कही ईसुरी फाग / मैत्रेयी पुष्पा / पृष्ठ 1
अगला भाग >> नाटक
दिन के साढ़े दस बजे थे। गली में धूप फैल गई थी। तभी मैरून रंग की चमचमाती हुई कार सर्राटे से गली में घुस आई। उस चबूतरे के पास खड़ी हो गई, जिसके ऊपर नीम का पेड़ था और नीम के आगे बैठका बना था। बैठका के किवाड़ बन्द थे, क्योंकि फगवारे रात के लिए फाग-नाट्य का अभ्यास कर रहे थे। इसलिये उन्हें इस ‘आई कोन फोर्ड’ ब्रान्ड कार के आने का पता नहीं चला। हार्न की आवाज भी सुनाई नहीं दी। अन्दर झीका नगड़िया, मंजीरा, ढोल और रमतूला जैसे वाद्य बज रहे थे। गली में बहुत सारे बच्चे इकठ्ठे हो गए। इनकी आँखों में भी कोई कौतूहल न था, अभ्यस्तता-सी थी, जैसे कार का आना-जाना अक्सर देखते हों अपने गांव में। बरहाल छोटे से छोटा बच्चा कार में से उतरने वालों की उम्मीद भरी नजरों से देख रहा था। किसी-किसी बच्चे ने कार के शीशे पर आँखें सटा रखी थीं।
या इस कार में से कोई परी उतरने वाली है ? या कोई सांता क्लॉज, जो इन बच्चों के लिए तोहफे लाए ? मगर बहुत देर तक कोई नहीं उतरा।
कार ड्राईवर बराबर हॉर्न दिए जा रहा था। गली कर्कश शोर से भर गई। बच्चे भी सहम कर पीछे हट गए। गली में खुलने वाले घरों से इक्का-दुक्का लोग निकले, जो कार को देखकर घरों में ही लौट गए।
तभी बैठका का दरवाजा खुला। किवाड़ों के बीच नगड़िया बजानेवाला कलाकार दिखा। और फिर कार के पिछले दरवाजे खुले। भीतर से जो निकले, वे दो लड़केनुमा आदमी थे। पोशाक के नाम पर जींस के साथ डेनम की जैकेट। छाती पर बटन खुले हुए। इनकी इकहरी छाती के बाल मर्दानगी की निशानी हैं, दिख रहा था। गले में फैशन के तहत रूद्राक्ष की मालाएँ और बाहों पर काले धागे के जरिए बँधे ताबीज। उनका पहनावा यूनीफार्म की तरह था, जो किसी संस्था की एकता के चिन्ह की तरह होता है। संस्था के क्या तेवर होंगे, यह लड़कों की सुर्ख आँखों से जाना जा सकता था।
उनकी नजरें भी नेजों की तरह तेज थीं। जल्दबाजी अंगों में फड़क रही थी। चाल में खास किस्म की दमक, जो दहशत-सी पैदा करती थी। चेहरे के भावों में लोलुपता का रंग लार की तरह टपकता था। मुझे ऐसा ही लगा। हो सकता है अपने लड़कीपन के कारण लगा हो, जो संस्कारों में घुला है।
वे बैठका के भीतर समा गए। अभिनय के लिए ‘ग्रीन रूम’ रूपी कोठे में बहती वाद्यों की स्वर-तरंगें यकायक ऐसे रुक गई जैसे सामने कोई अलंघ्य पहाड़ आ गया हो। कहाँ मौके के हिसाब से वाद्यों के साथ फागें ऐसे क्रम में बिठाई जा रही थीं, जैसे माला को मोहक और मजबूत बनाने के लिए मनकों और धागे को जोड़ा जाता है ।
कथा के अनुसार लोककवि ईसुरी की उन फागों को विशेष महत्त्व दिया जा रहा था, जो उनकी प्रेमिका रजऊ की ओर से थीं।
