएँ पढ़ने की छूट दी जा रही थी। पत्रिकाओं से कुछ कहानियाँ पढ़कर सुनाई, तो जैसे उनकी सोई भूख जाग उठी। कुछ मुझसे भी कहानी सुनना चाहते थे। दो-चार दिन बाद मैंने उन्हें धीरे-धीरे पाठ्यक्रम की ओर लाना शुरू किया। किसी बच्चे को पढ़ने के नाम पर डाँट खाने का डर नहीं था। बहुत ही कम समय में बच्चे मुझसे बहुत निकटता महसूस करने लगे। गद्य का उबाऊ पाठ पढ़ाते समय भी मैं बीच में कोई छोटी-सी कहानी सुनाकर पाठ की बातों को उससे जोड़ देता। मेरी कक्षा तनाव रहित कक्षा थी, जिसका सभी छात्र बेसब्री से इंतजार करते थे। पाठ्यक्रम भी समय पर पूरा हो जाता।

कुछ महीने बाद हिन्दी प्रवक्ता के रूप में मेरा चयन केन्द्रीय विद्यालय नारंगी (आसाम) के लिए हो गया। इस विद्यालय में भी हिन्दी की स्थिति बैरकपुर जैसी ही थी अंत: पुराना फार्मूला यहाँ भी काम कर गया। यहाँ मेरी स्थिति हिन्दी-विषय-संयोजक की थी। महीने के अंतिम दिवस में विद्यालय ले सभी हिन्दी शिक्षकों की एक बैठक की जाती थी; जिसमें शिक्षण सम्बन्धी कार्य का मूल्यांकन किया जाता था और आगामी समय के लिए योजना भी बनानी पढ़ती थी। शिक्षण को रोचक बनाने के लिए किए गए प्रयासों और सर्व सम्मत सुझावों को विषय-समिति की पंजिका पर बिन्दुवार लिख लिया जाता था। भविष्य होने वाली बैठक में फिर उन सुझावों का मूल्यांकन किया जाता था। प्रवक्ता (मेरे अलावा) सभी ऐसे शिक्षक होते थे; जिन्हें अन्य विषय भी पढ़ाने पढ़ते थे। श्री सिद्धेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव सामाजिक विज्ञान पढ़ाने की शुरुआत करने से पहले कहानी का सहारा लेकर उबाऊ पाठ को भी रोचक बना लेते थे। इसे कसौटी पर कसने का अवसर 1979 के गुवाहाटी सम्भाग के शिक्षकों के सेमिनार में संसाधक के रूप में कार्य करने पर मिला। 1981 में स्कूल निरीक्षण के दौरान सहायक आयुक्त श्री सुकुमारन जी ने श्री सुरेश शर्मा की कक्षा 11 की अंग्रेजी-कक्षा में कहानी शिक्षण की 'तू पढ़' विधि के साथ व्याख्या विधि को किनारे कर दिया। उन्होंने एक ही कालांश में कहानी सुनाकर छात्रों को अभिभूत ही नहीं किया, वरन पूरी कहानी का विश्लेषणात्मक ज्ञान भी दे दिया। उस समय उन्होंने हिंदी-प्रवक्ता के नाते मुझे भी कहानी शिक्षण देखने के लिए कहा। कहानी में छात्रों की सक्रिय भागीदारी रहने के कारण कथा का यह सत्र बहुत रोचक लगा। सभी संसाधकों के शिविर में 1981 के जून में सहायक आयुक्त सुकुमारन जी ने इस फार्मूले पर मुहर लगा दी। उन्होंने सभी विषयों के शिक्षकों को शिक्षण की रोचक जानकारी दी। 1981 के प्राथमिक शिक्षकों के सेमिनार में हिंदी-शिक्षकों को भी यह विधि पसंद आई. इन शिक्षकों में आधे हिन्दी शिक्षक ऐसे भी थे, जो हिन्दी भाषी नहीं थे।

