कहानी नहीं... / से.रा. यात्री
प्रभाकर ने पलँग पर जरा उचक कर स्विचबोर्ड को टटोला और लाइट जला दी। वह फिर से रजाई लपेट कर पलँग पर लेट गया। मैं पलँग से सटी चौकी पर बैठा सिगरेट पी कर जाड़ा भगाने की कोशिश कर रहा था। ऊपर की मंजिल में प्रभाकर के बच्चे उछल-कूद मचा रहे थे जिसकी धमक से कड़ियों की मिट्टी सिर पर गिर रही थी।
इस उदास माहौल से निकलने के लिए मैंने प्रभाकर से कहा, भले आदमी, यह बिस्तर में घुसे रहने का वक्त नहीं है। आ, चल कर कहीं बैठेंगे और कुछ तफरी करेंगे। प्रभाकर ने रजाई अपने इर्द-गिर्द और कस कर लपेट ली और अपने बड़े लड़के का नाम ले कर जोर-जोर से पुकारने लगा। लड़के ने उसकी आवाज नहीं सुनी तो मसहरी के सहारे कई तकिए लगा कर बोला, कोई हमारी नहीं सुनेगा! सब साले अपनी-अपनी खाल में मस्त हैं... मैं चाहता था, ऐसे में दो प्याले गरम चाय मिल जाती तो थोड़ा जाड़ा भाग जाता। मैंने कोई जवाब नहीं दिया तो मुस्कुरा कर बोला, कुछ कहो यार, अब वह पुराने वाला नक्शा कुछ जमता नहीं है। पौरख थक गए साले, वरना कोई बात थी!... मैंने इस मनहूसियत-भरे माहौल से चिढ़ कर कहा, अबे दोजखी, पौरख नहीं थकेंगे तो क्या होंगे? सरेशाम बिस्तर में लंबा हो कर आज तक कोई जवान रहा है! मेरे चिढ़ने से प्रभाकर ठठा कर हँस पड़ा और बोला, अब जो तेरे जी में आए बक! जनवरी के पाले में मैं तो इस वक्त बाहर निकलने से रहा।
मैं प्रभाकर की रजाई खींचने की सोच ही रहा था कि बाहर सड़क से कोई आदमी दरवाजे में धँसता दिखाई पड़ा। आधे मिनट बाद सहन और बरामदा पार करके जो आदमी डगमगाते हुए कमरे में घुसा, वह याज्ञिक था। उसके चेहरे पर वही हमेशा की नहूसत फैली थी। प्रभाकर और मैंने उसे गौर से देखा और गंभीर हो गए। याज्ञिक के आने पर हमेशा यही होता था। उसे देख कर हम लोग भीतर ही भीतर बिफर उठते थे। उसकी चमड़े की स्ट्रेप वाली घिसी-पिटी चप्पलों और टखनों पर धूल ही धूल चढ़ी थी। लंबे-चौड़े पायंचों वाली खाकी पैंट सनातन ढंग से फड़-फड़ कर रही थी। उसके पिलपिले शरीर पर चढ़े हुए बीसों साल पुराने कोट की जेबों से चिमड़ी खाल की उँगलियाँ झाँक रही थीं। कानों और सिर पर लिपटे मफलर से ज्यादा सुखे हुए तंबाकू के पत्ते का गुमान होता था। कभी-कभी यह सोच कर हैरत भी होती थी कि यह छछूंदरनुमा आदमी हम लोगों के साथ कहाँ से लग गया? मैं और प्रभाकर कुछ दिनों से उसकी परछाईं तक से बचने लगे थे। हालाँकि याज्ञिक सी.डी.ए. में जूनियर क्लर्क था, फिर भी उसके चेहरे को देख कर यही लगता था कि जैसे पुश्तैनी यतीम हो। उसे देखते ही मेरे मन में आक्रोश की 'हुं-हुं' उठने लगती थी और मैं खाक हो कर कहता था, इतने पर भी रईस कविता करेगा! अबे कमीने, कोयला बीन!
