कहानी की रंगमंच: बनती हुई नई परंपरा / प्रताप सहगल
न केवल भारतीय रंगमंच बल्कि विश्व रंगमंच में 'कहानी का रंगमंच' की शुरुआत और उसका विकास हिन्दी रंगमंच के परिदृश्य में होना एक अर्थपूर्ण घटना है। 1975 में इसकी शुरुआत देवेंद्रराज अंकुर ने निर्मल वर्मा कि तीन कहानियों का मंचन करके की। कुछ लोगों ने इसे कथा-वाचन या कथा-गायन आदि से जोड़ने की कोशिश की, लेकिन ऐसी सोच ठीक नहीं है, क्योंकि आज हम देखते हैं कि कहानी के रंगमंच ने अपना एक अलग रंग-व्याकरण अर्जित कर लिया है। पश्चिमी या भारतीय नाट्य-चिंतन या नाट्य-सिद्धांतों में भी 'कहानी का रंगमंच' की न तो कोई अवधारणा है और न ही इस दिशा में कोई विवेचन मिलता है। इसलिए भी 'कहानी का रंगमंच' की शुरुआत और इसे विकसित करने का श्रेय हिन्दी को ही जाता है। लगभग तीस वर्षों की इस यात्रा में 'कहानी का रंगमंच' को लेकर जो समझ विकसित हुई है उसका लेखा-जोखा लेने का यह उपयुक्त अवसर लगता है।
हिंदी के आम पाठक के पास नाटकों की जानकारी भले ही हो, नाट्य सिद्धांतों एवं नाट्य-व्यवहारों की जानकारी अभी भी कम है। ऐसे में कहानी के रंगमंच के बारे में जानकारी का अभाव होना कोई ताज्जुब की बात नहीं है। इसी परिप्रेक्ष्य में 'कहानी का रंगमंच' पर बात शुरू की जा सकती है।
1997 में महेश आनंद द्वारा संपादित किताब 'कहानी का रंगमंच' में कहानी के रंगमंच पर टिप्पणी करते हुए निर्मल वर्मा ने लिखा है, "कहानियों को अरसा पहले मैंने अपने अकेले कमरे में लिखा था, उन्हें खुले मंच पर दर्शकों के बीच देखना कुछ वैसा ही था, जैसे टेपरिकार्डर पर अपनी बात सुनना।" इस टिप्पणी को पढ़कर तभी मुझे ऐसा लगा था कि संभवतः निर्मल वर्मा ने कहानी के रंगमंच के व्याकरण को समझा नहीं है। अपनी समझ पर बार-बार शक करने के बावजूद अभी भी मुझे लगता है कि निर्मल वर्मा कि सोच इस संदर्भ में अधूरी है। जैसा कि पहले भी कहा है कि 'कहानी का रंगमंच' की शुरुआत निर्मल वर्मा कि ही तीन कहानियों से हुई, जिसे अंकुर ने 'तीन एकांत' नाम दिया। इसी से 'कहानी का रंगमंच' अस्तित्व में आया। यहाँ यह उल्लेख करना भी ज़रूरी लगता है कि इसे कई लोगों ने 'कथा रंग' , 'कथा मंच' , 'रंग-कथा' , 'कथा-वाचन' और 'कथा-पाठन' आदि नाम दिए, लेकिन 'कहानी का रंगमंच' नाम ही चला और प्रतिष्ठित हो गया। यही नाम सार्थक भी लगता है।
निर्मल वर्मा कि उपर्युक्त टिप्पणी के बहाने यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि उन्होंने या फिर उन तमाम लेखकों ने जिनकी कहानियों का मंचन देवेंद्र और बाद में कारंत, सत्य देव दुबे या दिनेश खन्ना आदि ने किया है, कहानी के रंगमंच को कितना समझा है।
जब यह कहा जाता है कि कहानी का मंचन होते हुए देखना टेपरिकॉडर पर अपनी बात सुनना है तो अभिनेता कि सत्ता एवं उसकी सक्रिय उपस्थिति को हटा दिया जाता है। अभिनेता न तो टेपरिकार्डर है और ना ही भोंपू। टेपरिकार्डर आवाज़ भले ही सुनाता हो, लेकिन वह दृश्य नहीं रचता, बिंब नहीं बुनता और नाही कथा के पाठ की कोई व्याख्या (Interpretation) प्रस्तुत करता है। इस टिप्पणी में न केवल अभिनेता, बल्कि निर्देशक की भूमिका को भी नज़रअंदाज़ कर दिया है।
