कहानी वाले बाबा / ओमप्रकाश कश्यप

Gadya Kosh से
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भाषा की रवानी है ये.

शब्दों की जुबानी है ये,

सुख-दुख की नौका में बैठी,

हम सब की कहानी है ये,

आओ मेरे प्यारे बच्चो, इसको तुम सुनो,

थोड़ा-सा गुनूं मैं, थोड़ा तुम गुनो..

…..तो चार चोर चोरी को चले. चार चोर? जी हां, चार चोर—चोरी को चले. दबे पांव से, छिपते-छिपाते, नजर बचाते…हौले-हौले बात बनाते…!

बात बनाते? जी हां, बात बनाते…शगुन मनाते. जुगत भिड़ाते. कोशिश में कि…देख न ले कोई, जान न ले कोई—आते-जाते. रात अंधेरी, नीलगगन में…लुकछिप-लुकछिप करते तारे…

उन तारों की छांव तले…

चार चोर चोरी को चले!

चारों में से एक का नाम था—फूल सिंह!

दूसरे का—मूल सिंह!

तीसरे का—मूल सिंह।

और चैथा था—झूल सिंह…टोली का सरदार!

चलते-चलते रास्ते में एक मंदिर पड़ा. चारों ने मिलकर मनौती मांगी. काम सधने पर पूरा करने का वायदा किया. फिर पुजारी से प्रसाद ले आगे बढ़ गए.

चलते-चलते भूल सिंह बोला—‘अगर भला सोचो तो…’

फूल सिंह ने जोड़ा—‘हर काम भला होता है.’

मूल सिंह ने साथ दिया—‘खुद भला करो तो…’

झूल सिंह ने बात पूरी की—‘जग भला करता है.’

अचानक चारों के चेहरे बुझ गए…कि जैसे दमकता हुआ चांद बादलों के पीछे जा छिपे. सूरज को ग्रहण लगे…दिया बुझे और चारों ओर घुप्प अंधेरा छा जाए. काफी देर बाद मूल सिंह बोला, ‘दोस्तो, हमें ये बातें शोभा नहीं देतीं.’

‘क्यों, हम क्या आदमी नहीं हैं?’ फूल सिंह ने तुनकमिजाजी दिखाई.

‘आदमी तो वही है जिसकी सब इज्जत करें.’ मूल सिंह ने उलाहना दिया. यह सुनना था कि बाकी तीनों की बोलती बंद हो गई. चेहरे हारे हुए जुआरियों की तरह लटक गए. नजरें झूल सिंह की ओर उठी हुई थीं. मामला अटकता हुआ दिखाई पड़े तो उसी से उम्मीद की जाती थी. हर विवाद, प्रत्येक मुश्किल में वही राह दिखाता था, सरदार जो ठहरा.

‘मूल सिंह ठीक कहता है. इस काम में सिवाय बदनामी के कुछ नहीं है. हम जान पर खेलकर…रात-रात भर जागकर घात लगाते हैं. कभी मिलता है…कभी दाव खाली चला जाता है. बदले में सिवाय गाली, नफरत और बद्दुआ के हमें मिलता ही क्या है.’ झूल सिंह बोला.

‘हम अपनी कमाई का पांचवा हिस्सा दान में लुटा देते हैं. फिर भी दुनिया की नजरों में हम जो करें वह पाप. और लाला जो कम तौले, महंगा बेचे…झूठ बोले, बेईमानी करे…ब्याज पर रकम देकर औनी-पौनी कमाई करे…न किसी गरीब की मदद करे, दान में पाई तक न लगाए—वह धर्मात्मा…’ मूल सिंह ने दुख जताया.

‘वो तो कहावत ही है, जैसा बोओगे, वैसा ही काटोगे.’ फूल सिंह ने जोड़ा.

‘जैसा भी है, अपना धंधा है. हमें इसकी इज्जत करनी चाहिए.’ भूल सिंह ने कहा तो झूल सिंह ने उसका जोरदार खंडन किया—

‘धंधा जरूर है. मजबूरी नहीं है. अगर हमें मान-सम्मान चाहिए तो यह काम छोड़ना ही पड़ेगा.’

हमेशा की तरह तीनों ने अपने सरदार की यह बात भी मान ली. परंतु अब एक और समस्या खड़ी हो गई. चारों के चारों चोर. चोरी अगर छोड़ दें तो क्या करें. कोई और काम तो उनको आता नहीं था. उलझन भारी थी. लेकिन जहां चाह—वहां राह.

