कहीं कुछ नहीं / शशिभूषण द्विवेदी

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एक

'जीवन की घोषणा के लिए आख्यान चाहिए और आख्यान के लिए पूरा एक जीवन।' कौन जाने यह उक्ति किसने कही लेकिन सुनी मैंने कुमार साहब के मुँह से ही थी और वह भी एक खास संदर्भ में। दरअसल, कुमार साहब मुझसे अपनी जीवनी लिखवाना चाह रहे थे और यह उक्ति उन्होंने मुझसे उसी संदर्भ में कही थी। अब आप पूछेंगे कि ये कुमार साहब कौन हैं और मुझी से अपनी जीवनी क्यों लिखवाना चाह रहे थे और फिर जीवनी लिखवाना ही क्यों चाह रहे थे? क्या वे कोई महानायक हैं या बिजनेस टाइकून या फिर कोई माफिया डॉन? आजकल तो लोग ऐसों की ही जीवनियाँ पढ़ते हैं। गांधी, नेहरू, हिटलर, बुश या ओबामा होते तो भी बात कुछ समझ में आती। ऐसों की जीवनियाँ न कहीं सही, बच्चों के पाठ्यक्रम में ही लग जाती हैं बतौर नैतिक शिक्षा। वैसे आजकल नैतिक ही नहीं, अनैतिक शिक्षा के लिए भी जीवनियाँ लिखी जाने लगी हैं। कारण वही मार्केट फैक्टर यानी मार्केट में अगर आपकी कुछ औकात है (भले चोर, डकैत, दलाल, रंडीबाज, घूसखोर, बलात्कारी या स्त्री-पुरुष कैसी भी वेश्या की ही क्यों न हो) तब आप कुछ भी लिखिए, बिकेगा। शर्त बस इतनी है कि अपने धंधे के आप मास्टर हों और बेशर्मी से कह सकें कि गंदा है पर धंधा है। मगर हमारे कुमार साहब का धंधा उतना भी गंदा नहीं। उतना क्या बिल्कुल भी गंदा नहीं। उसे गंदा भी बनाया तो कुछ धंधेबाजों ने ही जिसमें जाने-अनजाने कुमार साहब की भी कुछ भूमिका हो तो कह नहीं सकता (हालाँकि एक बार कुमार साहब भी भ्रष्टाचार के आरोप में सस्पेंड हुए हैं और बाद में साक्ष्य के अभाव में बाइज्जत बरी भी हो गए)।

शायद मार्च अप्रैल का महीना रहा होगा। शाम के वक्त मैं अपना वक्त काटने उनके पास पहुँच गया। इधर उधर की बातें करने के बाद अचानक वे कहने लगे कि 'भाई, मैं भी चाहता हूँ कि कोई मेरी जीवनी लिखे। पता नहीं क्यों इस उम्र में आकर अब यह इच्छा होने लगी है। कई बार बहुत बेचैन हो जाता हूँ और उन घटनाओं दुघर्टनाओं से मुक्ति चाहता हूँ जो मेरे जीवन में घटीं। सोचता हूँ कि अगर वे न घटी होतीं तो मेरा जीवन कैसा होता? घटनाहीन जीवन की कल्पना रोमांचित कर जाती है कभी कभी... चाहता हूँ कि फिर से उस जीवन को जिऊँ जो मैंने जिया।'

- 'तो आप खुद क्यों नहीं लिखते अपनी आत्मकथा या जीवनी?' मैंने पूछा।

- 'नहीं लिख पाऊँगा...' मुझे एकटक देखते हुए उन्होंने कहा था। 'शायद कोई भी आदमी अपने बारे में सच नहीं लिख पाता। इसलिए चाहता हूँ कि तुम लिखो। तुम लिख सकते हो। लेकिन मेरी एक शर्त है।'

- 'क्या?'

- 'कुछ खास नहीं... बस यही कि इसे मेरे जीवनकाल में मत छपाना। दरअसल अपना सच मैं देख नहीं पाऊँगा। अब इतने सालों से अपना झूठ देखने की आदत पड़ गई है... खुश हूँ उसी में...।'

- 'फिर आप यह सब लिखाना ही क्यों चाहते हैं?'

- 'इसलिए कि जब तक सच दर्ज न हो जाए... कोई दूसरा जान न ले उसे, मेरा झूठ निष्पाप नहीं हो सकता। यकीन करो मैं यह सब अपने जाने-अनजाने पापों की मुक्ति के लिए करना चाहता हूँ।'

उस दिन बात यहीं खत्म हो गई थी। मैंने सोचने का समय लिया और चला आया। मुझे अच्छा नहीं लग रहा था यह सब। चाहता था कि उन्हें मना कर दूँ। मेरे स्वाभिमानी मन को यह मंजूर नहीं हो रहा था कि मैं एक भाड़े के लेखक की तरह आत्मरति के शिकार एक बूढ़े की जीवनी लिखूँ। फिर भी, कुमार साहब के बहुत आग्रह के बाद आखिर उनकी जीवनी लिखने का ठेका मैंने ले ही लिया। लेकिन अब मुश्किल दूसरी थी और वह यह कि कुमार साहब ने जीवनी लिखने की शर्त यह रख दी कि मैं जो कुछ भी लिखूँ सच लिखूँ और सच वे बताएँगे नहीं। अब भला बताइए कि ये भी कोई बात हुई। हुआ कि नहीं अच्छे भले लेखक का शोषण। वैसे लेखकों के शोषण पर हमने भी कई बार जोरदार भाषण दिए हैं और धाँसू नारे लगाए हैं। लेकिन वो सब अपनी जगह और सारी क्रांतिकारिता के बावजूद धंधा अपनी जगह। अब इसे हिंदी के मध्यवर्गीय लेखक का दुचित्तापन कहें तो कहें। वैसे कहेंगे भी तो बहुत गलत नहीं कहेंगे।

खैर छोड़िये, अपनी मूल बात पर आते हैं और वह यह कि आखिर कुमार साहब हैं क्या? तो हुजूर वैसे तो कुमार साहब कुछ नहीं हैं और सरकारी भाषा में कहें तो इस देश के एक आम आदमी हैं। आम हैं शायद इसीलिए हमेशा खास बनने की फिराक में रहते हैं। हमें तो लगता है कि अपनी जीवनी लिखाने का ख्याल भी उन्हें इसीलिए आया। अब जो हो, कुमार साहब के बारे में मोटा-मोटी सूचना ये है कि शुरुआती कुछ सालों को छोड़ दें तो कुमार साहब सारा जीवन अध्यापक रहे और बुढ़ौती में प्रधानाध्यापक होकर रिटायर हुए। कविता करने का शौक उन्हें शुरू से रहा लेकिन रिटायरमेंट के बाद अब यह एक स्थायी रोग बन चुका था। समझ में न आनेवाली उनकी कविताओं से उनके घर के लोग ही नहीं आसपास के मित्र और रिश्तेदार तक आजिज आ चुके थे। हालाँकि कविता के इस नए रोग की भी अपनी एक कहानी है और वह कहानी है बुढ़ौती के इश्क की जिसे इधर अमिताभ बच्चन की निःशब्द और चीनी कम जैसी फिल्मों ने और भी परवान चढ़ा दिया है। जैसे कुमार साहब कहते हैं कि प्रेम की कोई उम्र नहीं होती और आदमी कभी बूढ़ा नहीं होता। कुमार साहब एकाध बार अपने बेटे के साथ अमेरिका और यूरोप की यात्रा भी कर आए हैं सो वहाँ के बूढ़ों की जीवनशैली से भी कुछ कुछ वाकिफ हो गए हैं और उनके इश्क के किस्सों से भी। दरअसल, उनका छोटा बेटा अमेरिका की एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करता है। उसी से मिलने वे एक बार अमेरिका गए थे और जब वहाँ से लौटे तो उनके रंग-ढंग ही बदल गए। सुबह की सैर में अब कुरते पाजामे की जगह वे बरमूडा और टीशर्ट पहनने लगे हैं और छड़ी की जगह अब उनके हाथ में हमेशा सेलफोन रहने लगा है। बहरहाल... हमें क्या - हम उनकी जीवनी के प्राक्कथन की ओर चलते हैं।

दो

कुमार साहब का जन्म उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले के एक पिछड़े हुए गाँव में हुआ था। जिस समय कुमार साहब का जन्म हुआ, उस समय गोलमेज कान्फ्रेंस चल रही थी और भगत सिंह को फाँसी दिए जाने का निर्णय लिया जानेवाला था। अपने जन्म का समय तो कुमार साहब को ठीक ठीक याद नहीं लेकिन समय के बारे में वे इसी तरह की बातें करते हैं जैसे उस समय जनसंघ का जन्म नहीं हुआ था या अंबेडकर और गांधी में झगड़ा चल रहा था और होमरूल की माँग जोर-शोर से उठ रही थी। बहरहाल, उनके जन्म का किस्सा थोड़ा विचित्र तो है लेकिन उनके अनुसार सत्य है।

हुआ यह कि कुमार साहब अपने समय से पहले पैदा हुए थे यानी सात माह में लेकिन जन्म के समय वे अपनी माँ के गर्भ से निकलने का नाम ही नहीं ले रहे थे। एक तो वे उल्टे पैदा हुए थे। (कुमार साहब के अनुसार गांधी जी भी उल्टे पैदा हुए थे) और दूसरा त्रिशंकु की तरह उनके अधर में लटके रहने की स्थिति ने और भी विचित्र हालात बना दिए थे। करीब आधे पौने घंटे तक कुमार साहब की वही स्थिति रही मानो ईश्वर ने उन्हें जबरन इस मर्त्यलोक में धकेल दिया हो और वे ईश्वर के इस अन्याय को लेकर सविनय अवज्ञा कर रहे हों। इधर उनकी माँ की हालत पल प्रतिपल खराब होती जा रही थी। दर्द का रेला रह रहकर उठता और वे बार बार बेहोश हो जातीं। किसी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था। चिकित्सा विज्ञान में इसे क्या कहेंगे - मालूम नहीं लेकिन आधे पौन घंटे तक कुमार साहब ट्रैफिक जाम की स्थिति में फँसे रहे। उधर माँ छटपटा रही थी, इधर बेटा। माँ जब अचेत होकर गहन विश्रांति में चली गई तभी कुमार साहब बाहर आए और वो भी ऐसे जैसे कोई गहन समाधि से बाहर आता हो।

कुमार साहब अपनी माँ के उस जीवट के प्रति आज भी कृतज्ञ हो जाते हैं और कहते हैं कि ऐसी स्थिति में कोई सामान्य स्त्री होती तो शायद जीवित भी न रह पाती लेकिन दर्द सहने की यह अद्भुत क्षमता उन्हें ईश्वर की विशेष अनुकंपा से मिली थी। माँ पहले भी सात बच्चों को जन्म दे चुकी थीं जिसमें चार मर गए थे, कुमार साहब पाँचवें थे। कुमार साहब के अनुसार उनके जन्म तक माँ की उर्वरा कोख पूरी तरह जीर्ण-शीर्ण हो चुकी थी। मजबूरन मुझे उसी में जन्म लेना पड़ा। यहाँ मैं मजबूरन शब्द को अंडरलाइन करते हुए आगे बढ़ता हूँ और पाठकों के लिए एक संभावना छोड़ता हूँ कि अगर कुमार साहब को किसी साफ-सुथरी माँ की कोख नसीब हुई होती तो क्या होता? खैर सारी दिक्कत इसी कोख से शुरू होती है। साढ़े सात माह बाद जब हुलसते हुए कुमार साहब बाहर आए तो पूरी तरह बाहर नहीं आ सके थे। कुमार साहब आजीवन इस तथ्य को नहीं भूल पाए कि वे समय से पहले पैदा हुए इनसान हैं। यही कारण है कि वे किसी भी क्षण से पूरी तरह बाहर नहीं आ पाते, न उसमें पूरी तरह घुस पाते हैं। उन्हें लगता है कि यह समय उनके लिए अजनबी है और वे समय के लिए। पिछले कुछ समय से उनका यह अहसास और भी घना हो गया था। एक जिद की तरह वे जब भी समय को पकड़ने की कोशिश करते समय उनके हाथ से छूटता हुआ सा लगता और सारे सूत्र बिखर जाते। उन्होंने कई बार यह बात मुझसे कही कि मेरे पिछले पचास वर्ष यूँ ही जाया हो गए। अब मैं फिर माँ की कोख से अपनी शुरुआत करना चाहता हूँ। लेकिन कैसे करूँ समझ नहीं आता।

इसे संयोग ही कहिए कि कुमार साहब के जन्म के समय ही उनके जिगरी दोस्त राम प्रताप चौधरी ने भी जन्म लिया था। राम प्रताप अपने समय से दुनिया में आए थे और उनके लिए ट्रैफिक जाम जैसी कोई समस्या नहीं थी। राम प्रताप के जन्म की कथा कुमार साहब की डायरी में कुछ अलग तरह से मिलती है। कुमार साहब का मानना है कि राम प्रताप हराम की औलाद थे। इलाके में उनकी बड़ी हवेली थी। दसियों दास-दासियाँ। जमीदारी इतनी थी कि उसकी आय का कोई हिसाब नहीं था। राम की माँ ने ताउम्र घूँघट के बाहर की दुनिया नहीं देखी थी। उस दौर के जमींदारों की बहुओं की तरह राम की माँ ने भी हवेली की चहारदीवारी के भीतर ही सपने देखते, हँसते गाते अपनी जिंदगी काट दी। न उनका चेहरा कभी किसी ने देखा, न आवाज सुनी। इतना जरूर था कि हवेली के भीतर से रात अँधेरे कभी कभी भयावह चीखें और रोने की आवाजें आती थीं जिसे लोग सुनते हुए भी अनसुना कर देते थे।

राम के पिता बिगड़ैल साँड़ की तरह यहाँ वहाँ मुँह मारा करते थे और दादा हवेली के बाहर मसनद लगाए हुक्का गुड़गुड़ाते रहते। घर में दसियों औरतें थीं। राम की बुआ भी यहीं रहती थीं और बहनें भी। राम के पिता विश्वेश्वर दयाल चौधरी और दादा अक्षेश्वर प्रताप चौधरी का जो चरित्र कुमार साहब ने अपनी डायरी में लिखा है - वह प्रोटोटाइप है और बहुत विश्वसनीय नहीं है। हो सकता है कि कुमार साहब ने जमींदारों के किस्से कहानियाँ पढ़कर उनकी इमेज को इन लोगों पर आरोपित कर दिया हो। लेकिन हम कुमार साहब की बात काटने की स्थिति में इसलिए नहीं हैं क्योंकि हमारे पास और कोई विकल्प नहीं है। फिर कुमार साहब के जीवन के शुरुआती दस पाँच साल इसी हवेली में बीते थे। दरअसल कुमार साहब और राम प्रताप के पिता साढ़ू थे। कुमार साहब के पिता धार्मिक व्यक्ति थे और धार्मिकता ने उनका खासा बेड़ा गर्क भी किया था। सिवाय रात को घर आने के वे चौबीसों घंटे मंदिर में पड़े रहते। ऐसे में भला घर की हालत डाँवाडोल क्यों न होती। थोड़ी बहुत जो जमीन थी आखिरकार वह भी बिक गई। धीरे धीरे सब खत्म होने लगा। बुरे वक्त में यहाँ वहाँ से कर्जा लेकर उन्होंने परचून की एक छोटी सी दुकान भी खोली थी मगर वहाँ बैठने का उनके पास वक्त ही कहाँ था सो वह भी बिकने के कगार पर आ गई। मगर कुमार साहब के पिता को अब भी जैसे किसी चमत्कार की उम्मीद थी। वे और पूजा पाठ में जुट गए। कुमार साहब की माँ से यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ। अपने पति की उन्होंने खूब लानत मलामत की और चली आईं अपनी बहन के घर अपनी उसी पुरानी हवेली में। हवेली का रुतबा अब पहले जैसा तो नहीं था फिर भी कुछ तो था ही। तो कुमार साहब की माँ ने हवेली आकर अपने छोटे बच्चों को बहन के हवाले किया इस वचन के साथ कि अगर वे मर जाएँ तो इन्हें भी अपने बच्चों के साथ एक टुकड़ा रोटी देकर पाल लेना।

इन दोनों बच्चों में एक कुमार साहब भी थे। हालाँकि कुमार साहब की बुआ के खत से तो ऐसा लगता कि दिवालिया होने की कगार पर आए कुमार साहब के पिता को पैसों की सख्त जरूरत थी जिसके लिए गिड़गिड़ाते हुए वे अक्षेश्वरनाथ चौधरी के पास पहुँचे थे। चौधरी ने उन्हें पैसे तो दे दिए थे लेकिन बदले में उनके दोनों बेटों को हवेली में गिरवी रख लिया था। अब सच क्या था, यह तो भगवान जाने लेकिन एक बात सही है और इसे कुमार साहब भी मानते हैं कि अक्षेश्वरनाथ ऐबी आदमी थे। उनके अनुसार -'पहली बार जब मैं हवेली में पहुँचा तो मुझे उन्होंने अपने पास बुलाकर गोदी में बैठा लिया। फिर अजीब तरह से मेरे गाल काटने लगे... मुझे बहुत गुस्सा आया था तब।' धीरे धीरे अक्षेश्वर नाथ की दिलचस्पी कुमार साहब में बढ़ती जा रही थी। कुमार साहब चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते थे। कुछ कहने या करने का मतलब राम के पिता विश्वेश्वर दयाल के हाथों अपनी तुड़वाई करवाना था। वैसे कम ऐबी विश्वेश्वर दयाल भी नहीं थे। हवेली के शानदार दिनों में वे कभी भी किसी के भी घर में घुस जाते थे और किसी की भी बहू बेटी के साथ रात गुजारकर निकल आते थे। मजाल थी कि कोई उन्हें टोकता। कम से कम पचास पहलवान तो उन्होंने पाले ही थे। वे किस काम आते?

