कहानी के इस ओर / पल्लव
क्या पूर्व पक्ष के वे ऋषि कुछ कम पूज्य हैं जिनका खण्डन उत्तर पक्ष में किया गया है? (दूसरी परम्परा की खोज से)
हिन्दी कहानी में यह अपूर्व उछाल का दौर है। नयी कहानी के दौर में भी ऐसे दृश्य न आए होंगे। इधर भी कई कवि कविताई छोड़ कहानी पर हाथ आजमा रहे हैं। सारी पत्रिकाऐं कहानी और कहानीकारों की चर्चाओं में व्यस्त हैं। एकदम नयी युवा पीढ़ी ने कहानी के हिन्दी संसार में प्रवेश ले लिया है। विचारधारा की बहस अब बीता शगल है। कहानी में और कुछ हो या न हो खास तरह की चमक (या धुन्ध?) जरूरी है। क्या यह वही दौर लौट आया है जो कभी नयी कहानी के उतार के दिनों में अकहानी, सक्रिय कहानी या समान्तर कहानी का नाम धरकर आया था? इस प्रायोजित चर्चा के उफान में आलोचना का दायित्व बन जाता है कि वह उस रचनाशीलता की पहचान करे जो महत्त्वपूर्ण होने पर भी अलक्षित रह गई है।
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इस दौर की कहानी को ठीक तौर पर समझने के लिए उस सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य को देखना भी जरूरी होगा जिसकी उपज ये कहानियाँ हैं। भारतीय इतिहास के पिछले दस-पन्द्रह वर्ष भारी उथल-पुथल वाले रहे हैं। उदारीकरण के फलस्वरूप आया उपभोक्तावाद और बाजारीकरण इन दिनों में अपनी जड़ें मजबूत कर रहा था। वहीं मण्डल आयोग की सिफारिशों के लागू हो जाने से हाशिये पर धकेले जा चुके समाजों का अस्मिता विमर्श भी इधर मुखर होता गया। अस्मितावादी राजनीति और लेखन की सीमाऐं होती हैं लेकिन इस तथ्य से इंकार करना भी बेइमानी होगी कि दलित और स्त्री विमर्श के चलते साहित्य में अनेक महत्त्वपूर्ण रचनाएँ और रचनाकारों का होना सम्भव हुआ। पिछड़ी जातियों का सामाजिक उभार साहित्य में भी वह स्पेस देने में सफल रहा जिस पर इन समुदायों के वृत्तान्तों की रचना हो सकती थी। न केवल कहानी में अपितु उपन्यास और कविता के क्षेत्र में भी इन रचनाओं - रचनाकारों की सजग उपस्थिति को देखा जा सकता है। कहानी की नयी चर्चाओं में खास तरह के शहरी उच्च मध्य वर्ग के जीवन की रंग-बिरंगी तस्वीरों को जगह मिली है। लेकिन भारत के सम्पूर्ण सामाजिक जीवन का यथार्थ इन तस्वीरों में आने से रह जाता है। और फिर यह सवाल अब भी चुनौती बना हुआ है कि कहानी में केवल शहरी जीवन आ जाना पर्याप्त है? अपवादस्वरूप गांवों की कहानियां लिख देना एक बात होती है, वहाँ के धूल-धक्कड़ को फाँकते हुए कहानी लिखना दूसरी बात। प्रायोजित चर्चाओं में गांव की अनुपस्थिति को रेखांकित किया जाना जरूरी है। शहरी जीवन के भी सभी प्रामाणिक चित्र प्रायोजित कथाकारों में मिलते हों ऐसा नहीं है। वर्गभेद, जातिवाद और साम्प्रदायिकता हमारी बड़ी समस्याऐं हैं और जब तक इनका हल न हो रचनाशीलता को इनसे जूझना होगा। यहाँ कुछ ऐसे अचर्चित किन्तु महत्त्वपूर्ण युवा कथाकारों की कहानियों की चर्चा द्रष्टव्य है। युवा की परिभाषा को भी देखना होगा। क्या केवल छोटी आयु या पहला कहानी संग्रह होना ही युवा की कसौटी है ?