आखिर लंबे सोच-विचार के बाद रास्ता भी निकला. मूल सिंह का दूर का रिश्तेदार एक व्यापारी था. कम समय में ही उसने अच्छी तरक्की की थी. सो उसी ने व्यापार करने की सलाह दी. व्यापार माने व्यापार. चारों ने व्यापार का नाम-भर सुना था. इससे ज्यादा वे कुछ जानते न थे. बदनाम बहुत ज्यादा थे. इसलिए उन्हें कोई नौकरी पर रखने को तैयार न था. सो काफी देर तक सोच-विचार करने के बाद चारों ने व्यापार ही करने का फैसला किया.

‘बिना धन के व्यापार भी कैसे सधेगा?’ मूल सिंह ने समस्या बयान की. इससे चारों फिर चकरा गए. बात सही थी. बिना रुपए के तो मंदिर का भगवान नहीं पसीजता. फिर व्यापार में तो पहले रुपये का गारा करना पड़ता है. उसके बाद ही मुनाफे की इमारत खड़ी होती है. जबकि उनके पास पूंजी के नाम पर कुछ था नहीं. चारों थे ठन-ठन गोपाल. चोरी से जो जुटता, चार हिस्सों में बंटने के बाद वह पांच-सात दिन से ज्यादा न टिकता.

तब भूल सिंह ने ही सलाह दी—‘व्यापार के लिए धन जुटाने का एक ही रास्ता है.’

‘तो देर किस बात की. जल्दी से बताओ.’ फूल सिंह ने कहा. बाकी दो भी भूल सिंह की ओर देखने लगे…कि जैसे किसी चमत्कार की उम्मीद लगाए हों.

‘हम एक बड़ी-सी चोरी करें. जो भी धन हाथ लगे, उसे चार हिस्सों में बराबर-बराबर बांट लें. फिर अपने-अपने हिस्से से चारों अलग-अलग व्यापार करें.’

‘वाह भाई भूल सिंह. आज तुमने अपने नाम को सही कर दिखाया.’ फूल सिंह बोला— ‘हमने अभी-अभी चोरी न करने का निर्णय लिया है; और तुम हमें अभी से झुठलाने पर तुले हो.’

‘फिर तुम्हीं को रास्ता सुझाओ, फूल सिंह…’ भूल सिंह ने कहा. फूल सिंह चुप. होंठ सिल-से गए.

‘हमें कोई कर्ज तो देगा नहीं. मेहनत-मजदूरी करना चाहें तो भी काम नहीं मिलेगा. ऐसी हालत में यही रास्ता है. अब यह तुम पर है कि हम जैसे चल रहा है, उसे या तो इसी तरह उम्र-भर चलने दें, या फिर मन मारकर एक बार चोरी करके कोई इज्जतदार धंधा शुरू करें.नाम और नामा कमाएं और फिर इस धंधे से हमेशा के लिए राम-राम कर लें.’ भूल सिंह ने अपना जोरदार तर्क सलीके से पेश किया. चारों के बीच फिर चुप्पी छा गई. अंत में झूल सिंह ने ही सरदार होने का धर्म निभाया…फैसला सुनाया—

‘मुझे भी लगता है कि इस समय भूल सिंह की सलाह पर ही चलना ठीक रहेगा. इसके अलावा कोई ओर चारा नहीं दिखता. लोग न तो हमें काम पर रखेंगे, न उधार ही देंगे. हमारे सामने सिर्फ दो रास्ते हैं. या तो हमेशा इस पापकर्म में फंसे रहें या फिर मन मारकर एक बार पाप और करें. फिर हमेशा-हमेशा के लिए इससे छुटकारा कर लें. मेरे विचार से दूसरा रास्ता ही ठीक है. बाकी आप सबकी मर्जी. यह रास्ता भी न भाए तो भी आगे देखा जाएगा. लेकिन कहते हैं न कि शुभस्य शीघ्रम. अगर तुम तीनों हां करो तो हम आज से ही तैयारी शुरू कर देते हैं.’ कहते-कहते झूल सिंह कुछ क्षर्णों के लिए रुका—

‘यह हमारी आखिरी चोरी होगी और वह भी उधार. इस चोरी से जो भी हाथ लगेगा वह उसके मालिक का हमारे ऊपर एहसान रहेगा. हम चारों डटकर मेहनत करेंगे…और साल-भर के भीतर मय सूद सारा उधार लौटा देंगे…बोलों मंजूर है?’ झूल सिंह ने जोर देकर पूछा. इसपर उन तीनों ने सहमति दर्शा दी.

