काँच के कमरे : डॉ गोपालबाबू शर्मा / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
समाज की टीस को आकार देती लघुकथाएँ
लघुकथा के सम्बन्ध में कुछ लोगों की अजीब धारणा रही है कि यह आसान लेखन है। कोई घटना हाथ लगी, उसे ज्यों का त्यों उतार दिया और बन गई लघुकथा। अखबार ने (जिनके सम्पादक लघुकथा, दृष्टान्त और प्रेरक प्रसंग में अन्तर ही नहीं कर पाते, उनमें हिन्दुस्तान भी एक है जिसमें आजकल इस तरह की कमियाँ नज़र आ रही हैं) अपना खाली स्पेस देखा और जो उसमें समा गई वह लघुकथा हो गई. विधा की समझ से कोसों दूर होने पर भी रचनाकार को भी लघुकथाकार होने का भ्रम पोषित हो गया; जबकि विधागत क्षमता और गुणवत्ता को ध्यान में रखें तो ये दोनों ही क्षेत्र बहुत कठिन हैं। अनुभव-जगत की परिपक्वता के साथ ही लघुकथा विधा सुदृढ़ भाषिक क्षमता की माँग करती है। कुछ रचनाकार भाषिक अधकचरेपन के कारण इस अखबारी स्पेस की सुविधा को देखकर एक वाक्य, या तीन चार शब्दों में कुछ ऊलजलूल लिखकर लघुकथाकार होने का भ्रम पालने लगे हैं और साथ ही सगर्व घोषणा भी करने लगे हैं।
इस दिशाहीन भीड़ के हो-हल्ले से हटकर एक ऐसे रचनाकार भी सृजनरत रहे हैं, जिनकी ओर लोगों का ध्यान बहुत कम गया है। ये हैं-डॉ गोपालबाबू शर्मा। इनका संग्रह-'काँच के कमरे' में 90 लघुकथाएँ हैं। इनकी लघुकथाओं का विषय घर-परिवार, रूढ़िग्रस्त समाज, मुखौटा पहने साहित्यकार, धर्म गुरु, कपटी नेता आदि हैं। इनकी हर रचन में मानवीय मूल्यों के क्षरण की चिन्ता बरकरार है। डॉ शर्मा जी ने हर विधा में सर्जन किया है; पर व्यंग्य इनका प्रमुख क्षेत्र रहा है। यही कारण है कि व्यंग्य इनकी लघुकथाओं में मुख्य धारा के रूप में दृष्टिगत होता है। कथन की वक्रता, क्षिप्रता और संक्षिप्तता इनकी लघुकथाओं को प्रखर बनाती है।
विवाह-संस्था दहेज की गिरफ़्त में इस कदर फँसी है कि नारी की गरिमा तार-तार होती नज़र आती है। 'नुमाइश' लघुकथा में लड़के वाले लड़की की परख इस प्रकार कर रहे हैं जैसे खरीदार जानवर खरीदते समय करता है। स्वेटर उतरवाकर सामने खड़ा होने के लिए कहना और फिर पहनकर बैठने के लिए कहना, निर्णय न लेकर यह कहना-"जवाब हम घर जाकर भिजवा देंगे। अभी हमें दो लड़कियाँ और देखनी हैं।" यह कथन इस समाज की क्रूरता ही दर्शाता है। 'मूल्यांकन्' में लड़की वालों की भी खबर ली है। सुयोग्य लड़की के लिए कम पढ़ा-लिखा लड़का इसीलिए पसन्द किया जाता है कि वह दीवानी कचहरी में क्लर्क है और ऊपर की आमदनी उसकी आय का अच्छा स्रोत है। वैवाहिक सम्बन्धों में 'आदर्श विवाह' का झाँसा देने वालों की कलई भी खोली गई है। 'उपेक्षिता' में दोनो पक्ष अपने अड़ियल रुख पर डटे रहते हैं। लड़की की इच्छा क्या है, उसे जानने की ज़रूरत ही नहीं समझते। 'पश्चात्ताप' में ऐसे लोगों को बेपर्द किया है जो तीसरी लड़की होने के डर से बहू का गर्भपात करा देते हैं और प्रचारित करते हैं कि केस बिगड़ गया है। इनके अभिन्न मित्र वास्तविकता जाने बिना अपना 'ओ निगेटिव खून' बहू को बचाने के लिए देते है।
प्रेम का प्रदर्शन ही शायद आज सच्चे प्रेम की परिभाषा बन गया है। 'विश्वास' लघुकथा के मिस्टर वर्मा और मिसेज़ वर्मा इसी प्रकार के दम्पती हैं। मिसेज़ वर्मा कान्फ्रेन्स के बहाने डॉक्टर सेठी के साथ मौज़मस्ती मनाती हैं तो मिस्टर वर्मा अपनी स्टेनो के साथ रंगरेलियाँ मनाते हैं। सारा खेल 'फ्लाइंग किस' फेंककर सस्ता प्रेम जताने वाले और एक दूसरे के प्रति विश्वास का नाटक करने वालों का है। 'पानी-पानी' में इण्टरनेट संस्कृति से जुड़कर और नाम बदलकर प्रेम दर्शाने वाले जब एक जगह पर मिलते हैं तो शर्मसार हुए बिना नहीं रहते; क्योंकि वे पति-पत्नी जो थे। 'डोरे" लघुकथा में भोले भाले पुरुषों को ठगने वाली महिला का पर्दाफ़ाश किया गया है।' असमंजस' में होटल में पुलिस जिस काल गर्ल को पकड़ने जाती है, वहाँ अपने उच्च अधिकारी को देखकर हैरान रह जाती है।