27 जुलाई 1981 से फरवरी 1994 तक केन्द्रीय विद्यालय जाट रेजिमेण्टल सेंटर, बरेली में इस दिशा में काम करने का अच्छा अवसर मिला। यहाँ प्राथमिक कक्षा के छात्रों को लाइब्रेरी से पुस्तकें नहीं दी जाती थीं। कारण-प्राथमिक विभाग कुछ दूरी पर था। वहाँ से छात्रों का आना व्यावहारिक न था। कक्षा छह के छात्र भी वंचित थे। ग्रंथपाल और प्राचार्य जी से बात करके इसका एक समाधान सोचा गया। प्राथमिक विभाग के दो शिक्षकों-जी सिंह जी और शर्मा जी को तैयार करके उन्हें एक साथ 200 पुस्तकें दिलावा दी गईं, ताकि किसी को कक्षा छोड़कर लाइब्रेरी में न आना पढ़े। कार्यक्रम सफल हो गया। प्राथमिक कक्षा के बच्चों ने कई-कई किताबें पढ़ लीं। इसी प्रकार कक्षा छह के तीन विभागों के लिए एनबीटी और चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट की पुस्तकों के 40-40 सैट खरीदकर श्री कामता प्रसाद पाण्डेय योग शिक्षक को दे दिए गए; जिन्हें वे बच्चों को खाली कालांश में पढ़ने के लिए दे देते। शिक्षकों की कमी के अवसर पर भी ये पुस्तकें बच्चों सँभालने के काम आतीं।

हिन्दी सप्ताह मनाने का पुराना ढर्रा-निबंध लेखन प्रतियोगिता तक सीमित था। हिन्दी विभाग के संयोजक होने के नाते उसमें बदलाव करके हमने कविता, संस्मरण, घटना वर्णन, कहानी-लेखन प्रतियोगिता को भी उसमें सम्मिलित किया, तो साथियों ने इसे शंका की दृष्टि से देखा। सुबह प्रार्थना सभा में जूनियर और सीनियर कक्षाओं के लिए कहानी का विषय बता दिया गया, साथ ही यह भी बता दिया गया कि अंतिम कालांश में प्रतियोगिता होगी। मेरे मन में भी आशंका थी कि देखें क्या होता है। चार-पाँच कालांश के बाद नाम आने शुरू हुए. लगभग 70 विद्यार्थियों ने कहानी-लेखन में हिस्सा लिया। जो कहानियाँ बच्चों ने लिखीं वे आश्चर्यचकित करने वाली थी। 1988 में कक्षा 11 में एक और प्रयोग किया। बढ़ी कक्षा के इन छात्रों को कुछ चुने हुए दस उपन्यास (तमस, कालाजल, मृगनयनी, टोपी शुक्ला, गोदान आदि) प्रोजेक्ट के रूप में दिये। बच्चों को पढ़कर अपनी भाषा में समग्र प्रभाव लिखना था। सबने काम समय पर पूरा कर लिया। ग्रंथपाल से शिकायत मिली कि आपके विद्यर्थियों ने उपन्यास वापस नहीं किए. इसका कारण यह था कि सबने अपने साथियों से बदलकर उपन्यास पढ़ने शुरू कर दिए थे। एक परंपरा का और शुरू की गई हिंदी-प्रतियोगिता के लिए हिन्दी की पुस्तकें ही पुरस्कार स्वरूप दी जाने लगी।

19 फरवरी 1994 में प्राचार्य बनकर आदिवासी कोयलांचल क्षेत्र के केन्द्रीय विद्यालय साउथ ईस्टर्न कोल फील्ड लिमिटेड चिरिमिरी (सरगुजा मध्य प्रदेश आज का बैकुण्ठपुर, छत्तीसगढ़) जाना पढ़ा। प्राचार्य होने के नाते मन मुताबिक काम करने की छूट थी, इस बार कहानी कहना, लिखना आदि गतिविधियों में प्राथमिक कक्षाओं के छात्रों को भी जोड़ा गया। यह ऐसा विद्यालय था, जहाँ के पुस्तकालय की किसी अलमारी में ताला नहीं लगा होता था। बच्चों को पढ़ने की पूरी छुट थी।