इसके बाद चारों ने खूब खोजबीन करने के बाद एक सेठ की हवेली पर धावा बोल दिया. अच्छी नीयत तो अच्छे सगुन. अच्छे सगुन तो सभी कुछ अच्छा. दांव अच्छा पड़ा. चारों के मोटी रकम हाथ लगी. जेबें नोटों से भर गईं. चोरी से निपटने के बाद उन्होंने वहीं गृहस्वामी के नाम पर एक पत्र लिखा. उसमें लिखा था कि— ‘जनाब! आज तक हमने अनेक चोरियां की हैं. कभी उनका मलाल नहीं हुआ. परंतु आज हम सच्चे दिल से शर्मिंदा हैं. आपके अस्सी हजार रुपए जो आज हम चोरी करके अपने साथ ले जा रहे हैं, वे हमारे ऊपर कर्ज रहेंगे. साल-भर के भीतर उसे मय सूद वापस कर देंगे. नहीं कर पाए तो खुद हाजिर हो जाएंगे. उस समय आप जो भी दंड देंगे, उसे हम चारों सिर-माथे लेंगे.’

बाहर आकर चारों ने बीस-बीस हजार रुपये आपस में बांट लिए. विदा का समय आया तो सरदार ने अपने साथियों को फिर समझाया—‘भाइयो! हमने इंसान बनने की कसम खाई है. व्यापार करके सिर्फ रुपए कमाना हमारा मकसद नहीं है. इसलिए आगे से ऐसा कोई काम मत करना, जिससे हमारी आगे भी बदनामी हो. लोग कहें कि चोर हमेशा ही चोर रहता है. कभी नेक इंसान नहीं बन सकता. और लालच में फंसकर ऐसा काम कभी मत कर बैठना कि लोगों का इंसानियत से भरोसा ही उठ जाए. आज से ठीक छह महीने के बाद हम यहीं, इसी स्थान पर दुबारा मिलेंगे. एक-दूसरे का हाल जानने के लिए. तब तक के लिए विदा…’

इसके बाद सगे भाइयों की तरह चारों गले मिले. भरे गले से आपस में राम-राम कहा. फिर अपनी नेकचलनी का वायदा कर चारों अपने-अपने रास्ते पर बढ़ गए.

समय गुजरता गया. दिन…सप्ताह…महीने..! ऐसे ही छठा महीना भी पूरा हो गया. नियत दिन…नियत समय और नियत स्थान पर वे मिले. एक-दूसरे को देखते ही चारों की बांछे खिल गईं. खुशी संभाले नहीं संभली तो आंखों से आंसू बनकर छलकने लगी. लेकिन जैसे ही व्यापार की बात आई, चारों की गर्दनें एक साथ लटक गईं. चेहरों पर मुर्दनी छा गई. सहसा फूल सिंह आगे बढ़ा और अपनी नाकामी को शब्द देते हुए बोला—

‘भाइयो! मुझे दुनिया के लंद-फंद तो आते नहीं. फिर व्यापार भला कैसे सधता. बचपन में पिता को पशु खरीदते-बेचते देखता था, सो यही धंधा अपनाने का फैसला किया. यह सोचकर कि आसान काम है, किसी तरह सध ही जाएगा. शुरू में में तो मुनाफा भी खूब हुआ. जैसे सावन-भादों में अंबर से पानी बरसता है, वैसे ही चारों ओर से रुपया बरसने लगा. मैं खुश. पहली बार सच्ची मेहनत से मिली सफलता का आनंद भी भोगा. कुछ ही महीनों में मैं गर्दन तानकर चलने लगा. एक बार पशुओं की पैंठ में गया. रुपयों से भरा झोला लेकर. भगवान ही जाने नोटों की गरमी थी या मेरी अक्ल पर पत्थर पड़े थे. मैंने पैंठ से दर्जन-भर बैल खरीद लिए. यह सोचकर कि उन्हें सोनपुर के मेले में ले जाकर बेचूंगा तो खूब मुनाफा होगा. सेठ का सारा कर्ज मैं अकेले ही चुका दूंगा. लेकिन दुर्देव की मार. मैं सोनपुर मेले की ओर बढ़ ही रहा था कि बैलों में महामारी फैल गई. मेरे सारे बैल उसकी चपेट में आ गए. कमाना तो दूर…जितना हाथ में लेकर गया था, उसे भी गंवा बैठा.’