यह अंग्रेजों के जमाने की बात है। किसी बददिमाग ने विश्वेश्वर दयाल के खिलाफ पुलिस में शिकायत कर दी और विश्वेश्वर दयाल अपने पहलवानों समेत गिरफ्तार कर लिए गए। लेकिन रात भर विश्वेश्वर दयाल ने थाने में जो उत्पात मचाया उसकी आज भी इलाके में रस ले-लेकर चर्चा होती है। कहते हैं कि विश्वेश्वर दयाल आधी रात को थाने में शौच के लिए अड़ गए और फिर जो गंध फैलाई कि सारा थाना गंधा उठा। कुमार साहब बताते हैं कि हवेली में हमारी दो-दो मौसियाँ थीं। एक तो सगी मौसी थीं जो विश्वेश्वर दयाल से ब्याही थीं। दूसरी विश्वेश्वर दयाल की सढ़ुआइन थीं जिन्हें विश्वेश्वर दयाल ने ही रख लिया था। हुआ यह कि एक बार विश्वेश्वर दयाल की सढ़ुआइन बीमार हुईं। साढ़ू साहब अपनी पत्नी के इलाज के लिए उन्हें शहर लेकर आए और हवेली में अड्डा जमा लिया। तब तक विश्वेश्वर दयाल ने अपनी सढ़ुआइन को देखा तक नहीं था लेकिन जब देखा तो भौंचक! बस फिर क्या था? फौरन उन्होंने साढ़ू साहब को तलब किया और कहा, 'भाई आपकी पत्नी का रोग हमारी समझ में आ गया है। उसे अब हमहीं ठीक कर सकते हैं।'

'कैसे? क्या आप कोई वैद्य हैं?' साढ़ू साहब ने पूछा।

वे बोले, 'न... हम वैद्य नहीं, वैद्य के बाप हैं। आप कृपा कर अपने घर जाएँ। आपकी पत्नी स्वस्थ्य हो जाएँगी तो उन्हें भिजवा दिया जाएगा।' साढ़ू साहब जब राजी नहीं हुए तो उन्हें पैसे धेले का लालच दिया गया और उस पर भी जब राजी नहीं हुए तो उनकी जमकर ठुकाई हुई और हवेली से लात मारकर भगा दिया गया। बस, तभी से विश्वेश्वर दयाल की सढ़ुआइन इस घर की गृहलक्ष्मी हो गईं। विश्वेश्वर दयाल से उन्हें दो बेटियाँ भी हुईं जो शादी ब्याह के बाद अपनी अपनी ससुराल चली गईं। अभी पाँच साल पहले ही विश्वेश्वर दयाल भी गुजर गए और उनके जाने के कुछ ही दिन बाद लक्ष्मी भी भगवान को प्यारी हो गईं।

हवेली अब वीरान है और उसके स्वामित्व को लेकर रामप्रताप के बेटों और लक्ष्मी देवी की लड़कियों के बीच मुकदमेबाजी चल रही है। खैर... कुमार साहब के जीवन में इस हवेली की स्त्रियों का जिक्र इसलिए भी जरूरी है कि उनका उनके जीवन पर काफी असर रहा है। हवेली के बाहरी हिस्से में ही रमोला बुआ रहा करती थीं। वही रमोला बुआ जिनका जिक्र कुमार साहब अक्सर अपनी बातचीत में किया करते थे। यूँ तो रमोला बुआ का असली नाम फातिमा बी था और वे विश्वेश्वर दयाल के छोटे भाई कामेश्वर दयाल की ब्याहता थीं। कामेश्वर दयाल शुरू से ही विद्रोही प्रकृति के आदमी थे। लखनऊ में पढ़ाई के दौरान उनका संपर्क क्रांतिकारियों से हो गया था और वे गुपचुप उनकी गतिविधियों में भाग भी लेने लगे थे। फातिमा बी तब पंद्रह सोलह बरस की अल्हड़ किशोरी थीं। माँ बहुत पहले मर गई थी। सिर्फ पिता थे जो बुढ़ापे में पुलिस की मुखबिरी कर अपना और फातिमा का पेट पाल रहे थे। दो चार बार मात खाने के बाद जब कामेश्वर दयाल और उनके साथियों को फातिमा के पिता की मुखबिरी का पता चला तो उन्होंने उन्हें रास्ते से हटाने की ठान ली और एक रात सचमुच उन्हें रास्ते से हटा ही दिया। लेकिन फातिमा से मिलने के बाद कामेश्वर दयाल को अपने किए पर बड़ा अफसोस हुआ। दरअसल, वे फातिमा के इश्क में पड़ गए थे। कामेश्वर दयाल के जीते जी फातिमा को यह भनक तक नहीं लगी कि उसका आशिक ही उसके बाप का हत्यारा है। हालाँकि फातिमा उर्फ रमोला बुआ को इस बात की खबर लग भी जाती तो भी उसकी कहानी में कोई खास फर्क पड़नेवाला नहीं था क्योंकि कामेश्वर दयाल और फातिमा के आर्यसमाजी ब्याह के दो महीने बाद ही कामेश्वर दयाल की मौत हो गई। यह दुघर्टना रात के भीषण सन्नाटे में उस वक्त हुई जब वे अगले दिन डाकखाने को उड़ाने के लिए बम बांध रहे थे। दुर्भाग्य से एक बम हाथ से छूट गया और बस...। खबर मिलते ही विश्वेश्वर दयाल भागे-भागे आए। चाहे जैसे हों, कामेश्वर थे तो उनके भाई ही। बड़ी मुश्किल से वे खुद को सँभाल पाए। उधर फातिमा उर्फ रमोला का बुरा हाल था, मगर विश्वेश्वर दयाल ने दो दिन तो उसकी तरफ देखा तक नहीं। तीसरे दिन जब रमोला की हालत खराब होने लगी तब विश्वेश्वर दयाल थोड़ा पिघले। उन्हें उस नन्हीं सी जान पर तरस आने लगा था। फिर कामेश्वर के मित्रों ने भी दबाव बनाया। लोकलाज का भय दिखाया। आखिरकार विश्वेश्वर दयाल रमोला को बहन बनाकर हवेली में ले ही आए। हालाँकि इस बात पर उनके पिता अक्षेश्वर प्रताप ने भी कम बखेड़ा खड़ा नहीं किया। वे एक मुसलमानी को हरगिज अपनाने को तैयार नहीं थे। हवेली की देहली लाँघने की तो बात ही दूर थी। अब चूँकि विश्वेश्वर दयाल रमोला और कामेश्वर के मित्रों को वचन दे चुके थे इसलिए पिता के विरोध के बावजूद उन्होंने हवेली के बाहरी हिस्से में रमोला को ठहरा दिया। इस शर्त के साथ कि वे चौके में नहीं जाएँगी और अपना खाना-पीना, बर्तन आदि अलग रखेंगी। खून का घूँट पीकर रमोला ने यह भी माना।

बच्चे रमोला को चाची न कहकर बुआ ही कहते थे। कुमार साहब ने भी उन्हें बुआ ही कहना शुरू किया। रमोला चूँकि अभी अल्हड़ किशोरी ही थीं इसलिए जल्दी ही वे घर के बच्चों से घुल-मिल गईं। दिन भर वे फिरकनी सी दौड़-दौड़कर घर बाहर के काम करतीं या कभी-कभार बच्चों के साथ खेल कूदकर दिल बहला लेतीं। कुमार साहब पर उनका कुछ विशेष ही स्नेह था। इसलिए भी कि हवेली में उनकी तरह कुमार का भी अपना कोई नहीं था। कुमार साहब हवेली के अपने उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि रमोला बुआ कि जिंदगी एक बंद दरवाजा थी जिसके भीतर कोई नहीं घुस पाया। मैं ही था जिससे अपने सुख दुख वे खुलकर कह लेतीं थीं लेकिन तब मैं बहुत छोटा था। (रमोला बुआ का जिक्र आते ही कुमार साहब असहज हो जाते हैं। मेरे दिमाग में शक का कीड़ा कुलबुलाता है... कहीं कुछ है जो छुपाया जा रहा है और मैं उस हवेली को देखने निकल पड़ता हूँ।)

तीन

मैनपुरी के पश्चिम में है ग्राम सतखड़। कभी यह मैनपुरी का केंद्रीय इलाका हुआ करता था। अब यह गाँव है। वीरान हवेली अब भी खड़ी है। इसका पूर्वी भाग टूट चुका है। दरवाजे घुना गए हैं और दीवारें झर रही हैं। हवेली अब खंडहर लगती है लेकिन इसे देखकर अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि कभी यह भव्य इमारत रही होगी। कुमार साहब के बताए अनुसार मैं उस कमरे का निरीक्षण करता हूँ जहाँ रमोला बुआ और कुमार साहब रहा करते थे। कुमार साहब बताते हैं कि रमोला बुआ लोकगीतों की आचार्य थीं। दुनियाभर के गीत उन्हें याद थे और वे उन्हें गुनगुनाती रहती थीं। कुछ गीत शायद उन्होंने खुद भी बनाए थे। मैंने देखा है उन्हें। उन्हें देखकर मैं बेहिचक कह सकता हूँ कि फातिमा उर्फ रमोला में नैसर्गिक काव्य प्रतिभा थी। स्त्री के कसकते दुख और पीड़ा उनके गीतों में विद्यमान है।

हवेली के इस उजाड़ में खड़ा मैं उन गीतों को सुनने का प्रयास करता हूँ लेकिन झरती हुई दीवारों से बस एक हाहाकार उठ रहा है। बीस-पच्चीस साल का कुँवारा मन कराह उठता है।

'कंकड़ मय एक कुइया, सुंदर रानी जल भरे रे।

जैसे हथिनी चढ़ो एक राजा लहर-लहर करे रे।

पानी के पियासे राजा जल पियो, नाही तो राह चलो रे।

मेरे नयन मत मोहो, हमरे राजा जालिम रे।'

रमोला उर्फ फातिमा की दुखभरी आवाज टकराकर मेरे पास आ रही है। मैं घबरा जाता हूँ और भागकर आँगन में आ जाता हूँ। यहाँ विशाल आँगन है। कुमार साहब के बताए अनुसार यहाँ कभी एक तुलसी का पौधा हुआ करता था। रमोला बुआ रोज उस पर जल चढ़ाया करती थीं। (यह हवेली की परंपरा थी) अब वहाँ कुछ नहीं है। यकीनन इस हवेली को रमोला बुआ की हाय लग गई। कुमार साहब रमोला बुआ के बारे में और कुछ नहीं बताते। पूछने पर बस शून्य में निहारने लगते हैं। वैसे भी उनका कहना है कि वे सच नहीं बताएँगे। इसलिए मैंने गाँव के बुजुर्गों से इस मामले की चर्चा की। अधिकांश लोग रमोला का नाम तक नहीं जानते। वैसे भी इस बीच गंगा में बहुत पानी बहा है।

हाँ, विश्वेश्वर दयाल और उनके परिवार के बारे में जरूर गाँववालों ने काफी कुछ बताया लेकिन वह उसके ठीक उलट था जो कुमार साहब ने बताया था। विश्वेश्वर दयाल की जवानी के पहलवानी के किस्सों को अगर छोड़ दिया जाए (क्योंकि अब वे मिथकीय रूप ग्रहण कर चुके हैं) तो गाँववालों की नजर में उनकी छवि अब एक बीमार, पस्त और अपाहिज बूढ़े की ही बची है। हवेली में भी अब शैतान बच्चों और अवैध प्रेमियों के अलावा कोई नहीं जाता। इसलिए कि माना जाता है हवेली अब भूतों का बसेरा बन चुकी है। हाँ, कुमार साहब के बचपन के मित्र नारायण जी जरूर एकाध चक्कर उधर लगा लेते हैं और हवेली के पुराने दिनों को याद कर लेते हैं। चलते-चलते मैंने सोचा क्यों न नारायण जी से भी मिल लिया जाए? वैसे भी कुमार साहब और हवेली का इतिहास वे अच्छी तरह जानते हैं।

अस्सी-पचासी साल के बुजुर्ग नारायण जी पुराने जनसंघी हैं। लंबी-चौड़ी कद काठी। आँखों पर चश्मा भी कहते हैं अभी हाल-फिलहाल में ही लगा है। स्मृति जरूर कुछ क्षीण हुई है लेकिन पुराने दिन अब भी उन्हें हू-ब-हू याद हैं। मैं जब उनके पास पहुँचा तो आँगन में खाट पर बैठे वे अपने पोते को खिला रहे थे। मैंने उनके पाँव छुए। उन्होंने आशीर्वाद दिया और बड़े स्नेह के साथ बैठाया। परिचय वगैरह के बाद इधर-उधर की बातें हुईं। मैंने जब उन्हें कुमार साहब की जीवनी लिखने की योजना बताई तो वे चौंके। थोड़ी देर तक तो वे मुझे विचित्र ढंग से देखते रहे, फिर ठठाकर हँसे।

- 'क्या कुमार अब इतना बड़ा आदमी हो गया कि उसकी जीवनियाँ लिखी जा रही हैं?' उन्होंने शायद व्यंग्य में कहा था। मैंने उन्हें समझाया कि क्या कुमार साहब की जीवनी इसलिए नहीं लिखी जानी चाहिए कि वे कोई बहुत बड़े आदमी नहीं हो पाए? नारायण जी इस पर और जोर से हँसे और मेरी तरफ इशारा करते हुए अपने बेटे से बोले, 'जे छोरा तौ सिर्री हो गौ!' खिसियाहट में मैं भी हँस पड़ा। इस बीच मैं उन सूत्रों को पकड़ने की कोशिश कर रहा था जिनके सहारे नारायण जी को घेरा जा सके। और वह सूत्र नारायण जी ने खुद ही उपलब्ध करा दिया। आज के राजनीतिक हालात पर चर्चा करते करते वे अचानक जनसंघ के पुराने दिनों को याद करने लगे थे। अक्सर वे श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जिक्र करते और आज के भाजपाइयों को गरियाते। इस बीच हवेली का जिक्र आया तो चिहुँकते हुए नारायण जी ने कहा, 'हाँ, उस हवेली में एक बार खुद श्यामा बाबू भी आए थे। प्रचारक थे। गाँव-गाँव भटकते हुए एक रात इसी हवेली में गुजारी थी। तब बड़ी शान थी इसकी। श्यामा बाबू के साथ बीस-पच्चीस लोगों की एक पूरी मंडली थी। बाबू विश्वेश्वर दयाल ने भी उनके आतिथ्य में कोई कसर बाकी नहीं रखी। अब वैसे बड़े दिल के लोग कहाँ होते हैं?' उन्होंने गहरी साँस लेते हुए कहा।

मेरे लिए यह एक नई सूचना थी क्योंकि कुमार साहब ने जो बताया था उसके अनुसार विश्वेश्वर दयाल एक अय्याश और क्रूर जमींदार ही थे। लेकिन नारायण जी ने बताया कि चौधरी जी अपने पिता अक्षेश्वरनाथ की तरह ही भगत आदमी थे। तबीयत थोड़ी रंगीन जरूर थी लेकिन कोई बड़ा ऐब नहीं था। अगर वे मुकदमेबाजी में न फँसे होते तो आज भी हवेली की वही शान होती। नारायण जी फिर हवेली की पुरानी शान में कसीदे काढ़ने लगे। उन्होंने बताया कि विश्वेश्वर दयाल हर सुबह नियम से दो घंटे पूजा करते थे। साधु संतों को भोजन कराते और हाँ, हिंदुओं का विशेष ख्याल रखते। जब नारायण जी यह सब कह रहे थे तो मेरा मन हुआ कि पूछ लूँ कि क्या जिन हिंदुओं का वे विशेष ख्याल रखते थे उसमें हरिजन और अन्य दूसरी दलित जातियाँ भी शामिल थीं, लेकिन कुछ सोचकर मैं चुप हो गया। बातचीत के इस महत्वपूर्ण मोड़ पर उन्हें नाराज करने का जोखिम मैं नहीं ले सकता था।

नारायण जी बहकते जा रहे थे और मैं जल्द से जल्द अपने मुद्दे पर आ जाना चाहता था। मैंने जानबूझकर कुमार साहब और रमोला बुआ का जिक्र छेड़ दिया जिसे सुनते ही नारायण जी का चेहरा लाल हो गया। मूँछें फड़कने लगीं। हकलाते हुए बोले, 'मत लो उसका नाम... हवेली का कलंक हैं दोनों।' मैं नारायण जी का चेहरा देख रहा था और वे बड़बड़ा रहे थे। पास रखे लोटे से दो घूँट पानी पीने के बाद वे थोड़ा संयत हुए और बोले, 'जब से वह मुसलमानी इस हवेली में आई, हवेली के बुरे दिन शुरू हो गए। उस समय हम लोग छोटे थे। हम माने मैं, राम और कुमार। राम बहुत तेज तर्रार और हँसमुख लड़का था। पढ़ाई लिखाई में भी अव्वल। चौधरियों का खून था आखिर। अव्वल तो होता ही। कुमार चुप्पा और घुन्ना था। हवेली से मेरा रिश्ता इन्हीं दोनों के कारण बना। हम लोग आर्यसमाजी थे। बाद में मैं शाखा में जाने लगा। कुमार और राम भी वहाँ आया करते थे। यहीं सड़क उस पार बगीचे में तब शाखा लगती थी। पं रामाधार शास्त्री जी क्षेत्रीय प्रचारक थे। बगीचे में ही कुटिया बनाकर रहते। श्रद्धेय थे हम लोगों के। यह सन 40-45 के आस पास की बात है। अलीगढ़ में तब भीषण दंगा हुआ था। उसकी खबरें शास्त्री जी के माध्यम से ही हम लोगों तक पहुँचतीं। वे काफी पीड़ा से मुस्लिम अत्याचारों की कहानी हम लोगों को सुनाते। शास्त्री जी ने ही इतिहास का भूला हुआ गौरव हमें वापस लौटाया। राणा प्रताप, शिवाजी, लक्ष्मी बाई, तात्यां टोपे, तिलक, सावरकर जी जैसी विभूतियों से हमारा परिचय हुआ। हमारी लड़कपन की उम्र थी वह। कुमार भी बारह-तेरह का रहा होगा। शास्त्री जी उसे बहुत चाहते थे। राम जरूर थोड़ा शैतान था और अक्सर शाखा से गोल हो जाता लेकिन कुमार नियमित आता था। शास्त्री जी हमें बताते कि यह देश कभी सोने की चिड़िया था। ज्ञान विज्ञान में अव्वल। बाद में विदेशी आक्रांताओं ने सब खत्म कर दिया। अट्ठारह बार लूटा गया सोमनाथ। भव्य कन्नौज दस दिन में खंडहर हो गया। यह सब बताते हुए उनका चेहरा लाल हो जाता और मूछें फड़कने लगतीं। हमें भी ताव आ जाता। अंग्रेजी शासन में कसमसाते रहते थे हम। गांधी जी की नीतियाँ भी हमारे स्वर्णिम अतीत का स्मरण नहीं करती थीं। उन्हें मुसलमानों से प्यार था सो हम उनसे घृणा करते थे। शास्त्री जी कहते कि गांधी ने हिंदुओं के साथ गद्दारी की है। उन्हीं दिनों शास्त्री जी ने पढ़ने के लिए हमें कुछ किताबें भी दीं थीं जिसमें वीर सावरकर और हेडगेवार जी के विचार और शौर्यगाथाएँ थीं। शास्त्री जी ने हिटलर की एक तस्वीर भी हम लोगों को दी थी और कहा था - 'वीर भोग्या वसुंधरा।' कुमार तो बाकायदा हिटलर की पूजा ही करता था। उसकी चाल भी हिटलर की तरह चुस्त और आक्रामक हो गई थी। यह द्वितीय विश्वयुद्ध का समय था और ऐसे ही समय में अलीगढ़ में भीषण दंगा हुआ था। म्लेच्छों ने सरेबाजार गोमाता का वध किया जिससे हिंदू समाज बौखला उठा था। गांधीवादियों ने उसके खिलाफ प्रभातफेरियाँ निकालीं, मौनव्रत रखा। शास्त्री जी पीड़ा से कहते भी कि इस सबसे कुछ नहीं होगा। आतताइयों को दंड देना जरूरी है लेकिन तब शास्त्री जी की इन बातों को कोई सुनने को भी तैयार नहीं था। शाखा में भी लगातार लड़कों की भीड़ कम होती जा रही थी। हाँ, कभी कथा हवन वगैरह होता तो जरूर कुछ भीड़ जुटती। शास्त्री जी बार बार कहते - 'अपने ही देश में हमें क्या-क्या नहीं झेलना पड़ रहा है। हमें अपने धर्म से विरत किया जा रहा है। कुछ नहीं... सब हमारी उदारता का फल है।'

नारायण जी बार बार बहक जाते। मैं चाहता था कि वे रमोला बुआ के बारे में कुछ बताएँ। उनके उस रहस्य के बारे में जो उस हवेली में दफन था। मैंने उन्हें छेड़ा तो कहने लगे - 'हाँ, वो मुसलमानी... क्या कहें उसके बारे में... कुल्टा थी कुल्टा... बीस पचीस की उमर रही होगी। माँ बाप मर गए थे। पड़ गई कुसंगति में...चौधरी साहब दयालु आदमी थे। समाज का विरोध सहकर भी उसे शरण दी मगर...।' नारायण जी ने एक गहरी साँस ली। मैं स्तब्ध। आखिर असली किस्सा था क्या? नारायण जी अपनी रौ में थे। कहने लगे - 'और कुमार की तो पूछो मत। चौधरी साहब को नहीं पता था कि कुमार के रूप में उन्होंने सँपोला पाल लिया है। जरा सा कभी डाँट डपट देते तो जाकर उसी मुसलमानी की गोद में छुप जाता। शास्त्री जी लाख समझाते लेकिन उसने उस चुड़ैल का साथ नहीं छोड़ा...।'

मेरे लाख घेरने के बावजूद नारायण जी ने पूरा किस्सा खुलकर नहीं बताया लेकिन जो बताया उसका कुल निष्कर्ष यही था कि एक बार चौधरी साहब ने कुमार को रमोला के यौनांगों से खेलते हुए पकड़ लिया। अब क्या उम्र रही होगी उस समय कुमार साहब की... तेरह या चौदह साल। इस कच्ची उम्र में ऐसे पक्के खेल। चौधरी साहब खौल उठे थे। कुमार की उन्होंने जमकर ठुकाई लगाई और रमोला को मारपीट कर कमरे में बंद कर दिया। शर्म से बेहाल रमोला ने उसी रात आत्महत्या कर ली थी। यह पचास-साठ साल पहले का किस्सा था जिसमें कुमार साहब खलनायक बनकर उभरे थे।

