कहो न, झाग है / देव प्रकाश चौधरी

Gadya Kosh से
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हाथ धोना अब तक निजी कला थी। लोग कब धोते थे, कब सुखाते थे-पता चलता था और नहीं भी चलता था। हाथ धोने पर बहस भी होती थी, बच्चों को एक दो झापड़ भी पड़ते थे। झापड़ वाले हाथ धुले होते थे या नहीं, याद नहीं, लेकिन फिर भी मैं इत्मीनान से कह सकता हूँ कि हाथ धोना निजी कला थी। कोरोना काल में अब सामुदायिक कला हो चुकी है। पूरा देश धो रहा है। बीस सैकेंड में धो लेना है। पहले सिर्फ़ माँ मानती थी। साबुन का धुला अब सब मान रहे हैं। लेकिन मेरे एक दोस्त का कहना है, उसके साबुन में झाग ही नहीं उठता। बीस सैकेंड में तो कतई नहीं। एक मिनट तक जाते-जाते हाथ का पानी सूख जाता है। फिर से वही प्रक्रिया दुहरानी पड़ती है। इस लंबी प्रक्रिया की वज़ह से वह हर आधे घंटे में हाथ नहीं धो पाता। मेरे गाँव मोतिया से फ़ोन पर उसने कहा-"हो न हो, मेरे साबुन में मिलावट है।" उसने अगर कहा होता कि उसका साबुन स्लो है तो मैं दूसरी दिशा में सोचता। साबुन में मिलावट की बात से दूसरी दिशा में सोच रहा हूँ। जब-जब देसी घी खरीदा ऐसे सवाल मेरे सामने आए और जिस तरह स्टेशन पर मशीन को देखकर शरीर का वज़न बढ़ने लगता है, उसी तरह मैंने ख़ुद का वज़न बढ़ा हुआ पाया। फ़ोन पर उसकी बात पर लगा, मेरे शरीर का वज़न और तापमान दोनों बढ़ रहा है। कुछ और नहीं सूझा तो एक वैष्णव वाक्य मुंह पर आया-"क्या जमाना आ गया!"

इस कठिन वक़्त में पूरे देश को झाग की ज़रूरत है। मेरे दोस्त को कुछ ज़्यादा है। उसे ज़्यादा झाग चाहिए। उसके हाथ ज़्यादा गंदे हैं, ऐसी बात नहीं। लेकिन उसकी ज़रूरत हमेशा झागदार रही है। जब हम छोटे थे, तो गाँव के पास की नदी में जब-जब बरसाती पानी आया, वह किनारे पर झाग देखते खड़ा पाया गया। बीयर के झाग पर झूमने की कला बहुतों ने उससे ही सीखी।

प्राथमिक शाला में मेरे एक शिक्षक थे। वह हमेशा कहते थे-"जो जागेगा सो पाएगा।" मुझे लगता है इस कठिन कोरोना काल में जो झागेगा, वही कुछ आगे कुछ कर पाएगा। लेकिन झाग आए कहाँ से?

साइंस की किताब में लिखा है-"झाग वह वस्तु होती है जो द्रव या ठोस में गैस के बुलबुलों को फंसाने से प्राप्त होती है।" उल्लास की ऊंचाई को दर्शन की गहराई से जोड़ने वाले ज़िन्दगी को पानी का बुलबुला मानते रहे हैं। कोरोना ने बुलबुले का दर्शन बदल दिया है-बुलबुला है तो आगे भी ज़िन्दगी है।

झाग के मामले में एक भारी-भरकम शास्त्र विकसित हो रहा है। मुझे लगता है कि कोरोना काल के बाद ऐसे शास्त्रों की कोई किताब कोर्स में लग सकती है। मैं किताब के शीर्षक पर काम कर रहा हूँ। जैसै कि 'झाग के आर-पार' , 'कहो न झाग है!' , 'झागते रहो' , 'झाग अच्छे हैं!' , 'झाग राग' , 'झागमेव जयते' , 'तुम झाग-झाग, मैं पानी-पानी' , 'झाग का झरना' , आदि-आदि। आपको भी कोई शीर्षक सूझे तो ज़रूर बताएँ, क्योंकि सवाल कोर्स में लग जाने को है। लग जाए तो ज़िन्दगी थोड़ी झागदार हो जाए। लेकिन दोस्त का ख़्याल आता है तो फिर कई तरह के सवाल मथने लगते हैं।

मेरा दोस्त हाथ धोकर झाग के पीछे पड़ा है और झाग की वज़ह से हाथ नहीं धो पा रहा है। । जिस साबुन से हम दिल्ली में झाग पैदा कर पा रहे हैं, उसी साबुन से वह मोतिया में बुलबुला तक पैदा नहीं कर पा रहा। पता चला है, अब वह दिन भर पोखर में खड़ा रहता है। पूरे शरीर को धो रहा है। कहीं ठंड न लग जाए बेचारे को!