शब्द के माध्यम से आवेग, आवेश, विचार, विश्लेषण और टकराहटों की दुनिया को खड़ा करना जितना चुनौतीपूर्ण सृजनात्मक कर्म है, उन्हीं के शब्दों को चाक्षुष बिंबों में बदलते हुए एक पूर्ण दृश्य में बदलना भी कोई कम चुनौतीपूर्ण सृजन-कर्म नहीं है। यूँ यह बात संपूर्ण रंगकर्म पर लागू होती है, लेकिन कहानी के मंचन में यह चुनौती और भी गहरा जाती है। कहानी का मंचन करते हुए कहानी के विवरण दृश्य के बजाय सूच्य बन जाते हैं। लेकिन उनका सूच्य बनना भी एक कला-माध्यम से गुज़र कर आना है। अभिनेता द्वारा कहानी के विवरण को तटस्थता, उदासीनता, तल्लीनता या किसी अभिनय भंगिमा के साथ प्रस्तुत करना उस विवरण को अलग-अलग अर्थ दे सकता है। भले ही निर्देशक का यह दावा हो कि वह कहानी को जस का तस पेश कर रहा है। पर वह दावा मात्र कहानी के मुख्य पाठ तक ही सीमित रहता है। मंच पर आते ही उस पाठ के उपपाठ या अंतर्पाठ सामने आने लगते हैं, जो निश्चित रूप से लेखक की 'टेपरिकार्डेड' आवाज़ से जुदा होते हैं। अगर ऐसा न हो तो दर्शक कहानी देखेगा क्यों? इससे वह कहानी पढ़ना अधिक बेहतर समझेगा। वस्तुतः कहानी का रंगमंच यहीं पर वाचन, गायन एवं पढ़ने की परंपराओं से अलग हो जाता है। 'कहानी का रंगमंच' में कहानी सुनाना भी है और दिखाना भी। यह अनुभव कथा पढ़ने या फिर कहानी सुनने के अनुभव से अलग है। कहानी सुनाने के साथ ही कहानी दिखाने की प्रक्रिया में ही तत्त्व जुड़ते हैं, जो रंगमंच पर कहानी का संसार खड़ा करते हैं। यह संसार खड़ा करने में सबसे अहम् भूमिका अभिनेता कि ही होती है। वस्तुतः किसी भी अभिनेता के लिए कहानी को मंचित करना एक चुनौती पूर्ण रंग-कर्म है। कथाकार कहानी लिखते हुए रंग-तत्त्वों को ध्यान में रखकर कहानी नहीं लिखता, जबकि नाटककार को नाटक लिखते हुए रंग-तत्त्वों का ध्यान रखना होता है। नाटक लिखने के लिए रंग-भाषा कि समझ नाटक को मंचन के लिए अधिक ग्राह्य बना देती है, लेकिन कहानीकार के साथ ऐसी कोई शर्त जुड़ी हुई नहीं है। कहानी या उपन्यास में नाटकीयता आती है तो वह कथा कि बुनावट में ही निहित है नाकि उसे नाटक बनाया जाता है। यह बात ज़रूर है कि कहानी में निहित नाटकीयता उसे मंच पर खेलने लायक बना देती है। यह प्रश्न भी उठता है कि क्या ऐसी कहानियों का मंचन भी संभव है। जिनमें नाटकीयता न हो या कहानी इतनी अमूर्त हो कि जिनमें अभिनय या दूसरे रंग-तत्त्वों का इस्तेमाल करने की गुंजाइश कम हो'? नाटकीयता, जिज्ञासा, गहनता, विश्लेषणात्मकता और अर्थपूर्ण' वस्तु' के अभाव में उस कहानी का चयन संभवतः निर्देशक या अभिनेता न करे या कहानी इतनी अमूर्त हो कि उसे रंग-भाषा में न ढाला जा सके-संभव है ऐसी अनेक कहानियाँ अपने मंच की तलाश न कर सकें।
'कहानी का रंगमंच' को लेकर कुछ और सवाल भी उठाए जा सकते हैं। अपने एक आलेख 'कहानी का रंगमंच अभिनेता कि भूमिका' में अंकुर ने कहा है कि कहानी का मंचन करते हुए अभिनेता को 'चरित्र बनने की ज़रूरत नहीं, मात्र उसे दिखाने यानी डिमांस्ट्रेट करने की ज़रूरत है'। फिर आगे यह भी कहा है कि 'कहानी के मंचन में आलेख का पाठ नहीं किया जाता है, वरन् अभिनेता के माध्यम से उसका अभिनटन होता है?' ऐसी ही बात उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में भी कही है कि एक्टिंग कहानी के रंगमंच का अपरिहार्य अंग है। यह बात सही भी है। जब यह सही है कि फिर डिमांस्ट्रेट करने का अर्थ क्या है? कहानी को जब दिखाना है तो अभिनेता ज़रूरी है। अभिनेता ज़रूरी है तो अभिनय के बिना अभिनेता कि कल्पना करना ही संभव नहीं, तब 'डिमांस्ट्रेट' जैसे शब्द का इस्तेमाल करके व्यर्थ का संभ्रम क्यों खड़ा किया गया है? अभिनय का प्रशिक्षण देने के लिए 'डिमांस्ट्रेशन' एक ज़रूरी प्रक्रिया हो सकती है। यह 'डिमांस्ट्रेशन' अल्पकालिक ही होता है, जबकि अभिनय करते हुए अभिनेता को चरित्र के अंदर प्रवेश करना होता है। मिसाल के तौर पर 'खानाबदोश' में जिस तरह से वागीश और हेमा ने अपने-अपने चरित्रों को प्रस्तुत किया, वह कोई डिमांस्ट्रेशन नहीं, चरित्र को पूरी तरह से जीना था। 'डिमांस्ट्रेशन' और 'पर-काया-प्रवेश' में बुनियादी फ़र्क को समझना ज़रूरी है।