उन्हें बच्चों को और अधिक जोड़ने के लिए कहा, तो वे खुश हुए. मेरे सवा छह साल के कार्यकाल में पुस्तकालय तो जबलपुर सम्भाग के पुस्तकालयों में समृद्ध हुआ ही, बच्चों की रचनात्मक प्रतिभा को भी निखरने का अवसर मिला। श्री प्रदीप मोघे (ग्रंथपाल) के इस विशेष प्रयास को केन्द्रीय विद्यालय संगठन ने पहचाना और इनको राष्ट्रीय प्रोत्साहन पुरस्कार से सम्मानित किया। बच्चों की रचनाएँ बाल हंस और पाठक मंच बुलेटिन में छपीं। हिन्दी सप्ताह, प्रार्थना सभा और साप्ताहिक पाठ्येतर सहगामी क्रिया में प्रेरक प्रसंग और कहानी-कथन जैसे कार्यकलाप जोड़े गए. कोयलांचल के पिछड़े क्षेत्र का यह विद्यालय जबलपुर सम्भाग में गुणवत्ता के दूसरे-तीसरे स्थान पर आ गया।

एसईसीएल के मुख्य महाप्रबंधक कृष्णपाल सिंह ने अपनी सेवामुक्ति के एक सप्ताह पहले इसमें एक नया अध्याय जोड़ दिया। वे अचानक सीधे प्राचार्य कार्यालय में आ गए. मैं अवाक्। मुख्य महाप्रबंधक कभी इस तरह नहीं आते थे। मेरे बोलने से पहले ही बोले-"इधर आने का समय नहीं मिल पाता। अस्पताल का अचानक निरीक्षण करने आया था। सोचा आपसे भी मिलता चलूँ। 31 मार्च को मेरा रिटायरमेंट है। स्कूल का कोई काम हो तो बताओ."

"यदि दिक्कत न हो तो प्राइमरी की अलग लाइब्रेरी बनवा दीजिए; जिसमें छोटे बच्चों के लिए लगभग 500 किताबें हों।"

"कल लिस्ट लेकर मेरे कार्यालय में आ जाओ."

मैं फिर अवाक्, मन में सोचा-इतनी जल्दी!

खैर लिस्ट बना ली और अगले दिन मुख्यालय में गया। उन्होंने तुरंत स्वीकृति दे दी-'किताबें आप खुद खरीद लीजिए. भुगतान हमारा कार्यालय करेगा।' इस तरह की एक टिप्पणी लिखकर मुख्य वित्त प्रबंधक को भिजवा दी।

छोटे बच्चों के लिए कहानी का अलग से एक खूबसूरत और उपयोगी भंडार बन गया।

मई 2000 में मेरा स्थानांतरण आयुध निर्माणी कटनी के लिए हो गया। विद्यालय में सालभर से कोई प्राचार्य नहीं था। 15 एकड़ के स्कूल में फूलों के नाम पर दो पौधे सदाबहार के थे। स्कूल का अवकाश था। प्राथमिक विभाग देखा-कक्षा का फर्नीचर, इधर उधर बिखरा पढ़ा था। सेकेंडरी विभाग की हालत बहुत दयनीय थी। कक्षा 12 का वार्षिक परीक्षा-परिणाम 60% था। मुझे बहुत धक्का लगा। लाइब्रेरी का पता किया, तो पाठ्यक्रम की नई पुस्तकें भी नहीं खरीदी गई थीं। बच्चों के साहित्य के नाम पर कुछ नहीं था। डॉ. केशव गोपाल (ग्रंथपाल) इस हालत से बहुत दु: खी थे। वे बच्चों को अच्छी पुस्तकों से जोड़ना चाहते थे। इसी सत्र से बच्चों के लिए उपयोगी पुस्तकें जुटाई गईं। बड़ी कक्षा से लेकर कक्षा 2 तक के बच्चों को पुस्तकों से जोड़ा गया। इस कार्यक्रम को डॉ. केशव गोपाल (ग्रंथपाल) ज्योति विश्वकर्मा (वरिष्ठ प्राथमिक शिक्षिका) ने अभियान के तौर पर चलाया। पाठक मंच की स्थापना की गई. बहुत से शिक्षक और छात्र इस अभियान से जुड़े। जब पाठक मंच बनाने के लिए प्राचार्य कांफ्रेंस में सुझाव दिया गया, तो सहायक आयुक्त श्री राम सुन्दर राम ने इसको सराहा; पर दबी जबान से एक वरिष्ठ प्राचार्य ने मुझसे कहा-"काम्बोज जी,आपके पास कोई और काम नहीं है क्या?" सम्भवतः इनका आशय उस लूट से था, जिसके लिए प्राचार्य तिकड़में सोचते रहते हैं।