फूल सिंह की बात ने बाकी तीनों को दुःख से सराबोर कर दिया. उसके बाद मूल सिंह ने अपना किस्सा बयान किया—

‘तुम्हें मालूम है कि मुझे शुरू से ही खाना पकाने का शौक रहा है. यही सोचकर मैंने ढाबा खोला था. मेरी दुकान के सामने ही बस अड्डा था. यात्रियों के आने-जाने से भीड़ रहती थी. थोडे़ ही दिनों में ढाबा ठीक-ठाक चल निकला. मैं यह सोचकर खुशियां मनाता था कि कुछ ही दिनों में सेठ का सारा कर्ज मैं अकेला चुका दूंगा. आप तीनों की मदद की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. लेकिन वक्त की मार…कि दुर्भाग्य का वार. एक दिन एक ऐसा ग्राहक आया जो मेरी पिछली जिंदगी के बारे में जानता था. मेरे समझाने, बार-बार फरियाद करने के बावजूद वह मेरी पहचान को छिपाए रखने को तैयार न हुआ. बद से बदनाम बुरा. लोगों को जैसे ही मेरी पिछली जिंदगी की जानकारी मिली, वे मुझसे दूर होते चले गए. पहले ग्राहक घटे, फिर पुलिस ढाबे के चक्कर लगाने लगी. कुछ ही दिनों में धंधा बिल्कुल पिट गया. एक दिन वह ढाबा भी मेरे हाथ से जाता रहा.’

भूल सिंह की कहानी भी कम दर्दनाक न थी. काम-धंधे की तलाश करते हुए उसने परचून की दुकान खोली थी. अपने सरदार का कहा उसको याद था. इसलिए न महंगा बेचता, न कम तौलता था. न झूठ बोलता, न ही मिलावट करता था. अनुभव की कमी, बेईमानी के बाजार में ऐसे कब तक टिक पाता? लगी-लगाई पूंजी कब हवा हो गई, वह जान ही न पाया.

झूल सिंह, यानी सरदार की भी कहानी मिलती-जुलती थी. वह सरदार जरूर था, लेकिन तीन के तेरह बनाने की कला से एकदम दूर था. उसके पिता रंगरेज थे. छुटपन में वह अपने पिता के काम में मदद किया करता था. इसलिए धंधे के रूप में वही उसको ठीक जान पड़ा. कस्बे से बाहर एक तालाब के किनारे वह कपड़ों को धोने और रंगने लगा. दो-तीन महीने बाद धंधा जमने लगा. इसपर इलाके के दूसरे रंगरेज उससे नाराज हो गए. झूल सिंह को नीचा दिखाने के लिए वे कम मजदूरी पर भी काम करने लगे. दूसरी ओर मशीनों से रंगा, छपा कपड़ा भी गांव आने लगा, जो हाथ से रंगे कपड़े के मुकाबले सस्ता और चमकीला था. इससे ग्राहक घटने लगे. कमाई सिमटकर रह गई. वह किसी तरह उस धंधे को खींचे जा रहा था, बस यही उसमें और बाकी तीनों में अंतर था.

इस तरह चारों की हालत एक जैसी थी. व्यापार के प्रति उनकी रुचि समाप्त हो चुकी थी. न उसका उत्साह था. न व्यापार को नए सिरे से जमाने लायक पूंजी उनके पास थी. आगे क्या करें. बस यही सवाल उन्हें खाए जा रहा था.

‘मैंने पहले ही कहा था, भगवान जन्म होने से पहले ही इंसान के लिए धंधा भी तय कर देता है. सिवाय चोरी के हम कहीं और कामयाब हो ही नहीं सकते! परंतु तब मेरी बात किसी ने भी नहीं सुनी थी. थोड़ा खतरा और बदनामी जरूर थी, मगर हम उसी काम में लगे रहते तो आज हमारे पास हजारों रुपये जमा होते. फिलहाल हम चारों कर्जजार हैं.’ भूल सिंह ने कहा.

‘कर्ज तो तभी तक है, जब तक हम उसको माने. वरना सेठ को क्या मालूम कि हमीं उसके कर्जदार हैं.’ मूल सिंह ने भूल सिंह की भूल में उसका साथ दिया.

‘मेरा भी यही मन है कि हम फिर अपने पुराने धंधे पर लौट जाएं. एक घर मेरी निगाह में है…जिसमें नकदी और जेवरात की अफरात है. एक बार हाथ मार लें, छह महीने तक कुछ करने की जरूरत नहीं होगी.’ व्यापार से निराश हो चुके फूल सिंह ने भी उन दोनों का साथ दिया. झूल सिंह बड़े ध्यान से उनकी बातें सुन रहा था.

‘इतनी जल्दी हिम्मत क्यों हारते हो! भरोसा रखो…आज नहीं तो कल, कामयाबी हमारे साथ होगी.’ सरदार होने के नाते झूलसिंह ने समझाने का प्रयास किया.