हवेली की जर्जर दीवारें इसकी गवाह थीं लेकिन इस बारे में वे कुछ भी नहीं कहतीं। उनकी खामोशी दूर तक साथ जाने के बाद फिर वापस आ जाती है वहीं... तार-तार होते अपने स्मृति लोक में।

अब मेरे पास कुमार साहब से इस बारे में जानने के सिवाय और कोई चारा नहीं बचा। मैं फिर उनके पास वापस आता हूँ। हवेली का स्मृतिलोक उनकी आवाज में गूँज रहा है...।

चार

इसी बीच गुजरात की वह भयानक त्रासदी हुई जिससे हम अभी तक नहीं उबरे। सत्ताईस फरवरी की शाम को जब सूरज ढल चुका था, खबर मिली कि गुजरात के धुर पूर्वोत्तर में गोधरा नामक स्थान पर कुछ उत्पाती लोगों ने ट्रेन की एक बोगी फूँक दी। विस्फोटक सूचना यह थी कि जिस बोगी को फूँका गया, उसमें सब हिंदू थे। संघ ब्रांड हिंदू। वे सब अयोध्या से आ रहे थे। सन 1992 या उससे पहले ही अयोध्या एक नए हिंदुत्व का प्रतीक बन गया था। एक पूरी धारा थी जो सिर्फ चीखना जानती थी। उस चीख में बहुत सी असहमत आवाजें गुम हो जातीं। शोर और हाहाकार...। अजीब यह था कि जब अमेरिका से सारी दुनिया को एक वैश्विक गाँव बनाने का नारा उठा था, सूचना प्रौद्योगिकी अपने चरम पर थी, उसी समय मध्ययुगीन शक्तियाँ एकाएक जाग उठी थीं। लेकिन नहीं, ये ठीक मध्ययुगीन शक्तियाँ नहीं थीं। यह शायद मध्ययुग का कोई बर्बर प्रेत था जो अमेरिका के वैश्विक दुनिया के नारे के साथ आया था। संचार तकनीक के अमूर्तन में इसने मिथकीय शक्ति प्राप्त की थी। सचमुच अजीब समय था जब एक तरफ मानवीय स्वतंत्रता और अधिकारों की घोषणाएँ हो रही थीं तो दूसरी तरफ स्त्री के पैर के नाखून दिख जाने भर से मौत का फतवा जारी हो जाता था। स्टार वार के उस दौर में पत्थर मार मार कर कत्ल करने का तरीका अब भी सबसे कारगर माना जाता था। जो जितना मूर्ख और तोतारटंत था वह उतना ही सम्मानित था। और इतिहास में भी यह शायद पहली बार था जब लोकतंत्र और मानवाधिकारों के नाम पर निर्दोषों की हत्याएँ हो रही थीं। बर्बरता को धर्म और सत्ता का आश्रय मिला हुआ था। हाँ, अमेरिका के वैश्विक दुनिया के नारे को इस सबसे कोई दिक्कत नहीं थी, सिवाय एक दो दुघर्टनाओं के जिनमें वर्ल्ड ट्रेड टावर पर हमला भी शामिल था। लेकिन यह खेल का हिस्सा था और खेल में कभी कभी बाजी पलट भी जाती थी।

तो, जिस समय टीवी पर गोधरा में ट्रेन की बोगी फूँकने की घटना दिखाई जा रही थी, मैं अपने कमरे में बैठा काँप रहा था। कुमार साहब की जीवनी के रफ ड्राफ्ट और नारायण जी द्वारा बताई गई बातों के फुटकर नोट्स मेरे हाथ में थे। मैं टीवी पर कभी फुँकी हुई बोगी को देखता, कभी उन फुटकर नोट्स को। कहीं कोई सूत्र हाथ नहीं आ रहा था। वर्तमान इतना भयावह था कि अतीत बेमानी लगने लगा था। उसे लेकर संशय इतने थे कि...।

मैंने झट से उठकर टीवी का स्विच ऑफ कर दिया। फिर खिड़की पर आया और बाहर देखने लगा। कब एक सिगरेट जलकर मेरी उँगलियों में आ गई, पता ही नहीं चला। अचानक मुझे लगा कि मेरा गला सूख रहा है और शराब की इस समय मुझे सख्त जरूरत है। मैंने झट वार्डरोब से एक बोतल निकाली। उसमें अब भी काफी शराब बाकी थी। मैंने पूरा का पूरा उसे अपने हलक में उतार लिया। एक आग मेरे गले को चीरती हुई अँतड़ियों तक उतरी। मुझे थोड़ी राहत मिली। मैंने फिर टीवी खोला। प्रधानमंत्री घटना की भर्त्सना कर रहे हैं। लगता है जैसे वे भाँग के नशे में हैं। उधर त्रिशूलधारी नेताओं के चेहरों से घृणा टपक रही है। एक कहता है - 'इस्लाम का हमला है यह।' दूसरा बोला -'हिंदुत्व खतरे में है। रामभक्त मारे गए हैं। प्रतिक्रिया भयानक होगी।' इन सबके बीच उपप्रधानमंत्री पड़ोसियों को कोसने लगते हैं। फिर जैसे एक सामूहिक अट्टहास होता है। स्वाँग का पटाक्षेप।

मेरा दिमाग भन्ना गया। आग जो एक गाँव से उठी थी, सारे देश को जलाती हुई मेरे भीतर उतर आई। मैंने देखा-भस्म हो रहा हूँ मैं उसमें। सिर्फ मैं ही नहीं, एक पूरी दुनिया है उसमें... चीखती... चिल्लाती... बदहवास। आग की लपटें आसमान तक उठ रही हैं। धुआँ धुआँ सा है सब कुछ। अपनी जली हुई लाठी और स्याह चमड़ी के साथ गांधी आग के बीच भटक रहे हैं। मैंने देखा कंकाल रह गए हैं वे। गालिब अपनी चटकी हुई बोतल के साथ मूर्छित पड़े हैं। अमीर खुसरो हैं, फिराक, वली दकनी, नजीर और हाँ, ग्राहम स्टेंस भी। मदर टेरेसा भी हैं और तमाम सारे लोग। मैं सबको भौंचक देखता हूँ और जलते चमड़े की गंध मेरी नाक में भर जाती है। आग के बीच ही मैं ढूँढ़ रहा हूँ कुमार साहब को लेकिन मेरी चीख धुएँ में कहीं गुम हो जाती है। फिर मैं बदहवास भागने लगता हूँ कि अचानक ठोकर खाकर गिर पड़ता हूँ। जहाँ गिरता हूँ वहाँ हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह है। आँखों में आँसू लिए अमीर खुसरो यहाँ खड़े हैं। एक कराह उठती है...

गोरी सोई सेज पर, मुख पर डारे केश।

चल खुसरो घर आपने, रैन हुई चहुँ देश।...

अचानक मेरी तंद्रा टूटी। मैंने देखा कि टीवी चल रहा था और मेरे हाथ में अब भी कुमार साहब की जीवनी के रफ ड्राफ्ट और नारायण जी की बातों के फुटकर नोट्स फड़फड़ा रहे थे।

पाँच

अगले दिन सुबह जब मैं कुमार साहब के घर गया तो दरवाजे पर सबसे पहले उनके काले बिल्ले ने स्वागत किया। इसकी आँखें इतनी तेज और खूँखार हैं कि रात के अँधेरे में कोई देखे तो सचमुच डर जाए। मैं दिन में ही डर गया। कुमार साहब तब शायद बाथरूम में थे क्योंकि मेरे बार बार खटखटाने के बावजूद भीतर से कोई आवाज नहीं आई। मैं काफी देर यूँ ही खड़ा रहा। काला बिल्ला मुझे घूरता रहा। थोड़ी देर बाद कुमार साहब खुद बाहर निकल कर आए। मैंने नमस्कार किया तो बोले, 'अरे... आओ... आओ, तुम कब आए?'

- 'बस, अभी' मैंने कहा।

तभी उनकी नजर काले बिल्ले पर पड़ी। उन्होंने छड़ी से फटकार कर उसे भगाना चाहा और बड़बड़ाने लगे, 'पता है आज क्या किया तूने... भाग जा... चल भाग यहाँ से...'

- 'क्या किया इसने?' अचानक मेरे मुँह से निकला।

उन्होंने एक स्थिर दृष्टि मुझ पर डाली, फिर बोले, 'अपने से कमजोर बिल्ले को मार डाला। बिल्ला ही बिल्ले का दुश्मन हो गया।'

- 'हाँ, जैसे आदमी आदमी का दुश्मन हो गया है।' जैसे मैं एक बेहोशी में बोल रहा था। कुमार साहब भी उसी बेहोशी में जवाब दे रहे थे। लेकिन इस बार कुमार साहब चुप रहे। मैं उनके जवाब की प्रतीक्षा करता रहा। थोड़ी देर बाद कुमार साहब खुद ही बोले।

- 'अच्छा किया जो आज तुम आ गए। दरअसल आज रात मैंने एक बड़ा भयानक सपना देखा।'

- 'क्या?'

- 'यही कि मैं आज से हजार साल बाद की दुनिया में चला गया हूँ। वहाँ सब कुछ तकनीक केंद्रित है। वहाँ अब मनुष्य नहीं रहते... मुर्दे रहते हैं। छह हजार साल पुराना कौन सा मुर्दा कब उठ खड़ा होगा - कोई नहीं जानता। अधिकांश मनुष्यों ने बस्ती के बाहर के भुतहा कुएँ की तरह अपनी एक अलग दुनिया बसा ली है। जो बचे हैं वे अपनी मानवीय पहचान को छुपाकर जी रहे हैं। उनके भी सब तौर तरीके मुर्दों जैसे हैं। मुर्दों की शक्ति अपरंपार है। उन्हें हर सुंदर चीज से घृणा है। कई सदियाँ बीत गईं, उस बस्ती में कोई नया फूल तक नहीं खिला। हर तरफ झाड़ झंखाड़ और दूर तक गर्द नजर आती है। तुम्हें आश्चर्य होगा लेकिन मुझे बखूबी याद है और सपने में मैंने सचमुच देखा था कि मुर्दे अलग अलग जाति, अलग अलग धर्म और अलग अलग रंगों के हैं। सबमें गजब की एका है। लेकिन बस्ती के बाहर भुतहा कुएँ की तरह जो मनुष्य बचे थे, उनका न कोई रंग था, न धर्म, न जाति... मुर्दों के चेहरे एक जैसे सर्द और कठोर थे। सिवाय रमोला बुआ के। हाँ, वे भी वहाँ थीं। कई बरस बाद उनका मेरे सपनों में आना हुआ...।'

कुमार साहब ने आँखें बंद कर लीं और सपनों की दुनिया में खो गए। मैंने ध्यान दिया उनकी मूँछों के कुछ बाल हिल रहे हैं, दाढ़ी भी उन्होंने इधर काफी बढ़ा ली है। पहले मैं सोचता था कि कुमार साहब दाढ़ी बढ़ायेंगे तो वह झक सफेद होगी और उनके चेहरे पर सेंटा क्लाज की तरह शोभा देगी। लेकिन नहीं, पचहत्तर की उम्र में भी उनकी दाढ़ी झक सफेद नहीं हो सकी। उसमें कई रंग थे... उन्हीं की तरह...।

अचानक मेरे मुँह से निकला, 'कुमार साहब, यह आज से हजार साल बाद का दुःस्वप्न नहीं, बल्कि आज का यथार्थ है।' कुमार साहब ने कोई जवाब नहीं दिया। वे वैसे ही आँखें मूँदे बैठे रहे। शायद उन्होंने मेरी बात सुनी ही नहीं। मूछों के बालों के साथ-साथ अब उनकी दाढ़ी भी हिलने लगी थी। मैंने देखा कि उनके झुर्रीदार चेहरे की त्वचा कुछ सिकुड़ी। माथे की शिकन कुछ और गहरी हुई और वे बड़बड़ाने लगे - '...वह पूरी तरह आवरणहीन थी। मुर्दों ने उसके शरीर को जगह-जगह से नोंच रखा था लेकिन अब भी वह उतनी ही बेचैन और अतृप्त थी जितना कि मरने से पहले। लोकगीतों की मल्लिका तो वह पहले से ही थी लेकिन इधर उसकी आवाज में दर्द कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था। हजार साल बाद के बाद उस शहर में जहाँ कभी कोई फूल नहीं खिला, वह उनके स्वागत में गीत गाती। ...उस वीरान खंडहर में जो निश्चित रूप से कभी भव्य मंदिर रहा होगा, वह चुपचाप बैठी अपने आँसू सुखा रही थी। उसकी खनकती आवाज पूरे खंडहर में गूँजती। शायद वह एक टूटा हुआ शीशा था जिसमें वह खुद को काफी देर तक देखती रही। फिर कुछ बुदबुदाई। मैं पत्थरों की ओट में था। उसकी स्वरलहरियाँ बहुत धीमे-धीमे मुझ तक आ रही थीं। मैंने सुना -

नजर भर हेरत काये नइयाँ?

हम तौ राजा पिया बन की हिरनियाँ

तुम ठाकुर के लरिका

तमक तीर मारत काये नइयाँ?

नजर भर हेरत काये नइयाँ?

हम तौ राजा पिया जल की मछरिया

तुम ठीमर के लरिका

झमक जाल डारत काये नइयाँ?

नजर भर हेरत काये नइयाँ?'

मैं उन स्वर लहरियों में खो गया। लेकिन तभी उसने मुझे पत्थरों की ओट में छिपा हुआ देख लिया। गुस्से में वह एक बार थरथराई, फिर मुझ पर झपटी। मेरी गर्दन अब उसके हाथ में थी। मैं गों-गों करने लगा। उसकी जलती हुई आँखें मेरे रोम रोम को छेद रही थीं। उसने एक पत्थर तेजी से उठाकर मेरे सिर पर मारना चाहा। मैं अपनी चेतना खोने लगा। तभी चालीस पचास त्रिशूलधारी आए और उसे अपने त्रिशूल पर उठाकर चल दिए। एक ने उसके नितंब को छेदा। दूसरा उसके स्तनों को काटकर हवा में उछाल आया था। मैं अपने हाथ देखने लगा... वे खून से सने हुए थे। यह सुबह का सपना था... भयानक।'

कुमार साहब खामोश हो गए। उनकी आँखें वैसे ही मुँदी हुई थीं। हाँ, चेहरे की त्वचा जरूर बार बार ऊपर नीचे हो रही थी। कुर्सी के हत्थे पर पड़े उनके हाथ हल्के हल्के काँप रहे थे। मैं समझ गया कि एक बार फिर कुमार साहब स्मृतियों के ट्रैफिक जाम में फँस गए हैं। बाहर आने में अभी उन्हें वक्त लगेगा।

मैं धीरे से उठा और खामोश कदमों के साथ उनकी मेज तक आया। मेज पर कई किताबें और कागज पत्र बिखरे हुए थे। मैंने एक नजर उन सब पर डाली। किसी पर गुजरात की कोई छाया तक नहीं थी, सिवाय अखबार के पहले पन्ने के जिस पर दो बड़े बड़े फोटो छपे थे। एक में अमेरिकी जींस-टीशर्ट पहने एक युवक हाथ में तलवार लिए विजयी मुद्रा में खड़ा था। उसके हाथ में तलवार, सिर पर रामनामी दुपट्टा था और चेहरे से हैवानियत टपक रही थी। पृष्ठभूमि में जलते हुए घर, दुकान, मकान, गाड़ियाँ और टायर थे। उसके ठीक बगल में एक दूसरा चित्र था। इसमें अपना सब कुछ खो चुके आदमी की हताशा थी। वह बदहवास हाथ जोड़े हुए रो रहा था। अचानक मेरे मन में इस आदमी के धर्म को लेकर जिज्ञासा उठी और मैं घबरा गया। अखबार मैंने वहीं छोड़ दिया था। कुमार साहब भी अब तक ट्रैफिक जाम से बाहर आ गए थे।

- 'सुना, तुम मैनपुरी गए थे?'

- 'हाँ, आपकी हवेली देखी... खंडहर हो चुकी है। नारायण जी भी मिले थे।'

- 'नारायण! ...जिंदा है अभी...?'

- 'हाँ...'

- 'कभी बहुत अच्छी दोस्ती थी हमारी। मैं, नारायण और राम... राम ज्यादा निकट था हालाँकि स्वभाव में बिल्कुल उलट। नारायण हम सबमें बड़ा और ताकतवर था। रमोला बुआ के मरने के बाद जब मैंने हवेली छोड़ दी और बनारस आ गया तब राम भी पीछे पीछे बनारस आ गया था। यह अलग बात है कि मैं खाली हाथ आया था और जिंदा रहने के लिए मुझे होटलों में बर्तन तक धोने पड़े थे, मगर राम मय नौकर चाकरों के आया था। उसके पास एक सामाजिक हैसियत थी, बाप का पैसा था। उसने उन सबका उपयोग भी किया। कई बार राम ने मुझे अपने साथ आने के लिए कहा, लेकिन मैं गया नहीं। नारायण जरूर उसके यहाँ कभी कभार आता था और शास्त्री जी भी। राम की हमेशा मुझसे एक होड़ सी रहती थी। मैंने जब एमए दर्शनशास्त्र में प्रवेश लेने का फैसला लिया तो वह भी अंग्रेजी छोड़कर दार्शनिक बनने को उतावला हो गया था। लेकिन उसी के चलते मुझे किताबों और नोट्स का बड़ा सहारा रहा। बाद में उसने एलएलबी कर बनारस में ही वकालत शुरू कर दी।'

- 'लेकिन कुमार साहब, वह तो स्वतंत्रता आंदोलन को दौर रहा होगा। क्या आप लोग उससे बिल्कुल प्रभावित नहीं हुए?'

- 'नहीं, मेरे बनारस प्रवास के समय तक तो देश स्वतंत्र हो गया था या शायद दो-चार साल बाद हुआ हो। मुझे ठीक से याद नहीं। हाँ, जाड़े की उन कड़कड़ाती सुबहों में जब मैं होटल के बाहर बर्तन धो रहा होता, प्रभात फेरियाँ निकलती देखता था। उनमें ज्यादातर गांधीवादी और कांग्रेसी होते थे। उस समय मेरी स्थिति यह थी कि अपनी उस हालत के लिए मैं उन्हीं को दोषी पाता। उनमें बहुत से लोग बहुत दंभी होते थे और मुझे हिकारत से धकियाकर एक तरफ कर देते थे। गुस्सा भी आता था उन पर...'

- 'और क्रांतिकारी?'

- 'क्रांतिकारियों से कोई संपर्क नहीं था। उनकी खबरें सिर्फ अखबारों में मिलती थीं। वीर सावरकर की किताब और जीवनी पढ़ी थी। बड़ा प्रभावित हुआ था। भगत सिंह को फाँसी तो बहुत पहले ही दे दी गई थी। तब मैं मैनपुरी में ही था। शास्त्री जी ने बताया था कि राष्ट्र के लिए उस वीर सपूत ने अपनी जान दी। दिल में इन लोगों के प्रति बड़ा आदर था लेकिन तब हिम्मत नहीं होती थी...'

कुमार साहब चुप हो गए। मैंने एक एक कर उस दौर की तमाम घटनाओं का जिक्र किया जिन्हें हम अक्सर इतिहास की किताबों में पढ़ते हैं या सुनते रहे हैं। कुमार साहब ने उन सब पर बहुत फौरी टिप्पणी की थी। कहने लगे, 'देखो, इतिहास सिर्फ वही नहीं होता जो हम पढ़ते या सुनते हैं। हर आदमी के लिए उसका एक अलग मतलब होता है। या कहो कि जो हम भोगते हैं या भुगतने की जो हमारी स्मृति है, वही हमारा इतिहास है। मैंने या मेरे पुरखों ने जो भोगा, वह मेरा इतिहास है। ...हो सकता है कि उसी समय में किसी दूसरे का इतिहास मुझसे बिल्कुल उलट हो। जैसे राम या नारायण का था...'

- 'हाँ, जैसे रमोला बुआ का...'

