क़िरदार / जया झा
“पढ़ती हो?” किसी इन्टरव्यू बोर्ड के सदस्य के से लहज़े में पूछे गए इस साधारण से सवाल से भी एकदम से घबरा गई वह पंद्रह वर्ष की दुनियादारी से अनजान किशोरी, किसी अनुभवहीन उम्मीदवार की तरह। हालांकि तब या उसके बाद भी मेरे द्वारा दिए गए ये उपमान उसके दिमाग़ में नहीं आए होंगे। “जी, पढ़ना-लिखना आता है।” अतिसंक्षिप्त सा जवाब देना की कोशिश की उसने। “अच्छा! ज़रा कॉपी-पेन मँगवाइए तो।” किसी ज़रख़रीदे ग़ुलाम की तरह उसकी माँ ने उठकर उसके छोटे भाई से कॉपी-पेन लाने को कहा। उसे हड़बड़ाहट में पेन नहीं मिल रहा था। मैं मौक़े की नज़ाक़त को समझती हुई ज़ल्दी से उठी और बिना कुछ कहे अपने घर की ओर दौड़ गई तथा एक लाल कलम और कॉपी ले आई। लेकिन तब तक उसके भाई ने उसके हाथ में ‘परीक्षा’ के लिए कॉपी-कलम थमा दिया था। “अरे भई! ज़रूरी है। अगर शादी तय हो जाती है तो ससुराल इतनी दूर होगा। कम-से-कम हाल-समाचार लिखना तो आना ही चाहिए।” हाँ भई! बात तो दूर की सोची है। क़ाफ़ी ‘समझदार’ हैं। कहीं किसी अनपढ़ लड़की से शादी न करा दी जाए उनके लड़के की। लड़की का बाप भी गया था लड़का देखने। अब उसे अनुभवहीन कहा जाए कि उसने लड़के की परीक्षा नहीं ली या अनुभवी (आखिर लड़की का बाप था)! ख़ैर! ये पैमाना निर्धारित करने का मुझे न तो कोई अधिकार था, न ही आवश्यकता। आगे चन्द सवालात और पूछ कर बेचारी की इन्टरव्यू से तो छुट्टी हो गई। प्रारंभिक परीक्षा में तो भगवान के दिए चेहरे और शरीर के कारण वह पहले ही पास हो गई थी। अब प्रायोगिक परीक्षा की बारी थी। मुझे यक़ीन था, जो कि सच भी साबित हुआ, उसमें वह आसानी से पास हो गई क्योंकि होश सँभालने के बाद से उसने इसकी ही तैयारी की थी।
लेकिन आजकल की परीक्षाओमें एक चरण और जुट गया है, और इस चरण में उम्मीदवारों की योग्यता धरी की धरी रह जाती है, क्योंकि इस चरण में उनकी योग्यता की नहीं अपितु इस बात की जाँच होती है कि उनके अभिभावकों के पास अपना या दूसरों का छीना हुआ ही सही, कितना खून-पसीना है।
“लड़के की शादी कर रहे हैं, कोई घर से थोड़े ही न ख़र्च करेंगे, लेकिन लड़के-लड़की की शोभा तो होनी ही चाहिए।”मेरी माँ जानती थी कि यह ‘दहेज प्रथा - एक अभिशाप’पर उपदेश पिलाने का समय नहीं है। इसलिए बोली, “हाँ, बात तो आपकी सही है कि घर से क्यों खर्च करेंगे। लेकिन…”
बात पूरी नहीं हुई थी कि कुछ सज्जन-वृंद, जिनमें लड़के के भाई और एक चचेरे भाई थे, अंदर प्रविष्ट हुए। महिलाओं के झुंड में से एक ने कहा, “अरे भई! कुछ कुर्सी वगैरह मँगवाइए तो ये लोग भी बैठ जाएँ।”
माँगी हुई चादर पर उन महिलाओं को बैठाने वाली उसकी माँ इस अनपेक्षित माँग पर सकपका-सी गई, लेकिन फिर सँभल कर बेटे को मेरे यहाँ भेजा। मेरा माँ भी उसके साथ गई और झूठ क्या कहा जाए। ऐसे समय में एक मध्यमवर्गीय परिवार से ज़्यादा शर्मनाक स्थिति किसी की नहीं होती है। एक उच्चवर्गीय परिवार में कुर्सी नहीं होने का कोई सवाल नही है, गरीब के घर में न हो तो कोई बात नहीं, लेकिन एक बैंक ऑफिसर के घर में कुर्सी न हो! जो भी हो घर में कुर्सी नहीं थी। खैर! माँ ने समझदारी से काम लेते हुए एक खाट और उसके साथ एक धोई हुई चादर भिजवा दी। जैसे ही वह खाट लेकर आया, मैनें भी ‘लड़की वालों की तरफ़ से होने के कारण’ सुघड़ता और तत्परता का परिचय देते हुए तुरत उस पर चादर बिछा दी। ये अलग बात थी कि उनके साथ आए छः-सात बच्चों ने, जो नल के पानी से ऐसे सराबोर हो चुके थे, मानों होली खेल कर आए हों, मुश्किल से दो मिनट में उस चादर का कबाड़ा कर दिया। वे देवघर में रहने वाले बच्चे उस भोलेशंकर के गणों से कम तो कहीं भी नहीं दिख रहे थे। कभी-कभी तो उन गणों को लेकर आए लोगों की संख्या देखकर मुझे ये संदेह होने लगता था कि वे लड़की देखने आए हैं या पार्वती को ब्याह कर ला जाने।