याज्ञिक ने मुझे और प्रभाकर को बारी-बारी से देखा और अपनी जेब से बीड़ी का बंडल निकाल कर अपने हाथ में ले लिया। एक मिनट इधर-उधर करके उसने बंडल के ऊपर वाला कागज फाड़ा और चौकी के नीचे फेंक दिया। दोनों हथेलियों के बीच में बंडल को मसल कर एक बीड़ी निकाली और दाँतों के बीच में लगा ली। बीड़ी जलाते हुए तीली की लौ से उसके चेहरे पर कई दिन की बढ़ी हुई सफेद दाढ़ी चमक उठी। याज्ञिक ने बीड़ी के कई लंबे कश खींचे और खाँसने लगा।
दरअसल मैं और प्रभाकर उसके आ जाने से चिढ़ गए थे, लेकिन भीतरी तनाव को प्रकट करने का कोई सीधा-सा रास्ता दिखाई नहीं पड़ता था। याज्ञिक से सहज हो जाने के मानी थे कि हम लोग उसे भी अपनी बातों में शामिल कर लें। बातें शुरू होते ही सबसे पहले यह होने वाला था कि वह दो या चार मिनट बाद चाय की माँग सामने रख देता। इस शख्स से प्रभाकर की बीबी इतनी कुढ़ी हुई थी कि उसे चाय पिलाना तो दूर, घर में देखते ही भौंहें चढ़ा लेती थी। इसका बहुत साफ कारण था कि पचास-पचास, सौ-सौ रुपया करके यह आदमी प्रभाकर से जाने कितने रुपए उधार ले चुका था। होता यह है कि अगर कोई व्यक्ति आपसे सौ-दो सौ रुपया कर्ज ले तो वह पैसा लौटने की उम्मीद पर किसी दूसरे तक से माँग कर दे सकते हैं, या फिर पत्नी से इस समझौते पर ले कर मित्र को उधार दे देते हैं कि उसकी जरूरत सच्ची है और वह सुविधा होते ही रुपया वापस लौटा देगा। लेकिन जब कोई मित्र प्रत्येक विजिट पर रुपया-धेली लेता है तो पत्नी इस सच्चाई से परिचित हो जाती है, तो उस आदमी की आबरू पत्नी की नजर में बिल्कुल नहीं रहती।
अपनी बात तो मैं कहता हूँ। मुझे इस उधार वाले प्रकरण को ले कर याज्ञिक से इतनी नफरत हो चुकी थी कि एक दिन मैंने सब दोस्तों की उपस्थिति में बहुत तैश में कहा था, यार, याज्ञिक की यह बीमारी इतनी असाध्य हो चुकी है कि कोई आ कर मुझसे कहे कि याज्ञिक मर गया है, उसके कफन का इंतजाम करना है तो मैं जेब में रुपया होने पर भी साफ झूठ बोल जाऊँगा कि मेरी जेब में फूटी कौड़ी नहीं है। मित्र मेरे चेहरे का तनाव देख कर ठठा कर हँस पड़े। एक दोस्त ने याज्ञिक को कोंच कर कहा भी था, क्यों याज्ञिक जी, इस फैसले पर आपकी क्या राय है? यह बात सुन कर याज्ञिक का चेहरा इतना सूख गया था कि मुँह से बात नहीं निकली थी। उसने हँसने की कोशिश में दयनीयता से कंधे सिकोड़ कर अपने पान-तंबाकू रचे दाँत दिखा दिए थे और आँखों से चश्मा उतार कर हाथों में ले लिया था। बाद में अपनी नीचता पर मुझे बड़ी गैरत हुई थी और मैंने सोचा था कि याज्ञिक अब कभी मेरे पास नहीं आएगा। कुछ भी हो, आदमी में थोड़ा स्वाभिमान भी होता है। पर वैसा कुछ नहीं हुआ। याज्ञिक बराबर मेरे पास आता रहा। उसने मेरी बात का कभी उल्लेख तक नहीं किया।
