कांग्रेस की उद्देश्य-प्राप्ति / महारुद्र का महातांडव / सहजानन्द सरस्वती
जिस उद्देश्य से कांग्रेस का जन्म हुआ था और जिसका स्पष्टीकरण , जिसका खुलासा नागपुर से लेकर लाहौर तक के कांग्रेस-अधिवेशनों में किया गया था , उसकी प्राप्ति 1947 के 15 अगस्त को हो गई , वह उस दिन हासिल हो गया , ऐसा माना जाने लगा है ; हालाँकि पूर्ण स्वतंत्रता का प्रश्न अभी खटाई में पड़ा ही हुआ है , और भारत में अभी तक उसकी जगह सिर्फ औपनिवेशिक स्वराज्य या डोमिनिया राज्य का झंडा ही गवर्नरों तथा गवर्नर जनरल के मकानों पर फहरा रहा है , न कि स्वतंत्र भारत का अपना झंडा। फिर भी कांग्रेस के नेता इतना तो मानते ही हैं कि उसका वह लक्ष्य मिल गया। इसीलिए बंबई में कांग्रेस का मंतव्य उन्होंने बदल दिया।
प्रश्न होता है कि जो कांग्रेस अपनी आधी अवस्था तक , अपनी जवानी में मुट्ठीभर बुध्दिजीवियों और पूँजीपतियों की संस्था रही , उसमें यह निराला कायाकल्प कैसे हुआ , वह पीछे जनसमूह की जमात और संस्था क्यों मानी जाने लगी और बुढ़ापे में उसने अपना धयेय कैसे प्राप्त किया ? सारांश , उसका क्रम-विकास होते-होते वह इस कद्र तगड़ी-तंदुरुस्त कैसे हो पाई कि अपनी वृध्दावस्था में उसने जबर्दस्त साम्राज्यशाही को हिला-झुका दिया। यह भी सवाल स्वाभाविक है कि इसी दरम्यान उसी कांग्रेस से एकदम अलग और स्वतंत्र किसान सभा जैसी अनेक जन-संस्थाएँ और वर्ग-संस्थाएँ कैसे बन गईं , जिनका संचालन पुराने-से-पुराने और तपे-तपाए कांग्रेसी जन-सेवक ही करते हैं , मगर हकीकत तो यह है कि इन्हें आज कांग्रेस के चोटी के नेता फूटी आँखों भी देख नहीं सकते और अगर उनकी चले , तो उन्हें नेस्त-नाबूद कर के ही दम लें ? यह भी मजेदार बात है कि मेरे जैसा अधयात्मवादी किस प्रकार सबसे पहले उसी कांग्रेस में आया , वहीं से उस किसान सभा में दाखिल हुआ , अपने चिर-परिचित उस अधयात्मवाद को भूल-सा गया और सर्वथा-सर्वदा स्वतंत्र किसान सभा की सर्वात्मना रक्षा के लिए बड़ी-से-बड़ी संस्था , शक्ति और वस्तु को बेमुरव्वती से लात मारने के लिए आज तैयार बैठा है। इसका चरम परिणाम क्या होगा , यह भी एक बड़ा सवाल है। अंततोगत्वा महारुद्र का महातांडव नृत्य होगा , या और कुछ ?