कांग्रेस ने आशा पर पानी फेरा / सहजानन्द सरस्वती
किसानों की वर्तमान दुर्दशा का मौलिक कारण है जमीन के बंदोबस्त, मालगुजारी और कर्ज देने की प्रणाली और यह चीज और कुछ नहीं है। सिवाय उस तरकीब के जिसे ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने मुकम्मल बनाया है और जिसके द्वारा किसानों को सीधो न मार कर ज्यादे से ज्यादा उनसे चूसा जाए। इसीलिए स्वभावत: किसानों ने आशा की थी कि कोई भी जनतांत्रिक सरकार, जिससे किसानों की भक्ति का दावा होगा, इस बंदोबस्त तथा ऋण के आदान-प्रदान की प्रणाली को मौका पाते ही फौरन खत्म कर देगी।
15 अगस्त, 1947 को राष्ट्रीय नेताओं को जब राजनीतिक सत्ता हस्तांतरित की गई तो किसानों में बड़ी आशाएँ बँधीं। उसने उम्मीद की कि ब्रिटिश राज्य की जगह जो कांग्रेस की सरकार बनी है वह हमारे शोषकों से हमारे स्वार्थों को बचाएगी। उनने उमंग पूर्वक आशा की कि यह सरकार जमींदारी, अन्यान्य भूस्वामित्व की प्रथाओं एवं मध्यवर्त्ती दलों को जल्द मिटा देगी जिसकी प्रतिज्ञा कांग्रेस की चुनाव घोषणा में की गई थी। वे सोच रहे थे कि लगान, मालगुजारी तथा कर्ज देने की मनहूस प्रणाली को यह सरकार किसी भी क्षण मिटा देगी। उन्हें विश्वास था कि अब हमीं जमीन के मालिक होंगे और यही नहीं कि खेती-बाड़ी के सुधरे हुए उत्तम तरीकों के लिए यह सरकार हमें सारी सुविधाएँ देगी और इस तरह हम सहयोग मूलक खेती भी कर सकेंगे; प्रत्युत यह ऐलान कर देगी कि जमीन और उसकी उपज सबसे पहले किसान के परिवार तथा आश्रितों के उत्तम भरण-पोषण में ही लगेगी और इस प्रकार वर्तमान रैयतवारी इलाकों के किसानों की भी दशा अच्छी होगी।
लेकिन अब उनकी आँखें खुलने लगी हैं। 15 अगस्त को जो शासन व्यवस्था कायम हुई उसमें उनका विश्वास घटने लगा है। प्रांतों एवं केंद्र में जो कांग्रेसी सरकारें हैं वह किसानों तथा शोषित जनसमूह के स्वार्थों की रक्षा करना तो रहा, उनके शोषकों के पक्ष की वकालत करने और बचाने में लगी हैं। यद्यपि वे गत कई सालों से शासनारूढ़ हैं, फिर भी जमींदारी तथा मध्यवर्त्ती स्वार्थों एवं लगान, मालगुजारी और ऋणदान के सड़े-गले और पुराने तरीकों को मिटाने और उनके स्थान पर नई सामयिक प्रणाली को कायम करने की योजनाओं पर उनने पानी फेर दिया है। उनने बहुत विलंब के बाद अन्यमनस्कता के साथ जो कृषिसुधार समिति और उसी तरह की दूसरी समितियाँ कायम की है और जो कछुवे की चाल से काम कर रही है वही इस बात का पक्का प्रमाण है, अगर प्रमाण की जरूरत समझी जाए। इसीलिए समय-समय पर समाचार-पत्रों के द्वारा तथा प्रकारांतर से जो ऐलान होते रहते हैं कि मुआविजा दे कर जमींदारी मिटाने के अमुक-अमुक प्रस्ताव एवं कार्यविधियाँ प्रांतीय सरकारों के विचाराधीन हैं वे किसानों को घपले में रखने की सिर्फ चालें हैं। इस प्रकार अपने शोषक जमींदारों को मुआविजे की भारी रकम देने के लिए किसानों के दिमाग को तैयार भी किया जाता है।
चंद प्रांतीय सरकारों ने किसानों के लिए मरहम-पट्टी के जो दो-चारकाम किए और कानून बनाए हैं वे एक तो विविध दोषपूर्ण हैं। दूसरे अंततोगत्वा वे धोखे की टट्टी सिध्द हुए हैं। उन कामों और कानूनों ने एक ओर तो निहायत खर्चीली कचहरियों में किसानों को बलात घसीट कर बर्बाद किया है। दूसरी ओर आखिरकार उन्हें वहाँ भी हरा दिया है। इसके फलस्वरूप किसानों के वर्ग शत्रुओं की हिम्मत बढ़ी है।
तिस पर भी जले पर नमक डालने के लिए प्रांतीय सरकारों ने विभिन्न दमनकारी तरीकों का सहारा लिया है। दृष्टांत के लिए किसान-सभाओं, राजनीतिक दलों और कमिटियों को गैर-कानूनी करार देना, किसान नेताओं की धर-पकड़, मीटिंगों तथा प्रदर्शनों पर प्रतिबंध, शांत किसानों पर लाठीचार्ज और गोली दागना, उनको और उनके नेताओं को जेल में देना तथा नजरबंद करना। इन सब बातों का नतीजा यह हुआ है कि किसानों एवं जनसाधारण की नागरिक स्वतंत्रता छिन गई है। और इस तरह किसी भी जनप्रिय सरकार की बुनियाद ही हिला दी गई है। कांग्रेसी सरकारों के भीतर स्थिर स्वार्थ वालों का प्रभाव कितना बढ़ रहा है और कांग्रेस एवं उसकी सरकारें किस और जा रही हैं इसका पक्का प्रमाण ये ऊपर लिखी बातें हैं।