‘कामयाबी तो तभी मिलेंगी जब हमारे गांठ-पल्ले कुछ होगा?’ भूल सिंह ने प्रतिवाद किया. छह महीने पहले अगर वह बात काटता तो झूल सिंह उसका सिर कलम कर देता. लेकिन उसने नेक इंसान बनने की प्रतीज्ञा की थी. इसलिए उस समय सिर्फ मुस्कुरा-भर दिया.

चारों देर तक बातचीत करते रहे. अंत में उन्होंने फैसला किया कि जहां तक हो सके, चोरी का रास्ता दुबारा नहीं पकड़ेंगे. सब मिलकर झूल सिंह के धंधे को संभालेंगे. जरूरत पड़ी तो मेहनत-मजदूरी का सहारा लेंगे. पर चाहे जैसे भी हो, सेठ का कर्ज समय पर लौटा देंगे. अगर नहीं लौटा पाए तो ठीक छह महीने के बाद उसके सामने हाजिर हो जाएंगे. फिर मारे या छोड़े—मर्जी सेठ की.

इस फैसले के बाद चारों कड़ी मेहनत करने लगे…!

जिस सेठ के घर उन चारों ने चोरी की थी, वह काफी धनवान था. ऊपर से बुद्धिमान भी. उन चारों द्वारा छोड़ी गई चिट्ठी को उसने कई बार पढ़ा, सोचा, उसका कई चोरों से वास्ता पड़ा था. परंतु ये चारों उसे विचित्र जान पड़े. उसने उनकी तलाश में अपने आदमी लगा दिए थे, जो उसे चारों की खबर देते रहते थे. चिट्ठी में किए गए वायदे के अनुसार चारों को दिन-रात मेहनत करते देख, सेठ को बहुत प्रसन्नता हुई. व्यापार में हुए घाटे और कर्ज उतारने के लिए दुबारा जुट जाने की सूचना भी सेठ से छिपी न थी. व्यापार में उन चारों को हुए घाटे की सूचना से सेठ भी व्यथित हुआ था, कि जैेसे उसे अपने ही व्यापार में घाटा हुआ हो. सेठ ने फौरन अपने एक आदमी को मदद के साथ उन चारों के पास भेजा था.

सेठ का नाम लिए बिना उस आदमी ने मदद के लिए हाथ बढ़ाया. फूल सिंह ने तो और कर्ज लेने से इंकार ही कर दिया. मूल सिंह और भूल सिंह ने फैसला सरदार पर डाल दिया. तब सरदार ने कहा था—‘हमपर एक सेठ का अस्सी हजार रुपये का कर्ज है. जब तक हम उससे उबर नहीं जाते, तब तक कोई और कर्ज लेना हमारे लिए हराम है.’

सेठ ने सुना तो उसे और भी विचित्र लगा. उन चारों पर उसका विश्वास और भी दृढ़ हो गया. वह एक वर्ष पूरा होने की प्रतीक्षा करने लगा.

चारों कड़ी मेहनत कर रहे थे. समय बीतता रहा…बीतता ही रहा. कुछ महीने के बाद एक शाम को चारों इकट्ठे हुए तो सभी उदास थे. थके-थके और परेशान भी. बड़ी देर तक उनके बीच चुप्पी छाई रही. सभी के मन में हलचल थी. विचारों का तांता-सा लगा था. मगर होंठ जैसे सिल दिए गए हों. अंततः झूल सिंह ने ही सरदार बात की शुरुआत की—

‘आज साल का आखिरी दिन है, वायदे के अनुसार हमें कल सेठ के सामने उपस्थित होना है. हमारे पास जितना कुछ है, अगर हम सबको बेच भी दें तो सबकुछ मिलाकर आठ हजार से ज्यादा नहीं हो पाएंगे. इससे सेठ का कर्ज तो उतर नहीं पाएगा. इसलिए मैंने एक फैसला किया है…’

‘कैसा फेसला?’ मूल सिंह और फूल सिंह ने एक साथ पूछा.

‘चोरी करना हमारा धर्म है, वही हमें सध सकता है. इसलिए मैं जानता था कि हमें एक दिन वहीं लौटना होगा.’ भूल सिंह बोला.

‘पहले मेरी बात तो सुनो…’ सरदार ने उसे टोका और कहना जारी रखा, ‘मैं तुम तीनों से बड़ा हूं और तुम्हारा सरदार भी. इसलिए सेठ के कर्ज को चुकाने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी मेरी ही है.’

‘आखिर तुम कहना क्या चाहते हो?’ फूल सिंह बोला.

