कही ईसुरी फाग / मैत्रेयी पुष्पा / पृष्ठ 3

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एक आदमी ने विद्रूप सा चेहरा बनाकर कहा था-आजकल पढ़ाई में लुच्चियायी फागें सोई पढ़ाई जाती ?

एक गाँव में एक मनचले ने मुझे घेरकर कहा था-सुनोगी, तुम्हारे लानें हम ईसुरी की फागें लाए हैं-

जुवना कौन यार खों दइए

अपने मन की कइए

हैं बड़बोल गोल गुरदा से, कॉ लौ देखें रइए

जब सरति सेज के ऊपर, पकर मुठी में रइए

हात धरत दुख होत ईसुरी, पीरा कैसें सइए

( तुम किस यार को जुबना दोगी ? इनकी बड़ी कीमत है। ये गुरदे की तरह गोल हैं। सेज पर सर्राते हैं मुठ्ठी में कस लेने को न करता है। हाथ रखने से दुखते हैं, तुम दर्द कैसे सहोगी ?)

वह गाँव मेरी बुआ का गाँव था, मेरी बदनामी बुआ के परिवार की बदनामी थी मैंने रजऊ को अपने शोध का विषय क्यों बनाया है ? मैं अपने ऊपर झुझलाकर रह गई क्योंकि कोई शिकायत करती तो रजऊ के स्त्रीत्व पर कोई विचार न करता, उसके रूप में मेरी देह के अक्स लोगों के सामने फैल जाते।

तब क्या मैं अपने लक्ष्य को वापस ले लूँ ? ऊहापोह में उस गाँव से सवेरे ही सवेरे अपना बैग उठाकर भागी थी, बुआ अचम्भा करती रह गई। अरे लड़की महीने भर के लिए आई थी, मगर...

‘क्या मैं विषय बदल दूँ ?’ सोचा यह भी था।

मगर अपना मन कैसे बदलूँगी ? मन जो माधव को ईसुरी के रूप में देखकर जुड़ा गया था। माधव का ध्यान करते ही चिन्ता तिरोहित-सी होने लगी। वह कॉलिज के झंझावातों में मुझ से ऐसे ही आ जुड़ा था। जुड़ाव ऐसा हुआ कि उसने भी ‘ईसुरी का बुन्देली को योगदान’ को अपने शोध का विषय बना लिया।

माधव मुग्ध भाव से बोला था- ‘‘तुम्हें ताज्जुब क्यों हो रहा है ऋतु ? ईसुरी अपने रऊद के पास आया है।’’

‘‘धत् ! वैसे भी लोग अजीब निगाहों से देखने लगे हैं। प्रतियोगिता में ईसुरी और रजऊ का रोल निभाने वाले कहीं वास्तविक प्रेम की पींगे तो नहीं बढ़ाने लगे।’’

‘‘ठीक ही सोचते हैं लोग। मैंने भी तो यही सुनकर अपने शोध का विषय बदल दिया था कि प्रतियोगिता वाली ऋतु खुद को रजऊ समझने लगी है। मुझे भी ईसुरी होना है।’’ ‘‘आज देख लो माधव मैं खाक छान रही हूँ।’’ माधव ने हँस कर कहा- ‘‘दोनों मिलकर खाक छानेंगे, जल्दी छन जाएगी।’’ माधव की बातें ! मुझे अनचाहे ही हँसी आ जाया करती है। वह दुख को खुशी में बदलने की कोशिश करता रहता है। अन्तरविश्वविद्यालय प्रतियोगिता में जब वह ईसुरी की ओर से फागें कहता था और मैं रजऊ की ओर से गाया करती थी, वह झूमने लगता था। कौन हारा कौन जीता कभी नहीं देखता था। हारकर भी जीत की बातें, यही अदा तो मुझे नहीं लुभा गई ? मैं चिढ़ाती हूँ-माधव निहत्थे होकर शेरों के सपने देखते हो। एक दिन शेर ही तुम्हें खा जाएगा।

‘‘तुम शेर को भी वश में कर लोगी, मैं जानता हूँ। अब मेरे शोध ग्रन्थ को ही ले लो, तुम साथ रहती हो तो उसमें स्त्री -भाषा का चमत्कार घटित होने लगता है। सच में तुम स्त्री के लिए पुरूषों द्वारा गढ़ी गई भाषा को अपदस्थ कर रही हो।’’ ‘‘हाय मंडली चली गई !’’ कहकर मैं बार-बार ठंडे श्वास भर रही थी। माधव मौन उदासी के हवाले था। एक वाक्य कहकर रह गया- ‘‘कैसी खरीद-फरोक्त हुई !’’ माधव आज अपने घर जाने के लिए बैग पैक कर चुका था, क्योंकि मैं अब सरस्वती देवी के साथ यहाँ थी। मंडली की फागे सुन ही नहीं रही थी, देख रही थी। कल क्या नजारा था।

यों तो गाँव था, नाट्यमंच की सभी सुविधाएँ भी नहीं थीं। पर्दा उठने-गिरने का हीला भी नहीं, मगर कुशल संयोजन की करामात कि हर दृश्य सजीव हो उठा। बिजली गुल थी, पैट्रोमैक्स जगमगा रहा था। बाहर आकाश में तैरते चाँद ने चाँदनी धरती पर उतार कर सहयोग किया था। जलती हुई मशाल भी तो फगवारों ने एक कोने में गाड़ रखी थी।

सूत्रधार के रूप में धीरे पंडा उदित हुए। वे दर्शकों का अभिवादन करने के बाद अपने साथियों को सर्वश्रेष्ठ अभिनय करने का इशारा दे रहे थे। तभी किसी दर्शक ने कहा- ‘‘सटई गाँव की सरस्वती देवी से हमें ऐसी ही मंडली की उम्मीद थी। फगवारों में अच्छा जोश है।’’ सरस्वती देवी आगे की लाइन में मेरे और माधव के पास जाजिम पर बैठी थीं। लम्बी कद-काठी की पचाससाला औरत। तीखे नैन नक्श वाला लम्बोतरा गेहुँआ चेहरा। उनका मुख जुड़ हुई भवों के कारण विशेष लगता। वैसे वे मुझे और माधव को शोधार्थी के रूप में पाकर गौरव और उत्साह से भरी हुई थीं।

मंच के बीचों बीच नगड़िया, झींका, बाँसुरी, ढोल और रमतूला जैसे वाद्य रखे थे, जिन्हें घेरकर फगवारे गोल बाँधकर बैठे थे। फगवारे लाल, नीले पीले, हरे कुर्ते और छींटदार पगड़ियों में सजे थे। सबने सफेद धोतियाँ पहन रखी थीं। गिनती में वे दस थे।

यह रचना गद्यकोश मे अभी अधूरी है।
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