कुमार साहब एकदम से चौंके। उन्हें यह उम्मीद बिल्कुल नहीं थी। थोड़ी देर बाद बोले, 'हाँ, ठीक कह रहे हो। उस वक्त तक न बादशाहों की बादशाहत बची थी, न नवाबों की मक्कारी। दुनिया बदल रही थी। घर घर में विद्रोह के बीज थे। हिंदुस्तान बारूद के ढेर पर बैठा था। कभी कुछ भी हो सकता था। लेकिन तब भी रमोला बुआ की साँसें हवेली से बाहर नहीं जा पाती थीं। विद्रोह तो उसने भी किया था, यह अलग बात है कि कोई जान नहीं पाया। मैं बारह तेरह साल का था। चौधरी साहब का जरखरीद गुलाम। जब मन होता, मुझे अपनी गोद में बिठा लेते। पूरा शरीर चिपचिपाहट और गंदगी से भर जाता। अपनी बालसुलभ कोमलता और सौंदर्य से घृणा हो गई थी। क्यों बनाया था ईश्वर ने मुझे ऐसा? तनाव खत्म होने के बाद सब कुछ खत्म। जरा जरा सी बात पर इतनी मार पड़ती कि पूछो मत। स्वभाव की कमजोरी थी कि कभी किसी चीज का विरोध नहीं कर पाया। ऐसे में रमोला बुआ ने ही सहारा दिया था। वह सब जानती थीं। खुद भी वही पीड़ा भोग रहीं थीं। एक बचपना था उनके अंदर जो आकर्षित करता था। कितनी चंचल, कितनी मोहक हँसी थी उनकी लेकिन उसके पीछे अपने कितने दुख और उदासी उन्होंने छुपा रखी थी। लक्ष्मी मौसी के हाथ में जो आ जाता... जूता, चप्पल, डंडा... बस उसी से पीटने लगतीं। कभी उफ तक नहीं की उन्होंने। हाँ, बाहरवाली कोठरी से अक्सर उनकी सिसकियों का स्वर सुनाई पड़ता था। मैं बहुत डरते डरते जाता वहाँ और चुपचाप उनके बगल में बैठ जाता। वो औंधे मुँह लेटी होतीं। मुझे देखतीं तो उनकी सिसकियाँ और भी तेजी से फूट पड़तीं। मैं उनके माथे पर अपना हाथ रख देता, वह उसे चूम लेतीं। मैं देखता कि उनका चेहरा सूज आया है और उनके पेट, पीठ और कमर पर जूते, चप्पल या डंडे के काले काले निशान हैं। वे उन्हें छुपाना चाहती थीं लेकिन मैं देख ही लेता। जब मैं उन्हें देख लेता तो सचमुच उनका चेहरा लाल हो जाता और वे हिरनी सी आँखें बंद कर लेतीं। पता नहीं, यह शर्म से होता था या पीड़ा से। जब मैं उनके घावों को अपनी नन्हीं नन्हीं उँगलियों से सहलाता तो वे हल्के से कराह उठतीं। फिर झटके से मुझे अपनी बाँहों में भर लेतीं और फिर फफक फफक कर रो पड़तीं। हाँ, उनके साथ मैं भी रो रहा होता था तब... जैसे दुनिया की किसी चीज में कोई रस नहीं रह गया था उसके लिए। हालाँकि हँसती तो तब भी थी लेकिन अक्सर वह खोखली हँसी होती। बीस-बाइस की उम्र में ही जैसे वैराग्य ले लिया था लेकिन उसे स्वीकार भी कहाँ किया उसने। कहती - प्यार एक खेल है... आओ खेलें।'

और सचमुच वह एक खेल ही होता। एक आत्मघाती खेल। औरतें ऐसे ही लड़ती हैं... देह को हथियार बनाकर। उस लड़ाई में मैं कहीं नहीं था। वह चौधरी साहब और रमोला उर्फ फातिमा की लड़ाई थी। नहीं, शायद रमोला बुआ अपने पाँच हजार साल के इतिहास से लड़ रही थीं। चौधरी साहब तो दृश्य में ही नहीं थे। मैं एक मोहरा था... एक पिटा हुआ मोहरा। उस दृश्य को मैं ताउम्र नहीं भूल सकता... वह दिन के बारह एक बजे का समय था। बरसात का मौसम। हवेली शांत थी। शायद सब लोग खा-पीकर सो रहे थे। खाना खाने के बाद रमोला बुआ ने मुझे अपनी कोठरी में बुला लिया। मैं ठहरा बुआ का मुरीद। उनके इशारे पर नाचनेवाला। भागा भागा आया। बुआ बिस्तर पर करवटें ले रही थीं। मैं उनके पास जाकर खड़ा हो गया। उन्होंने मुझे देखा और कसकर अपने पास खींच लिया। वे मुझे दुलराने लगीं और गहरा चुंबन लिया। इस तरह कभी माँ दुलराती थी। मुझे लगा कि बुआ को बुखार है। उनका शरीर तप रहा था। साँसें बेतरतीब। आँखें लाल थीं जैसे कोई नशा किया हो। एक बार तो मैं डर गया। फिर खुद को उनकी बाँहों में छोड़ दिया। मेरे बालों में उँगली फेरते हुए बुआ ने पूछा, 'लाला, खेल खेलोगे?'

मैंने झट से हामी भर दी। हालाँकि पहले भी मैं एक दो बार यह खेल खेल चुका था। लेकिन तब कुछ पता नहीं था। इसमें मुझे कोई बुराई भी नजर नहीं आती थी...'

कुमार साहब एक पल को रुके, फिर खिड़की की तरफ देखते हुए बोले, 'खेल चल रहा था। बुआ अर्द्धचेतन अवस्था में थीं। कमरे में गर्म साँसों का हाहाकार था और मैं सातवें आसमान पर... नहीं, खेल शायद अभी शुरू भी नहीं हुआ था कि अचानक मेरी नजर खिड़की पर गई। खिड़की खुली थी और उसके पार... चौधरी साहब स्तब्ध हम लोगों को देख रहे थे। बुआ ने उन्हें देखते हुए भी अनदेखा कर दिया लेकिन मैं... मैं जैसे भरभराकर आसमान से गिर पड़ा था। उधर बुआ की देह मेरी देह को कुचले दे रही थी... पता नहीं यह चौधरी साहब का भय था या अपराधबोध... लेकिन मैं उस क्षण से ताउम्र नहीं उबर पाया। किसी प्रेत की तरह वह हमेशा मेरे साथ रहा। शादी के बाद भी। मैं अब हमेशा हमेशा के लिए नपुंसक हो चुका था।'

'मेरे साथ जो होना था, वह तो हुआ ही, लेकिन रमोला बुआ भी उस क्रूरता से बच नहीं सकी थीं। मैं शर्म और अपमान से आहत उसी रात हवेली छोड़कर भाग खड़ा हुआ था। बाद में पता चला कि रमोला बुआ ने भी उसी रात आत्महत्या की थी।'

कुमार साहब चुप हो गए थे। मुझे लगा कि वे रो रहे हैं। थोड़ी देर बाद वे धीरे से उठे और बाथरूम की तरफ चले गए। मैंने मेज पर पड़ी उनकी डायरी उठा ली। डायरी में पिछले कुछ दिनों का रोजनामचा था। कब सोए, कब जागे, क्या खाया, किससे मिले... आदि-आदि। कहीं कहीं उन्होंने अपने सपनों और अनुभवों का भी जिक्र किया था। डायरी पलटते हुए मैं देख रहा था कि कुछ पन्नों पर तो कुमार साहब ने सधी हुई कलम से बहुत सुंदर शब्द लिखे हैं और कहीं कहीं एकदम घसीटा मारा है। वे अपठनीय होने की हद तक बिखरे हुए शब्द थे। अंग्रेजी और संस्कृत वाक्यांशों का प्रयोग भी सबसे अलग था। कहीं भावुक टिप्पणियाँ थीं तो कहीं निर्मम राष्ट्रवादी विचार...। उन सबके बीच उनके अपने आध्यात्मिक अनुभव भी थे। लिखा था - 'आज अचानक पाँच घंटे की गहन समाधि लग गई। स्थूल से सूक्ष्म शरीर में प्रवेश कर गया। स्वर्गिक आनंद था वहाँ। अनंत अप्सराएँ रतिमग्न... आत्मा आह्लादित हुई। मगर यह क्या - उसके बाद फिर एक नर्क की यात्रा... जुगुप्सा पैदा करनेवाले हजारों दृश्य... एक विराट योनि खुली हुई थी... हजारों कुष्ठ रोगी अपने घावों पर से मक्खियाँ उड़ाते हुए उसमें गिरे जा रहे थे। यह यात्रा का दूसरा चरण था। तीसरे चरण में सिर्फ प्रकाश था। निर्मल प्रकाश। फिर धीरे धीरे प्रकाश भी खत्म। चौथे चरण में खुद अपने ही संस्कारों से मुठभेड़ थी। इस तरह अपने सच को तीसरे व्यक्ति के रूप में देखना बहुत मुश्किल होता है। ...एक अदालत थी जहाँ मेरे खिलाफ आरोप तय हो रहे थे। मैं किसी आरोप का कोई जवाब नहीं दे पाता। हकलाने लगता हूँ। अपने झूठ की तरह सच भी गढ़ना चाहता हूँ। लेकिन... हत्यारे ताकतवर हैं। मैं कुछ नहीं कर सकता। मेरी विक्षिप्तता बढ़ती जा रही है। सिर हमेशा भारी रहता है। बात-बात पर बौखला जाता हूँ। पत्नी परेशान है। नतिनी इसे मेरे बुढ़ापे का असर मानती है। लेकिन क्या सचमुच मैं बूढ़ा हो गया हूँ? स्मृति में तो अब भी बार बार बचपन है। राम, रमोला बुआ, नारायण, चौधरी साहब, शास्त्री जी, हवेली...'

अगले पन्ने पर लिखा था - 'यह एक अनंत की यात्रा है। बुद्ध के अनुसार सात चरण हैं इसके... लेकिन बहुत दारुण... खुद ही खुद का पोस्टमार्टम करना है। ...कल राम का पत्र आया। मुझे घृणा है उससे... मेरी पत्नी के साथ जो किया उसने... मैं अब तक माफ नहीं कर पाया उसे। हरामी बद्रीनाथ की यात्रा पर जा रहा है। लौटते हुए शायद आए... मैं विरोध भी नहीं कर सकता... इन दिनों शराब भी बहुत पीने लगा है। बहन रंजना एक कार दुघर्टना में चल बसी। विवाह नहीं किया उन्होंने... राम ने करने ही नहीं दिया...'

'पत्नी के साथ उसने जो किया...' अभी मैं इसी पंक्ति पर ही अटका था कि आगे की सूचना मेरे लिए और भी विस्फोटक साबित हुई जिसे कुमार साहब ने लिखकर काट दिया था। मैंने बहुत ध्यान से पढ़कर उसे समझने की कोशिश की। लिखा था - 'हमेशा राम ने उसे अपनी रखैल बनाकर रखा।' कुमार साहब द्वारा काटी गई यह पंक्ति पढ़ने के बाद मैं सचमुच बौखला गया था। दिमाग कुछ सोचता, उससे पहले ही कुमार साहब कमरे में दाखिल हुए। मैंने हड़बड़ी में डायरी बंद कर मेज पर रख दी। कुमार साहब मुस्कराए।

इस समय वे मूड में थे। कुछ भावुक भी। बताने लगे कि किस तरह बनारस के होटलों में बर्तन माँजकर उन्होंने पढ़ाई की। पढ़-लिखकर कचहरी में क्लर्क हुए, फिर स्कूल में अध्यापक। शादी ब्याह भी तब तक हो चुका था। एक दो प्रेम प्रसंग भी चले और निपट गए। कुमार साहब ने अपने उस संघर्षपूर्ण जीवन के डिटेल्स इस ढंग से बताए थे कि रेशा-रेशा उधेड़ दिया था। हालाँकि मैं जानता हूँ कि उसमें उतनी सचाई नहीं रही होगी, लेकिन उतना झूठ भी नहीं रहा होगा।

कुमार साहब अक्सर यही लड़खड़ा जाते हैं। सोचते हुए कहते हैं - 'वे बेचैन दिन थे। कुछ भी तय नहीं था। सपने थे मगर उनकी कोई जड़ नहीं थी। मैं एक छोटे से कस्बे से बनारस जैसे शहर में आया था। न रहने का कोई ठिकाना, न खाने का। बहुत सी दिक्कतें मेरे अपने धार्मिक संस्कारों के कारण भी थीं। होटलों में काम पूरा करने के बाद कुछ भी खाने को दे दिया जाता... कभी बचा हुआ कबाब... कभी बची हुई रोटी। फिर रमोला बुआवाला प्रसंग भी भूत की तरह मेरा पीछा करता। बेहद तनाव में रहता था मैं। कभी ठीक से सो नहीं पाता था। पढ़ाई-लिखाई भी चौपट हो रही थी। जब कभी किसी स्त्री को देखता, मेरे भीतर का जानवर हिंसक हो उठता। पसीने से तरबतर, कब मैं कल्पनालोक में खो जाता और हस्तमैथुन करने लगता, कुछ पता नहीं चलता था। बाद में अक्सर अपराधबोध सालता। घंटों में मंदिर में मूर्ति के सामने गिड़गिड़ाता रहता।

इसी किसी समय मेरी सोहबत कुछ समाजवादियों से हुई। वे प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के लोग थे। उनकी बैठकों में मैं जाता था। कार्यकर्ता की हैसियत से वे अक्सर मुझे पानी पिलाने और दरी बिछाने जैसे काम देते थे। उनकी बैठकें भी गोपनीय हुआ करती थीं। धारदार बहसें। मैं चुपचाप उन्हें सुनता रहता। हालाँकि कभी कभार इच्छा होती थी कि भगत सिंह की तरह असेंबली में बम फोड़कर शहीद हो जाऊँ। रमोला बुआ की आत्मा को भी इससे शांति मिलती और मैं भी दुनियावी झंझटों से मुक्ति पा जाता। ...घर पर पिता जी का काम धाम ठप्प था। भाई बहन सब पढ़ रहे थे। अकेला मैं कमानेवाला। कचहरी में भी दुनिया भर के झंझट थे। शुरू शुरू में डरता था लेकिन फिर मैंने भी औरों की तरह घूस लेना शुरू कर दिया। हालाँकि आत्मा बहुत कचोटती थी। पहली बार तो रात भर सो नहीं सका। राम ने ही उबारा मुझे उस द्वंद्व से भी। हाँ, उसने प्रसिद्ध दार्शनिक बर्टेंड रसल का उदाहरण देकर कहा था कि आखिर घूस लेना पाप क्यों है? मेरा पास आज तक इसका कोई जवाब नहीं है। बर्टेंड रसल का भी किस्सा अजीब है। तब सभी घूसखोर बुद्धिजीवी उसका उदाहरण दिया करते थे। कहते हैं कि बर्टेंड रसल ने घूस देकर मजिस्ट्रेट का पद खरीदा था। पद पाने के बाद वह खुद घूस लेने लगे। जब पकड़े गए तो एक नया सवाल उठा दिया। उन्होंने कहा था कि घूस लेने भर से कोई अपराधी कहाँ हो जाता है? अपराध तो तब होता जब घूस लेनेवाले के हित में मैं नियमों के खिलाफ जाकर कोई काम करता या गलत फैसला देता। मैंने जो किया वह नियमों के तहत ही किया...। खैर, बर्टेंड रसल बड़े दार्शनिक थे। वे कुछ भी कर सकते थे। हम क्लर्कों की उनसे क्या तुलना होती? लेकिन इसके बाद मेरा अपराधबोध खत्म हो गया और मैं बेहिचक दुनियादारी निभाने लगा।

सन 50 तक घूस लेना और देना कचहरी के कर्मचारियों में दस्तूर जैसा था। इसे दस्तूरी ही कहा जाता था। किसी को कोई दिक्कत भी नहीं थी उससे। सारे काम समय से नियमों के तहत ही होते थे। लेकिन बाद में क्लर्कों की जो नई पीढ़ी आई, उसने इस दस्तूरी को भी नापाक कर दिया। आजादी ने जैसे उनकी लालसाओं के द्वार बेधड़क खोल दिए थे। कोई शर्म लिहाज बाकी नहीं रहा। अब तो खैर...' कुमार साहब एकाएक रुक गए। लगा जैसे कोई चीज जबरदस्ती उन्हें रोक रही है। कँपकँपाते हाथों से उन्होंने चाय का गिलास उठाया। एक घूँट भरकर रख दिया। मुझे ख्याल आया कि कुछ देर पहले कुमार साहब की पत्नी चाय की ट्रे रख गईं थीं। कुमार साहब ने मुझे चाय के लिए नहीं पूछा। मैंने खुद ही बढ़कर चाय का गिलास उठा लिया।

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद वे खुद ही बोले,'गांधी जी की हत्या का दिन याद है। उस वक्त मैं बनारस में ही था। दिनभर कचहरी में क्लर्की के बाद रात में अपनी एमए की पढ़ाई करता था। गांधी जी की हत्या की खबर रात को ही मिली थी। राम आया था वह मनहूस खबर लेकर। शराब के नशे में धुत्त। क्षत-विक्षत और टूटा हुआ। आते ही रोने लगा। तब मेरी समझ में नहीं आया कि क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करूँ? लेकिन सच... दिल में कहीं खुशी भी थी कि चलो हिंदुस्तान बच गया। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की बैठकों में जाने के बावजूद संघ और आर्यसमाजियों का तब तक काफी असर था मुझ पर। सच बात यह थी कि संघवाले अपने आदमी को कभी भी अकेला नहीं छोड़ते थे।

बनारस में भी शास्त्री जी के माध्यम से संगठन से मेरा संपर्क बना हुआ था। शाखा में भी कभी कभार चला जाता था। हालाँकि प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की बैठकों में जाने के बाद से मेरा वहाँ रहना लगातार मुश्किल होता जा रहा था। बौद्धिक में भी वे बहस नहीं होने देते थे और उपदेश सुनने की स्थिति में मैं था नहीं। इसके बावजूद संघ का हिंदू राष्ट्र का विचार मुझे आकर्षित करता था। मुझे लगता था कि हिंदू राष्ट्र हो जाने के बाद कचहरी की व्यवस्था बदल जाएगी। वहाँ मुसलमानों का वर्चस्व टूटेगा। अपनी उस स्थिति के लिए मुझे मुसलमान ही सबसे ज्यादा दोषी नजर आते थे। वे आक्रांता थे। पाँच छह सौ सालों में उन्होंने पूरी व्यवस्था को ही भ्रष्ट कर दिया था। हम जो इस देश के सच्चे उत्तराधिकारी थे, दर दर के भिखारी बना दिये गए थे। शास्त्री जी ने बचपन में जो सपना दिया था, उसके अनुसार कभी सोने की चिड़िया था यह देश लेकिन... मुश्किल मेरी ही थी कि मैं कभी एक रास्ते पर चल ही नहीं पाया। एक भटकाव पूरे जीवन भर लगा रहा। अब लगता है कि यह रमोला बुआ का शाप था मेरे लिए...।' कुमार साहब रुक गए। फिर आँखें बंद करके जैसे कुछ खोजने लगे।

'...आज भी अफसोस होता है उस दिन का। गांधी जी की हत्या पर कुछ मित्रों ने मिठाई बाँटी थी और मैंने गर्व से उसे खा लिया...। बाद में जब धर पकड़ हुई तो तमाम संघी जेल भेजे गए। शास्त्री जी भी थे उसमें। हमने जुलूस निकालकर उसका विरोध किया था लेकिन गोलवलकर ने माफी माँगकर हमें लज्जित कर दिया। तभी पहली बार एक दिन के लिए जेल भी गया। अब अफसोस होता है... क्यों किया था हमने ऐसा?' मैं समझ गया कि कुमार साहब ट्रैक से भटक रहे हैं। मैंने हाथ जोड़ लिए और फौरन उठ खड़ा हुआ। वे मुझे घूरने लगे। फिर मुस्कराकर बोले, 'अच्छा ठीक है... फिर आना कभी, तब बताऊँगा।'