लड़के अब फगवारों के आमने-सामने थे। मैं उन्हें बाहर से देख रही थी। मैं, अर्थात ऋतु नाम की युवती। मैंने माइकेल जैक्सन को टेलीविजन के पर्दे पर देखा है। कार से उतरकर यहाँ तक आने वाला एक लड़का माइकेल जैक्सन छाप लम्बे बाल रखे हुए था, लम्बे और सीधे। दूसरे के सिर पर खूँटानुमा छोटे बाल थे। मेरा साथी माधव ऐसे बालों को अमेरिकन स्टाइल में ‘क्रूकट’ कहता है। दोनों लड़कों का कद लम्बा माना जा सकता था, ऐसा जैसा की पुलिस और सेना के लिए काम करने वाले युवकों की भर्ती करते समय लम्बाई और सीने की चौड़ाई का खास माप रखा जाता है।
बेशक वे पतली कमर के मालिक थे और जरूरत से ज्यादा चौड़ी पेटियाँ कमर में बाँधे थे। मैंने यह भी गौर किया कि वे सीड़ियों के जरिए चबूतरे पर नहीं चढे थे, खास तरीके से टाँगें उछालते हुए ऊपर आ गए थे। इस अदा ने उनके रूप को नई तरह का रूतवा दिया था, इसमें संदेह नहीं। साथ ही खुली किवाड़ों को बेमतलब धकियाते हुए बैठका में प्रविष्ट हुए, उनकी अपनी नई शैली थी। और फिर-
‘‘हल्लो’’ धीरे पंडा का अभिनय करने वाला फगवारा फुर्ती से आगे बढ़ता हुआ आया और हाथ बढ़ाकर माइकेल जैक्सन से हाथ मिलाया।
मगर इसके बरक्स मेरी निगाह वहाँ ठहर गई, जहाँ कार ड्राइवर अपनी जेब से टॉफी निकाल-निकालकर बच्चों को बांट रहा था और बच्चे उत्फुल्ल होकर होंठों पर जीभ फेरते हुए छोटे-छोटे हाथों से सौगात ग्रहण कर रहे थे।
इधर क्रूकट पूछ रहा था- ‘‘कैसे हाल-चाल हैं ?’’
‘‘नाटक कर रहे हैं। फागें बढ़िया रंग लै रही हैं।’’ धीरे पंडा ने कहा।
इतने में दो मूढ़े बराबर-बराबर रख दिए गए। वे दोनों इत्मिनान से मूढ़ों पर विराजे और दो क्षण बाद ही माइकेल जैक्सन ने अपनी जैकेट की जेब से छोटी-सी थैली निकाली। थैली खैनी की थी। वह हथेली पर खैनी अँगूठे से मलने लगा, पट्ट-पट्ट की आवाज हुई। खैनी मुँह में डालने से पहले सवाल किया- ‘‘कितने दिनन को पिरोगराम है ?’’ मैं चौकी। अत्याधुनिक वेशभूषा और अति गँवार भाषा-बोली !
धीरे पंडा जवाब दे रहा था- ‘‘ सरस्वती देवी जानें कि हमें कितेक दिनन रोकेंगीं।’’
‘‘फिरऊँ।’’ क्रूटक ने मुँह मटकाया।
‘‘हफ्ता-दस दिना तो मामूली हैं। गाँव में भी जोश है।’’
‘‘कैसो गाँव है ! गाँवन में आजकल फागें को सुनत ? बैंचो सब पिक्चर के दिवाने हैं। सबै स्वाँग चइर।’’
‘‘चइर, तब ही तो हमने फागें नाटक में ढाली हैं। सरस्वती देवी नई-नई जुगत खोजने वाली जनी है। सो देख लो रात को ग आसपास के गाँवों से चले आ रहे।’’ धीरे पंडा अपने काम पर मुग्ध था।
मैं कोठे के बाहर खड़ी थी। माइकेल जैक्सन बीच-बीच में बाहर देख लेता था। थोड़ी ही देर बाद पूछ बैठा- ‘‘मंडली में लड़कियाँ भर्ती करलईं का ?’’
