कांग्रेस और उसके कर्ता-धर्ता / हिंद स्वराज / महात्मा गांधी
पाठक : आजकल हिंदुस्तान में स्वराज की हवा चल रही है। सब हिंदुस्तानी आजाद होने के लिए तरस रहे हैं। दक्षिण अफ्रीका में भी वह जोश दिखाई दे रहा है। हिंदुस्तानियों में अपने हक पाने की बड़ी हिम्मत आई हुई मालूम होती है। इस बारे में क्या आप अपने ख्याल बताएँगे
संपादक : आपने सवाल ठीक पूछा है। लेकिन इसका जवाब देना आसान बात नहीं है। अखबार का एक काम तो है लोगों की भावनाएँ जानना और उन्हें जाहिर करना; दूसरा काम है लोगों में दोष हों तो चाहे जितनी मुसीबतें आने पर भी बेधड़क होकर उन्हें दिखाना। आपके सवाल का जवाब देने में ये तीनों काम साथ-साथ आ जाते हैं। लोगों की भावनाएँ कुछ हद तक बतानी होगी और उसके दोषों की निंदा भी करनी होगी। फिर भी आपने सवाल किया है, इसलिए उसका जवाब देना मेरा फर्ज मालूम होता है।
पाठक : क्या स्वराज की भावना हिंद में पैदा हुई आप देखते हैं?
संपादक : वह तो जब से नेशनल कांग्रेस कायम हुई तभी से देखने में आई है। 'नेशनल' शब्द का अर्थ ही वह विचार जाहिर करता है।
पाठक : यह तो आप ठीक नहीं कहा। नौजवान हिंदुस्तानी आज कांग्रेस की परवाह ही नहीं करते। वे तो उस अंग्रेजों का राज्य निभाने का साधन मानते हैं।
संपादक : नौजवानों का ऐसा ख्याल ठीक नहीं है। हिंद के दादा दादाभाई नौरोजी ने जमीन तैयार नहीं की होती, तो नौजवान आज जो बातें कर रहे हैं वह भी नहीं कर पाते। मि. ह्यूम ने जो लेख लिखे, जो फटकारें हमें सुनाई, जिस जोश से हमें जगाया, उसे कैसे भुलाया जाए? सर विलियम वेडरवर्न ने कांग्रेस का मकसद हासिल करने के लिए अपना तन, मन और धन सब दे दिया था। उन्होंने अंग्रेजी राज्य के बारे में जो लेख लिखे हैं, वे आज भी पढ़ने लायक हैं। प्रोफेसर गोखले ने जनता को तैयार करने के लिए, भिखारी के जैसी हालत में रहकर, अपने बीस साल दिए हैं। आज भी वे गरीबों में रहते हैं। मरहूम जस्टिस बदसफद्दीन ने भी कांग्रेस के जरिए स्वराज का बीज बोया था। यों बंगाल, मद्रास, पंजाब बगैरा में कांग्रेस का और हिंदी का भला चाहने वाले कई हिंदुस्तानी और अंग्रेज लोग हो गए हैं, यह याद रखना चाहिए।
पाठक : ठहरिए, ठहरिए। आप तो बहुत आगे बढ़ गए। मेरा सवाल कुछ है और आप जवाब कुछ और दे रहे हैं। मैं स्वराज की बात करता हूँ और आप परराज्य की बात करते हैं। मुझे अंग्रेजों का नाम तक नहीं चाहिए और आप तो अंग्रेजों के नाम देने लगे। इस तरह तो हमारी गाड़ी राह पर आए, ऐसा नहीं दिखता। मुझे तो स्वराज की बातें अच्छी लगती हैं। दूसरी मीठी सयानी बातों से संतोष नहीं होगा।
संपादक : आप अधीर हो गए हैं। मैं अधीरपन बरदाश्त नहीं कर सकता। आप जरा सब्र करेंगे तो आपको जो चाहिए वही मिलेगा। 'उतावलीसे आम नहीं पकते, दाल नहीं चुरती' - यह कहावत याद रखिए। आप मुझे रोका और आपको हिंद पर उपकार करने वालों की बात भी सुननी अच्छी नहीं लगती, यह बताता है कि अभी आपके लिए स्वराज दूर नहीं है। आपके जैसा बहुत से हिंदूस्तानी हों, तो हम (स्वराज से) दूर हट कर पिछड़ जाएँगे। वह बात जरा सोचने लायक है।