इस बीच चुपके से मैंने उनकी डायरी उठा ली थी और उन्हें पता भी नहीं चला था। पता तो उन्हें यकीनन बाद में भी नहीं चला होगा क्योंकि डायरी पुरानी थी और भर चुकी थी। फिर उनकी स्मृति का जो हाल है उसका खुदा ही मालिक। बहरहाल, बाद में घर आकर जब इत्मीनान से मैंने उसे पढ़ना शुरू किया तब एक रहस्य और खुला और वह था उनके प्रेम संबंधों का। कभी कभी मैं बिल्कुल समझ नहीं पाता कि विचार की दुनिया में जीते आदमी को इस कदर प्यार की जरूरत क्यों होती है? अध्यापक हो जाने के बाद कुमार साहब की यह बेचैनी और बढ़ गई थी जिसे ठीक ठीक प्यार भी नहीं कहा जा सकता। दरअसल, कुमार साहब की हथेली पर रमोला बुआ के सपनों की लाश थी और उससे निरंतर दुर्गंध उठा करती थी। जो उन्हें बेचैन कर देती। इससे बचने के लिए जब वे किसी मादा देह में घुसने की कोशिश करते तो एक उलझन तारी हो जाती। फिर जन्म के समय जिस ट्रैफिक जाम की स्थिति में वे फँसे थे, उससे वे ताउम्र उबर भी नहीं पाए। अक्सर वे बौखला जाते और घर में तोड़ फोड़ शुरू कर देते। इसका खामियाजा उनकी पत्नी को ही भुगतना पड़ता था। उन्हें अपनी पत्नी के चरित्र पर भी शक था। हालाँकि इस बारे में उन्होंने बहुत स्पष्ट कुछ नहीं लिखा है। फिर भी कहीं कुछ ऐसा जरूर था जो उन्हें उद्विग्न और बेचैन किए रहता।

लेकिन डायरी में लिखी उनकी इस लाइन से कि 'राम ने मेरी पत्नी के साथ जो किया...' से मुझे एक सूत्र जरूर मिल गया था। बाद में जब मैंने उनकी इस डायरी को क्रमवार पढ़ना शुरू किया तो उसकी परतें भी धीरे-धीरे खुलने लगीं। दरअसल, कुमार साहब राम प्रताप के वैभव और उसकी बौद्धिकता से बहुत आतंकित रहा करते थे। उसके सही गलत किसी का भी विरोध करने की उन्हें हिम्मत नहीं पड़ती थी। बनारस में अक्सर रामप्रताप अपने घर महफिलें जुटाते और काव्य संध्याओं का आयोजन करते थे जिसमें कुमार साहब का नियमित जाना होता था। एक तो काव्य रसिक होने के नाते, दूसरा रामप्रताप की मित्रता के दबाव में।

इसी बीच कुमार साहब का विवाह भी हो गया। विवाह के समय के बारे में वे बताते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध खत्म हो चुका था और देश आजाद हो गया था। (अजीब बात है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के खत्म होने और देश के आजाद होने के बीच के सालों को वे अक्सर भूल जाते हैं। यही नहीं, देश विभाजन की त्रासदी पर भी वे कभी कोई खास बात नहीं करते।) बहरहाल, डायरी में उन्होंने अपने विवाह और पत्नी के बारे में लंबा विवरण दिया है। विवाह का उन्होंने जो विवरण दिया है उसमें कोई खास बात नहीं है। वह गाँव में होनेवाले आम विवाहों की तरह ही है। लेकिन पत्नी के बारे में उन्होंने जो लिखा, वह सचमुच दिलचस्प है। उन्होंने लिखा, 'पहली बार जब मैंने अपनी पत्नी को देखा तो भौंचक रह गया था। उन दिनों विवाह से पहले पत्नी को देखने का चलन नहीं था। विवाह से पहले क्या, विवाह के बाद भी दिन में उसे देखने का चलन नहीं था। अपनी पत्नी से हम रात में ही मिल सकते थे। मैं भी उससे रात में ही मिला था कोहबर में। विवाह की गहमागहमी जब खत्म हो गई तो रात के ग्यारह-बारह बजे मैं उसके कमरे में घुसा था। ढिबरी की रोशनी में वह घूँघट काढ़े बैठी थी। किसी स्त्री की इतनी निकटता मुझे उतावला किए दे रही थी। मैं झट से बिस्तर पर उसके निकट जाकर बैठ गया। मेरा दिल धड़ धड़ कर रहा था और देह में सिहरन सी उठ रही थी। स्त्री देह का मुझे पहले कोई अनुभव नहीं था और सेक्स के बारे में तो मैं लगभग अनजान ही था। रमोला बुआवाला प्रसंग भी बचपन में घटा था और उसने मुझे लगभग कुंठित ही किया था। पत्नी की निकटता ने मेरी धमनियों में रक्त प्रवाह बेतहाशा बढ़ा दिया था। उसका घूँघट उठाते ही मैं हतप्रभ रह गया। ऐसी अपरूप सुंदरी मेरे भाग्य में कैसे आ गई। सर्वांग कसा हुआ गोरा बदन, पके आम से रसीले होंठ, उन्नत ललाट, तीखी नाक और शंक्वाकार स्तन। उसकी देह का कटाव तो देखने लायक था जिसे देखकर तब मैं पागल हुआ जा रहा था। बिना किसी भूमिका के झट से मैंने उसे अपनी बाँहों के घेरे में ले लिया और वह कसमसाने लगी थी। उतावलेपन में मैंने उसके शरीर से सारे कपड़े उतार फेंके और अपने तने हुए शिश्न को गलत जगह प्रवेश कराने का प्रयास करने लगा कि अचानक मेरी पत्नी एक झटके में उठ खड़ी हुई और बड़बड़ाती हुई धक्का देकर मुझे परे धकेल दिया। मैं हतप्रभ रह गया। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर मैंने क्या गलत कर दिया। मैंने देखा कि मेरी पत्नी का चेहरा क्रोध से तमतमा रहा है और वह किसी शेरनी की तरह खा जानेवाली निगाहों से मुझे घूरकर देख रही थी। जाने क्यों उसमें मुझे रमोला बुआ की छवि उतरती दिखी और मैं आहत, लज्जित होकर चुपचाप बाहर आ गया। रात भर मैं सो नहीं सका और सारी रात यहाँ-वहाँ भटकता रहा। भोर में बड़ी मुश्किल से छत पर बैठे-बैठे मुझे थोड़ी देर के लिए झपकी लगी और मैं सपना देखने लगा। सपने में फिर रमोला बुआ थीं और वे मेरी खिल्ली उड़ाते हुए ठठाकर हँस रही थीं। इसके बाद कई दिनों तक मैं अपनी पत्नी से नजरें चुराकर भागता रहा। उसके पास आते ही जैसे मेरी सारी शक्ति निचुड़ जाती थी। मेरे भीतर जैसे कहीं कोई घुन लग गया था। न ठीक से खाया जाता, न सो ही पाता। पाँच सात दिन में ही मेरा चेहरा पीला पड़ गया था और मैं महीनों पुराने रोगी की तरह लगने लगा था। इस बीच गाँव में ही मेरी मुलाकात दूर के रिश्ते के एक मामा से हुई। गाँव में उनकी छवि एक लफंडर और घनघोर औरतबाज की थी। उन्होंने मुझे देखते ही ताड़ लिया था। घूमने के बहाने वे मुझे गाँव के बाग में ले गए और बड़ी सहानुभूति से मेरे कंधे पर हाथ रखकर पूछा, 'का बात है लाला? ब्याह के बाद तो लौंडों के थोबड़े फूल नाय खिल जात हैं मगर तेरो सूखे छुआरे जैसो काय हो गयो है? का कौनो परेसानी है - कोऊ रोग? लगतो है अब तक औरत को सुख तोय ना मिलो - मोय सच्ची सच्ची बता बात का है?' मामा की सहानुभूति और उनके पूछने के तरीके ने मुझे मोम की तरह पिघला दिया था। मेरा गला भर आया।

पिछले कई दिनों से जो दुःख मुझे भीतर ही भीतर खाए जा रहा था, समुद्र के ज्वार भाटे की तरह आँखों के रास्ते बह निकला। मेरी हिचकियाँ बँध गईं थीं और मैं बेतहाशा रो रहा था। मामा ने मुझे सहारा दिया, मुझे गले से लगाया और मेरे आँसू पोंछे। कई बार मुझे आश्चर्य होता है कि जीवनभर के ऐसे किसी लफंदर, बदनाम और बदमाश आदमी के भीतर भी इतनी करुणा और ममता हो सकती है। शुरू में मैं डर रहा था कि मेरी आपबीती सुनकर मामा हँसेंगे और मेरा मजाक उड़ाएँगे मगर मामा ने ऐसा कुछ नहीं किया बल्कि उनके बर्ताव ने मुझे उनके सामने किसी सरल किताब की तरह खुलने को मजबूर कर दिया था। पूरी बात सुनकर मामा गंभीर हो गए थे और मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बोले थे, 'तो जामे रोवै गावै की का बात है बेटा। हमें तो जेई आस्चर्य है कि तेरो जैसो सीधो साधो मोड़ा जा जमाने में जी कैसो रओ है। बताओ बीस-बाइस की उमर तक औरत के बारे में कछू नाय मालूम। सुन बेटा, औरत से अच्छो दोस्त कोउ ना होत और बासे बुरो दुस्मन भी कोउ ना होत। पहले बाय बातन से जीतो, फिर बाकी देह में उतरो। बिस्तर में पहलवानी काम नाय देत, समझो कछू।' फिर उन्होंने संभोग कला का डिमांस्ट्रेशन करके दिखाया और मुझे हौसला देते हुए कहा, 'जा बेटा, बहादुर बन और मैदान मार के आ। जेई जिंदगी को सच्चो मैदान है।' मामा के इस हौसले ने मुझे काफी बल दिया था और पत्नी के साथ संबंध बनाने में मैं कमोबेश सफल भी हो गया था लेकिन शायद सहज कभी नहीं हो पाया। भीतर कहीं कोई अपराधबोध या कुंठा थी जो मुझे सहज नहीं होने दे रही थी। मन में कहीं अपनी इस असहजता के लिए मैं अपनी हस्तमैथुन की आदत को भी दोषी पा रहा था जो पिछले कई वर्षों से मेरी रात्रिचर्या का हिस्सा बन चुकी थी। अपनी इस आदत से लड़ने में भी मुझे उन दिनों अपनी बहुत सी ऊर्जा और समय गँवाना पड़ा।

उन दिनों घटिया कागज पर छपनेवाली सेक्स संबंधी अधकचरी पुस्तकों में इस तरह के वीर्यनाश पर मैं जो कुछ पड़ता, वह मुझे और भी कुंठित और अपराधबोध से ग्रस्त कर जाता। इस तरफ से अपना ध्यान हटाने के लिए मैं रोज संकल्प लेता और प्रार्थना करता। इन किताबों के आधार पर ही सोने से पहले मैं रोज रात को शीतल जल से अपने पैर धोता और गीता का पाठ करता। लेकिन बिस्तर पर जाते ही कब मेरा संकल्प टूट जाता, पता ही नहीं चलता था। सुबह उठकर मैं बहुत ग्लानि महसूस करता था। शीशे में अपना चेहरा देखता तो और भी हताश हो जाता। लगता जैसे मेरी आँखें निस्तेज हो गईं हैं और गालों के गड्ढे और भी गहरे हो गए हैं। नहा-धोकर मैं फिर प्रार्थना करता और संकल्प लेता। यह उन दिनों लगभग रोज का ही नियम बन गया था। यह सचमुच अजीब था कि अपनी इस समस्या से मैं जितने बड़े संकल्प के साथ छुटकारा पाना चाहता, उतना ही उलझ जाता। यह सब इतना शर्मनाक था कि इस बारे में मैं किसी से कुछ कह भी नहीं सकता था। कभी कह भी नहीं पाया। मेरी रात्रिचर्या की इन फंतासियों में मेरे निकटतम मित्रों की बहन-पत्नियों से लेकर अपनी सगी बहनें तक शामिल थीं। मेरे लिए यह इतना बड़ा पाप था कि मेरा अंतःस्तल पूरी तरह नर्क बन चुका था। इस बारे में मैंने अपनी पत्नी तक से कुछ नहीं कहा क्योंकि मैं जानता था कि इससे उसे बड़ा आघात पहुँचेगा। राम इस मामले में मुझसे बिल्कुल अलग और लगभग बेशर्म था। भरी महफिल में वह गंदे-गंदे चुटकुले सुनाता और रस ले-लेकर अपनी सेक्स फंतासियों की चर्चा करता। वह अक्सर इस सबको अपनी आधुनिकता से जोड़ता और मेरी पोंगापंथिता की खिल्ली उड़ाता। मैं सिर्फ खिसियाकर रह जाता और उसे कभी कोई जवाब नहीं दे पाता था।

सेक्स को लेकर राम की जो अप्रोच थी और जिसे वह अपनी आधुनिकता से जोड़ता था, बाद के दिनों में मुझे वह घटियापन लगने लगी थी। खासकर अपनी पत्नीवाले प्रसंग के बाद। दरअसल, विवाह के बाद एक महीना गाँव में रहकर मैं वापस बनारस कचहरी की अपनी नौकरी पर आ गया था। शादी के बाद पत्नी को तुरंत बनारस साथ लेकर आना तब मेरे लिए संभव नहीं था क्योंकि घर में अकेला मैं ही कमानेवाला था। दोनों भाई मेरे साथ ही बनारस में रहकर पढ़ रहे थे। गाँव में माँ, पिताजी और बहने थीं और पत्नी का वहाँ रहना जरूरी था। फिर हर महीने अपने वेतन का एक बड़ा हिस्सा मुझे गाँव भेजना होता था जिसके चलते मेरी अर्थव्यवस्था यह गवारा नहीं कर रही थी कि मैं पत्नी को अपने साथ लाकर रख सकूँ।

अपनी आय बढ़ाने की मैं भरसक कोशिश कर रहा था। लेकिन भाइयों की पढ़ाई लिखाई के खर्चे और पैसा घर भेजने के बाद मेरे पास इतना भी नहीं बचता था कि महीना आराम से कट सके। ऐसे में मुझे अक्सर राम से मदद माँगनी पड़ती थी। तब तक राम की वकालत भी खासी चल चुकी थी। फिर घर से वह जब जितना पैसा चाहता मँगा लेता था। दरअसल, उसकी शान-शौकत और अय्याश जीवनशैली की भरपाई उसकी वकालत के पैसों से संभव ही नहीं थी। मैंने भी नौकरी के बाद एक-दो ट्यूशन करने की कोशिश की थी। उन्हीं दिनों कचहरी में नए-नए सब रजिस्ट्रार आए थे - खान साहब। वर्मा साहब बहुत हँसमुख और कवि हृदय आदमी थे। उम्र यही कोई पचास-पचपन की होगी। उनकी पहली पत्नी का देहांत हो चुका था। पिछले साल ही उन्होंने दूसरा विवाह किया था। उनके लड़के लड़कियों का विवाह हो चुका था और वे सब अपनी अपनी घर गृहस्थी में मस्त थे। ऐसे में अपना अकेलापन दूर करने के लिए उन्होंने दूसरा विवाह किया था।

कभी कभार राम के घर महफिलों और कवि गोष्ठियों में उनका आना जाना था। मैंने ही राम से उनका परिचय कराया था। इन गोष्ठियों के चलते मेरी और खान साहब की घनिष्ठता और बढ़ गई थी। ऐसे ही किसी कमजोर क्षण में मैंने अपना दुखड़ा खान साहब को कह सुनाया। खान साहब की नई-नई शादी हुई थी। वे उम्र में उनसे काफी छोठी थीं और हिंदी साहित्य में एमए करने की तैयारी कर रही थीं। खान साहब ने मुझसे कहा कि मैं उनकी पत्नी को शाम को एक-दो घंटा ट्यूशन दे दिया करूँ। इससे मेरी भी कुछ मदद हो जाया करेगी। मेरी तो जैसे बाँछें खिल गईं। पचास रुपये महीने पर तय हुआ था जो उस जमाने में कम नहीं होता था। पहले दिन जब मैं उनके यहाँ ट्यूशन पढ़ाने गया तो वहाँ मेरा भव्य स्वागत हुआ। खान साहब अपनी पत्नी से मेरा परिचय कराकर बाहर कहीं किसी काम से निकल गए। मैंने उनकी पत्नी को देखा तो एकबारगी भौंचक रह गया। मैं कस्बे का आदमी - ऐसा रूप सौंदर्य पहले कभी नहीं देखा था। अब तक तो मैं अपनी पत्नी के ही रूप पर फिदा था। मगर ये तो उससे भी कई गुना रूपवती थी। क्या तो नाक-नक्श, क्या देह का कटाव। मेरी पत्नी गौरांग थी और वे साँवली। मगर उस साँवलेपन में एक ऐसा नमक था जो दुर्लभ होता है। बेतरतीबी से बाँधी गई साड़ी में उनका अधखुला श्याम बदन जैसे मुझे पागल किए दे रहा था। अचानक मुझे कालिदास याद आने लगे -

'तन्वी श्यामा शिखरिदशना पक्वाबिंबाधरोष्ठी

मध्येक्षामा चकितहरिणी प्रेक्षणाः निम्ननाभिः

श्रोणीभारादलसगमना स्तोकनम्रा स्तनाभ्यां

या तत्र स्याद्युवतिविषये सृष्टिराद्यैव धातुः।'

( उस घर में दुबली-पतली , षोडशी , नुकीले दाँतोंवाली , पके हुए बिंबफल जैसे होंठोंवाली , पतली कमरवाली , भयभीत हरिणी की तरह चंचल आँखोंवाली , गहरी नाभिवाली , नितंबों के भार से धीरे-धीरे चलती हुई , स्तनों के भार से झुकी हुई सी तथा युवतियों में विधाता की प्रथम रचना सी जो स्त्री हो...)

फिर उसने मुझे मिठाई खिलाई, चाय पिलाई और इस सबसे निपटने के बाद पूछा कि 'भाई जान, आज से ही शुरू करेंगे कि कल से?' मैं भौंचक!

मैंने पूछा, 'क्या?' तो उसने कहा, 'पढ़ाई और क्या?'