नगड़िया वाला तुरंत बोला - ‘‘अरे आँहा !’’ कहकर उसने कानों में हाथ लगाया। माइकेल जैक्सन सिर हिला-हिला कर मुस्काया और बोली में व्यंग्य मिलाकर बोला- ‘‘हओ, ऐसो पाप करम तुम्हारी सरसुती नहीं करेंगी, काए से कि बैंचो फगवारे मतवारे हो जाएँगे। फागुन में क्वार महीना।’’ कहकर वह ठाहाका लगाकर हँसा। क्रूकट ने हँसी में साथ निभाया। आगे क्रूकट बोला- ‘‘खुर्राट डुकरिया है, सिरकारी लोगन खों भरमा रही है।’’
धीरे पंडा बनने वाला कलाकार माइकेल जैक्सन और क्रूकट के गूढ़ दर्शन को नासमझ की तरह मुँह बाए सुन रहा था। बाकी फगवारे भोले बच्चों की तरह स्वीकृति में सिर हिला रहे थे।
हाँ मैं तनिक पीछे हट गई कि वे मुझे न देख सकें। मगर वे भी तो मुझे नहीं दिख पा रहे थे। बस उनमें से एक की आवाज सुनाई दी- ‘‘तुम लोग खुदई देखोगे एक दिना कि तुम्हारी बूढ़ी सरसुती चिरइया जहाज में बैठके उड़ गई। हम ऐसी तमाम औरतन खों जानते हैं, जौन अनुदान खा-खाकें मुटिया रही हैं। सो बस सरसुती जी होंगी मालामाल और तुम ससुर जू ठोकते रहो नगड़िया, नाचते रहो जिन्दगी भर-।’’
मैं आवेश में उस खिड़की पर आ गई, जिनके पाटों के बीच महीन-सी फाँक थी। मेरे भीतर गालियों की झड़ी लग गई- बदतमीज, बदमाश, गुंडे सरस्वती देवी का इस तरह अपमान कर रहे हैं ? आखिर वे इनका क्या खाती हैं ? मालामाल हो गईं होती तो छोटे से गाँव सटई में रह रही होतीं ? कच्ची गलियों में पैदल चल रही होतीं ?
अब क्रूकट की बारी थी- ‘‘हम कितेक समझाएँ तुम्हें कि हाथी के दाँत खावे के और, दिखावे के और। इन सरसुती जू के भरोसे न रहो, लछमीं जू का भी मान-आदर करो। कहो, हमारे संगै जब-जब गए हो, जेबें भरके रूपइया मिले हैं कि नहीं ?’’
धीरे पंडा ने हामी भरी, सिर ऊपर-नीचे हिलाया। नगड़िया वाले ने मुस्कराहट के साथ कहा- ‘‘सो ऐसान मानते हैं हम तुमारा।’’
माइकेल जैक्सन ने उँगली के बाद कलाई पकड़ने जैसा भाव दिखाया- ‘‘ऐसान काय का ? बैंचो आँधी के से आम हते। कोन-सी परमामेन्ट आमदनी हती ? ऐसान तो तब मानोगे, जब पाँच सितारे वाले होटिल में तुम्हें ठाड़े कर देंगे हम। पोंदन (चूतरों) के नीचे मखमल और पाँवन तले ईरानी कालीन’’ धीरे पंडा अकबकाया- सा देखने लगा।
क्रूकट बोला-‘‘उजबक की तरियाँ क्या देख रहे ? हमारी तरफन अच्छी तरह हेरो। देख लो, मोबाइल गरे में डारे हैं और तमंचा जेब में धरे हैं। बैंचो आईकोन ठाड़ी है अरदली में, और क्या चइए आज के जमाने में ? सेठन के मोंड़ा क्या सोने की लेंड़ी हग रहे सो हम नहीं हग रहे ?’’ वाक्य समाप्त करने तक क्रूकट के हाथ में पिस्तौल दिखाई दी। उसने अपने हथियार को धूर्तता से मुस्कराते हुए उस खिड़की की ओर तान दिया, जिधर मैं खड़ी थी।
‘‘यार धीरे पंडा, हुनर खों पहचानो। तुम्हारे जैसी अदाकारी इलाका भर में नहीं है किसी के भीतर। बास्टर सारूफ खाँ की माँ.. तब तक माधव लौट आया, जो नहाने गया था। बाँह पर भींगे अण्डरवियर और बनियान लटकाए हुए साँवले और इकहरे बदन वाला माधव धुली साफ बनियान और पायजामा पहने हुए पूछ रहा था- ‘‘ऋतु, पड़ौस वाले घर से कोई खाने के लिए लिवाने नहीं आया ? सरस्वती देवी तो कह रही थी कि इनकी साथिन सरोज हमारे लिए खाना बना रही है।’’ अगला भाग >>