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सत्यनारायण पटेल की कहानियों की विशेषता है उनका देशज कथा रूप और शोषण से जूझने की उद्दाम चेष्टा। ‘पनही’ उनकी अत्यन्त प्रशंसित कहानी है। उदारीकरण का यह दौर अपूर्व समृद्धि लाया है। इतनी कारें, इतनी मोटरसाइकिलें, चकाचक सड़कें, ऊँची-ऊँची इमारतें और उन पर काँच की सुन्दर नक्काशी। भाव-तौल की किचकिच नहीं। अब तो मजदूर भी मँुह माँगा दाम पाते हैं! पैसे की इफरात हो गई। अब जरा पूरण के गाँव चलिए। पूरण जूतियाँ बनाता है और उसकी लुगाई पीराक के ‘लुगड़े में कई जगह थेगली लगी थी और पोलका छन-छन कर फट रहा था। एक जोड़ी कपड़ों की वजह से वह नदी पर नहाने नहीं जाती थी। टापरे पिछवाड़े भी नहाती तो अंधेरे में नहाती, ताकि आते-जाते या पटेलों के खेतों में काम करते लोग उघड़ा बदन न देख सकें। जब आठ-पन्द्रह दिन में लुगड़ा-पोलका धोना होता, रात में ही धोती। जिस रात अपने कपड़े धो देती, उस रात पूरण की धोती का एक टुकड़ा लपेटकर सोती।’ इस पूरण ने जूतियाँ गढ़ीं लेकिन उनका दाम ? पटेल दाम का सुनते ही बोला- ‘बता दी न अपनी जात। एक सेर अनाज कम पड़े, तो क्या एक जोड़ी पनही का मणभर लेगा? कुछ भी करो, तुम ढेड़ियों का पेट नहीं भरता। सालों की नेत ही खराब है। हमारे ढोर मरने पर तुम्हें खाल मोफ़त में मिलती है। खाने को मांस मिलता है। ढोरों के हड्डे बेच पयसा झोड़ते हो, फिर भी एक सेर अनाज कम पड़ता है ? ऐसी क्या सोने की पनही गढ़कर लाता है, और भोसड़ी सोना की भी गढ़ी होय तो उमे दियो बालाँगा?’ अपनी सुविधा के लिये इस नये दौर ने कुछ मिथक गढ़ लिये हैं जिन्हें पालतू मीडिया पोषित करता है। यह कहानी मध्य प्रदेश के एक गाँव की है लेकिन क्या यह चित्र राजस्थान, झारखण्ड, बिहार या हरियाणा के भी गाँव का नहीं है ? हम यवतमाल को भी कैसे भूल जाऐं। वहीं मानवीय रिश्तों में बाजार के कारण आता जा रहा शरण ‘बोंदा बा’ में आया है। ठण्ड से जूझते बोंदा बा कहीं हलकू (पूस की रात) ही तो नहीं हैं जो इस जालिम व्यवस्था से लड़ने के लिए अपना घर होम कर देना पड़ता है। गाँवों में लगातार जातीय हिंसा, यौन उत्पीड़न और अशान्ति की खबरों को मीडिया दलित राजनीति के उभार से जोड़कर कुछ इस तरह प्रदर्शित करता है कि पहले सबकुछ ‘अहा ग्राम्य जीवन’ था अब ‘इन्होंने’ गड़बड़ कर दी। इस भ्रम की कलई खोलने का काम सत्यनारायण पटेल की कहानियाँ बखूबी करती हैं। ‘गाँव और कांकड़ के बीच’ के रेवा का तेवर नकली नहीं है - ‘तो चुप रहो, और आज जैसे बालू दादा को मार गया वो चौधरी, वैसे ही कल हम सबको मारता रहेगा और हम चुप बने रहेंगे। और मारता तो आ ही रहा था। एक बालू दादा ने ही तो गर्दन ऊँची की थी उसके सामने। दादा जब ऐसे भी मरना है और वैसे भी, तो इज्जत से क्यों न मरें?’ इससे पहले पनही में भी ठीक इसी तरह के तनाव में ‘ये’ ग्रामीण छिपकर नहीं बैठ गये थे - ‘अब मेरा मुँह क्या देख रहे हो, जाओ टापरे में जो कुछ हो - लाठी, हँसिया लेकर तैयार रहो, पटेलों के छोरे आते ही होंगे और हाँ, उबाणे पगे मत आजो कोई।’