अपमान भी क्या सबका होता है? कुछ स्थितियाँ होती हैं जो आदमी को मान-अपमान के बीच एक चीज साफ तौर पर चुनने ही नहीं देतीं। याज्ञिक दोस्तों के पास न आता तो कहाँ जाता? सी.डी.ए. की नौकरी और कविता से तो जिंदगी नहीं चलती। वह अनेक वर्षों से धर्मशाला में एक कमरा ले कर रह रहा था। उसी घुचकुली जैसे कमरे में छठी संतान जन्म ले चुकी थी। इस संतति प्रसार को ले कर जब भी याज्ञिक की भर्त्सना की जाती, वह इतना बेचारा और 'दूसरा आदमी' हो उठता कि यह बिल्कुल नहीं लगता था, उसी आदमी के द्वारा यह योजना-विहीन कार्य चल रहा है। दस बरसों में छह बच्चे सैकड़ों-हजारों आदमियों के यहाँ पैदा होते हैं, लेकिन इस बात को ले कर हर आदमी की आलोचना यहाँ नहीं की जा सकती। फजीहत महज उसी शख्स की होती है जो जूनियर क्लर्क हो कर धर्मशाला में डेरा डाले हुए होता है।
याज्ञिक के बीबी-बच्चे के बारे में ज्यादा कुछ कहना बेकार है। आज की स्थितियों में महज तीन हजार रुपए माहवार पाने वाले आदमी के परिवार की क्या हालत होगी, और खासकर उस स्थिति में, जब इतने अपर्याप्त संबल पर आठ जिंदगियाँ साँस लेती हों। हम लोगों को याज्ञिक के यहाँ जाने का अवसर कम ही मिलता। जब कोई नया बच्चा धर्मशाला के माहौल में चीख-पुकार करके अपने अवतरित होने की सूचना देता है, तो मित्र-मंडली किसी गंभीर दायित्व के तहत वहाँ पहुँच जाती है। पता नहीं, क्या ऊँच-नीच गुजरे! लेकिन यह प्रतिक्रिया इतनी हताश करने वाली सिद्ध हुई है कि अब छठे छमाही भी शायद ही कोई याज्ञिक की रूग्णा भार्या और किलबिल करते आधा दर्जन बच्चों की खैर-खबर पूछने जाता हो। गत वर्ष याज्ञिक इतना बीमार और तंगदस्त रहा कि उसे देख कर बीभत्स कंकाल की कल्पना साकार होने लगती थी। पर दोस्तों ने उससे लगभग रिश्ता ही तोड़ लिया था। जब वह मौत के मुँह से निकल कर हम लोगों के बीच में आ खड़ा हुआ था और अपने बच जाने की चर्चा करते हुए उसने उत्साह में 'वह तो खैर हुई' वाला वाक्य बोला था तो हममें से किसी को भी खास खुशी नहीं हुई थी। मन ही मन एक-दो ने जरूर गाली दे कर कहा होगा, 'तेरे मर जाने से कौन दुनिया सूनी हुई जा रही थी?'... कुछ हो, याज्ञिक अपनी जिजीविषा के बल पर अपनी गृहस्थी और बजट को धक्का दिए जा रहा था।
तीन-चार सुट्टे ले कर याज्ञिक ने बीड़ी खत्म कर दी और अपनी बाँहों को छाती से कस लिया। कई मिनट की चुप्पी के बाद प्रभाकर ने कहा, कहो याज्ञिक, कहाँ थे? कई दिन बाद दिखाई दिए! कौन-कौन-से कवि-सम्मेलन मार आए? याज्ञिक ने अपनी आदत के खिलाफ गंभीरता कायम रखते हुए कहा, कवि-सम्मेलन! नहीं-नहीं, मुझे कई महीने से निमंत्रण नहीं मिला। प्रभाकर की इस बेवक्त की पूछताछ से मैं और भी झुँझला उठा। अब अगर याज्ञिक शुरू हो गया तो इतने अरसे में घसीटी हुई अपनी बकवास सुनाना चालू कर देगा और होते-होते बरसों पुरानी तुकें बताने लगेगा। मैंने अपनी आँखें प्रभाकर और याज्ञिक की तरफ से हटा कर दीवार पर लगे कैलेंडर पर केंद्रित कर लीं। प्रभाकर भी शायद याज्ञिक से पिंड छुड़ाने की सोच रहा था। मेरा नाम ले कर बोला, यार, ऐसा जाड़ा कब तक पड़ेगा? साले जमे जा रहे हैं। मैंने उसके शब्दों की ध्वनि पकड़ते हुए सोचा कि संभवत: प्रभाकर यह कहना चाहता है कि याज्ञिक ऐसे जाड़े में क्यों मरता फिरता है! अपने दड़बे से यहाँ आने की इस वक्त क्या खास जरूरत थी? मैंने कुछ कहने की गरज से जमुहाई लेते हुए कहा, प्रभाकर, तुम्हारी जनरल नॉलेज बहुत पूअर है। बत्तीस-चौतीस बरस से देख रहे हो कि जनवरी में शीत लहर आती है, लेकिन यह बात हर साल भूल