कटनी से स्थान्तरण पर केन्द्रीय विद्यालय हजरतपुर में भी यही परंपरा जारी रही। यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि छोटे बच्चों में झिझक नहीं होती। कहानी-कथन के समय उनके हाव-भाव बड़े बच्चों की तुलना में ज़्यादा स्वाभाविक होते हैं। पुरस्कार में केवल किताबें ही दी जातीं रहीं। बच्चों का यह पुस्तक प्रेम बहुत अधिक था। हज़रतपुर में भी श्री ऋषि कुमार शर्मा (ग्रंथपाल) , सुदेश दत्त, सुधा अवस्थी, जी.पी. खन्ना और भावना शर्मा ने अलग से पुस्तकों का चयन करके इस अभिरुचि को समृद्ध किया। कुछ कहानियाँ डीवीडी से भी सुनाई जाती। जो कक्षा पूरी तरह शांत मिलती, तो पता चलता कि या तो बच्चे पुस्तकें पढ़ रहे हैं या कोई कहानी सुन रहे हैं।

स्वयं का जुड़ाव होने के कारण मेरी कुछ बातें अटपटी लग सकती हैं; लेकिन जिस बात पर मैं बल देना चाहूँगा, वह यह है कि कहानी बच्चों में जिस अभिरुचि को जगाती है, वही उसे अध्ययन की ओर मोड़ती। बाकी सारे रास्ते अध्ययन से ही खुलते हैं। बच्चे का भाषिक विकास भी अन्य विधा की तुलना में कहानी से अधिक होता है; क्योंकि कहानी में शुष्क गद्य की तुलना में ज़्यादा जीवंतता है। जब हम कहानी सुनाते हैं तो बच्चा उस कहानी को अपने ढंग से भी विकसित करने का प्रयास करता है, जो उसकी कल्पना शक्ति को प्रखर करने में भी सहायक सिद्ध होता है।

केन्द्रीय विद्यालय लारेंस रोड, नई दिल्ली में जून 1990 में कई राज्य के केन्द्रीय विद्यालयों के हिन्दी प्रवक्ताओं का सेमिनार था। इस सेमिनार में हरिशंकर परसाई की कहानी 'भेड़ और भेड़िए' को लेकर कई प्रवक्ताओं ने प्रश्न किया कि यह कहानी किस प्रकार पढ़ाई जाएगी? मुझे कारण समझ में आ गया। मैंने प्रस्ताव रखा कि मैं सिर्फ़ कहानी का वाचन करूँगा। वाचन समाप्त होने के बाद आप प्रश्न कर सकते हैं। कहानी का वाचन कथा की विषयवस्तु के अनुरूप किया गया। बाद में जब मैंने कहा कि अब जो शंका हो पूछ लीजिए. सबका उत्तर यही था कि कुछ भी नहीं पूछना; क्योंकि कुछ भी अस्पष्ट नहीं रहा। इसका संदर्भ इसीलिए दे रहा हूँ कि कहानी कहने में वाचन का बहुत महत्त्व है। हाव-भाव के अनुरूप स्वर का उतार-चढ़ाव बहुत ज़रूरी है। इसके बिना कहानी का आशय स्पष्ट नहीं हो सकता और व्यंग्य कथा में तो बिल्कुल नहीं।