मैंने कहा, 'नहीं, कल से नहीं, आज से ही।' फिर क्या था, वह अपनी किताब कापी लेकर मेरे बगल में आकर बैठ गई और इतना सटकर बैठी कि मेरे रोंगटे खड़े हो गए।'

यह तो खैर पहले दिन का किस्सा था जिसके बाद कुमार साहब को रात भर नींद नहीं आई और वे सारी रात अपनी नई और युवा शिष्या के बारे में ही सोचते रहे। अगले दिन और फिर उसके अगले दिन क्रमशः स्थितियाँ और भी ज्यादा संगीन होती गईं। कुमार साहब दिन भर बेचैन रहते - न कचहरी में मन लगता, न घर में। विद्यापति को पढ़ाते हुए वे एक अलग ही दुनिया में चले जाते और उनकी युवा शिष्या जिसका नाम नरगिस था, उन्हें एकटक निहारती रहती। एक दिन सुबह-सुबह जब कुमार साहब नरगिस को ट्यूशन पढ़ाने उसके घर गए तो वह सद्यःस्नाता थी अर्थात तुरंत ही बाथरूम से नहाकर निकली थी और उस समय खिले काले गुलाब की तरह लग रही थी। उसे देखते ही अचानक कुमार साहब के मुँह से विद्यापति का निकल पड़ा -

'जाइत पेखलि नहायलि गोरी।

कल सयं रूप धनि आनल चोरी।

केस निगारहत बह जल धारा।

अलि कुल कमल बेढल मधुलोभा।

नीर निरंजन लोचन राता।

सिंदूर पंडित जनि पंकज पाता।

सजल चीर रह पयोधर सीमा।

कनक बेल जनि पडि गेल हीमा।

ओ नुकि करतहिं जाहि किय देहा।

अबहिं छोड़ब मोहिं तेजब नेहा।

एसन रस नहि होसब आरा।

इहे लागि रोइ गरम जलधारा।

विद्यापति कह सुनहू मुरारि।

वसन लागल भाव रूप निहारि।।'

( रास्ते में चलते चलते एक सद्यःस्नाता सुंदरी को देखा। न जाने कहाँ से ऐसा विलक्षण रूप चुराकर लाई है ? गीले केश निचोड़ते ही जल की धार टपकने लगती है। चँवर से मानो मोती का हार चू रहा हो। भीगे हुए अलक के कारण मुखमंडल अति सुंदर लग रहा था जैसे रस का लोभी कोई भ्रमर मानो कमल को चारों ओर से घेर लिया हो। काजल साफ हो गया था। आँखें एकदम लाल थीं। ऐसा लग रहा था जैसे कमल के पत्ते पर किसी ने मेंदुर घोल दिया हो। भीगा वसन स्तन के किनारे पर था। लग रहा था जैसे सोने के बेल को पाला मार गया हो। वह वसन छिपा छिपाकर अपने शरीर को देख रही थी जैसे अभी अभी यह स्तन मुझे अलग कर देगा , मेरा स्नेह छोड़ देगा। अब मुझे ऐसा रस नहीं मिलेगा , इसलिए शायद शरीर पर बहती जलधार रो रही थी।)

पद सुनकर नरगिस मुस्कराकर बोली, 'गुरुजी, अब इसका मतलब भी तो समझा दीजिए।' लेकिन मतलब समझाते हुए कुमार साहब की जबान लड़खड़ाने लगी थी। फिर भी उन्होंने जैसे तैसे उसे इसका अर्थ समझाया और मुस्कराते हुए नरगिस ने उसे अपनी कापी में नोट कर लिया। उस दिन तो खैर बात आई गई हो गई। लेकिन अगले दिन नरगिस फिर उनके सामने उसी रूप में आई और अपने बालों का पानी झटकते हुए उनके बगल में आकर बैठ गई। कुमार साहब के शरीर में जैसे झुरझुरी हुई। उन्होंने अपना हाथ नरगिस के हाथ पर रख दिया। लगा जैसे कोई ज्वालामुखी उनके भीतर फूटने लगा है। उन्होंने अपना ध्यान पुस्तकों में लगाना शुरू किया लेकिन उनका मन था कि कहीं लग ही नहीं रहा था। जाने क्यों नरगिस अचानक खिलखिलाकर हँस पड़ी। कुमार साहब झेंप गए। नरगिस बेलिहाज थी। उसने फौरन किताब का वह पन्ना खोलकर रख दिया जिसमें कुमार साहब के नाम उसका एक प्रेमपत्र था। पत्र में तमाम सस्ती शायरी के साथ अपने हाले दिल का बयान था। कुमार साहब ने निगाह चुराते हुए चुपचाप पत्र अपनी जेब के हवाले कर दिया। उस वक्त उनके हाथ काँप रहे थे और दिल की धड़कनें बेहद तेज हो गई थीं। उन्होंने कनखियों से नरगिस की ओर देखा, वह लज्जा से लाल हुई पड़ी थी। कुमार साहब उस दिन कुछ भी न पढ़ा सके और तबीयत खराब होने का बहाना बनाकर तुरंत वहाँ से उठ खड़े हुए।


छह

इसके बाद तीन चार दिन तक कुमार साहब ने नरगिस के घर का रुख तक न किया। हाँ, इस बीच वे उसके पत्र को सैकड़ों बार पढ़ चुके थे। वे असमंजस में थे कि क्या करें, क्या न करें। न वे खान साहब को धोखा देना चाहते थे और न नरगिस के दिल को ठेस पहुँचाना चाहते थे। इसी उधेड़बुन में वे दो दिन तक तो कचहरी भी नहीं गए। लेकिन एक दिन संयोग से खान साहब कुमार साहब को बाजार में टहलते हुए मिल गए। खान साहब ने कुमार साहब से झट से हाथ मिलाते हुए पूछा, 'क्या बात है कुमार साहब... आपकी तबीयत तो ठीक है न... नरगिस बता रही थी कि तीन दिन से आप उसे पढ़ाने भी नहीं आए?' कुमार साहब एकबारगी सकपका गए और झेंपते हुए बोले, 'हाँ, थोड़ा बुखार आ गया था... तबीयत खराब होने की वजह से इस बीच कचहरी भी नहीं जा पाया।'

- 'कोई बात नहीं... अब तो आपकी तबीयत कुछ ठीक लग रही है। थोड़ा देख लीजिए... नरगिस की परीक्षाएँ भी अब सिर पर हैं।'

- 'आप निश्चिंत रहिए, मैं कल से ट्यूशन पर जरूर आ जाऊँगा खान साहब।' कहकर कुमार साहब ने चैन की साँस ली। हालाँकि भीतर ही भीतर उन्हें लग रहा था जैसे उनकी चोरी पकड़ी गई हो। बहरहाल, अगले दिन फिर हिम्मत जुटाकर कुमार साहब ने नरगिस के घर दस्तक दी। उस समय वे थोड़े घबराए हुए और बदहवास से थे। रात भर उन्हें नींद भी नहीं आई थी। घर का दरवाजा नरगिस ने ही खोला और मुस्कराकर उनका स्वागत किया। कुमार साहब झेंपते हुए अंदर दाखिल हुए। नरगिस उस समय भी नहाकर निकली थी, उसके बाल गीले थे और शरीर पर सिर्फ एक गाउन था। उसने चाय का कप कुमार साहब को पकड़ाते हुए कहा, 'क्या बात है मास्साब, आप हमसे नाराज हैं क्या? हमसे कोई भूल हुई हो तो हमें माफ कर दीजिएगा।' बड़ी मुश्किल से कुमार साहब के मुँह से निकला, 'नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। खान साहब घर पर नहीं हैं क्या?'

- 'नहीं, वे तो कल रात ही टूर पर इलाहाबाद गए हैं। कल शाम तक आएँगे।' नरगिस ने लापरवाही से अँगड़ाई लेते हुए कहा। कुमार साहब ने जैसे कुछ देखा और सुना ही नहीं। उन्होंने फौरन मेज पर पड़ी किताबों को उलटना-पलटना शुरू कर दिया। कुमार साहब का ध्यान ही नहीं रहा कि नरगिस इस बीच उनके ठीक बगल में आकर बैठ गई है और उसने अपनी बाँहें कुमार साहब के गले में डाल दी हैं। कुमार साहब ने जब उसकी ओर नजर उठाकर देखा तो एक बार फिर भौंचक थे। नरगिस की गर्म साँसें धौंकनी की तरह चल रही थीं और उसने अपना गाउन खोल दिया था। उसके गीले बाल जिनसे पानी अब भी टपक रहा था, कुमार साहब के कंधे पर थे। कुमार साहब एकबारगी सकपका गए और उनके मुँह से सिर्फ इतना ही निकल पाया, 'नरगिस... ये क्या...?'

नरगिस ने बंद आँखों के साथ नशीली आवाज में सिर्फ इतना कहा कि 'मास्साब, जिंदगी इन बेजान किताबों से बाहर भी होती है, कभी कभार उसे भी देख लिया कीजिए।'

कुमार साहब कुछ क्षण चुप रहे, फिर उसके हाथों को छूते हुए उसके गालों तक पहुँच गए। फिर उसके कोमल नुकीले स्तनों को छुआ और लगा जैसे वे किसी तपती हुई शिला को छूकर आ रहे हैं।

नरगिस अपने खुले हुए गाउन के साथ झट से उनकी गोद में आकर बैठ गई और बेतहाशा उन्हें चूमने लगी। कुमार साहब के शरीर में भी एक अजीब सी उत्तेजना का अहसास हुआ और उन्होंने उसे गले से लगा लिया। कुछ पल ऐसे ही गुजर गए। नरगिस ने धौंकनी की तरह चलती अपनी साँसों के साथ अपने नुकीले दाँत कुमार साहब के गले में धँसा दिए थे और कुमार साहब के बाहों की पकड़ भी लगातार मजबूत होती जा रही थी। नरगिस अब लगभग निर्वस्त्र थी और उसने खुद को पूरी तरह कुमार साहब को समर्पित कर दिया था। कि तभी अचानक कुमार साहब को रमोला बुआ की याद आई और वे लगभग स्थिर हो गए। उन्होंने झट से नरगिस को खुद से अलग किया और उठ खड़े हुए। निर्वस्त्र नरगिस की आँखें अपमान और घृणा से लाल हुई जा रही थीं जिसे देखने का साहस कुमार साहब नहीं कर पाए। उनके मुँह से तब सिर्फ इतना ही निकला कि 'नरगिस, यह सब ठीक नहीं है...।' और नरगिस फूट फूटकर रो पड़ी थी। उस समय नरगिस को सांत्वना देने का साहस भी कुमार साहब में नहीं था और वे फौरन घर से बाहर निकल आए। उनके निकलने के बाद नरगिस ने घर का दरवाजा इतनी जोर से बंद किया कि कुमार साहब को लगा कि यह दरवाजा उनके लिए हमेशा हमेशा के लिए बंद हो गया है।

यह प्रतिशोध था, प्रायश्चित या कि कुमार साहब का काइयाँपन कि अगले दिन उन्होंने नरगिस की वह चिट्ठी खान साहब को सौंपते हुए कहा कि अब उनके लिए उनके घर ट्यूशन पढ़ाने आना संभव नहीं हो पाएगा। चिट्ठी पढ़ते हुए खान साहब के चेहरे पर अपमान, हिंसा और कातरता के मिले जुले भाव आए थे। इसके बाद नरगिस पर क्या बीती, कोई नहीं जानता। इतना जरूर है कि इसके बाद खान साहब ने अपना ट्रांसफर उस शहर से दूर कहीं दूसरी जगह करा लिया था। कुमार साहब को इस पूरी घटना से न कोई खुशी हुई, न दुख ही। इस बीच कुमार साहब का टीचर्स ट्रेनिंग के लिए कॉल आ गया था जो उनकी चिर प्रतीक्षित अभिलाषा थी।

इधर टीचर्य ट्रेनिंग के लिए कॉल आया था, उधर उनके गाँव से एक चिट्ठी कि उनकी पत्नी गाँव में सख्त बीमार हैं और फौरन बनारस बुलाकर उनका इलाज कराना जरूरी है। कुमार साहब असमंजस में थे कि टीचर्स ट्रेनिंग छोड़ें कि पत्नी को लेने गाँव जाएँ। भाइयों की सब परीक्षाएँ चल रही थीं और फिर सब छोटे भी थे। इतनी दूर आना-जाना और बीमार भाभी को अपने साथ लाना उनके लिए आसान भी नहीं थे। ऐसे में कुमार साहब की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें? इतना तो वे समझ गए थे कि मामला पत्नी की प्रेगनेंसी का है। ऐसे में कुछ होनी अनहोनी हो गई तो और मुश्किल। ऐसे में उन्हें फिर रामप्रताप चौधरी ही याद आए। राम प्रताप गाहे बगाहे उनकी आर्थिक मदद तो किया ही करते थे। संयोग से उन्हीं दिनों रामप्रताप चौधरी को भी अपने घर जाना था यानी मैनपुरी। कुमार साहब का गाँव मैनपुरी के ही पास था। कुमार साहब ने रामप्रताप से जब अपनी मजबूरी बताई तो रामप्रताप सहर्ष उनकी पत्नी को अपने साथ बनारस लाने को राजी हो गए।

उन्होंने कुमार से कहा कि 'कुमार तुम्हारी पत्नी मेरी भौजाई हैं। तुम्हारी मजबूरी मैं समझता हूँ। वे बीमार हैं। उन्हें बनारस लाने और उनका इलाज कराने की पूरी जिम्मेदारी मैं लेता हूँ। तुम निश्चिंत होकर अपनी ट्रेनिंग पूरी करो।' भोले भाले कुमार साहब इस आश्वासन से निश्चिंत हो गए। लेकिन इसके बाद जो घटा वह भयावह था। कुमार साहब की डायरी के अनुसार रामप्रताप उनकी पत्नी को बनारस लाए तो जरूर लेकिन इस बीच कई हादसे हुए। डायरी में उन्होंने जो कुछ लिखा उसके अनुसार रामप्रताप मैनपुरी गए। कुमार साहब के घर भी गए। कुमार साहब की पत्नी की हालत सचमुच खराब थी। वहाँ जो भी दवा दारू हो सकती थी उसका उन्होंने इंतजाम भी किया और कुमार साहब का पत्र भी दिखाया जिसके अनुसार कुमार साहब की पत्नी को रामप्रताप के साथ बनारस जाना था। कुमार साहब की पत्नी के मन में कहीं पति से मिलने की हसरत भी थी और बनारस शहर देखने का उल्लास तो था ही। बावजूद इसके कि पेट में तीन महीने का बच्चा था।

बहरहाल, हादसे इसके बाद शुरू हुए जो उन्होंने ठीक-ठीक किसी को बताए नहीं, बस गाहे बगाहे कुमार साहब को कोसती रहीं। इस हादसे की कड़ियाँ बाद में धीरे-धीरे खुलीं। कुमार साहब के अनुसार रामप्रताप जब मैनपुरी से उनकी पत्नी को लेकर बनारस के लिए चले तो कहा कि रास्ते में कानपुर में उन्हें एक दिन रुकना होगा। वहाँ उन्हें कालेज का एक जरूरी काम है। कुमार साहब की पत्नी उनके इस प्रस्ताव पर मन ही मन कुढ़ीं तो जरूर मगर कर भी क्या सकती थीं। तो तय हुआ कि मैनपुरी से चलकर रामप्रताप और कुमार साहब की पत्नी एक दिन के लिए कानपुर ठहरेंगे। कानपुर में उन्होंने होटल में एक कमरा किराए पर लिया और कुमार साहब की पत्नी को वहाँ ठहराकर अपने काम से बाहर चले गए। इस आश्वासन के साथ कि शाम की ट्रेन से बनारस निकल लिया जाएगा। कुमार साहब की पत्नी नहा-धोकर शाम होने का इंतजार करती रही लेकिन वह शाम आई ही नहीं या कहें कि आकर गुजर भी गई। रामप्रताप देर रात नशे में धुत्त होकर होटल के कमरे में पहुँचे और कहा कि आज शाम की ट्रेन कैंसिल हो गई, अब सुबह ही चलना हो पाएगा। तुम खा-पीकर आराम करो। कुमार साहब की पत्नी के लिए खाने-पीने का प्रबंध रामप्रताप अपने साथ करके आए थे।

कुमार साहब की पत्नी मरती क्या न करतीं। जब इतनी देर हुई तो एक रात और सही। उन्होंने बिना ना-नुकुर किए चुपचाप खाना खा लिया। लेकिन यह क्या, खाना खाते ही उन्हें उल्टी सी हुई और मूर्च्छा आने लगी। अर्द्धमूर्छित अवस्था में ही वे बिस्तर पर आकर ढह गईं। कुमार साहब के अनुसार इसके बाद राम प्रताप ने रात भर उनकी पत्नी के साथ बलात्कार किया। सुबह जब उनकी पत्नी सोकर उठीं तो उनके कपड़े अस्त-व्यस्त थे और उनके पेट में बहुत तेज दर्द उठ रहा था। उन्होंने खूब उल्टियाँ कीं और जी भरकर रोईं। पराया शहर और वे अकेलीं, उनकी कुछ समझ नहीं आ रहा था। वे बस रोती और बड़बड़ातीं। रामप्रताप बेशर्मी से उन्हें ढाँढ़स दे रहे थे और कह रहे थे कि 'लगता है रात का होटल का खाना खराब था इसीलिए ऐसा हो रहा है। ये कुछ दवाइयाँ खा लो और जल्दी से बनारस चलने के लिए तैयार हो जाओ।' कुमार साहब की पत्नी ने खा जानेवाली नजरों से एक बार रामप्रताप को देखा और उनकी दी हुई दवाइयाँ फेंक दीं। मगर बनारस तो जाना ही था इसलिए पेट के भीषण दर्द के बावजूद वे उठीं और बनारस चलने के लिए तैयार हो गईं। रास्ते भर कोई किसी से कुछ नहीं बोला। एक खामोशी थी जिसमें नफरत और अपराधबोध के मिले जुले भाव थे।

बनारस पहुँचते ही दर्द बहुत तेज हो गया और उन्हें तुरंत अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। कुमार साहब ज्ञानपुर से अपनी ट्रेनिंग छोड़कर भागे-भागे आए तो रामप्रताप ने उनसे भी कहा कि 'रास्ते में फूड प्वाइजनिंग की वजह से भाभी की हालत ज्यादा खराब हो गई थी इसलिए उन्हें तुरंत अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा लेकिन तुम चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा।'

मगर ठीक कुछ भी नहीं हुआ। कुमार साहब की पत्नी का उसी रात गर्भपात हो गया और वे मरते मरते बचीं। हाँ, इस पूरे एपिसोड में जो भी खर्च आया उसकी पाई-पाई रामप्रताप ने अपनी जेब से दी। क्या पता अपराधबोध में या एक बार फिर कुमार साहब को अपने अहसान तले दबाने के लिए। इन सारी बातों की जानकारी कुमार साहब को कई दिनों तक नहीं हुई और न ही वे अपने प्रति पत्नी की नफरत, क्रोध और झल्लाहट को समझ ही पाते। बाद में जब टुकड़ों टुकड़ों में उनकी पत्नी ने उन्हें इस बारे में बताया तो वे कुछ समय के लिए हतप्रभ रह गए थे। शरीर का खून जैसे ठंडा पड़ गया था। फिर अचानक उन्हें बहुत गुस्सा आया और वे पुलिस में इसकी शिकायत करने पहुँचे। (रामप्रताप के पास जाने और उनसे कुछ पूछने की हिम्मत उनकी तब भी नही हुई थी।)

उन्हें आज भी याद है वह दिन जब वे थाने में अपनी पत्नी के बलात्कार की तहरीर देने पहुँचे थे। रात आठ-नौ बजे का समय रहा होगा। बरसात के दिन। रास्ते में कीचड़ ही कीचड़ भरा था। थाने जाते हुए भी उनके हाथ-पाँव काँप रहे थे। भगवान जाने क्रोध में याकि डर में। थाने के सामने आकर वे एक क्षण को रुके थे फिर भीतर का सारा आत्मविश्वास बटोरकर अंदर गए। कमरे में घुसने से पहले ही एक सिपाही ने उन्हें टोका था।

- 'क्या बात है? कहाँ जा रहे हो?'

- 'दीवान जी से मिलना है... एक तहरीर देनी थी।'

- 'क्या हुआ? कहीं डाका पड़ गया क्या?'

- 'जी नहीं, बात ये है कि... आप बस दीवान जी से मिलवा दीजिये बस...' कुमार साहब हिचकिचाते हुए बोले थे। वे नहीं चाहते थे कि घर की इज्जत सरेआम नीलाम हो।

- 'ठीक है... ठीक है... दीवान जी अंदर हैं चले जाओ।' सिपाही को शायद उन पर दया आई हो या वे उसे अपने काम के आदमी ही न लगे हों। बहरहाल, कुमार साहब अंदर गए।

अंदर मेज पर पैर रखे दीवानजी अधलेटे बैठे थे। ऊपर एक बल्ब टिमटिमा रहा था। दीवानजी शायद शराब के नशे में थे। फिर वर्दी का नशा तो था ही। वर्दी के नशे पर शराब का नशा हो जाए तो फिर कहने ही क्या। तो दीवानजी की टोपी मेज पर थी और पैर भी मेज पर ही थे। अंदर घुसते ही कुमार साहब ने मिमियाती आवाज में कहा, 'सर...'

सर की बंद आँखें खुलीं और एक कड़कती हुई मदहोश आवाज गूँजी - 'क्या है?'

- 'सर एक तहरीर देनी थी।'

- 'किस बात की क्या हुआ?'

- 'सर, मेरी पत्नी के साथ बलात्कार हुआ है।' कुमार साहब ने हिचकिचाते हुए कहा। इतना सुनते ही दीवान जी का नशा काफूर हो गया। उन्होंने पैर नीचे किए और कमर सीधी। अचानक से उन्हें गुस्सा आ गया। बोले - 'बहिनचो... जब बीवी के साथ रेप हो रहा था तब तुम क्या गाँड़ मरवा रहे थे। कैसे मर्द हो जी। खैर... बताओ, कब हुआ, कहाँ हुआ, कैसे हुआ?'