'बोझ' लघुकथा घर के बुज़ुर्गों की उपेक्षा की सच्ची कथा कहती है। न चाहते हुए भी सुबह उठकर दूध लेने के लिए जाना, सबके साथ खाना खाने का मौका न देना, कमरे की उपेक्षित स्थिति-सब मिलाकर पाण्डे जी के बहाने युवा पीढ़ी की रुग्ण मनोदशा का ही चित्र खींचती है। 'छुआछूत' में जीवन के दोहरे मानदण्डों को उजागर किया है। 'वरीयता' में उस रुग्ण मानसिकता को उद्घाटित किया गय है जो व्यक्ति को किसी सामान से ज़्यादा महत्त्व नहीं देता है। देवीदास चलती ट्रेन से अपना सामान सँभालने में रेलवे लाइन की कंकड़ों पर गिरकर चोट खा गए. पत्नी को उनकी चिन्ता न होकर ट्रेन में छूट गए अपने लोटे की चिन्ता ज़्यादा है।
हरविभाग में अच्छे और बुरे लोग होते हैं। ईमानदार के लिए किसी भी विभाग में काम करना या अपना कोई काम कराना पहले से कहीं मुश्किल हो गया है। 'स्वतन्त्रता सेनानी' लघुकथा भ्रष्टाचार की वह चरम परिणति है, जिसमें दलाल पेंशन की फ़ाइल निकालने भर के लिए हज़ारों की रकम माँगते है, वह भी उस व्यक्ति से, जिसने आज़ादी की लड़ाई लड़ी और एक स्वर्णिम जनतन्त्र का दिवास्प्न सँजोया था। इससे बड़ी और पीड़ादायक किसी कुशासन की काली करतूत और क्या हो सकती है। ट्रांसपोर्ट वालों को " डण्डे का जोर'दिखाकर किसी भी बेगार में लगाना पुलिस के बाएँ हाथ का काम है।' कर्फ़्यू'का दूधवाला होमगार्ड तक की लूट का शिकार होता है।' टारगेट'की लघुकथा पुलिस की उस घिनौनी हरक़त को बेनक़ाब करती है, जिसमें किसी भी बेकसूर को फँसाकर थानेदार टारगेट पूरा करने की खानापूर्त्ति करते रहते हैं। दूसरी ओर वह पुलिस महानिरीक्षक है जो सख्ती से काम लेने के लिए अपने अधीनस्थ अधिकारियों को कहता है, लेकिन ऊपरी दबाव के चलते फिर किसी सांसद के नज़दीकी को छोड़ने के लिए कहता है।' दबाव'लघुकथा में दबाव का यह प्रपंच पूरी व्यवस्था को घुन की तरह खाए जा रहा है।' बेचारा थानेदार'(बेचारा-शीर्षक ही पर्याप्त था) भ्रष्ट कप्तान साहब के अधीन रहकर अपनी ईमानदारी को चाहकर भी ज़िन्दा नहीं रख पाता। ईमानदारी अभी जिन्दा है, इसका अहसास' इस्तीफ़ा' लघुकथा करा देती है।
डॉ शर्मा जी ने साहित्य जगत के छल छद्म और धर्म की दुनिया में दिखावे को धर्म समझने वालों की अच्छी खबर ली है। सम्मति, साहित्य-प्रेम, पुस्तक-संचयन, सम्मान, छपास लघुकथाओं में साहित्य जगत के स्याह पहलुओं को उघाड़ा गया है तो अन्धविश्वास, तुरुपचाल, महाभोज, स्वामी जी, धर्म-अधर्म, सत्संग आदि लघुकथाएँ समाज के छद्म आवरण को भेदने में सक्षम हैं।
इस संग्रह की शीर्षक लघुकथा 'काँच के कमरे' किसी समाज की नींव और चारित्रिक निर्माण करने वाले शिक्षा-जगत को बेनकाब करती है। शीर्षक का चयन लेखक ने बड़ी सतर्कता से किया है। महाभोज भी इसी तरह का सांकेतिक शीर्षक है, जिसमें बताया गया है कि पिताजी के महाभोज के बहाने नेता द्वारा गाँव की जमीन को कैसे कब्जे में ले लिया जाता है।
डॉ शर्मा जी की भाषा प्रत्येक लघुकथा में धारदार और सन्तुलित है। इस तरह के संग्रह का लघुकथा-जगत में समादर होना चाहिए.
काँच के कमरे (लघुकथा-संग्रह) : डॉ गोपालबाबू शर्मा, पृष्ठ सजिल्द: 104; मूल्य: 150 रुपये; संस्करण: 2007; आवरण: उमेश शर्मा; प्रकाशक-जवाहर पुस्तकालय, सदर बाज़ार, मथुरा-281001