जाते हो। याज्ञिक ने पहलू बदला और एक पैर दूसरे घुटने पर चढ़ा कर आराम से बैठ गया। प्रभाकर ने भी जमुहाई ली और अपना खुला हुआ मुँह हथेली से थपथपा कर बोला, कुछ कहो, यह मौसम है पीने-पिलाने का। लेकिन ससुरी हिम्मत नहीं कि जाड़े में घर से निकला जाए। घर में वह... चिड़ी कि... पीने नहीं दे सकती, वरना...। मैंने प्रभाकर का चेहरा ध्यान से देखा। यह कहने का आखिर क्या मकसद हो सकता है? मैंने तो उससे बाहर चलने का इसरार तक किया था। वह याज्ञिक के सामने किस मतलब से यह बात कह रहा है? याज्ञिक का चेहरा बेहद गंभीर हो गया और उसने अपने बंडल से चौथी बीड़ी खींच कर सुलगा ली।
ज्यों ही घर जाने के लिए मैं उठ कर खड़ा हुआ याज्ञिक ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे जबरन बिठा लिया। उसने अपने कोट के भीतर वाली जेब में हाथ डाल कर सौ रुपए का नोट निकाला और लापरवाही से प्रभाकर के ऊपर पलँग की दिशा में उछाल दिया। प्रभाकर रजाई एक तरफ फेंक कर तेजी से उठ बैठा और नोट उठा कर इस तरह देखने लगा गोया वह विश्वास न कर पा रहा हो कि यह भारतीय करेंसी का असली नोट है। प्रभाकर के चेहरे पर उल्लास उभर आया। उसका सारा जाड़ा हवा हो गया। याज्ञिक का चेहरा पहले जैसा ही गंभीर रहा। वह तटस्थता से कुछ भिनभिनाया, जिसे पूरी तरह से समझने की कोई कोशिश ही नहीं की गई। प्रभाकर उल्लसित हो कर बोला, चलो हो जाए। आज याज्ञिक का ही तर्पण सही! लेकिन उसे डर भी लगा, कहीं अगले मिनट याज्ञिक अपना नोट न माँग ले, इसलिए आश्वस्त होने के लिए कहने लगा, याज्ञिक, यह मजाक वाला मामला तो नहीं? हालाँकि इससे कुछ होगा तो नहीं। पर चलो तुम्हारी खुशी के लिए देशी मँगाए लेते हैं। अपनी सफाई में प्रभाकर ने इतना और जोड़ दिया, चलो, इस बहाने थोड़ी देर बैठना हो जाएगा। बर्फ भी तो सरक रही है।
इस किस्से का सिर-पैर मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आया, पिछले दस वर्षों से मैंने याज्ञिक को न कभी इतना गंभीर देखा था न उदार। जो आदमी थोड़ी देर बातें करने के बाद उठते हुए बीस-दस रुपए उधार माँग लेता हो, वह आज एक साथ सौ रुपए किस खुशी में फूँक रहा है? मैंने दूर तक सोचा पर बात साफ नहीं हुई। हो सकता है, एकमुश्त सौ रुपए भकुए को रिश्वत में मिले हों!
इस सारे प्रकरण में मेरे करने के लिए कुछ नहीं था, इसलिए याज्ञिक की उदारता को बेवकूफी करार दे कर स्वयं को समझाने लगा, मरने दो हरामी को! पैदाइशी भुक्खड़ और बदनसीब आदमी है। आज हाकिम बना है। दो घंटे बाद पैदल चल कर मरता-खपता घर पहुँचेगा और जोरू के हाथों मार खाएगा तो सारी उदारता धरी रह जाएगी। दादा-दिली देखो मरकट की! मैं सोचता ही रह गया। प्रभाकर पलँग से उतरा और पैंट डाल कर बाहर निकल गया। बाहर चौराहे पर खड़े रिक्शे वाले को भेज कर उसने देशी शराब की एक बोतल और नमकीन मँगवा ली। चौकी के नीचे बोतल रख कर प्रभाकर दबे पाँव सहन में गया और ऊपर जाने वाले जीने का दरवाजा बंद कर आया। इसके बाद एक अलमारी खोल कर उसने काँच के दो गिलास निकाले और हमें दे कर बोला, गिलास तो दो ही है। चलो, दो से ही काम चलाएँगे। क्यों याज्ञिक साहब?' याज्ञिक ने जिंदगी में पहली बार मित्र के मुँह से निकला आदरसूचक संबोधन शायद बिल्कुल नहीं सुना। वह कंधे झुकाए बैठा था और उसके चेहरे पर संजीदगी कलौंछ की तरह बढ़ गई थी। उसने एक बार सिर ऊपर उठाया और फिर खुद में गर्क हो गया।