चरणसिंह पथिक की ख्याति जिस कहानी से हुई थी वह थी ‘बक्खड़’। बाद में उन्होंने गाँव को केन्द्र में रखकर लगातार अच्छी कहानियाँ लिखीं। उनकी एक कहानी है - दंगल, यह कहानी गाँव में हो रहे नये विभाजन को देखती है। गाँवों में कीर्तन-गाने बजाने की अपनी संस्कृति है, राजस्थान में ऐसी गोष्ठियाँ कहीं ‘माच’ तो कहीं ‘तुर्रा कलंगी’ के नाम से होती हैं जिनमें रात-रात भर दो गायक दल आशु काव्य बना-बना कर एक दूसरे को पीटते हैं और श्रोता मंत्रमुग्ध सुनते हैं ऐसे दंगल किस तरह साम्प्रदायिकता और जातिवाद के दंगल बनते जा रहे हैं या कहानी बखूबी बताती है। ‘दंगल’ में पीरू तेली, रमजानी सक्का, कजोड़्या फकीर और बाबू उस्ताद की पीड़ा यह है कि उन्हें ‘आई-पाई’ कह कर हाशिये से भी धकेला जा रहा है। दंगल बताती है कि पार्टीशन अब हिन्दू मुसलमान का मामला ही नहीं रहा, अब एस.सी., एस.टी. और ओ.बी.सी. के साथ यही ज्यादती हो रही है। इस नए पार्टीशन को सम्भव बनाने के लिए ‘कारगिल के वीर’ जैसी कविताएँ हैं - ओ पहला पाड़ा की लुगाई बतड़ाई रे / म्हारा देश कू तो खा गया आई - पाई रे / ऐ रामकली बोली मो कू तो या ही बात को खेद / जे थाली में खावें गैबी करे वा ही में छेद। ‘दंगल’ का अन्त एक निराश और त्रासद स्थिति में हुआ है लेकिन यह निराशा केवल पीरू की जोठ (मण्डली) की निराशा नहीं है यह उन सब लोगों की निराशा है जो जानते हैं कि देश को कोई आई-पाई नहीं खा रहे, जो जानते हैं कि युद्ध का गौरव गाने वाले चारणवृन्द कौन हैं, जो जानते हैं कि असल दुश्मन कौन हैं? असल दुश्मन की पहचान का विवेक देना कहानी का काम है, इसी में कहानी की सफलता-सार्थकता भी है। इधर पथिक ने राजस्थान के गुर्जर आन्दोलन को केन्द्र में रख कुछ कहानियाँ लिखीं जिनमें ‘मूँछे’ और ‘रोजड़े’ खास तौर पर उल्लेखनीय हैं। ऐसे ही ‘फिरने वालियाँ एक अछूते प्रसंग पर लिखी गई कहानी है जिसमें गाँवों में शोक प्रसंग में भी आ गई कृत्रिमता को रेखांकित किया गया है। संबंधों के राग और उनकी जीवन्तता का चित्र ‘दो बहनें’ कहानी में आया है। चरण सिंह की कहानियाँ ग्रामीण जीवन के उन अज्ञात प्रदेशों में जाती है और संबंधों - परिघटनाओं का वृत्तान्त रचती है जो पर्यटक के नाते सम्भव नहीं।
गौरीनाथ की कहानी ‘महागिद्ध’ का जिक्र बहुधा हुआ है। उनके दो संग्रह ‘नाच के बाहर’ और ‘मानुस’ प्रकाशित हो चुके हैं। ‘मानुस’ उनका नया संग्रह है। संग्रह की पहली कहानी ‘दुरंगा’ एक ऐसे चरित्र से साक्षात्कार करवाती है जो अब विरल होते जा रहे हैं। यद्यपि यह चरित्र दोगला है तथापि ध्यान देना होगा कि समकालीन कहानी में भी बूढ़ों और बच्चों की उपस्थिति नगण्य है। नयी कहानी के बाद आठवें दशक की प्रगतिशील जनवादी कहानी ने ऐसे कुछ चरित्र दिए थे। काशीनाथ सिंह की कहानी ‘अपना रास्ता लो बाबा!’, उदय