कहानी के मंचन में अभिनेता कि भूमिका इसलिए और भी चुनौतीपूर्ण हो जाती है कि उसे क्षण भर के अंतराल में ही कभी सूचक, कभी व्याख्याकार और कभी टिप्पणीकार की भूमिका में उतरना पड़ता है। ऐसे में संभव है कि दर्शक का मुख्य चरित्र से तादात्म्य न हो पाए। यह कमी अभिनेता कि हो सकती है, रंग-माध्यम की नहीं। इसीलिए कहानी के मंचन में अभिनेता को अपना अभिनय कौशल दिखलाने का भरपूर अवसर मिलता है। कहा जा सकता है कि कहानी का रंगमंच पूरी तरह से अभिनेता पर केंद्रित है। यहाँ तक कि मंच की स्पेस को भी उसे अपने अभिनय से ही भरना होता है। संगीत, चित्रकला, वेशभूषा आदि तथा दूसरे रंगमंचीय उपादान यहाँ गौण हो जाते हैं। यह न तो 'फिज़िकल थियेटर' है और न ही 'मनोफिज़िकल थियेटर'। कहानी का रंगमंच हर कहानी के साथ अपना नया मुहावरा तलाश करता है। इसके पास पहले से तय या बंधी हुई कोई रंग-भाषा नहीं है। फिर भी यह देखना होगा कि अपनी शुरुआत से लेकर आज तक 'कहानी का रंगमंच' में कोई तब्दीली आई या नहीं।
1975 में अंकुर ने जब इसे शुरू किया तो यही नाम इसके साथ जुड़ गया। बाद में कारंत ने अपनी तरह से प्रयोग करके कहानी के साथ छेड़-छाड़ किए बिना दृश्यों को विस्तार देने और उनमें अलग रंग भरने की कोशिश की। प्रकाश एवं संगीत को शुरू से ही स्वीकार कर लिया गया था। इधर देखने में यह आया है कि संगीत का इस्तेमाल पहले से बढ़ा है और दूसरी रंग-युक्तियों का इस्तेमाल भी होने लगा है। प्रतीकात्मक होते हुए भी सैट व्यवस्था भारी होने लगी है। कास्ट्यूम पर भी अपेक्षाकृत अधिक ध्यान दिया जाने लगा है। वज़ह यह कि धीरे-धीरे कहानी का मंचन कई नए एवं प्रतिष्ठित निर्देशक करने लगे हैं। मिसाल के तौर पर साहित्य कला परिषद् द्वारा आयोजित कथा उत्सव 2001, 2002 और 2003 में हुई प्रस्तुतियाँ। अमृता प्रीतम, आचार्य चतुरसेन, जोगिंदरपाल, अमरकांत, हरिशंकर परसाई आदि की कहानियों का मंचन। इनकी ख़ास बात यह थी कि इनमें पाँच अलग-अलग युवा निर्देशकों ने अपने-अपने तरीक़े से कहानियों का मंचन किया। स्पष्ट है कि अगली पीढ़ी ने 'कहानी का रंगमंच' की अवधारणा को स्वीकार कर लिया है और इसकी एक परंपरा बनने लगी है। इन प्रस्तुतितयों में यह भी देखने को मिला कि इन निर्देशकों ने अपनी प्रस्तुतियों में रंगमंच के उन सभी उपादानों का प्रयोग किया, जिनका उपयोग किसी नाटक की प्रस्तुति में किया जाता है। इस नज़रिए से अंकुर द्वारा शुरू किए गए कहानी के मंचनों और दूसरों द्वारा किए जा रहे मंचनों में फ़र्क साफ़ झलकने लगा है। इसे निर्देशक या अभिनेता कि कमी भी माना जा सकता है और कहानी के रंगमंच का विकास भी।
लगता यह है कि कहानी के मंचन को लेकर शुरू का शुद्धतावादी दृष्टिकोण बदल रहा है। संभव है आगे चलकर कहानी के नाट्यरूपांतर और कहानी के मंचन के बीच का कोई नया रूप विकसित हो। उस रूप में नाटक की मूल शर्तों का पाल भले ही न हो, पर वह नाटक के रूप के अधिक क़रीब आने लगे। यह भी संभव है कि कहानी का मात्र नैरेशन ही एक्शन बन जाए।
यह सवाल भी उठाना ज़रूरी है कि 'कहानी का रंगमंच' की कलागत या सामाजिक उपयोगिता क्या है? क्या यह मात्र एक प्रयोग या आग्रह तो नहीं?