केन्द्रीय विद्यालय चिरिमिरी (जबलपुर सम्भाग के नव नियुक्त प्राथमिक शिक्षकों की दस दिवसीय कार्यशाला, दिसम्बर 1995) , केन्द्रीय विद्यालय आयुध निर्माणी कटनी, मध्यप्रदेश (जून 2001, विभिन्न राज्यों के प्रशिक्षित हिन्दी शिक्षकों की 21 दिवसीय कार्यशाला) , केन्द्रीय विद्यालय आयुध निर्माणी खमरिया, जबलपुर में 2003, 2004 में, केन्द्रीय विद्यालय नं.2 गन फ़ैक्टरी, जबलपुर में 2005 में 21 दिवसीय, केन्द्रीय विद्यालय नं.2 आगरा में 2008 में विभिन्न राज्य के हिन्दी प्रवक्ताओं की 12 दिवसीय कार्यशाला में निदेशक के रूप में कार्य करने का अवसर मिला। इस अवसर पर पर्याप्त समय होने के कारण व्यावहारिक शिक्षण पर बल दिया गया , जिसमें कहानी का शिक्षण एक अनिवार्य अंग था। आगरा में तो डॉ. हरिकृष्ण देवसरे जी ने भी अपनी उपस्थिति से प्रवक्ताओं को प्रेरित और प्रभावित किया। यदि हम शिक्षण को लोकप्रिय बनाना चाहते हैं, तो कहानी को महत्त्वपूर्ण स्थान देना पड़ेगा। वाचनकला को समझना पड़ेगा। 1989 से अब तक मैंने हिन्दी और पंजाबी साहित्य के लगभग 25 सम्मेलनों में भाग लिया है। इन सम्मेलनों में कथा-वाचन और पठित कथाओं की समीक्षा की जाती है। देखने में आया है कि अस्पष्ट और खराब वाचन करने वाले अधिक आलोचना का शिकार बनते है।

कहानी हमारे जीवन को अनेक प्रकार से प्रभावित करती है। आंतरिक अनुशासन अगर एक प्रकार्य है ,तो कहानी का समग्र प्रभाव हमे अधिक सम्प्रेषणीय और संवेदनशील बनाता है। मैं विगत अनुभवों को इस तरह वर्गीकृत करना चाहूँगा-

1. आत्म अनुशासन का विकास

सन् 1981 में केन्द्रीय विद्यालय जाट रेजिमेंटल सेंटर बरेली, लखनऊ सम्भाग के सर्वाधिक अनुशासनहीन विद्यालयों में गिना जाता था। अध्ययन और साहित्यिक गतिविधियों में भाग लेने के कारण इस विद्यालय को बाद के वर्षों में बहुत सम्मानजनक दृष्टि से देखा जाने लगा। केन्द्रीय विद्यालय चिरमिरी में 19 फरवरी 1994 के दिन शिक्षक तत्कालीन प्राचार्य के विरोध में धरने पर बैठे थे। शिक्षकों का यह विरोध स्थानीय कोयलांचल के खिलाफ भी चलता रहता था। इन्हीं शिक्षकों ने छात्रों के जीवन में नया मोड़ दिया। इस विद्यालय के कई विद्यार्थियों ने सम्भागीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई. इनमें से कुछ विद्यार्थी आज विदेश में भी अपनी पहचान बनाए हुए हैं। इस विद्यालय में फर्नीचर्स की तोड़-फोड़ चरम सीमा पर थी, जो प्रार्थना सभा तथा अन्य अवसरों पर कथा की गतिविधियों के कारण कम ही नहीं हुई, वरन् समाप्त हो गई. यही नहीं ये विद्यार्थी अपनी जिम्मेवारी और निभाने लगे। पढ़ने की अभिरुचि को प्रोत्साहित करने का ग्रंथपाल श्री प्रदीप मोघे जी का बच्चों पर सकारात्मक प्रभाव पढ़ा। इनके 19-20 वर्ष के चिरिमिरी प्रवास में कोई पुस्तक चोरी नहीं गई. लकड़ी की 40 कुर्सियाँ भी इतने वर्ष तक सही सलामत रही। पुस्तकालयाध्यक्ष श्री प्रदीप मोघे विद्यालय में बहुत लोकप्रिय थे; क्योंकि वे शिक्षकों और बच्चों को पढ़ने के लिए बहुत प्रेरित करते थे और स्कूल पुस्तकालय को जबलपुर, रायपुर की तरह समृद्ध करना चाहते थे।