कुमार साहब पहले ही हड़बड़ाए हुए थे। इतनी गालियाँ और सवाल सुनकर उनकी आधी जान और सूख गई। सूखते हलक के साथ उन्होंने कहा, 'सर, वो क्या है कि हमारे साथ धोखा हुआ। हमारे एक रिश्तेदार हैं। यहाँ वकील हैं। हमारे ही गाँव के पास उनकी जमींदारी है। मेरी पत्नी उनके साथ गाँव से आ रही थीं। बीमार थीं। रास्ते में वे कानपुर रुके और धोखे से मेरी पत्नी के साथ बलात्कार किया।'

- 'नाम क्या है वकील साहब का...?' दीवान जी वकील के रुतबे में आ गए थे।

- 'सर... रामप्रताप चौधरी...'

- 'ओ... अपने वकील साब... बहिनचो... इतने शरीफ आदमी पर इतना गंदा इल्जाम लगते शर्म नहीं आती... वो भी अपनी बीवी के साथ। साले तेरी बीवी ने ही फँसाया होगा उन्हें। तू तो है ही मउगा। चल भाग यहाँ से। चले हैं वकील साब के खिलाफ तहरीर लिखाने भों...के...' दीवान जी को अब तैश आ गया था।

- 'लेकिन सर... मैं भी अध्यापक हूँ...' कुमार साहब घिघिआये।

- 'अध्यापक के नाती... तेरी तो...' दीवान जी का एक जोरदार थप्पड़ उन पर पड़ चुका था और बदबू का एक तेज झोंका भी। कुमार साहब जैसे गिरते-गिरते बचे। उनकी समझ में आ गया था कि अब यहाँ फरियाद का कोई मतलब नहीं है। वे अपनी जान बचाकर जैसे तैसे वहाँ से भागे। शहर की बिजली गुल हो चुकी थी। बरसात के झोंके पड़ रहे थे और उसी में घर लौटते कुमार साहब हिचक-हिचककर रो रहे थे। घर आकर कुमार साहब ने किसी से कुछ नहीं कहा और चुपचाप अपने कमरे में जाकर दरवाजा बंद कर अपने बिस्तर पर भहराकर गिर पड़े थे। वे संज्ञाशून्य थे। उनके साथ अभी-अभी जो कुछ हुआ था वह उन्हें किसी दुःस्वप्न की तरह लग रहा था। उन्हें इस बात का बिल्कुल भरोसा नहीं हो रहा था कि कोई उनके यानी एक प्रतिष्ठित अध्यापक के साथ ऐसा भी कर सकता है। आँखों में आँसू भरे हुए ही उन्होंने अपने साथ हुए अन्याय और अपमान का बदला लेने की तमाम योजनाएँ भी एक साथ बना ली थीं। मसलन वे एक बंदूक खरीदने का सपना देखने लगे थे जिससे कचहरी से लौटते समय सुनसान में किसी रात वे रामप्रताप को गोली मार सकें। वे उसे अपनी आँखों के सामने कराहते, तड़पते और मरते हुए देख रहे थे। उन्होंने देखा था कि मरते हुए रामप्रताप की जाँघों के बीच उन्होंने एक जोरदार लात मारी है और उसके मुँह पर थूक दिया है। असहाय रामप्रताप उन्हें निरीह आँखों से देख रहा है और उन्होंने उस पर बिल्कुल भी दया नहीं की है।

इसी तरह वे अपनी ही पत्नी को भरे बाजार नंगी कर रहे थे और उस पर सटाक-सटाक कोड़े बरसा रहे थे। उन्होंने उस दारोगा को भी नहीं बख्शा था जिसने उनका अपमान कर दिया था और उन्हें पीट दिया था। उन्होंने उस दारोगा के मुँह में पेशाब कर दिया था और उसे सरेआम फाँसी पर लटका दिया था। वे इस समय किसी को भी बख्शने के मूड में नहीं थे। न शास्त्रीजी को, न नारायण को, न रामप्रताप को, न अपनी पत्नी को ही। उन्हें लग रहा था कि ये सब उस षड्यंत्र में शामिल हैं जिसका उन्हें शिकार बनाया गया है। इस समय उनके पास अथाह सत्ता थी और वे किसी को भी अपनी अदालत में दंड देने का अधिकार रखते थे। लेकिन मुश्किल यह थी कि उनके इस तरह के सपने भी कभी निर्विघ्न नहीं रहे। उन्होंने भले ही उस दिन खुली आँखों से अपने सभी अपराधियों को दंड देने का सपना देखा हो, लेकिन ये सपने भी बीच-बीच में फँसी हुई कैसेट की तरह रुक-रुक जाते और उसमें दुष्चिंताओं का पूरा पहाड़ समा जाता। जैसे उन्होंने भले ही बंदूक खरीदने और रामप्रताप को मारने का सपना निर्विघ्न रूप से देख लिया हो लेकिन ठीक इसके बाद वे इस दुष्चिंता से भी घिर जाते कि पुलिस उन्हें हत्या के जुर्म में पकड़ कर ले जा रही है। भले ही उन्होंने अभी-अभी उस दारोगा को फाँसी की सजा दी हो जिसने उनका अपमान किया था और पीटा था, लेकिन अपने दूसरे दुष्चिंतित सपने में वे उसे अपने सामने खड़ा हुआ पाते। वह उन पर हंस रहा होता। उसके हाथ में डंडा होता और वह उसीसे उसको जमकर पीट रहा होता। वे देखते कि वे अदालत में हैं और उन पर हत्या का केस चल रहा है। उनकी अपनी ही पत्नी उस पूरी घटना की चश्मदीद गवाह बनती और उन्हें फाँसी की सजा सुना दी जाती। नारायण और शास्त्रीजी को वे अपने पर हँसता हुआ देखते और खुद को फाँसी के फंदे की ओर बढ़ता हुआ। वे काँप जाते।

अब उन्हें किसी पर रत्ती भर भी भरोसा नहीं रह गया था। अपनी पत्नी पर भी नहीं। पत्नी के लाख पूछने और समझाने के बावजूद भी वे उस दिन की घटना के बारे में कुछ नहीं बोले। कई दिन ऐसे ही चुप्पी में गुजर गए। फिर एक दिन जाने क्या उनके मन में आया कि उन्होंने सोचा कि इस प्रसंग पर शास्त्रीजी से बात की जाए। शास्त्रीजी के प्रति अब भी शायद उनके मन में थोड़ी-बहुत श्रद्धा बची हुई थी।

एक दिन शनिवार की रात अचानक उन्होंने मैनपुरी जाने का फैसला कर लिया। उन दिनों उनकी जो मनःस्थिति थी, उसे देखकर उनके किसी भी फैसले का विरोध करने की हिम्मत घर में किसी की नहीं थी। सो वे औचक उठे और मैनपुरी के लिए चल दिए।

सात

मैनपुरी में उन्होंने जो देखा, वह उनकी उम्मीद के विपरीत तो बिल्कुल भी नहीं था। शास्त्रीजी के आश्रम में शाखाएँ अब भी नियमित रूप से लग रही थीं, बल्कि पहले से ज्यादा समर्पित हिंदू राष्ट्रभक्त वहाँ आने लगे थे। यह वह समय था जब चीन भारत पर हमला कर चुका था और भारत की पराजय और चीन के विश्वासघात से आहत नेहरू मृत्युशैय्या पर पड़े थे। शास्त्रीजी बता रहे थे कि कैसे नास्तिकों और वामपंथियों ने इस देश के गौरव और उसकी अस्मिता का सत्यानाश कर दिया है। वे बार-बार हिंदू राष्ट्र की रक्षा के लिए शिवाजी और राणा प्रताप का उदाहरण देते जो कभी महज एक कबीले के नेता भर थे। इन नई परिस्थितियों में ये सारी बातें अपने आपमें हास्यास्पद थीं। इस बात को कुमार साहब अच्छी तरह समझ रहे थे। दरअसल, बनारस में रहकर इतिहास के उनके अध्ययन और समाजवादियों की उनकी सोहबत ने उन्हें जो समझ दी थी, वह शास्त्रीजी के प्रति उनके मोहभंग के लिए पर्याप्त थी।

वैचारिक स्तर पर भले ही शास्त्रीजी से उनका मोहभंग हो गया था लेकिन उनकी निष्ठा, त्याग और देशप्रेम को लेकर अब भी उनके मन में कोई संदेह नहीं था। शास्त्रीजी इस उम्र में भी अभी उसी युवकोचित उत्साह से अपने मिशन में लगे हुए थे। नारायण उनके साथ था। हालाँकि अब वह प्रचारक की भूमिका से अलग हो गया था और एक सर्वगुण संपन्न हिंदू कन्या से विवाह कर अपनी गृहस्थी चला रहा था। उसे दो पुत्ररत्नों की प्राप्ति भी हो चुकी थी। नारायण अब भी शाखा में नियमित रूप से आता था और प्रतिदिन 'नमस्ते सदा वत्सले...' का जाप करता था।

शास्त्रीजी के आश्रम ने अब बाकायदा एक गुरुकुल का रूप ले लिया था जिसमें नारायण के दोनों बच्चे भी नियमित रूप से पढ़ने आते थे। हालाँकि अभी वे बहुत छोटे थे, फिर भी उन्हें अक्षरारंभ करा दिया गया था। गुरुकुल में छात्रों को बाकायदा शास्त्र और शस्त्र की शिक्षा दी जाने लगी थी। शास्त्रों में जहाँ वेद, पुराण और इतिहास की शिक्षा होती वहीं शस्त्रों में लाठी, बल्लम, भाला और तलवार चलाना सिखाया जाता था। ये अलग बात है कि मैनपुरी में तब तक भारी मात्रा में कट्टा, बंदूक और हथगोले आ गए थे और लोग उस बिना पर शास्त्रीजी की इस शस्त्र शिक्षा की खिल्ली भी उड़ाया करते थे। हालाँकि शास्त्रीजी को इन सारी बातों की खास परवाह नहीं थी लेकिन गुरुकुल के ही कुछ अध्यापकों और कार्यकर्ताओं में इस बात की सुगबुगाहट जरूर थी कि लाठी-बल्लम चलाना सिखाने से क्या होगा, समय की जरूरत है कि छात्रों को बंदूक और कट्टा चलाना सिखाया जाए। गुपचुप ढंग से कुछ लोग ऐसा कर भी रहे थे।

कुमार साहब को इन सारी बातों की जानकारी मैनपुरी पहुँचते ही हो गई थी लेकिन उन्हें इस सबसे क्या लेना-देना था? वे तो एक दूसरे ही उद्देश्य से आए थे।

तो जिस दिन कुमार साहब की शास्त्रीजी से मुलाकात हुई, ठीक उसी दिन दिल्ली से नेहरू जी की मौत की खबर आई थी। पूरा देश गमगीन था। जैसे कोई उल्का पिंड टूटकर गिरा हो। कितने ही घरों में उस रात खाना नहीं बना था। नेहरू के लाख विरोधी कुमार साहब बताते हैं कि जाने क्या था उस रात कि उनके हलक से भी एक कौर नहीं उतरा था। जैसे कोई बहुत अपना उनसे हमेशा के लिए बिछुड़ गया हो। पूरा देश सनाके में था। उम्मीद की कहीं कोई किरण नजर नहीं आ रही थी। फिर भी भारी मन से मैं उस रात शास्त्रीजी से मिलने गया था।

शास्त्रीजी अपनी कुटिया में कुछ लोगों के साथ बैठे राजनीति-चर्चा में लीन थे। नेहरू के अवसान की खबर उन्हें मिल चुकी थी। उनके चेहरे पर दुख की तो नहीं, हाँ, चिंता की रेखाएँ अवश्य थीं। जिस समय कुमार साहब ने शास्त्रीजी की कुटिया में प्रवेश किया, उस समय शास्त्रीजी अपने शिष्यों से कह रहे थे, 'नेहरू के बाद अब सरकार की मुखिया उसकी बेटी होगी। वही जिसने धर्मांतरण कर एक पारसी से विवाह किया है। अगर ऐसा हुआ तो एक बार फिर शासन की कुंजी इस देश के मुसलमानों के हाथ में होगी। यह एक भीषण आंतरिक संकट है जो हमारे लिए चीन की पराजय से भी बड़ी पराजय होगी। अगर समय रहते इस देश का हिंदू जाग गया होता तो नेहरू की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीतियाँ चल नहीं पातीं और हमें चीन जैसे नास्तिक देश से पराजय का मुँह न देखना पड़ता।' ऐसा कहते हुए शास्त्रीजी का वृद्ध चेहरा दर्प से तमतमा रहा था। शास्त्रीजी की बात सुनकर कुमार साहब को एकबारगी हँसी भी आई लेकिन जैसे-तैसे उन्होंने खुद को जब्त कर लिया।

खैर, आश्रम में इस तरह कुमार साहब के अप्रत्याशित आगमन ने एकबारगी शास्त्रीजी को भौंचक कर दिया था। फिर अचानक वे प्रसन्नता से उठ खड़े हुए और कुमार साहब को गले लगा लिया। कुमार साहब ने उनके चरण स्पर्श किए और एकांत में कुछ निवेदन करने की बात कही। पहले तो शास्त्रीजी ने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया और बोले कि 'ये सब अपने ही लोग हैं। हम सब नेहरू जी की मृत्यु के बाद राष्ट्र के सामने आए विकट संकट पर ही चिंतन कर रहे थे। तुम निःशंक होकर इनके सम्मुख अपनी बात कह सकते हो।'

मगर जब कुमार साहब कुछ नहीं बोले और एकांत में ही निवेदन करने की बात कहते रहे तो मजबूरन शास्त्रीजी को अपने शिष्यों से विदा लेनी पड़ी। उनके चेहरे पर चिंता की रेखाएँ गाढ़ी हो गईं थीं।

एकांत में भावुक हुए कुमार साहब ने रो-रोकर रामप्रताप के विश्वासघात की पूरी कथा कह सुनाई। सुनते हुए शास्त्रीजी के चेहरे पर कई रंग के भाव आते-जाते रहे। पूरी बात सुनकर वे काफी देर तक चुपचाप आँखें बंद किए बैठे रहे। फिर पूरी गंभीरता के साथ उन्होंने धीरे से पूछा, 'इस प्रसंग के बारे में किसी और से तो तुमने कुछ नहीं कहा?'

- 'नहीं।' कुमार साहब ने रुआँसे ही जवाब दिया।

- 'कहना भी नहीं। बुद्धिमानी इसी में है कि इस प्रसंग पर तुम बिल्कुल मौन रहो और इसे भूल ही जाओ। रही बात रामप्रताप की तो उसे इस भूल की सजा मिलेगी, इस बारे में तुम बिल्कुल निश्चिंत रहो लेकिन फिलहाल यह समय ऐसी बातों को तूल देने का नहीं है। इससे हम सबको अनावश्यक बदनामी का सामना करना पड़ सकता है।'

शास्त्रीजी की बातों ने कुमार साहब को और भी गहरी निराशा में धकेल दिया था। वे उदास कदमों से वहाँ से लौट आए। रातभर उन्हें नींद नहीं आई। रह-रहकर उनकी आँखों के सामने रामप्रताप के विश्वासघात का खेल किसी चलचित्र की तरह चल पड़ता। रात भर उन्होंने उसे बार-बार रिवाइंड किया और बेचैनी में तड़पते रहे। सुबह बिना किसी से कुछ कहे-सुने उन्होंने बनारस की गाड़ी पकड़ ली।

इस बात को बीते हुए भी अब कई बरस हो गए। उन्होंने इसका जिक्र तक कभी किसी से नहीं किया। वो तो डायरी से मिले सूत्रों के जरिए जब एक बार मैंने उन्हें कुरेदा तो किसी अनजानी भावुकता में आकर वह यह सब कह गए और तृप्ति की एक गहरी साँस ली। स्वाकारोक्ति के ही भाव में उन्होंने यहाँ तक कहा था कि 'बरसों तक मुझे अपनी उस कायरता का मलाल रहा और उस बेचैनी से बचने के लिए मैंने ईश्वर की शरण ली। मैंने तमाम पाप किए और तमाम कविताएँ लिखीं। लेकिन मेरा मन हमेशा ही अशांत रहा। मेरा नपुंसक गुस्सा मुझे कहीं भी चैन नहीं लेने देता था। अभी दो-तीन साल पहले जब मुझे पता चला कि लक्ष्मी बुआ की बेटी के बेटे ने रामप्रताप की गोली मारकर हत्या कर दी है तो एकबारगी मुझे अपार खुशी हुई, लेकिन थोड़ी ही देर बाद उसकी इस आसान मौत ने मुझे गहरी उदासी में भी धकेल दिया। अब यह उदासी कभी मेरा पीछा नहीं छोड़ती, सपने में भी नहीं।'

कुमार साहब की इस उदासी ने उन्हें और भी धार्मिक और आस्थावान बना दिया था। दो-चार घंटे पूजा-ध्यान अब उनके दैनिक जीवन का अंग बन चुके थे। अक्सर कोई न कोई संत महात्मा उनके यहाँ बैठा रहता। सत्संग प्रवचन के बाद वे उससे बहस करते और वह बेचारा भाग खड़ा होता।

कुमार साहब जैसे किसी सुनसान चौराहे पर खड़े थे और हर रास्ता उन्हें अपनी ओर आकर्षित करता हुआ सा प्रतीत होता। सत्तर-पचहत्तर की उम्र में जब आदमी माया मोह मुक्त होने लगता है, उनका निजी और सार्वजनिक जीवन गड्डमड्ड होने लगा था। एक बार फिर कुमार साहब जैसे ट्रैफिक जाम में थे और उनका संसार पीड़ा से खदबदा रहा था।

ये क्यों था - मैं नहीं जानता लेकिन ठीक उन्हीं दिनों जब हर तरफ गुजरात का हाहाकार था, कुमार साहब प्रेम कविताएँ लिख रहे थे। डायरी में इस बारे में उन्होंने लिखा था - 'जीवन में मैंने कभी प्रेम कविताएँ नहीं लिखीं। ठीक से कभी प्रेम भी नहीं किया लेकिन अब मन कर रहा है...' मुझे आश्चर्य हुआ कि आखिर वे ऐसा कैसे कर सकते थे? मैं उनसे पूछता, जिरह करता लेकिन उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आता। एक बार, हाँ, बस एक बार उन्होंने कहा था,'जीवन भर मैं दार्शनिक गुत्थियों में उलझा रहा। कभी प्रेम नहीं किया। अब भी जब सोचता हूँ तो लगता है कि कोई भी प्रेम चाहे वह कितना ही महान क्यों न हो, अंततः हास्यास्पद ही होता है लेकिन जब सब खत्म होने लगे तब वही छलावा जीने के लिए जरूरी हो जाता है...'

