क़मीज़ / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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महीने की आखिरी तारीख! शाम को जैसे ही पर्स खोलकर देखा, दस रुपये पड़े थे। हरीश चौंका, सुबह एक सौ साठ रुपये थे। अब सिर्फ़ दस रुपये बचे हैं?

पत्नी को आवाज दी और तनिक तल्खी से पूछा, "पर्स में से एक सौ पचास रुपये तुमने लिये हैं?"

"नहीं, मैंने नहीं लिये।"

"फिर?"

"मैं क्या जानूँ किसने लिये हैं।"

"घर में रहती हो तुम, फिर कौन जानेगा?"

"हो सकता है किसी बच्चे ने लिये हों।"

"क्या तुमसे नहीं पूछा?"

"पूछता, तो मैं आपको न बता देती, इतनी बकझक क्यों करती।" हरीश ने माथा पकड़ लिया। अगर वेतन मिलने में तीन–चार दिन की देरी हो गई तो घर में सब्जी भी नहीं आ सकेगी। उधार माँगना तो दूर, दूसरे को दिया अपना पैसा माँगने में भी लाज लगती है। घर में मेरी इस परेशानी को कोई कुछ समझता ही नहीं !

"नीतेश कहाँ गया?"

"अभी तो यहीं था। हो सकता है खेलने गया हो।"

"हो सकता है, का क्या मतलब? तुम्हें कुछ पता भी रहता है या नहीं", वह झुँझलाया।

"आप भी कमाल करते हैं। कोई मुझे बताकर जाए ,तो ज़रूर पता होगा। बताकर तो कोई जाता नहीं, आप भी नहीं", पत्नी ठण्डेपन से बोली।

इतने में नीतेश आ पहुँचा। हाथ में एक पैकेट थामे।

"क्या है पैकेट में?" हरीश ने रूखेपन से पूछा। वह सिर झुकाकर खड़ा हो गया।

"पर्स में से डेढ़ सौ रुपये तुमने लिये?"

" जी, मैंने...लिये" , वह सिर झुकाए बोला।

"किसी से पूछा?" हरीश ने धीमी एवं कठोर आवाज में पूछा।

"नहीं" , वह रूआँसा होकर बोला।

"क्यों? क्यों नहीं पूछा", हरीश चीखा।

"…।"

"चुप क्यों हो? तुम इतने बड़े हो गए हो। तुम्हें घर की हालत का अच्छी तरह पता है। क्या किया पैसों का" , उसने दाँत पीसे।

नीतेश ने पैकेट आगे बढ़ा दिया- "पंचशील में सेल लगी थी। आपके लिए एक शर्ट लेकर आया हूँ। कहीं बाहर जाने के लिए आपके पास कोई अच्छी शर्ट नहीं है।"

"फि...फिर...भी...पूछ तो लेते ही" , हरीश की आवाज की तल्खी न जाने कहाँ गुम हो गई थी। उसने पैकेट की सीने से सटा लिया।