केन्द्रीय विद्यालय हजरतपुर में हॉलिहॉक के फूल का पौधा तीन महीने तक उन मुख्य सीढ़ियों पर निर्द्वंद्व हरा-भरा और फूलों से लदा रहा, जहाँ से होकर हजारों छात्र विद्यालय आते जाते थे। केन्द्रीय विद्यालय चिरिमिरी, आयुध निर्माणी कटनी या आयुध उपस्कर निर्माणी हज़रतपुर, जिला फिरोजाबाद के छात्र यहाँ के बगीचे को या किसी पेड़-पौधे को कभी नुकसान नहीं पहुँचाते थे।


2. सम्प्रेषणीयता का विस्तार

जाने-अनजाने आर्य समाज के प्रचारकों की श्रोताओं को समझाने वाली कथात्मक शैली और इनकी बातें मेरे जीवन का हिस्सा बन गई. इसका प्रभाव मेरे छात्रों पर भी पढ़ा। वे कभी अपने मन से जोड़कर कभी सुनी-सुनाई कथाएँ अपनी भाषा में लिखकर लाने लगे। कुछ की कहानियाँ सुधारकर मैंने दिल्ली की मासिक पत्रिका 'जगत' मासिक में भेज दी। इसके संपादक तत्कालीन हिमाचल के सांसद प्रेमचंद वर्मा बड़े उदार थे। वे बच्चों को लेखकीय प्रति भी भेज देते थे। इन बच्चों की कहानियाँ छपने से एक सकारात्मक प्रभाव यह पढ़ा कि गाँव के ये छात्र पढ़ाई में भी अधिक रुचि लेने लगे। विभिन्न स्कूलों में यह क्रम 1969 से 1976 तक चलता रहा।

बरेली के छात्र कविता कहानी लघुकथा, व्यंग्य आदि विधाओं में छुटपुट प्रयास करते रहे। ये कला संकाय के कमज़ोर समझे जाने वाले छात्र थे। आगे चलकर इन्हीं में से 16 विद्यार्थियों ने कक्षा 12 में प्रथम श्रेणी प्राप्त की तथा कुछ ने हिन्दी साहित्य में विशेष योग्यता भी। इस विद्यालय के विद्यार्थियों की अन्य रचनाएँ स्थानीय समाचार पत्र में भी स्थान पाती रही। शीराजा (जम्मू और कश्मीर अकादमी की द्विमासिक) के अक्तूबर-नवंबर 91 के लघुकथा विशेषांक में इस विद्यालय के तीन विद्यार्थियों (सिम्मी अग्रवाल, विनोद कापड़ी, अनुपमा भाटिया) की लघुकथाएँ भी शामिल थी। विनोद कापड़ी की लिखी एक कहानी की 14 हजार प्रतियाँ साक्षरता निकेतन लखनऊ ने भी 1993 के आसपास छापी थीं। उसी समय की लिखी विनोद कापड़ी की लघुकथा जनवरी 2011 की हरिगन्धा (हरियाणा साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका) के लघुकथा विशेषांक में भी आई है।