इन कविताओं के अलावा मैंने कुमार साहब की पुरानी कविताएँ भी पढ़ी हैं। उनमें अक्सर एक बिंब बार-बार आता है जिसमें पूरा ब्रह्मांड एक विराट योनि में तब्दील हो गया है और सृष्टि के तमाम जीव-जंतु उसमें कीड़े-मकोड़ों की तरह गिर रहे हैं। अचानक योनि बंद हो जाती है और पूरा ब्रह्मांड एक ब्लैक होल में बदल जाता है। कुमार साहब की कविताओं में इस तरह के बिंबों का मनोवैज्ञानिक चाहे जो विश्लेषण करें, मुझे तो यह उनके जीवन की हताशाओं का ही एक बिंबात्मक निरूपण जान पड़ता है। हालाँकि कुमार साहब इसे अपनी आध्यात्मिक अनुभूति की विरल उपलब्धि मानते हैं। बहरहाल, कुमार साहब की इधर की प्रेम कविताएँ उनकी पुरानी कविताओं से सर्वथा भिन्न थीं। इन कविताओं में जीवन का उल्लास था, न कि हताशा। इनमें चिक-चिक, टूँ-टूँ करती चिड़ियों की चहक थी, जंगली कबूतरों की बेपरवाह उड़ान थी, रोशनी के कुछ कतरे थे, फूल, जंगल, खरगोश, नदियाँ, झरने, पहाड़, बारिश, चाँद-सितारे गरज कि वह सब कुछ था जो प्रेमियों का आकर्षित करता है।

अब न कोई शिकवा था, न कोई शिकायत।

लगातार एक महीना कुमार साहब ने प्रेम कविताएँ लिखीं, जिनमें प्रेम कम विलाप ज्यादा था। इस बीच वे घर से बाहर भी नहीं निकले। न अखबार पढ़ा, न टीवी देखा। बाहरी दुनिया से वे पूरी तरह कट चुके थे। जब कभी मैं उन्हें देश-दुनिया के बारे में बताता तो वे आश्चर्य से मेरा मुँह ताका करते। फिर जैसे घबरा जाते और अपनी कविताओं में पनाह लेने की कोशिश करते। इस बीच उन्होंने कुल 99 कविताएँ लिखी थीं। सौवीं भविष्य के लिए छोड़ी थी। उसे लेकर वे अक्सर ही बेचैन रहा करते और कहते कि ये 99 कविताएँ मुझे उसी एक के लिए लिखनी पड़ीं। यहीं आस पास कहीं है वह... लेकिन हर बार वह जैसे मेरे हाथ में आकर फिसल जाती है।

अपनी सौवीं कविता पाने की कुमार साहब की जब हर कोशिश नाकाम हो गई तभी वे इस क्रूर और निरंकुश दुनिया में वापस लौटे थे। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से लेकर देश के बड़े बड़े नेताओं को उन्होंने खत लिखे और जटिल से जटिल समस्याओं पर अपने बेहद सरल हल पेश किए। हर खत में अपने नाम के साथ उन्होंने लिखा - अध्यापक, दार्शनिक और चिंतक। लेकिन देश को इन तीनों में से किसी की जरूरत नहीं थी। इसलिए कहीं से कोई जवाब नहीं आया। कुमार साहब रिमाइंडर पर रिमाइंडर भेजते रहे। अब यह भी उनके जीवन का नियमित काम था। कभी-कभार किसी पत्र की प्राप्ति की उन्हें सूचना मिलती तो वे उसे बड़े उत्साह से सबको दिखाते। लेकिन धीरे-धीरे उनका यह उत्साह भी क्षीण पड़ रहा था।

सुबह वे अब भी नियमित रूप से घूमने जाते थे। कभी-कभार मैं भी उनके साथ हो लेता। रास्ते भर वे अपने आध्यात्मिक अनुभव खुलकर मुझसे बाँटते। दुःस्वप्नों की वह शृंखला भी जो पिछले कुछ दिनों से हर रात उनके सपनों में आ रही थी। इस बीच मैं एक बार बनारस भी हो आया था जहाँ उनके जीवन का एक बड़ा हिस्सा पहले कचहरी में क्लर्क और फिर अध्यापक के रूप में गुजरा था। अब उनके जीवन के ब्यौरों में मैं जितना गहरे उतरने की कोशिश कर रहा था, मेरी उलझन उतनी ही बढ़ रही थी। मुझे आश्चर्य होता कि कुमार साहब नाम के जिस बूढ़े को मैं जानता हूँ वह इन ब्यौरों से कितना अलग है। यूँ वे निहायत मामूली इनसान थे। ठोंक-पीटकर भी उनके जीवन का कोई महान किस्सा नहीं बनता था। लेकिन महान किस्से की तलाश भी किसे थी, मुझे तो सिर्फ उनकी एक जीवनी भर लिखनी थी जो लगभग सच जैसी हो क्योंकि संपूर्ण सच जैसा सच तो इस दुनिया में कहीं कुछ होता नहीं। संपूर्ण झूठ जैसा भी कहाँ कुछ होता है। इस दुनिया में जो कुछ भी है वह सच और झूठ का एक कोलाज भर है। ठीक वैसे ही जैसे रोशनी है भी और नहीं भी। कुछ लोग अँधेरे को ही सच मानते हैं लेकिन कौन जाने कि अँधेरा भी सच हो कि न हो। बहरहाल, मेरे सामने जो कुछ भी था वह रोशनी और अँधेरे, सच और झूठ का एक कोलाज भर था।

आठ

मैं जब बनारस से लौटकर आया तब तक शहर काफी कुछ बदल गया था। कुमार साहब प्रातः भ्रमण पर अब भी जाते थे लेकिन अकेले नहीं। उनके साथ अब डोना विंस्टन भी जाया करती थी। डोना कुमार साहब के छोटे बेटे निरंजन की मित्र थी जो हाल ही में अमेरिका से लौटी थी। पारंपरिक अर्थों में जिसे हम खूबसूरत कहते हैं, डोना वैसी तो नहीं थी लेकिन हाँ, एक खास तरह का आकर्षण उसमें जरूर था। साथ ही स्त्री देह से निकलनेवाली एक तीखी गंध जो किसी भी पुरुष को पागल कर देने के लिए पर्याप्त होती है। उम्र के लिहाज से तो वह चालीस पैंतालीस पार कर रही थी लेकिन देखने में तीस से ज्यादा की नहीं लगती थी। लास एंजिल्स में करीब छह माह पहले निरंजन से उसकी मुलाकात हुई थी और तब से वे दोनों काफी निकट आ गए थे। डोना के बारे में निरंजन ज्यादा कुछ नहीं जानता था सिवाय इसके कि उसकी माँ यहूदी थी जो दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान पागल हो गई थी। डोना का जन्म बाद में हुआ और वह अनाथालय में पाली गई। इन दिनों डोना उसी एनजीओ के साथ मिलकर धार्मिक प्रतीकों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन कर रही थी जिसमें निरंजन प्रोजेक्ट हेड था। इस सिलसिले में डोना का भारत आना निरंजन के लिए भी बढ़िया मौका था। वह उसे अपने माता पिता से मिलवाकर हिंदू रीति रिवाज से उससे विवाह करना चाह रहा था। वैसे भी पहली पत्नी से तलाक लिए निरंजन को दो साल से ऊपर हो रहे थे। बच्चे की कस्टडी का मामला निपट चुका था और उसे हास्टल भेज दिया गया था। ये सब सूचनाएँ बीच बीच में कुमार साहब को मिलती रहती थीं लेकिन वे जैसे इन सबसे उदासीन हो गए थे। बहरहाल, डोना ने अपने बारे में कुमार साहब को सब कुछ साफ साफ और निर्द्वंद्व भाव से बता दिया था। मसलन यह कि उसकी माँ एक यहूदी थी जिसे द्वितीय विश्वयुद्ध के समय मित्र सेनाओं द्वारा तब पकड़ा गया जब वह जर्मनी से भागकर अमेरिका में छिपने का प्रयास कर रही थी। तब उसकी उम्र महज पंद्रह साल थी और उसके माता-पिता, भाई और बहन को हिटलर ने कुख्यात गैस चैंबर में मरवा दिया था। डोना की माँ विनी तब बड़ी मुश्किल से वहाँ से भाग सकी थी। लेकिन किस्मत हमेशा साथ नहीं देती। मित्र सेनाओं द्वारा अमेरिका पहुँचने से पहले ही वह पकड़ ली गई। कई दिन लगातार उसके साथ बलात्कार किया गया और जब विनी का शरीर और मन दोनों ही जब चिथड़ा चिथड़ा हो गए तब सैनिको ने उसे स्त्रियों के उस कैंप में लाकर पटक दिया जहाँ युद्धरत सैनिकों की विश्रांति के लिए उन्हें मित्र देशों की तरफ से बतौर वेश्या नियुक्त किया जाता था।

डोना की माँ विनी भी तब दो साल तक वहाँ रही। जब युद्ध खत्म हुआ तो विनी को भी कैंप की तमाम औरतों के साथ यूरोप की सड़कों पर भटकने के लिए छोड़ दिया गया। हालाँकि उस समय तक अनेक ऐसी औरतें भी सामने आईं थी जिनके गर्भ में युद्धकाल के चिह्न जन्म ले चुके थे। (डोना ने बताया कि ऐसी तमाम स्त्रियाँ आज भी मित्र देशों से अपने हक की लड़ाई लड़ रही हैं। हालाँकि यह लंबी लड़ाई लड़ते लड़ते अनेक स्त्रियों ने अंततः इस दुनिया को ही अलविदा कह दिया।) कई स्त्रियाँ पागल भी हो गईं। विनी विंस्टन भी उन्हीं में से एक थी। डोना के अनुसार उस समय उसकी उम्र मुश्किल से सोलह या सत्रह साल रही होगी। अगले दस पंद्रह साल वह सड़कों पर यूँ ही भटकती रही। इस बीच डोना का जन्म हुआ और वह अनाथालय में पहुँचा दी गई। उसे नहीं पता कि उसका पिता कौन था, अनाथालय वह कैसे आई और फिर उसकी माँ का क्या हुआ? और अब तो उसे खुद भी इन सवालों में से किसी के भी जवाब की जरूरत नहीं रही। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान डोना की माँ विनी को सैनिकों द्वारा क्रूरतापूर्वक वेश्या बनाए जाने और फिर उसके पागल हो जाने की कहानी सुनकर कुमार साहब जरूर भावुक हो गए थे और एक बार जब उन्होंने डोना के प्रति अतिरिक्त सहानुभूति जताने का प्रयास किया तो थोड़ी देर के लिए वह असहज हो गई थी। पल भर के लिए उसके चेहरे पर एक खास तरह की कठोरता आई लेकिन अगले ही पल एक जोरदार ठहाके साथ वह हँस पड़ी।

कुमार साहब समझ ही नहीं पाए कि आखिर हुआ क्या? काफी देर तक वे भकुए की तरह उसका चेहरा देखते रहे थे। बहरहाल... उस समय डोना विंस्टन की उम्र सत्रह साल थी जब वह अपने एक आवारा प्रेमी के साथ अनाथालय से भागी थी। इसके बाद तकरीबन दो साल तक यहाँ-वहाँ भटकने के बाद उसने जान लिया था कि स्वर्ग उजाड़ है और प्रेम एक ऐसी लालसा जो कभी पूरी नहीं होती। आखिर एक दिन अपने आवारा प्रेमी को मुक्त करते हुए उसने अपनी मुक्ति की भी घोषणा कर दी। 'उसका प्रेम मुझे और उसे दोनों को ही कमजोर बना रहा था। मुक्त होना हम दोनों के लिए ही एक तरह से ठीक था। हालाँकि उसकी मुझे जरूरत से ज्यादा कीमत चुकानी पड़ी।' उसने कुमार साहब से कहा था।

दरअसल, डोना का आवारा प्रेमी पीटर स्मैक के नशे का आदी था और बाद के दिनों में स्मैक के नशे में वह उसे बुरी तरह पीटने लगा था। इस बीच डोना गर्भवती हो गई थी और अवसाद का शिकार भी। रहने का भी उनका कोई स्थायी ठिकाना नहीं था और लगभग दो साल तक वे यहाँ-वहाँ जरायमपेशा लोगों की तरह भटकते रहे थे।

पीटर की आमदनी का भी कोई स्थायी जरिया नहीं था और वह पैसों के लिए अक्सर डोना को अपने स्मैकिया दोस्तों के हवाले कर दिया करता था। वह एक अजीब रात थी जब पीटर और स्मैकिया दोस्त घर आए थे। पीटर घर से बाहर चला गया था और उसके स्मैकिया दोस्त घर के अंदर। उस समय डोना का गर्भ छह माह का था। अजीब था कि ऐसे में भी डोना पीटर को बहुत प्यार करती थी और पीटर डोना को। प्यार का कोई तर्क नहीं होता, न कोई सहूलियत।

उस रात के बाद डोना का गर्भ गिर गया। वह दर्द से बहुत रोई चिल्लाई और फिर उठ खड़ी हुई। पीटर उसके साथ था लेकिन अब डोना उसके साथ नहीं थी। इसके बाद डोना पीटर को छोड़कर ब्रुशेल्स चली आई। यहाँ उसने खुलकर वेश्यावृत्ति की और अपनी पढ़ाई-लिखाई भी। (जीवन में कुछ असंभव संभावनाएँ हमेशा खुली रहती हैं।) इस बीच उसने अच्छा-खासा पैसा जुटा लिया था लेकिन अब उसके जीवन में उसके अलावा और कोई नहीं था। बाद के दिनों में वह एक एनजीओ से जुड़ी और धार्मिक प्रतीकों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करने लगी। लेकिन अब भी कभी-कभी उसे अपने बच्चे और पीटर को खोने का गम बहुत सालता था। (आदमी क्या खोता है और क्या पाता है - यह उसके मन और आत्मा से निर्धारित होता है। यह बात यहाँ कुमार साहब ने कही थी।) बहरहाल...

डोना कुमार साहब के यहाँ मुश्किल से पंद्रह दिन ही रही मगर इसने उनके जीवन में आमूलचूल बदलाव ला दिया। अब न पूजा-पाठ में उनकी कोई खास दिलचस्पी थी न बेमतलब की अध्यात्म चर्चा में। अब वे हरदम किसी बच्चे की तरह चहकते हुए पल-पल जीवन का आनंद उठाने में मुब्तिला थे। उनका यह कायांतरण मेरे लिए तो आश्चर्य का विषय था ही, उनकी पत्नी के लिए भी कम हैरानी की बात नहीं थी।

कुमार साहब अब सुबह सैर के लिए जाते तो चिड़ियों को दाना चुगाते, अवारा कुत्तों के साथ खेलते। कभी मन किया तो गंदे नाले के पास चले जाते और वहाँ दौड़ती-भागती गिलहरियों के साथ अठखेलियाँ करते। खाने में भी उनकी रुचि अचानक से बढ़ गई थी और वे रोज नए-नए व्यंजन बनवाने लगे थे। फैशनेबुल कपड़ों को शौक भी इधर उनका कुछ इस कदर बढ़ गया था कि लोग आश्चर्य करते। यहाँ तक कि कई बार बच्चे यह कहकर उनका मजाक उड़ाते कि बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम। उनकी इन तमाम हरकतों पर आस-पड़ोस की औरतें हँसतीं तो उनकी पत्नी खीझतीं।

मुझे लगता था कि यह सब कुमार साहब के अवसाद का नतीजा है इसलिए मैं उनसे कुछ न कहता। इस बीच हम लोगों में कोई खास बातचीत भी न होती थी। मुझे लगता है कि कुमार साहब अपनी जीवनी का किस्सा भी भूल चुके थे क्योंकि इस बीच उन्होंने उसका कभी कोई जिक्र नहीं किया।

खुद मैं भी उसे लेकर उदासीन हो चुका था और कुमार साहब की जीवनी के पुराने रफ ड्राफ्ट्स अब मेरी आलमारी में कहीं धूल खा रहे थे...

इस सबको भी अब एक लंबा अरसा बीत चुका था कि एक दिन खबर आई कि कुमार साहब सख्त बीमार हैं। मैं जब उन्हें देखने अस्पताल पहुँचा तो वे अचेतावस्था में थे और अनाप-शनाप बड़बड़ा रहे थे। मैंने ध्यान से सुना। उनके मुँह से से जो अस्फुट से शब्द फूट रहे थे वे दरअसल रवींद्रनाथ टैगोर की पंक्तियाँ थीं - आकाश भारा सूर्जोतारा। फिर वे शेली या कीट्स का कोई जुमला दोहराने लगते। उनकी बेतरतीब दाढ़ी काफी बढ़ गई थी मगर चेहरे पर अब भी एक प्रफुल्लता का भाव था। यह शायद बुझते दिए की अंतिम भभकती लौ की तरह था। डॉक्टरों से बात करने पर पता चला कि उन्हें अचानक से ब्रेन स्ट्रोक पड़ा है। शायद किसी बहुत खुशी या बहुत गम के कारण। उनकी पत्नी ने बताया कि कल सुबह तो बहुत खुश थे। सुबह नहा-धो कर टहलने गए। लौटकर अपना मनपसंद नाश्ता किया। फिर अपनी प्यारी बिल्लियों के साथ खेलते हुए अचानक रेकार्ड प्लेयर पर अपना मनपसंद संगीत सुनने बैठ गए। मैं रसोई में थी कि अचानक अपनी स्टडी से इन्होंने आवाज दी और एक कप चाय लाने को कहा। चाय लेकर जब मैं स्टडी में पहुँची तो देखा कि ये डायरी में कुछ लिख रहे थे। थोड़ी देर बाद इनकी स्टडी से धड़ाम की आवाज आई। मैं दौड़कर गई तो देखा कि ये कुर्सी से लुढ़ककर जमीन पर गिरे पड़े हैं। हाथ-पैर अकड़े हुए थे और आँखें उलट गई थीं। फिर फौरन डॉक्टर को बुलाकर अस्पताल में भर्ती कराया गया।

बहरहाल, डॉक्टरों ने कुमार साहब की हालत नाजुक बताते हुए कुछ भी कहने से इनकार कर दिया था और फौरन उनके बच्चों को बुलाने की सलाह दे दी थी। मेरी स्थिति अजीब धर्मसंकट में थी। कुमार साहब की पत्नी को दिलासा देते हुए मैंने फौरन उनके बच्चों को फोन पर सूचना दी और तमाम औपचारिकताएँ पूरी करने में जुट गया। खैर... जिस दिन कुमार साहब की मृत्यु हुई वह न गांधी जयंती का दिन था, न पंद्रह अगस्त और न ही 26 जनवरी का। वह एक आम सा दिन था। वह बहुत खोजबीन करके देखें तो उस दिन का कोई किस्सा नहीं बनता था। जैसे तमाम दिन तमाम लोग मरते हैं वैसे ही कुमार साहब भी मरे। उस दिन भी सुबह सूरज वैसे ही निकला था जैसे और दिन निकलता है। तारे वैसे ही डूबे थे जैसे और दिन डूबते हैं। लोग ऑफिस को और बच्चे स्कूल को वैसे ही निकले थे जैसे और दिन निकलते हैं। दोपहर वैसे ही लंबी और ऊबभरी थी जैसी और दिन होती है। (खासकर गर्मियों में)

कुल मिलाकर सब कुछ वैसा ही था जैसे और दिन होता है। सिवाय इसके कि उस दिन कुमार साहब नहीं थे। जीवन में ऐसा ही तो होता है कि किसी दिन अचानक कोई नहीं रहता और उसके न रहने के अलावा बाकी सब कुछ वैसे का वैसा ही रहता है। या शायद कुछ भी वैसा नहीं रहता क्योंकि सब कुछ वैसा रहने के बावजूद उसके न रहने का अहसास तो रह ही जाता है। कुमार साहब के साथ भी यही हुआ। वे नहीं रहे तो उनके न रहने का अहसास रह गया।

वे दोपहर बाद गुजरे थे। शाम तक सबने मिलकर उनकी अंत्येष्टि भी कर दी थी। घर-परिवार में लोग थोड़ा-बहुत रोये-गाये फिर अपने-अपने काम पर लग गए। मातमपुरसी को आए लोग भी धीरे-धीरे जाने लगे थे। मैं आने ही वाला था कि अचानक उठकर टहलने लगा। एक अजीब उदासी, बेचैनी और खालीपन सा महसूस हो रहा था। हालाँकि सब कुछ वैसा ही था फिर भी...। कुमार साहब की पालतू बिल्लियाँ आकर पैरों पर लिपट गई थीं। मैंने उन्हें गोद में उठा लिया और दुलार करने लगा। आज उनकी आँखों में खा जानेवाली वह खूँखार चमक नहीं थी। मेरी गोद में खेलते-खेलते अचानक वे उछलकर कूद गईं और कुमार साहब की स्टडी की तरफ भाग गईं। मैं भी उनके पीछे-पीछे हो लिया।

मेज पर उनकी वह डायरी वैसे ही पड़ी थी जिसमें अस्पताल जाने से पहले वे कुछ लिख रहे थे। मैंने डायरी उठाई। अंतिम पृष्ठ पर वही तारीख पड़ी थी जब वे अस्पताल को गए थे। उस पर संस्कृत के तमाम श्लोक और कुछ सूत्र वाक्य थे। लिखा था - 'मरना ही सब कुछ नहीं होता, सही समय पर मरना जरूरी होता है।' फिर लिखा था - 'सारे रास्ते एक ही मंजिल तक जाते हैं और कोई रास्ता कहीं नहीं जाता...' इसके आगे जैसे कोई प्रार्थना थी -

'जब मैं चिरनिद्रा में सो जाऊँ

तो मेरी गलतियाँ लोगों के दिलों में न चुभें

लोग मुझे याद करें

और मेरे भाग्य पर न रोयें...

मुझे याद करें... मुझे याद करें...'

अंत में लिखा था - 'कहीं कुछ नहीं...'

अब इसका क्या अर्थ था, मैं कह नहीं सकता। डायरी बंद करके मैं बाहर आ गया। रात गहरा गई थी और आसमान में तारे रोज की तरह ही खिले हुए थे।