‘कल हमारे पास जितने भी रुपये जमा होंगे, मैं उन सबको लेकर सेठ के सामने हाजिर हो जाऊंगा. उससे कहूंगा कि अपना कर्ज उतरने तक मुझे अपने यहां नौकर रख ले.’

‘चोरों के सरदार को सेठ नौकरी देगा?’ मूल सिंह ने स्वाभाविक-सा सवाल किया. परंतु झूल सिंह ने उसका उत्तर मानो पहले ही सोच रखा था—

‘वह ज्यादा से ज्यादा मुझे जेल भिजवा देगा. मुझे यह भी मंजूर होगा. मैं वायदा करता हूं कि थाने में पुलिस मुझे चाहे जितना मारे-पीटे, मैं अपना मुंह हरगिज नहीं खोलूंगा. तुम तीनों आज से आजाद हो. जाओ और ईमानदारी के साथ अपना पेट भरो…’ कहते-कहते सरदार गमगीन हो गया. कि जैसे उसपर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा हो…कि जैसे बिछोह की घड़ी एकदम सिर पर सवार हो. सरदार की देखा-देखी बाकी चारों के चेहरे भी उतर गए.

अचानक भूल सिंह उखड़ पड़ा—‘वाह सरदार वाह! तुमने तो हमें पूरा स्वार्थी ही समझ लिया. मैं जानता हूं कि चोरी का धंधा छोड़ने का सबसे अधिक विरोध मैंने ही किया था. मगर एक साल के अनुभव के दम पर मैं एक बात बहुत दावे के साथ कह सकता हूं कि हमारी पुरानी जिंदगी से यह जिंदगी लाख दर्जा बेहतर है.’

‘एकदम सही कहा. चोरी के लाख भी हों तो गर्दन झुकाकर चलना पड़ता था. अब खाली जेब भी सीना तान कर रहते हैं.’ मूल सिंह ने जोड़ा.

‘जंगल हो या जेल…जहां भी रहना पड़े, हम साथ-साथ रहेंगे.’ फूल सिंह बोला. जिसे सुनकर सरदार विह्वल हो गया.

अगले दिन सेठ जैसे ही अपनी गद्दी पर पहुंचा, उसने चार आदमियों को अपने सामने झुका पाया. सेठ उनके बारे में जानता तो सबकुछ था. फिर भी उसने पूछा—‘आप लोग कौन हैं, मेरे पास आने का मकसद?’

सेठ की बात सुनकर झूल सिंह आगे बढ़ा. सेठ को दुबारा प्रणाम करने के बाद उसने बताया, ‘आप हमें नहीं जानते सेठजी…साल-भर पहले हम चोर थे. हमने ही आपकी हवेली से अस्सी हजार रुपयों की चोरी की थी.’

‘अरे हां, याद आया…लेकिन तुमने तो वायदा किया था कि साल-भर के भीतर ही मेरे सारे रुपये लौटा दोगे…देखो जी, मैं व्यापारी हूं…चोरी चले जाते तो सब्र कर लेता…पर तुम देने आए हो तो अपनी रकम बिना ब्याज के लेकर मुझे तसल्ली न होगी…हां, तुम ईमानदारी के साथ खुद चलकर आए हो, सो चार रुपया सैकड़ा की जगह यदि दो का भाव भी दोगे तो मैं चुपचाप रख लूंगा…’ कहकर सेठ ने उन चारों पर नजर डाली जो अभी तक गर्दन झुकाए खड़े थे. अपराधबोध से ग्रस्त…ग्लानिभाव से भरे हुए.

‘चोरी करके तुमने बहुत बड़ा अपराध किया था, जानते हो.’ कड़वे स्वर में सेठ ने आगे कहा.

‘हम अपने किए की सजा भुगतने को तैयार हैं.’ झूल सिंह ने सबकी ओर से कहा.

‘बहुत चालाक बनते हो, पुलिस मुझसे पूछेगी नहीं कि चोरी की बात साल-भर छिपाकर क्यों रखी.’ सेठ ने नाराजगी का प्रदर्शन किया, ‘मेरे रुपये लाए हो?’

‘नहीं, हमने रुपया कमाने के लाख जतन किए…मेहनत-मजदूरी भी की. लेकिन उतने रुपये जमा नहीं हो सके.’

‘यदि मैं तुम्हें सजा दिलाने पर जोर दूं तो आगे कोई चोर भला आदमी बनने से नहीं सोचेगा. ऊपर से मेरा अस्सी हजार रुपया तो डूब ही जाएगा. इसलिए जब तक मेरा कर्ज चुक नहीं जाता, तुम चारों में यहां नौकर बनकर रहोगे.’

