कही-अनकही: संवेदना की एक अंतर्यात्रा / पूनम चौधरी
'कही-अनकही' शशि पाधा का एक भावपूर्ण काव्य-संग्रह है, जिसमें उनकी 63 कविताएँ तथा अंत में 'एक अंतर-संवाद' शीर्षक से कुछ आत्मद्रष्टा मुक्तक संकलित हैं। यह संग्रह न केवल उनके व्यापक जीवनानुभवों का प्रतिबिंब है, बल्कि एक संवेदनशील मन की सामाजिक, सांस्कृतिक और आंतरिक यात्रा का भी चित्रण करता है।
हर कविता जैसे जीवन के किसी अनकहे क्षण की पुनर्रचना है—जहाँ अनुभव बोलते हैं, मौन गूँजता है और शब्द आत्मा की स्याही से लिखे जाते हैं। संग्रह के अंत में प्रस्तुत 'अंतर-संवाद'—छोटी-छोटी मुक्त छन्द कविताओं की शृंखला—मानो मन के आइने में झाँकते आत्मस्वरों का दस्तावेज़ है, जो पाठक को भी अपनी ही अंतर्यात्रा की ओर आमंत्रित करता है।
यह संग्रह केवल कविता नहीं, संवेदना का दस्तावेज़ है—जो कहे से अधिक, कहीं अनकहे को प्रकट करता है।
शशि पाधा जी का काव्य-संग्रह 'कही-अनकही' एक ऐसा अंतः संग्रह है, जो पाठक को मात्र कविता की पंक्तियों से नहीं, बल्कि भावों की उन अतल परतों से जोड़ता है, जहाँ शब्द मौन हो जाते हैं और अनुभूति बोलने लगती है। यह संग्रह केवल व्यक्तिगत अनुभवों की अभिव्यक्ति नहीं; बल्कि संवेदना की उस व्यापक भूमि का दस्तावेज़ है, जहाँ एक स्त्री की चेतना समाज, प्रकृति, आत्मा और समय से संवाद करती है—गहराई से, धैर्य से और एक अलक्षित, परंतु सतत बहने वाली आत्मिक धारा के साथ।
शशि पाधाजी की कविताएँ उस पारदर्शी आत्मस्वर की प्रतीक हैं, जो बिना शोर किए पाठक के भीतर उतरती हैं। वे मन के उन कोनों में प्रवेश करती हैं, जहाँ स्मृतियाँ ठहरी होती हैं, संवाद रूठे होते हैं और सम्बंध प्रश्नवाचक हो जाते हैं। यह काव्य-संग्रह किसी एक भाव या विचारधारा का वाहक नहीं; बल्कि बहुध्वनिक अनुभूतियों का ऐसा समुच्चय है, जहाँ प्रेम, पीड़ा, अकेलापन, संघर्ष, स्मृति, विस्मृति और मौन—सभी अपनी-अपनी जगह पर समूची गरिमा के साथ उपस्थित हैं।
चलो बचा लें
दुनिया की आपाधापी से
आधा दिन, आधी रात
सिर्फ
अपने लिए...
तुम गुनगुनाना कोई गीत
मैं जोड़ दूँगी कोई भूली कड़ी...
ये पंक्तियाँ, केवल अनुरोध नहीं हैं; यह अस्तित्व की उस भीतरी थकान का स्वीकार है, जहाँ प्रेम एकांत का साथी बनता है और समय की रेत पर एक छोटा-सा आश्रय माँगा जाता है।
शशि पाधा जी की रचनाएँ स्त्री-अनुभवों की तहों को छूती हैं; पर वे केवल 'नारी लेखन' की सीमा में नहीं बँधतीं। उनकी स्त्री अनुभव करती है, जानती है, सहती है और फिर भी मुस्कराकर जीवन को स्वीकार करती है। वह नारे नहीं लगाती, प्रतीकों का बोझ नहीं उठाती; बल्कि साधारण के भीतर असाधारण को खोज लेती हैं—बिना किसी हठ या घोष के।
विधना ने जो लिखा हाथ में
जीवन ज़िया बबूल-सा
थोड़ा-थोड़ा काँटों के संग
थोड़ा-थोड़ा फूल-सा।
इन पंक्तियों में जीवन की संपूर्णता समाई है—न कोई अति नाटकीयता, न कोई अवसाद का आवरण। बस, एक गहराई से आया आत्मस्वीकृति का स्वर—जो पाठक को अपनी ही स्मृतियों की गलियों में ले जाता है।
संग्रह की भाषा विशेष उल्लेखनीय है। वह न तो भाषायी प्रदर्शन में उलझती है, न ही सरलीकरण के मोह में डूबती है। कहीं वह संस्कृतनिष्ठता का स्पर्श देती है, तो कहीं बोलचाल की सरलता से मन को छू जाती है। यह भाषा निखरी हुई है, परिष्कृत है, पर कृत्रिम नहीं। उसमें आत्मा की आर्द्रता है, जिसकी झलक एक साधारण प्रतीत होने वाली पंक्ति में भी मिल जाती है।
प्रकृति इस संग्रह में केवल बिंब नहीं, वह एक जीवंत संवाद-भागीदार है। कवयित्री चाँद से बातें करती हैं, हवाओं को सम्बोधित करती हैं और फूलों से मूक साक्षात्कार करती हैं। यह प्रकृति-प्रेम निरा सौंदर्य-विलास नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक सान्निध्य है, जो जीवन के सूक्ष्म स्पंदनों को गूँथता है।
ओ रे चंदा! मन के मीता
कहनी है एक बात
मुझसे मिलने क्यों आए तुम
इक पखवाड़े बाद?