प्रकाश की ‘टेपचू’ और स्वयं प्रकाश की ‘स्वाद’ इस संदर्भ में याद आती हैं। सत्यनारायण पटेल के ‘बोंदा बा’ और दुरंगा के ‘झबरू बाबा’ मिलकर ग्रामीण बुजुर्गों के समकालीन यथार्थ का वास्तविक अंकन करते हैं। गाँव की राजनीति के बहाने व्यक्तित्वों की टकराहट का उजला आइना है ‘जलन’। गाँव के ऐसे चित्र कहानी में आम तौर पर नहीं आते वहाँ कथाकार का ‘जोर’ इतर चीजों पर ऐसा जाता है कि सबकुछ गढ़ा हुआ लगने लगता है। यह संयोग ही है कि दो बहनों की ऐसी ही कहानी चरणसिंह पथिक ने भी लिखी है और ये सारी बहनें अपने छल, ईर्ष्या और प्रतिद्वन्द्विता के बावजूद मानवीय ऊष्मा से भरी पूरी है। गढ़े जाने के विरुद्ध है ‘अन्है’। यहाँ गाँव के बदल रहे यथार्थ के ऐसे संश्लिष्ट चित्र है जो पाठक के भीतर जमा रूढ़ियों के उलट रास्ता खोजते हैं। बच्चन भाई लगभग अफलातूनी चरित्र हैं जो गरीबी से जूझते हमारे देखे जाने लगते हैं। मछली खाने की उनकी इच्छा और ट्यूशन पढ़ते शैतान छोकरे मिलकर मनुष्यता की वह भाव भूमि निर्मित करते हैं कि बच्चन भाई बहुत बड़े प्रतीत होने लगते हैं। कहना न होगा कि इस मनुष्यता के कारण ही बच्चन भाई कहानी से निकल पाठक के भीतर स्थाई घर बना सके हैं। कहानी के अन्त में आया यह दृश्य देखिए - ‘चारों तली जा रही मछली की गमक में नहा रहे थे। मास्टर-विद्यार्थी का भेद मिट गया थां अचानक एक लड़के ने पूछा, ”कुछ लोग अन्है मछली को साँप क्यों कहते हैं, मास्टर साहेब?“ “जो लोग इसे साँप कहते, वह हमें भी मानुस नहीं समझते। तो क्या हम राक्षस हैं?“ बच्चन भाई की आवाज तुर्श हो गयी थी।’ इसे पढ़कर प्रेमचन्द की कहानियों की याद आ जाती है। अच्छी बात यह है कि यह कहानी उस स्मृति को जीवित रखते हुए भी अपना विकास करने में सफल हो पाई है। वस्तुतः परम्परा का मोह कई बार उस परिधि को लांघ ही नहीं पाता जो पूर्ववर्ती कहानी द्वारा निर्मित हुई है।
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एस. आर. हरनोट युवा कथाकार नहीं हैं। उनके कोई पाँच कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं। समकालीन कथा परिदृश्य में हरनोट की पहचान ऐसे कथाकार के रूप में बनी है जो आमतौर पर साधारण प्रतीत होने वाले जीवन और घटनाओं से उस विडम्बना की सृष्टि करते हैं जिसे यथार्थ कहा जा सके। ‘जीनकाठी’ उनकी प्रतिनिधि कहानी है। सहजु अपने इस्तेमाल होने को रोक नहीं सकता तो भी वह प्रतिरोध भूल नहीं गया है और अवसर पाते ही कहता है - ‘कैसा देवता.... ? कौन-सा देवता ? मैं तो एक अछूत हँू। कठपुतली मात्र हूँू। सारे पुण्य तो तुम सभी के लिए हैं। अपने स्वार्थ के लिए ऊँचे लोगों ने भी क्या-क्या परपंच रचे हैं? जानते हो शर्मा जी, मैं इस घड़ी तो सबसे बड़ा पंडित हूँ। देवता हूँ और सभी का ईश्वर। लेकिन नीचे उतरते ही मैं सहजू अछूत...... और तुम सभी उच्च कुल के पंडित और ठाकुर। तुम्हारे जो ये देवता आज मेरी विजय पर नाच रहे हैं, मुझे भगवान मान रहे हैं, कल उन्हें मेरी परछाई से भी दोष लगने लगेगा। अपवित्र हो जाएंगे ये!!’ हरनोट की कहानियों के शुरू होने का ढंग एकदम गँवई है। किस्सों सरीखा। ‘सहज राम उर्फ सहजू अब दलित नहीं रह गया था।’ (जीनकाठी) या ‘मोबाइल’ देंखे - ‘उसके छोटे-छोटे पाँव थे। देखकर नहीं लगता था कि किसी बच्ची के होंगे। लम्बे, बेतरतीब बढ़े हुए नाखूनों से ढंके उंगलियों के छोर। चमड़ी ऐसी मानो किसी नाली में कीचड़ के बीच महीनों से पड़ा पुराने जूते का चमड़ा हो। नंगे पाँव जैसे ही जमीन पर पड़ते, बिवाइयाँ उधड़ने लगतीं। दर्द की टीस उठती, पर भीतर ही भीतर कहीं दबकर रह जाती।’ कहानी का यह ढंग पाठक के भीतर विश्वसनीयता पैदा करता है। ग्रामीण समाज में प्रचलित मिथकों और रिवाजों का रचनात्मक उपयोग ‘सवर्ण देवता, दलित देवता’ जैसी कहानी में भी देखा जा सकता है। हरनोट की कहानियाँ ग्रामीण संसार के एक और उजले किन्तु विलुप्त होते जाते पक्ष की भी कहानियाँ हैं। वह है पशु और मानव का सह अस्तित्व। उनके पहले संग्रह ‘दारोश’ की अधिकांश कहानियों में पशु-पक्षी किसी पात्र के रूप में आए थे, यहाँ भी ‘एम.डॉट कॉम’ व दूसरी कुछ कहानियों में इनकी उपस्थिति मनुष्य-पशु के आदिम सहजीवन की सजीव स्मृति उपस्थित करती है।
भवानी सिंह के दो कहानी संग्रह ‘एक गाँव की मौत’ और ‘एक-एक कदम’ प्रकाशित हुए हैं। यह ऐसे कथाकार की कहानियाँ हैं जो गाँव से शहर आ गया है लेकिन गाँव से संबंध पूरी तरह टूटा नहीं है। सत्यनारायण का नया कहानी संग्रह ‘सितम्बर में रात’ भी इसी गन्ध से भरा हुआ है। ‘एक एक कदम’ की अधिकांश कहानियाँ स्त्री के जीवन और उसके संघर्ष की कहानियाँ हैं, जिसमें वाचक/कथाकार पूरी शिद्दत से उसके साथ खड़ा है। यहाँ अक्सर गाँव और शहर में आवाजाही बनी है। शीर्षक कहानी में गाँव की नयी पंचायती राज व्यवस्था में दलित बसन्ती के सरपंच बन जाने के बाद की कथा है। सरपंच तो बन गई बसन्ती, लेकिन सच यह है - ‘चमारों को कैसे हो सब्र। उपसरपंच उनका, सरपंच उनका, प्रधानजी उनकी पार्टी का, जे. ई. एन. उनकी बिरादरी का फिर भी काम नहीं हो रहा है, अजीब विडम्बना है। डूब मरने वाली स्थिति - साँप-छछूंदर की सी। चमारों ने अपने अधिकार लेने की ठानी। चमार सरपंच बसन्ती को लगे कसने। बसन्ती भी दुखी। पहला काम अंजाम नहीं ले सका।’ कहानी का अन्त रोचक है और एक प्रगाढ़ आशावाद में समाप्त हुआ है। थोड़ा अरसा पहले उनकी एक कहानी ‘सपनों में साइकिल’ वसुधा में प्रकाशित हुई थी। यह कहानी गाँव के समग्र यथार्थ का चित्र एक नवयुवक के माध्यम से उपस्थित करती है। गाँव में बदलाव आ रहा है लेकिन बदलाव के संक्रमण को स्वीकार करने का साहस गाँव के मोतबिरों में कहाँ? ‘सपनों में साइकिल’ इस कठिन बदलाव का धैर्यपूर्वक रचा गया वृत्तान्त है और यह बदलाव अन्ततः सही दिशा में ले जाएगा।