‘हम आपके शुक्रगुजार हैं…’ चारों एक साथ बोले.

‘लेकिन मेरी एक शर्त अभी बाकी है.’ सेठ ने खुलासा करते हुए कहा, ‘जब तक तुम मेरा कर्ज चुका नहीं देते, तब तक आंधी, तूफान हो या मूसलाधार बारिश…तेज धूप हो या कड़कड़ाती ठंड, तुम चारों को वहां खुले मैदान में सोना पड़ेगा.’ सेठ ने सामने खाली पड़े मैदान की ओर इशारा किया.

चारों प्रायश्चित करना चाहते थे. इसलिए उन्होंने चुपचाप सेठ की शर्त मान ली. जिस मैदान की ओर सेठ ने इशारा किया था, कुछ दिन की मेहनत के बाद चारों ने वहां एक चबूतरा बना लिया. सेठजी की अनुमति पाकर फूल सिंह एक दिन जंगल में गया और वहां से कई पौधे उखाड़ लाया. वे पौधे उसने उस चबूतरे पर रोप दिए. दिन में वे सेठ के यहां काम करते, रात को विश्राम के लिए चबूतरे पर चले जाते. ताजी हवा, पानी और धूप पाकर पौधे तेजी से पनपने लगे. मैदान पर हरियाली छाने लगी.

चारों पूरी ईमानदारी से रहते. जमकर मेहनत करते. दूसरों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहते. धीर-धीरे गांववालों का विश्वास उनपर जमने लगा. लोग उनके पास जुटने लगे. कौतूहलवश लोग उनकी पिछली जिंदगी के बारे में भी सवाल करते. शुरू में चारों ऐसे प्रश्नों का जवाब देने में सकुचाते थे. बाद में वे अपने अनुभव बताने लगे. बातों-बातों में उन्होंने लोगों को अपने पाप गिनाए और प्रायश्चित भी किया. उनके जीवन की घटनाएं सुनकर लोगों को रोमांच हो आता. वे उन्हें बार-बार सुनाने का अनुरोध करते. घटनाएं बयान करते समय चारों उसमें डूब जाते. उस समय उनका अंदाज रोचक हो जाता. मामूली घटना भी मजेदार कहानी में ढल जाती थी. लोगों को उनकी बातों में मजा आने लगा. धीरे-धीरे मामूली घटना को मजेदार किस्से में ढाल देने की कला में वे पारंगत होते चले गए.

चबूतरा गांव के बीचों बीच बना था. दिन-भर काम से थके-मांदे किसान और मजदूर मनोरंजन की चाहत में वहां चले आते. खुश होकर आटा, दाल, चावल, गुड़, चना-चबैना जैसा भी जिससे बन पड़ता, वैसा भेंट के लिए ले आते. झूल सिंह और उसके साथी किस्सा सुनाते-सुनाते थक जाते. किंतु लोगों का मन न भरता. उनकी ललक बढ़ती ही जाती. रात जब आधी से ज्यादा बीत जाती और लोगों को अगले दिन के काम की चिंता सताने लगती, तब कहीं भीड़ कम होनी आरंभ होती.

किस्से-कहानी के जरिये जो भी मिलता, उसे वे चारों सेठ के पास जमा करते जाते. समय बीतता गया. वे अपनी जिंदगी से खुश थे. एक दिन सेठ ने चारों को अपनी बैठक में बुलाया—

‘तुमने अपनी लगन, रात-दिन की मेहनत से जो काम किया है, उससे में बहुत प्रसन्न हूं. अब तुम चारों आजाद हो, जहां भी चाहो, जा सकते हो.’

‘जा सकते है!’ यह सुनते ही चारों के मुंह लटक गए. सेठ ने उन्हें मुक्त कर दिया है, अब वे कर्जदार नहीं रहे, यह खुशखबरी उन्हें खुश न कर सकी.

‘मैं ठीक कहता हूं…अब आप अपने-अपने घर जा सकते हो. अपने अस्सी हजार रुपये और उनका ब्याज मैं वसूल कर चुका हूं.’ सेठ ने फिर दोहराया. लेकिन वे चारों पत्थर के बुत बने रहे. सेठ उन चारों पर नजर गढ़ाए था. उनके भीतर चल रही उथल-पुथल का अनुमान उसे था. उन्हें गांव में आए चार साल बीत चुके थे. इन चार वर्षों में उन्होंने गांव के बच्चे से लेकर बूढ़े तक से आत्मीय संबंध बना लिए थे. उन्हें वहां जिंदगी में जितना प्यार मिला उतना जिंदगी में और कहीं नहीं मिला था. दूध और पानी की तरह वे गांव के जनजीवन में मिल चुके थे.