पाठक : मुझे तो लगता है कि ये गोल-मोल बातें बनाकर आप मेरे सवाल का जवाब उड़ा देना चाहते हैं। आप जिन्हें हिंदुस्तान पर उपकार करने वाले मानते हैं, उन्हें मैं ऐसा नहीं मानता; फिर मुझे किसके उपकार की बात सुननी है? आप जिन्हें हिंदी के दादा कहते हैं, उन्होंने क्या उपकार किया? वे तो कहते हैं कि अंग्रेज राजकर्ता न्याय करेंगे और उनसे हमें हिलमिल कर रहना चाहिए।
संपादक : मुझे सविनय आपसे कहना चाहिए कि उस पुरुष के बारे में आपका बेअदबी से यों बोलना हमारे लिए शरम की बात है। उसके कामों की ओर देखिए। उन्होंने अपना जीवन हिंद को अर्पण कर दिया है। उनसे यह सबक हमने सीखा। हिंद का खून अंग्रेजों ने चूस लिया है, यह सिखाने वाले माननीय दादाभाई हैं। आज उन्हें अंग्रेजों पर भरोसा है उससे क्या? हम जवानी के जोश में एक कदम आगे रखते हैं, इससे क्या दादाभाई कम पूज्य हो जाते हैं? इसे क्या हम ज्यादा ज्ञानी हो गए? जिस सीढ़ी से हम ऊपर चढ़े उसको लात न मारने में ही बुद्धिमानी है। अगर वह सीढ़ी निकाल दें तो सारी निसैनी गिर जाए, यह हमें याद रखना चाहिए। हम बचपनसे जवानी में आते हैं तब बचपन से नफरत नहीं करते, बल्कि उन दिनों को प्यार से याद करते हैं। बरसों तक अगर मुझे कोई पढ़ाता है और उससे मेरी जानकारी जरा बढ़ जाती है, तो इससे मैं अपने शिक्षक से ज्यादा ज्ञानी नहीं माना जाऊँगा; अपने शिक्षक को तो मुझे मान देना ही पड़ेगा। इसी तरह हिंद के दादा के बारे में समझना चाहिए। उनके पीछे (सारी) हिंदुस्तानी जनता है, यह तो हमें कहना ही पड़ेगा।
पाठक : यह आपने ठीक कहा। दादाभाई नौरोजी की इज्जत करना चाहिए, यह तो समझ सकते हैं। उन्होंने और उनके जैसे दूसरे पुरुषों ने जो काम किए हैं, उनके वगैर हम आज का जोश महसूस नहीं कर पाते, यह बात ठीक लगती है। लेकिन यह बात तो प्रोफेसर गोखले साहब के बारे में हम कैसे मान सकते हैं? वे तो अंग्रेजों के बड़े भाईबंद बन कर बैठे हैं; वे तो कहते हैं कि अंग्रेजों से हमें बहुत कुछ सीखना है। अंग्रेजों की राजनीति से हम वाकिफ हो जाएँ, तभी स्वराज की बातचीत की जाए। उन साहब के भाषणों से तो मैं ऊब गया हूँ।
संपादक : आप ऊब गए हैं, यह दिखाता है कि आपका मिजाज उतावला है। लेकिन जो नौजवान अपने माँ-बाप के ठंडे मिजाज से ऊब जाते हैं और वे (माँ-बाप) अगर अपने साथ न दौड़े तो गुस्सा होते हैं, वे अपने माँ-बाप का अनादर करते हैं ऐसा हम समझते हैं। प्रोफेसर गोखले हमारे साथ नहीं दौड़ते हैं? स्वराज भुगतने की इच्छा रखने वाली प्रजा अपने बुजुर्गों का तिरस्कार नहीं कर सकती। अगर दूसरे की इज्जत करने की आदत हम खो बैठें, तो हम निकम्मे हो जाएँगे। जो प्रौढ़ और तजरबेकार हैं, वे ही स्वराज भुगत सकते हैं, न कि बे-लगाम लोग। और देखिए कि जब प्रोफेसर गोखले हिंदुस्तान की शिक्षा के लिए त्याग किया तब ऐसे कितने हिंदुस्तानी थे? मैं तो खास तौर पर मानता हूँ कि प्रोफेसर गोखले जो कुछ भी करते हैं वह शुद्ध भाव से ओर हिंदुस्तान का हित मानकर करते हैं। हिंद के लिए अगर अपनी जान भी देनी पड़े तो वे दे देंगे, ऐसे हिंद के लिए उनकी भक्ति है। वे जो कुछ कहते हैं वह किसी की खुशामद करने के लिए नहीं, बल्कि सही मानकर कहते हैं। इसलिए हमारे मन में उनके लिए पूज्य भाव होना चाहिए।
पाठक : तो क्या वे साहब जो कहते हैं उसके मुताबिक हमें भी करना चाहिए?