सत्यनारायण आमतौर पर रेत के कंकरीले यथार्थ में प्रेम की खोज में भटकते युवक की कहानियाँ लिखते हैं लेकिन गाँव के कुछ ऐसे दृश्य उनके यहाँ जिस विश्वसनीयता से आए हैं वैसे इधर नहीं मिलते। उनके पूर्व उद्धृत कहानी संग्रह ‘सितम्बर में रात’ की एक कहानी ‘हे राम’ की चर्चा यहाँ अप्रासंगिक न होगी। ‘हे राम’ में वे नये दौर में वर्ण व्यवस्था की रग पकड़ते हैं। दलित उत्पीड़न के बरअक्स दरक रहे ब्राह्मणवाद की कहानियाँ हिन्दी में नहीं है। बहुत अधिक काशीनाथ सिंह की ‘कहानी सराय मोहन की’ और हृदयेश की ‘मनु’ ही यहाँ याद आती है। सत्यनारायण भी पुरोहिती कर रहे एक पंडित की कथा कहते हैं जो अब समझ भी रहा है कि ‘जजुमानी का बखत नहीं रहा’। मन्दिर के किवाड़ ओढालते - ओढालते चूलों से उसे कीर्तन की नहीं पेट की भूख जैसी आवाजें सुनाई देना अपने आप में एक ऐसा करुण शोक गीत बन जाता है जबकि यह वह राजस्थान है जहाँ अभी भी सामन्ती - ब्राह्मणवादी संस्कार गहरे पैठे हैं। एक जगह पंडितजी कहते हैं- ‘सालो ऐसी भगती भी किस काम की कि भूख से मौत हो।’शोकगीत में पुरोहित के मुँह से ‘परमेसर’ को भी ‘कोसणे’ बेसाख्ता निकल जाऐं तो क्या आश्चर्य ?
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शहर में आ गए कथाकारों की कहानियाँ इस चर्चा में देखना रोचक है। इस दौर के एक प्रतिभाशाली कथाकार अभिषेक कश्यप का पहला संग्रह ‘खेल’ लगभग अचर्चित रहा है लेकिन संग्रह की कहानियाँ पठनीयता और अपने उद्देश्य में सर्वथा खरी उतरने वाली हैं। शीर्षक कहानी ‘खेल’ की प्रशंसा में राजेन्द्र यादव ने लिखा है - ‘उनकी कहानी किसी व्यक्ति विशेष के जीवन की दुखान्तिकी के बारे में नहीं होती, बल्कि उन स्थितियों से गुजरते हुए उन्हें तटस्थ और विश्लेषणपरक बना देती है, जिन्हें व्यक्ति के बस के बाहर किन्हीं आदर्श ताकतों ने रचा है।’ अभिषेक की विश्लेषण परकता उनकी कहानियेंा में आई है और किस्सा कहने के लिए वे जिस निस्संगता का आधार ग्रहण करते हैं वह कहानी को रोचक और विश्वसनीय बनाने वाला है। उदाहरण के लिए उनकी कहानी ‘कथा-किंवदन्ती’ देखी जा सकती है। दादाजी और मैरी की प्रेमकथा (?) लिखते रचते इसमें वे तीसरी दुनिया की गुलामी के प्रतिरोध का स्वर भर देते हैं, जो पाठक को सुखद विस्मय में डालने वाला है। मैरी के पति मैक साहब हिन्दुस्तान में बड़ी कम्पनी लेकर आए थे और फिर लौट गये। अभिषेक लिखते हैं - ‘मगर कहते हैं मरते हुए लोग झूठ नहीं बोलते और सन् 2004 में मृत्यु शैया पर पड़ी दादी ने मरने से पहले कहा था - साहेब (दादाजी) मर गए, उषा (बुआ) मर गई , मेम मैरी मर गई, मगर मैक साहब अभी जिन्दा हैं।’ वे आगे पूछते हैं - ‘अब इसे किंवदन्ती मानें या सच’। भले ही यह आसानी से पकड़ में आने वाली कथा युक्ति हो लेकिन कहानी का सन्देश जटिल यथार्थ से उपजा है क्योंकि यह कहानी दादाजी की नहीं मैक साहब की है। कहानी की प्रस्तावना में उन्होंनेे लिखा था - ‘असल में यह कहानी मैं अपने पिताजी के बारे में लिखना चाहता था,मगर यह दादाजी की कहानी बन गयी। आप यकीन करें या न करें, मगर मैं दावे के साथ कह सकता हँू कि मैं अपनी तीन पीढियों में किसी की भी कहानी लिखू, वह दादाजी की कहानी बन जाएगी। क्यों कि यह तीन पीढियां दादाजी के व्यक्तित्व की धुँधली छाया भर हैं।’ इसी संग्रह की एक कहानी ‘जाम-बेजाम’ हमारे समय की युवा मानसिकता का एक चित्र प्रस्तुत करती है तो ‘आई विटनेस’ भ्रष्ट व्यवस्था का चेहरा। जिसे पुरानी शब्दावली में वर्ग भेद कहते थे और उसका प्रभावी चित्रण रचना की सार्थकता-सफलता की कसौटी माना जाता था। वह बात गहरे अर्थाें में ‘खेल में दिखाई देती है। किशोर होते लड़कों के आपसी व्यवहार और क्रिकेट के खेल के मार्फत अभिषेक ने दो काम किए हैं - सामाजिक संरचना के जटिल अन्तर्भेदों को खोलना और बच्चों (किशोर होते हुए) की नयी बनती दुनिया को देखना। एक बच्चे के बर्थ डे पर हुआ प्रसंग इन अन्तर्भेदों की सुन्दर सृष्टि करता है।
भगवानदास मोरवाल की ख्याति उपन्यासों के लिए ज्यादा है तथापि उनका नया कहानी संग्रह ‘सीढ़ियाँ, माँ और उसका देवता’ उनके सबल कहानीकार होने का प्रमाण है। यह कहानी संग्रह उन लोगों की दास्तान है जो दौलत की चकाचौंध में सर्वथा अलक्षित रह गए हैं। ‘सौदा’ उनकी प्रतिनिधि कहानी है जो भारतीय व्यवस्था के खोखलेपन और अल्पसंख्यक होने के त्रास को एक साथ उद्घाटित करती है। यथार्थ का ऐसा ही प्रभावी चित्रण ‘धूप से जले ज्वालामुखी’ में मास्टर मनसुख के मार्फत आया है। मास्टर जी पॉश कॉलोनी प्लॉट तो ले लेते हैं पर बनवाने और रहने की हैसियत कहाँ से लाए ? उनकी अभिलाषा थी - ‘कुल मिलाकर जीवन की इस तीर्थ यात्रा में एक यही धाम तो बचा है, जिसे हम अपने बच्चों के लिए छोड़ कर जाऐंगे।’ लेकिन विकट सचाई उनकी पत्नी धनवन्तरी बताती है - ‘यह आप अभी के बारे में सोच रहे हैं, आगे के लिए नहीं! अभाव तो यहाँ नहीं वहाँ भी होंगे, बल्कि वहाँ ज्यादा होंगे। जब चारों ओर से लोग हमें और हमारे बच्चों को देखकर मुँह बिचकाएँगे तब क्या करोगे, तब कहाँ भागोगे ?’ छोटे लोगों की ऐसी बड़ी कहानी अर्से बाद पढ़ने को मिली है। उनकी एक कहानी ‘चोट’ में जातिवादी राजनीति और अस्मितावादी विमर्श की सीमाएँ बताती है वहीं दूसरी ओर कमजोर, अकेले और हारे हुए आदमी की लड़ाई भी करती है। दक्ष प्रजापति को सुपरसीड कर केसवानी को प्रमोशन दे दिया जाता है, अब दक्ष कहाँ जाए ? क्या करे ? वह दलित तो है नहीं कि दलित कर्मचारी विकास संघ के मार्फत लड़ाई कर सकें। दक्ष की तिलमिलाहट, बेचैनी और आक्रोश यूं ही नहीं रह जाते, उसने अन्त में जो निर्णय लिया है दरअसल ऐसे निर्णय ही दक्ष जैसे हाशिये के लोगों को प्रतिरोध की सही दिशा दे सकेंगे। प्रभुता का अस्वीकार मोरवाल की कथा पहचान है। अस्वीकार का यह साहस उनके पात्रों में बार-बार दिखाई पड़ता है।