गुसलखाने के नल से प्रभाकर एक लोटा पानी भर लाया। चौकी के नीचे से उसने बेताबी से बोतल निकाली और उसकी सील उमेठने लगा। यकायक उसे ध्यान आया कि बाहर का दरवाजा चौपट खुला है। वह लपक कर गया और साँकल बंद कर आया। ऊपर-नीचे से पूर्ण निरापद हो कर प्रभाकर ने गिलासों में शराब डाली और गिलासों को आपस में टकरा कर याज्ञिक के हाथ में गिलास देते हुए बोला, फॉर योर फेयर लेडी, चीयरो याज्ञिक... गो स्ट्रांग विद इट! अपना गिलास लेते हुए मुझे कुछ झिझक हुई। शायद इसलिए कि दस बरसों में याज्ञिक की तरफ से यही पहली बार हो रहा था। याज्ञिक मुझे और प्रभाकर को पिला रहा था - वही याज्ञिक जो पीने के लिए हम दोनों के पीछे निठल्ले की तरह लगा रहता था। न जाने क्यों मुझे बराबर यह लग रहा था कि इस शराब का नशा मुझे नहीं होगा, लेकिन प्रभाकर जश्न मनाने के मूड में आ चुका था। प्रभाकर की त्वरा और उत्साह के पीछे शायद यह भावना काम कर रही थी कि याज्ञिक ने उसे खूब चूसा है, चलो, आज इसी बहाने थोड़ा-सा तो वसूल कर ही लिया जाएगा।
थोड़ी देर बाद प्रभाकर ने उछलते हुए नई गवेषणा की घोषणा की, अबे! सालों, यहाँ एक प्याला भी तो होना चाहिए। यह कह कर वह उठा और गुसलखाने से हजामत बनाने का एक हैंडिल-टूटा प्याला उठा लाया। याज्ञिक अपनी गिलास खाली कर चुका था। अब वह उतना गंभीर नहीं था, बल्कि मुखर होने की चेष्टा कर रहा था। प्रभाकर ने भी अपना प्याला उठाया और हलक भींच कर एक घूँट में ही खाली कर गया।
याज्ञिक हम लोगों की दृष्टि में अब एक परोपजीवी आदमी नहीं था। हमेशा से जोंक ख्याल किया जाने वाला एक फुसफुस इंसान एक जिम्मेदार आदमी नजर आने लगा। उसके गाली देने में इस वक्त अधिकार बहुत साफ झलकता था। पहले वह गाली बहुत कम देता था और अगर दे भी जाता था तो भी दीनता और झिझक उसके सारे व्यक्तित्व पर छाई रहती थी। प्रभाकर और मैं भूल गए कि याज्ञिक एक मजलूम इंसान है, कि उसकी हरेक मुद्रा हम लोगों के लिए एकदम बोसीदा और उबाऊ है। एक बोतल दारू का इंतजाम करते ही वह दूसरी चीज हो गया। आधी बोतल होते-होते प्रभाकर अपनी पत्नी की तरफ से इतना नि:शंक हो गया कि बाहर का दरवाजा भड़ाक से खोल कर सड़क पर निकल गया और सिगरेट का पैकेट खरीद लाया।
थोड़ी देर बाद सिगरेट और बीड़ी के धुएँ से प्रभाकर का कमरा पूरी तरह फ्लिम्जी हो गया और काफी जोश-खरोश की बातें होने लगीं। प्रभाकर और याज्ञिक की आँखों में पहले लाल डोरे उभरे और फिर दोनों का चेहरा दहकते हुए अंगारों की मानिंद हो गया। याज्ञिक जब इस घर में घुसा था, तो बहुत खोया और गमगीन-सा था, लेकिन अब उँगलियों में सिगरेट फँसा कर इतमीनान से धुआँ छोड़ रहा था। एक घंटे पहले वाले वदहवास याज्ञिक की जगह अब अधिकारपूर्वक बतियाने वाला व्यक्ति बैठा था, हालाँकि उसके कपड़े वही के वही थे और उसकी आर्थिक अवस्था भी अपनी जगह ज्यों की त्यों थी। प्रभाकर जो दो घंटे पहले रजाई में घुसा बैठा