केन्द्रीय विद्यालय एसईसीएल चिरिमिरी के प्राथमिक कक्षाओं के बच्चे भी प्रार्थना सभा का कार्यक्रम बखूबी संचालित करने लगे। आकाशवाणी अम्बिकापुर ने इस स्कूल के बच्चों का नए साल के लिए आधे घंटे के बदले एक घंटे का गीत कविता, कहानी आदि का कार्यक्रम बिना किसी रिटेक के रिकार्ड किया। इस कार्यक्रम का संचालन, संगीत सब छात्रों का ही था।

अगस्त 2001 में केन्द्रीय विद्यालय आयुध निर्माणी कतनी मध्य प्रदेश के विद्यार्थियों ने 'पाठक मंच बुलेटिन' का नवंबर अंक दो दिन में तैयार कर दिया था। इस अंक में श्री पंकज चतुर्वेदी के निर्देशन में सभी रचनाएँ एवं चित्रांकन इसी विद्यालय के 40 विद्यार्थियों द्वारा किया गया था।


3. भावनाओं को विस्तार

'कठपुतली' की मानवीय रूप में प्रस्तुति ने मेरे मन पर गहरी छाप छोड़ दी। मुझे उस पात्र से लगाव हो गया था। लेखक का नाम तो आज याद नहीं रहा, पर आज तक उस पुस्तक को नहीं भूल पाया। जीवन भर कथाओं के पात्रों से जुड़ी आत्मीयता संपर्क में आने वाले लोगों से भी बनी रही।

जुलाई 1976 में मेरा चयन हिन्दी प्रवक्ता के लिए हो गया और मुझे केन्द्रीय विद्यालय नारंगी (गौहाटी) के लिए नियुक्त किया गया। केन्द्रीय विद्यालय एयर फोर्स बैरकपुर से बिदा होते ही बहुत से छात्र-छात्राएँ साइकिल से मेरे आवास पर पहुँच गए. मेरे चलने पर स्टीमर के घाट तक पहुँच गए. जब तक मैं हुगली के दूसरे किनारे पर नहीं पहुँचा, तब तक छात्रों की भीड़ इस किनारे पर जमा थी। आज मुझे और अधिक अहसास हुआ कि यह छात्रों के मन तक पहुँचने का ही प्रतिफल था, जिसमें मेरी कहानी-कला ही काम आई, किसी तरह का पांडित्य नहीं।

बरेली में 13 वर्ष के प्रवास में बहुत बदलाव देखा। उस समय के कई विद्यार्थियों ने 2010 में मुझे फिर से तलाश कर लिया और मुझे भावाविभोर कर दिया। इनमे मुमताज, कविता पुनिया (गंगानगर के बी.एड. कॉलेज की प्राचार्या) , जयविंद सक्सेना, मंजु सिंह प्रमुख हैं। विनोद कापड़ी और अनुपमा भाटिया निरंतर मेरे संपर्क में रहे हैं।