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जिन कथाकारों की चर्चा की जानी चाहिए उनमें हरियश राय, कैलाश बनवासी, महेश कटारे और पंकज मित्र मुख्य हैं। ये वे कथाकार हैं जो अर्से से महत्त्वपूर्ण कहानियाँ लिख रहे हैं। यह और बात है कि इनकी कहानियों की सतह से वह गुनगुनी धुंध नहीं उठती जो सपाट यथार्थ को धुएँ से कुचल सके। हरियश राय की एक कहानी ”भूत भलीत“ की चर्चा जरूरी है। बेहद सामान्य भाषा और शिल्प में लिखी इस कहानी की विषय वस्तु भी नितान्त सामान्य है। ऐसी कहानियाँ अस्सी के उछलते उत्साह के दिनों की याद भी दिलाती हैं। नाथी को भूत लग गया और उसे छुड़ाने मन्दिरों के चक्कर लगाता उसका पति। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आज भी राजस्थान और झारखण्ड के गाँवों में औरतों को डायन घोषित कर दिया जाता है, उन पर पाशविक अत्याचार होते हैं, लेकिन इन पर एन.जी.ओ. के मशीनी बयानों के अतिरिक्त कोई हलचल नहीं होती। दूसरी बात इधर नास्तिकता या ईश निषेध की बहस से कतराने का सवाल भी है। क्या हमने मान लिया है कि अब इस बहस का कोई लाभ नहीं ? हरियश राय यह जोखिम उठाते हैं। अत्यन्त सामान्य चरित्र की सृष्टि हरिओम की कहानी ”लबड्डा“ में भी हुई है। सामान्य होने पर भी यह चरित्र अपने ढंग में अकेला है क्योंकि जिस इकलखुरी बाजारी कृत व्यवस्था में हम जी रहे हैं वहाँ लड़ना एक नकारात्मक कवायद मान लिया गया है। फिर भले ही आप कितने ही नैतिक आधार पर लड़ने का संकल्प रखते हों। ‘लबड्डा’ ऐसी दुर्लभ पात्र को फिर हमारे बीच ले आती है। अरुण कुमार असफल की हालिया चर्चित कहानी ‘पाँच का सिक्का’ अर्से बाद कहानी परिदृश्य में उस निम्नवर्गीय संसार का चित्र है जो उदारीकरण के नये दौर में पीछे छूट गया है। इस निम्नवर्गीय संसार की कुछ कहानियाँ बीते दिनों खूब चर्चित हुईं लेकिन उनके मूल में धुंध समाई थी और सेक्स उन्हें चखने की वस्तु बनाने में जुटा था। मतलब गरीबी का चित्र भी यथार्थ के अलक्षित पक्ष का आनन्द उठाने के लिए। पाँच रुपये में क्या होता है ? क्या कदर रह गई है रुपये की ? लेकिन निनकू और उसकी माँ के लिए पाँच रुपये का अर्थ कहीं ज्यादा गहरा और गम्भीर है। असफल की प्रशंसा इस बात के लिए भी की जानी चाहिए कि वे छोटे से प्रसंग का गझिन वृत्तान्त बुनने में माहिर हैं बगैर छौंक-बगार के।
कहानियों की इस चर्चा में और भी उदाहरण संभव है और वे उदाहरण कमतर भी न होंगे। इन कहानीकारों की रूढ़ियों और कमजोरियों की तरफ ध्यान न देना वैसा ही है जैसा ‘ग्लूमी’ कथाओं की अतिरेक प्रशंसा। अभिषेक की कहानियों का स्वर कई बार वाचक के पक्ष में इस तरह हो जाता है कि कहानी सन्तुलन खोने लगती है वहीं सत्यनारायण पटेल को वृत्तान्त बुनने की कला में और परिश्रम करना होगा। प्रगतिशील जनवादी कहानी की पुरानी रूढ़ियों से बचने का सायास प्रयत्न इन कहानीकारों के यहाँ नजर आता है लेकिन यह पर्याप्त नहीं। वस्तुतः किसी भी रचनाशीलता का विकास अपनी परम्परा से टकराकर और यथार्थ के नये स्वरूप को खोजकर ही हो सकता है। यह चुनौती इन कहानीकारों के समक्ष है।