खैर! जो भी हो। आख़िर थे तो लड़के वाले ही। उनके पास हाड़-माँस का बना एक प्राणि, जिसे समाज ने ‘लड़का’नाम दिया है, जो शादी के बाज़ार में बिकाऊ और कमाई का अच्छा स्रोत होता है, वह था।
इधर मेरी माँ की उन महिलाओं के साथ बात-चीत आगे बढ़ी। तब तक लड़के के बहनोई अपनी पत्नी को उठाकर अलग ले गए, विचार-विमर्श करने, फिर लड़के के भाई साहब चले, पीछे से उसकी माँ और भाभी भी। अंततः लड़की का पिता भी वहाँ पहुँचा, अपनी क्षमता का ब्यौरा देने।
और फिर उधर से महिलाओं का झुंड लगभग चिल्लाता हुआ लौटा, जहाँ मैं, लड़की की माँ और लड़की देखने आई एक-दो महिलाएँ बैठी थीं। माँ पहले ही किसी काम से घर चली गई थी।
“भला ऐसा भी कहीं हुआ है। अरे! लड़के की शादी कर रहे हैं, घर से तो नहीं ही देंगे। फिर लड़के-लड़की की शोभा तो होनी ही चाहिए। गरीब-से-गरीब भी एक अँगूठी और घड़ी दे देता है। एक सोने की चेन तो चाहिए ही…।”
आगे सुनने की हिम्मत नहीं थी और सामाजिकता के आधार पर उम्र के लिहाज से बैठना भी उचित नहीं था। इसलिए वहाँ से चली आई।
कुछ देर बाद माँ गई थी। खाना-पीने चल रहा था, पर सभी का मिजाज़ सुस्त था। वह वहाँ से चली आई।
उनके जाने के बाद फिर गई, सामाजिकता निभाने। मैं तब तक टी. वी. पर आ रही फ़िल्म देखने का लालच नहीं छोड़ पाई। माँ के पीछे-पीछे ही गई।
वहाँ लड़की की माँ मेरा माँ को माँगों का लिस्ट बता रही थी,”कह रहे थे, कम-से-कम दस हज़ार जो हम पचास बारातियों को लाएँगे और उनकी व्यवस्था करेंगे, बहूभात के लिए कम-से-कम… लड़के-लड़की को कम-से-कम… और…”
क्या इस कम-से-कम की कोई सीमा थी? माँ ने उसे सांत्वना दी, “क्या है? वह नहीं तो कोई और होगा। लड़कों की कमी थोड़े ही न है…”
और मैं? सोच रही थी कि उस लड़के की माँ ने अपनी बेटी भी तो ब्याही, उस लड़के की भाभी भी तो उसी घर में बहू बनकर आई थी, इन्हीं परिस्थितियों को झेलकर…। क्या वे सब ख़ुद को भूल गई हैं? आख़िर वे भी किसी की बेटी हैं, आख़िर उनकी भी कोई बेटी है। लेकिन कोई फ़ायदा नहीं, देखना यह भी है कि आज जो ये बेटी वाले हैं, वे भी कल बेटे वाले बनकर कहीं जाएँगे। क्या उस वक़्त उन्हें यह परिस्थिति याद रहेगी?
ख़ैर! बीच आँगन में एक लैम्प जल रहा था। हमारे घर का ही था। जानती हूँ कि तेल बहुत महँगा है और ब्लैक में मिल रहा है, परन्तु बची-खुची रोशनी भी वहाँ से उठा लेने का साहस नहीं था। लेकिन लड़की कापिता भी इस तथ्य से परिचित था। इसलिए स्वयं ही लैम्प बुझाकर उसने माँ की ओर बढ़ा दिया।
सोच में डूबी घर आई तो माँ से कुछ और भी पता चला। लड़की के बाप के लड़के वालों के पास जाने से पहले उनलोगों ने पाँच रुपये महीना प्रति सौ रुपये के सूद पर एक सूदख़ोर से कर्ज़ लिए थे। और आज फिर ‘कुटुम्ब’के सत्कार के लिए पाँच सौ रुपये।
अजीब उथल-पुथल थी मन में। सभी इस स्थिति का सामना करते हैं, लेकिन फिर भी समाज बदलता क्यों नहीं है? जिसने ख़ुद भोगा, वह दूसरों को भी भोक्ता क्यों बनाना चाहता है? जवाब देना वाला कोई नहीं था। ग्रिल से झाँक कर देखा, तो वह लड़की मेकअप उतार कर, कपड़े बदल जूठे बर्त्तन धो रही थी।
तभी से एक बात और सोच रही हूँ, मैं वहाँ क्यों गई थी? उनके दुख को बाँटने, या तमाशा देखने, या अपनी कहानी के लिए एक सशक्त क़िरदार ढूँढ़ने?