संपादक : मैं ऐसा कुछ नहीं कहता। अगर हम शुद्ध बुद्धि से अलग राय रखते हैं, तो उस राय के मुताबिक चलने की सलाह खुद प्रोफेसर साहब हमें देंगे। हमारा मुख्य काम तो यह है कि हम उनके कामों की निंदा न करें; हमसे वे महान हैं ऐसा मानें और यकीन रखें कि उनके मुकाबिले में हमने हिंद के लिए कुछ भी नहीं किया है। उनके बारे में कुछ अखबार जो अशिष्टतापूर्वक लिखते हैं उसकी हमें निंदा करनी चाहिए और प्रोफेसर गोखले जैसों को हमें स्वराज के स्तंभ मानना चाहिए। उनके ख्याल गलत और हमारे ही सही हैं, या हमारे ख्यालों के मुताबिक न बरतने वाले देश के दुश्मन हैं, ऐसा मान लेना बुरी भावना है।
पाठक : आप जो कुछ भी कहते हैं वह अब मेरी समझ में कुछ आता है। फिर भी मुझे उसके बारे में सोचना होगा। पर मि. ह्यूम, सर विलियम वेडरबर्न वगैरा के बारे में आपने जो कहा उसमें तो हद हो गई।
संपादक : जो नियम हिंदुस्तानियों के बारे में है, वही अंग्रेजों के बारे में समझना चाहिए। सारे के सारे अंग्रेज बुरे हैं, ऐसा तो मैं नहीं मानूँगा। बहुत से अंग्रेज चाहते हैं कि हिंदुस्तान को स्वराज मिले। उस प्रजा में स्वार्थ ज्यादा है यह ठीक है, लेकिन उससे हर एक अंग्रेज बुरा है ऐसा साबित नहीं होता। जो हक-न्याय चाहते हैं, उन्हें सबके साथ न्याय करना होगा। सर विलियम हिंदुस्तान का बुरा चाहने वाले नहीं हैं, इतना हमारे लिए काफी है। ज्यों-ज्यों हम आगे बढ़ेंगे त्यों-त्यों आप देखेंगे कि अगर हम न्याय की भावना से काम लेंगे, तो हिंदुस्तान का छुटकारा जल्दी होगा। आप यह भी देखेंगे कि अगर हम तमाम अंग्रेजों से द्वेष करेंगे, तो उससे स्वराज दूर ही जाने वाला है; लेकिन अगर उनके साथ भी न्याय करेंगे, तो स्वराज के लिए हमें उनकी मदद मिलेगी।
पाठक : अभी तो ये सब मुझे फिजुल की बड़ी-बड़ी बातें लगती हैं। अंग्रेजों की मदद मिले और उससे स्वराज मिल जाए, ये तो आपने दो उलटी बातें कहीं। लेकिन इस सवाल का हल अभी मुझे नही चाहिए। उसमें समय बिताना बेकार है। स्वराज कैसे मिलेगा, यह जब आप बताएँगे तब शायद आपके विचार समझ सकूँ तो समझ सकूँ। फिलहाल तो अंग्रेजों की मदद की आपकी बात से मुझे शंका में डाल दिया है और आपके विचारों के खिलाफ मझे भरमा दिया है। इसलिए यह बात आप आगे न बढ़ाएँ तो अच्छा हो।
संपादक : मैं अंग्रेजों की बात को बढ़ाना नहीं चाहता। आप शंका में पड़ गए, इसकी कोई फिकर नहीं। मुझे जो महत्व की बात कहनी है, उसे पहले से ही बता देना ठीक होगा। आपकी शंका को धीरज से दूर करना मेरा फर्ज है।
पाठक : आपकी यह बात मुझे पसंद आई। इससे मुझे जो ठीक लगे वह बात कहने की मुझमें हिम्मत आई है। अभी मेरी एक शंका रह गई है। कांग्रेस के आरंभ से स्वराज नींव पड़ी, यह कैसा कहा जा सकता है?
संपादक : देखिए, कांग्रेस ने अलग-अलग जगहों पर हिंदुस्तानियों को इकट्ठा करके उनमें - 'हम एक-राष्ट्र है' ऐसा जोश पैदा किया। कांग्रेस पर सरकार की नजर रहती थी। महसूल का हक प्रजा को होना चाहिए, ऐसी माँग कांग्रेस ने हमेशा की है। जैसा स्वराज कैनेड़ा में है वैसा स्वराज कांग्रेस ने हमेशा चाहा है। वैसा स्वराज मिलेगा या नहीं मिलेगा, वैसा स्वराज हमें चाहिए या नहीं चाहिए, उससे बढ़कर दूसरा कोई स्वराज है या नहीं, यह सवाल अलग है। मुझे दिखाना तो इतना ही है कि कांग्रेस ने हिंद को स्वराज का रस चखाया। इसका जस कोई और लेना चाहे तो वह ठीक न होगा, और हम भी ऐसा मानें तो बेकदर ठहरेंगे। इतना ही नहीं, बल्कि जो मकसद हम हासिल करना चाहते हैं उसमें मुसीबतें पैदा होंगी। कांग्रेस को अलग समझने और स्वराज के खिलाफ मानने से हम उसका उपयोग नहीं कर सकते।