यहाँ 'चंदा' कोई प्रतीक नहीं, एक जीवंत सहचर है, जिसके सामने मन की उलझनें खुलती हैं और अधूरे संवाद आकार पाते हैं।
इस संग्रह की विशेषता यह भी है कि इसमें कविता आत्म-संवाद की शैली में खिलती है। पाठक जब कवयित्री की कविताओं को पढ़ता है, तो महसूस करता है कि वह स्वयं से बातें कर रहा है—कभी मौन में, कभी स्मृति में, कभी पश्चाताप में और कभी एक नन्हे से संतोष के साथ।
अब कैसे मन संवाद करें
अधरों ने चुप्पी साधी है ...
न मौन मुखरित हुआ कभी
न मन ने आखर लिखे कहीं...
ये कविताएँ आत्मकथ्य हैं, पर आत्मकथात्मक नहीं। वे निजी हैं, पर निजता के खोल में बंद नहीं। इनकी सच्चाई सार्वभौमिक है और यही इनकी सबसे बड़ी ताक़त है।
शिल्प की दृष्टि से यह संग्रह मुक्तछंद और छंदोबद्ध दोनों ही शैलियों में रचा गया है; लेकिन कहीं भी छंद कविता की उड़ान को बाधित नहीं करता—बल्कि उसमें एक लयात्मकता, एक संगीतमय अंतर्ध्वनि जोड़ देता है, जो कविता को गूँजती, बनाती है—पाठ के बाद भी, मन में देर तक।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि 'कही-अनकही' एक कवयित्री के भीतरी संसार की यात्रा नहीं; बल्कि पाठक को उसके अपने ही भीतरी लोक की ओर मोड़ने वाला एक कोमल, गहन और अत्यंत आवश्यक आमंत्रण है।
छूट गया था साथ जहाँ पर
आओ वही मुलाकात करें
चलो नई शुरुआत करें
आओ तोड़ें सन्नाटे को
मौन में संवाद करें...
यह संग्रह हमारे समय की उस दुर्लभ काव्यधारा का प्रतिनिधित्व करता है, जहाँ अनुभवों की प्रामाणिकता, भाषा की पारदर्शिता और संवेदना की गहराई एक साथ मिलकर एक ऐसा रूप रचती हैं, जो लंबे समय तक पाठक की चेतना में ठहर जाता है।
लाख परतों में छिपाओ
चाशनी में डुबो लो
रेशमी धागों में पिरो लो
चंदन की ख़ुशबू में लपेट लो
शब्द...
पारदर्शी होते हैं
सच कहते हैं
ज़रा सँभलके...
शशि पाधा जी का यह संग्रह समकालीन हिन्दी कविता में एक स्थिर, मौन, किंतु प्रभावशाली उपस्थिति है—जो किसी उद्घोष की अपेक्षा नहीं करती, केवल एक निशब्द आत्मीय स्पर्श से पाठक को छूकर निकल जाती है। यह वह काव्य नहीं जो पढ़ा जाता है, यह वह अनुभव है जो ज़िया जाता है।
कही-अनकही (काव्य-संग्रह) : शशि पाधा, पृष्ठ: 152, मूल्य-425 रुपये, संस्करण-2025, प्रकाशक: अयन प्रकाशन, जे-19 / 39, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059
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