केन्द्रीय विद्यालय चिरिमिरी में जब मैं प्राइमरी कक्षा के बरामदे से भी गुज़रता तो बच्चे पास आकर अपनी कक्षा में आने के लिए कहते और बिना झिझक कहानी आदि सुनाने का आग्रह करते। यदि खेल रहे होते तो खेल छोड़कर मेरे पास आ जाते। दो-चार दिन के लिए बाहर चला जाता, तो बच्चों को संदेह होता कि मेरा तबादला हो गया है। कुछ बच्चे घर जाकर रोने लगते कि हमारे प्रिंसिपल चले गए हैं। लौटने पर मुझे सफाई देनी पढ़ती कि मैं कहाँ और किस काम से गया था। इस कहानी कला ने मुझे इन नन्हे बच्चों से पूरी तरह जोड़ दिया। अभावग्रस्त और सुविधाविहीन इस क्षेत्र के बच्चे हमेशा सफलता की ओर अग्रसर रहे हैं। इन सभी विद्यालयों के बच्चों के जीवन में विशिष्ट परिवर्तन देखने को मिला। हिन्दी कहानी-रचना और कहानी कथन की प्रतियोगिताओं ने बच्चों की पढ़ने की अभिरुचि को समृद्ध किया। इस अभिरुचि का परिणाम साक्षात व्यवहार-परिवर्तन के रूप में दिखाई दिया। विभिन्न प्रकार के फूलों से भरे बगीचों से न कोई पत्ती तोड़ता और न फूल। कक्षा 2 के छोटे बच्चों में भी पढ़ने की होड़ लगी रहती। नियम न होने पर भी कटनी में बच्चों के आग्रह पर उन्हें घर के लिए भी पुस्तकें दे दी जातीं। नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा आयुध उपस्कर निर्माणी हजरतपुर में दो कार्यक्रम किए गए. 23 अप्रैल के कथा-कार्यक्रम में 400 से अधिक अभिभावक और बच्चे खुले परिसर में अमर गोस्वामी की कहानी, श्री शेरजंग गर्ग की कविता सुनने के लिए रात में भी जमे रहे। महानगरों में कथा-कार्यक्रम में इतनी उपस्थिति कभी नहीं रहती। अमर गोस्वामी का कहानी कहने का तरीका बहुत भावपूर्ण था। लगाता था कि श्रोता कहानी सुन नहीं रहे हैं, बल्कि देख रहे हैं। स्वर का उतार-चढ़ाव, भाव-मुद्रा कहानी को सरस, जीवंत और दृश्यात्मक बनाने की भूमिका निभा रहे थे।

4. विभिन्न विषयों का क्षेत्र और भाषा

भूगोल, इतिहास, विज्ञान, गणित आदि में रोचकता लाने के लिए भी इसी प्रकार प्रयास किया जा सकता है। कहानी-कला की मूलभूत शक्ति है-बोलचाल की सरल, सहज और ग्राह्य भाषा। विषयवस्तु की दुरूहता को भाषा की दुरूहता और दोगुना कर-कर देती है। इन विषयों को अरुचिकर बनाने में स्टीरियो टाइप भाषा ज़्यादा जिम्मेदार है। ' कारण-सरल भाषा का प्रयोग अपने आप में कठिन कार्य है। जयंत नार्लीकर जैसे विद्वानों के भाषण में भीड़ क्यों जुटती रही है, इसका कारण तलाशना ज़रूरी है। प्रो. यशपाल की बातचीत की भाषा ध्यान दीजिए, तो भाषा की सहजता का पता चलेगा। कहानी की भाषा का जो गुण होना चाहिए, वह भाषा-गुण इनकी सबसे बड़ी ताकत है। कहानी की शब्दावली, वाक्य-गठन, मुहावरे, शिल्प जन सामान्य की रोजमर्रा की भाषा के ज़्यादा समीप हैं। यही कारण है कि कहानी के तार हमारी संवेदना से सहज रूप में जुड़ जाते हैं। सार रूप में कहा जाए तो भाषा किसी विषयवस्तु को स्पष्टता से प्रस्तुत करने का सबसे सक्षम माध्यम है। कहानी-कला इस तरह की भाष की सर्वाधिक सशक्त विधा है, अतः प्रभावी शिक्षण के लिए शिक्षकों को कहानी जैसे सशक्त माध्यम का सदुपयोग करना चाहिए.

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' (1949) जानेमाने लेखक व अनुवादक है। लगभग 40 वर्षों तक शिक्षक रहे और विद्यालयों में कहानी व पुस्तकों से जुड़ी गतिविधियों के आयोजन के लिए चर्चित रहे है। श्री काम्बोज ने 1996 में सहारनपुर में निजी विद्यालयों में शिक्षण प्रारंभ किया। 1976 में वे केन्द्रीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हुए और 1994 में प्राचार्य बने। उन्हें देश के विभिन्न हिस्सों में बच्चों के साथ काम करने का व्यापक अनुभव है। -0-

11,01- 2013, 11: 45