था और अपने पौरख थकने की याद दिला रहा था, अब अपने दफ्तर की नई रिसेप्शनिस्ट की सुंदरता का बखान कर रहा था। थोड़ी-सी शराब आदमी को क्या से क्या कर देती है! मैं दार्शनिक मूड में आ कर बहुत-सी बेतरतीब बातें सोच रहा था। खाली बोतल से दो-चार बची-खुची बूँदें अपने प्याले में उँड़ेल कर प्रभाकर ने दियासलाई की जलती तीली बोतल में छोड़ दी। तीली एक क्षण के लिए भक्क करके जली और फिर बुझ गई। प्रभाकर के चेहरे पर संतोष उभर आया था। खाली शराब थी बेटा, इसमें पानी की एक बूँद नहीं! कह कर प्रभाकर ने मेरी तरफ देखा और पूछने लगा, अब खाने का क्या जुगाड़ करें? वैसे मेरा खाना तो तैयार है और अब ऊपर से पुकार होने वाली है, लेकिन तुम दोनों के लिए क्या किया जाए! मेरे कुछ कहने से पहले ही उसे रास्ता सूझ गया, 'मैं यह न करूँ कि लौंडे को बुला कर अपना खाना नीचे ही मँगा लूँ। जो भी होगा, थोड़ा-थोड़ा खा लेंगे। प्रभाकर के प्रस्ताव पर याज्ञिक ने बलबला कर कुछ कहा और दालमोठ की मुट्ठी भर कर मुँह की तरफ ले गया। दालमोठ मुँह में भरते ही उसे बहुत जोर से खाँसी आई और अड्ड करके बहुत भयंकर उलटी हो गई। प्रभाकर इस स्थिति के लिए जरा भी तैयार नहीं था। वह व्यस्तता से उठा और याज्ञिक के कंधे पर हाथ रख कर बोला, याज्ञिक, पहले तुम उठ कर कुल्ला करो और मेरे भाई, अब तुम घर जाने की फिक्र करो। भाभी तुम्हारे लिए परेशान हो रही होंगी।
घर जाने की बात सुन कर याज्ञिक के चेहरे का भाव एकदम बदल गया। उसका चेहरा किसी विचित्र भय से ऐंठ गया और वह अपनी कुर्सी से उठ कर खड़ा हो गया। अपने कोट की आस्तीन से मुँह रगड़ते हुए वह बहुत स्पष्ट शब्दों में बोला, घर? अब मैं घर कभी नहीं जाऊँगा। प्रभाकर ने आसन्न संकट सिर पर देख कर कहा, नहीं, नहीं, याज्ञिक, घर में कहा-सुनी सबके यहाँ होती है। घर जाओ, वरना भाभी इधर-उधर दौड़ना शुरू कर देंगी। कैसी गैर-जिम्मेदारी की बातें करते हो। चलो, मैं तुम्हें रिक्शे पर बैठाता हूँ। प्रभाकर के बयान से जैसे याज्ञिक को कोई भूली बात याद आ गई। उसने जोर से सुबकी ली और हाय भर कर बोला, प्रभाकर भैया, मैं घर नहीं जाऊँगा। शाम से घर में डब्बू मरा पड़ा है...
याज्ञिक के शब्द सुन कर मुझे काठ मार गया और प्रभाकर इस तरह विचलित हो कर उछला, गोया उसका पैर साँप के फन पर पड़ गया हो। डब्बू याज्ञिक का सबसे बड़ा लड़का था। उम्र यही होगी आठ-नौ साल की। याज्ञिक कह रहा है, उसकी मौत हो गई। कहीं यह दीवाना तो नहीं हो गया? बेटे की लाश घर में छोड़ कर यों कोई शराब पीता है? मेरा और प्रभाकर का नशा एक क्षण में काफूर हो गया। हम दोनों के खड़े होते ही याज्ञिक फुक्का मार कर रोने लगा। रोते-रोते ही उसने बीड़ी सुलगाई और आँसू पोंछता हुआ बोला, कहाँ जाऊँ?... वह न रो पा रहा था, न बीड़ी पी पा रहा था और न कुछ तय कर पा रहा था... एक क्षण बाद ही वह फिर गहरी-गहरी साँसें ले कर जोर से रो पड़ा। प्रभाकर के घर में कोहराम मचने के डर से मैं घबरा उठा। बिना कुछ निश्चित किए मैं याज्ञिक को जबरदस्ती खींचते हुए बाहर सड़क पर ले आया और दरवाजे से खींच कर बोला, प्रभाकर, भाभी से कह कर तू आ। मैं इसे ले कर चल रहा हूँ।