चारों सेठ के सामने गुम-सुम खड़े थे. मुंह लटकाए. घनी उदासी में डूबे हुए. उनसे दूर होने के विचार से सेठ भी कम दुःखी नहीं था. आखिर सेठ ने फिर दोहराया— ‘तुम्हारी मजदूरी के कुछ रुपये मेरे पास बाकी हैं. उन्हें लेकर जहां भी तुम्हारा मन करे, वहां जा सकते हो. मगर भी रहो, ईमानदारी से रहना, खूब मेहनत करना, मिलकर चलना, सफलता सदा तुम्हारे साथ रहेगी.’

इसपर झूल सिंह की आंखों से आंसू बहने लगे. तब तक गांववालों का हुजूम भी वहां जमा हो चुका था. लोग उदास थे. तब भरे गले से झूल सिंह ने कहा—‘हम आपके अहसानमंद हैं सेठजी. आपने हमें नई जिंदगी दी है. गांववालों से हमें प्यार और सम्मान मिला है. हमें आपसे मजदूरी नहीं चाहिए. यदि हो सके तो एक मेहरबानी हमपर जरूर करें…’

‘हां…हां, बताओ! तुम्हारे लिए मुझे कुछ भी करके प्रसन्नता होगी.’ सेठ बोला.

‘जिस चबूतरे पर हमने अपने जीवन के सबसे अच्छे दिन बिताए हैं, आप हमें अपनी बाकी जिंदगी उसी पर रहने की अनुमति दे दें तो हम आपके जिंदगी-भर गुलाम बने रहेंगे.’

‘दिया!’ सेठ के मुंह से सहसा निकला. उसकी आंखें भी नम हो चली थीं. लग रहा था कि बस बरसने ही वाली हैं. खुद पर कठिनाई से काबू पाकर उसने कहा— ‘मेरी बेटी तुम्हारे किस्सों की दीवानी है. कल रात सोने से पहले मैंने जैसे ही उसको पता चला कि अब तुम चारों जाने वाले हो तो वह रोने लगी. पूरी रात खाना भी नहीं खाया. मैंने लाख समझाया, पर वह नहीं मानी. सुबह जब मेरी आंखें खुलीं तो उसके बिस्तर को गीला पाया. लगा कि पूरी रात रोती ही रही है. तुम चारों को वह कहानी बाले बाबा कहती है. यहां आने से पहले भी वह रो-रोकर कह रही थी कि मैं तुम्हें जाने से रोक लूं. लेकिन वह ठहरी नादान बच्ची, तुम मेरा सारा रुपया लौटा चुके हो. फिर मुझे क्या अधिकार है कि तुमसे रुकने को कहूं. मैं यही सोचकर परेशान था कि तुम चारों के चले जाने के बाद उस बच्ची को कैसे समझाऊंगा. तुम्हारे फैसले से मुझे बड़ी राहत मिली है. अब मैं चलता हूं, ताकि जल्दी से जल्दी बच्ची तक यह खबर पहुंचा सकूं.’ इतना कहकर सेठ उठ गया. गांववालों की उदासी भी छंट गई. वे चारों भी खुशी-खुशी अपने चबूतरे की ओर बढ़ गए.

उस समय पूरा गांव जैसे चबूतरे पर जमा था. उन चारों के वहां पहुंचते ही चबूतरा तालियों की गड़गड़ाहट से आसमान गूंजने लगा. मौका अच्छा था और मौसम खुशगवार. झूल सिंह खुद का रोक न सका. चबूतरे के पास पहुंचते ही उसने अपने दोनों हाथ उठाकर कहा—

‘अगर भला सोचो तो…’

मूल सिंह ने बात बढ़ाई—‘लोग भले मिलते हैं…’

फूल सिंह ने जोड़ा—‘खुद भला करो तो…’

भूल सिंह ने बात पूरी की—‘जग भला करता है!’

मित्रो! कहानी तो पूरी हो चुकी है. अब बस इतना बताना बाकी है कि वे चारों जब तक भी वे वहां रहे, गांववालों को रोज नए-नए किस्से-कहानियां सुनाकर उनका मनोरंजन करते रहे. लोगों के बीच खुशियां बांटते रहे. अब वे नहीं हैं. तो भी उनकी कहानियां गांव के बूढ़े बच्चे की जुबान पर चढ़ी हुई हैं. और वे चारों अपनी कहानियों के लिए पूरे इलाके में जाने जाते हैं. वे, यानी कहानी वाले बाबा!