कलाओं में प्रयोग, कलाओं में आपसी तालमेल और कलाओं का एक-दूसरे में प्रवेश कोई नई बात नहीं है। कहानी के मंचन में भी प्रयोग का दबाव तो रहा ही है, साथ ही कहानी को सुनाने के साथ-साथ दिखाना भी अपने आप में एक आविष्कार है। अभी तक जिन्होंने भी कहानियों को मंचित किया है, उन्होंने कलागत मानों को छोड़ नहीं दिया, बल्कि उन्होंने नए मानों को रचा है। कला के स्तर पर किसी विधा, माध्यम या तरीक़े का आविष्कार होना ही अपने आप में कलागत उपलब्धि है। कहानी में पहले से की गई शब्द की प्रतिष्ठा को रंगमंच पर भी स्वीकार एवं स्थापित करना कला कि दृष्टि से उपयोगी है और साहित्य की दृष्टि से भी। सामाजिक उपयोगिता का प्रश्न मात्र 'कहानी का रंगमंच' के संदर्भ में उठाना सही नहीं लगता। यह प्रश्न तो सभी कला-माध्यमों के साथ जुड़ा हुआ है और प्रत्येक कला-माध्यम को इस प्रश्न के साथ अपने तरीक़े से जूझना होता है। यह सर्व-स्वीकृत बात है कि कला का एक काम व्यक्ति को संस्कारित करना है। रंगकर्म भी जहाँ अभिनेता को संस्कारित करता है, वहीं प्रेक्षक को भी। कहानी का मंचन नुक्कड़ नाटकों या प्रतिबद्ध नाट्यालेखन की तरह से नहीं है। यहाँ तो विपुल कथा-साहित्य देशी एवं विदेशी भाषाओं में पहले से ही मौजूद है और किसी भी कहानीकार ने यह सोचकर कहानी न लिखी होगी कि इसका मंचन होगा-नाट्य-रूपांतर फ़िल्मीकरण या धारावाहिकीकरण की प्रक्रियाएँ अलग हैं। कहानी आज भी पढ़ने या ज़्यादा से ज़्यादा सुनाने के लिए लिखी जाती है। दिखाने के लिए नहीं। कहानी को दिखाने की खब्त रंग-निर्देशक एवं अभिनेता के सिर पर सवार रहती है। कहानी को मंच पर दिखाने का मतलब है उसे नए अर्थ देना। कहानी का मंचन उसे नया दर्शक देता है। साहित्य की इस विपुल संपदा के लिए मंच के फाटक खुल जाना कोई मामूली बात नहीं है। कहानी का दिखाना और सुनाना अक्सर दिलचस्प होता है और कई बार ऐसा हुआ है कि अच्छी लेकिन अचर्चित कहानियाँ खेली जाने के बाद चर्चा में आ जाती हैं और उनके नए-नए अर्थ खुलने लगते हैं। कहानी या उपन्यास रंग-कला के साथ जुड़कर जब दर्शक वर्ग के मन का हिस्सा बनते हैं तो दर्शक के मन में कुछ हिलता-डुलता है। यह कोई कम उपयोगी बात नहीं है।
आज हम पाते हैं कि 'कहानी का रंगमंच' एक परंपरा कि शक्ल अख्तियार कर रहा है। इस माध्यम से कथा-साहित्य का वह हिस्सा भी सामने आना चाहिए जिसे सोद्देश्य या प्रतिबद्ध लेखन माना जाता है।