कांग्रेस राजनीती की पौराणिकता / जयप्रकाश चौकसे

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कांग्रेस राजनीती की पौराणिकता

प्रकाशन तिथि : 10 सितम्बर 2012


प्रकाश झा 'सत्याग्रह' नामक फिल्म बनाने जा रहे हैं, जिसमें अमिताभ बच्चन के साथ कोई आधा दर्जन सितारे होंगे। अजय देवगन की केंद्रीय भूमिका होगी। यह भारत की राजनीति में भारी उथल-पुथल का दौर है। परिवर्तन की मिक्सी में समाज के सारे तौर-तरीके तेजी से बदल रहे हैं। विगत अनेक वर्षों से क्षेत्रवाद, जातिवाद और धार्मिक अंधविश्वास बढ़ रहा है। अखिल भारतीयता संकट में है और दोनों राष्ट्रीय दल प्रांतीय क्षत्रपों से भयभीत हैं, क्योंकि उन्होंने अपने प्रांतों को अपना वोट बैंक बना लिया है। इससे भी अधिक भयावह बात यह है कि अवाम में भी क्षेत्रीयता इस कदर बढ़ी है कि राज ठाकरे जैसे नेता संविधान की भावना के खिलाफ विषवमन करके गुर्रा रहे हैं, क्योंकि वह जानते हैं कि उन पर कानूनी कार्रवाई करने पर उनके समर्थक मुंबई को हिला देंगे। 'टाइम्स नाउ' टेलीविजन पर अर्णव उन्हें सरकारी आंकड़े पढ़कर सुनाते हैं कि कर्नाटक, गुजरात और पंजाब के लोग मुंबई में बिहारियों से कहीं अधिक हैं तो राज ठाकरे इन आंकड़ों को झूठा कहकर यह कहते हैं कि मुंबई में अपराध बिहारियों की वजह से बढ़ रहे हैं।

भ्रष्टाचार दीमक की तरह देश को खा रहा है, परंतु विघटन उससे ज्यादा भयावह है। कई बार भ्रम होता है कि आज का वातावरण १९४६ जैसा है, जिसने महात्मा गांधी जैसे सर्वकालिक महान व्यक्ति को असहाय कर दिया था। वे इस कदर टूट गए थे कि मन ही मन अपनी मौत की प्रार्थना करने लगे थे। जब किसी महान व्यक्ति के आदर्श ध्वस्त होते हैं तो वह मरने के पहले ही मर जाता है और मृत्यु प्रमाण-पत्र उसके मरने की सही वजह नहीं बता पाता। विश्वासघात का अदृश्य खंजर अपना निशान नहीं छोड़ता। खंडित होने को बेकरार-सा नजर आने वाला भारत दरअसल उतना कमजोर नहीं है, जितना वह दिखाई देता है। उसकी भीतरी बुनावट ही कुछ ऐसी है कि उसकी एकता की सरस्वती लोप हुई-सी नजर आती है, परंतु समय पर वह असर दिखाती है। वर्तमान के भीतरी विघटन के समय इस बार अभिव्यक्त हो सकती है। कांग्रेस १२७ वर्ष पुरानी पार्टी है और कई बार उसके समाप्त होने के चिह्न उभरे हैं, परंतु टूटते-टूटते बच जाती है। बिखरते-बिखरते संवर जाती है, जैसे केलिडोस्कोप में कांच के टुकड़े बिखरते हुए नया स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं। दरअसल भारत की तमाम चारित्रिक विशेषताओं और कमजोरियों का प्रतिबिंब है कांग्रेस। विगत १२७ सालों में अनेक विलक्षण प्रतिभा के धनी लोगों ने उसकी यह विचित्र बुनावट की है। अन्य किसी भी राजनीतिक दल में इतने प्रतिभाशाली व्यक्ति नहीं हुए हैं। अटलबिहारी वाजपेयी की योग्यता और शैली के कारण उन्हें कई लोग कांग्रेसी ही मानते हैं और उनके अपने दल में कुछ लोग इसी कारण उनकी आलोचना करते रहे हैं। मजे की बात यह है कि उनकी पार्टी के कुछ प्रचारक वाजपेयीजी की छवि में अपने दल के जवाहरलाल नेहरू के तत्व आरोपित करते रहे हैं और यह काम सूक्ष्म संकेतों से हुआ है। इसका सार केवल इतना है कि भारत की राजनीति का कांग्रेसीकरण होता रहा है। यहां तक कि अपने सत्ता में रहने वाले वर्षों में भी वाजपेयी की सरकार ने कोई क्रांति नहीं लाई, व्यवस्था में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं किया। जैसे कांग्रेस में कुछ नेता दल के लिए धन इक_ा करते रहे हैं, वैसे ही वाजपेयी के लिए प्रमोद महाजन जैसे नेता रहे हैं। अगर नेहरू के साथ इंदिरा रहीं तो वाजपेयी के साथ उनके दामाद रहे हैं।

यह देश का दुर्भाग्य है कि भ्रष्ट, सुस्त और यथास्थितिवाद की हामी कांग्रेस के विरोधी अंततोगत्वा कांग्रेसी की तरह हो जाते हैं। जयप्रकाश नारायण के व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन से जन्मी सरकार बमुश्किल ढाई साल चल पाई और पूरी तरह कांग्रेसी सिद्ध हुई। इस देश की कुंडली में कांग्रेस शुक्र की महादशा की तरह रही है और कई बार शनिदेव के प्रभाव वाली पार्टी लगती है। भारत की राजनीति की यह विडंबना है कि कम्युनिस्ट पार्टी भी जब यूपीए का समर्थन करती थी, तब उन्होंने अपने माक्र्सवाद के व्यापक प्रचार का प्रयास नहीं किया, माक्र्स की जड़ें पूरे भारत में नहीं रोपीं, वरन उनका आचरण कांग्रेस का साथ देते-देते उस विरोधी दल की तरह हो गया, जिसकी भीतरी इच्छा कांग्रेसी होने की रहती है। यह भी दुर्भाग्य है कि वर्तमान में कांग्रेस का आचरण विरोधी पक्ष की तरह है और संसद में छाया-युद्ध चलता है। सारे भ्रष्टों के बीच प्रतियोगिता यह है कि मेरी कमीज मेरे विरोधी से कम गंदी है।

भारत के सारे विरोधाभास और विसंगतियों का प्रतीक रही है कांग्रेस। इसमें कुछ अंग्रेजियत है, कुछ सामंतवाद है, कु समाजवाद है, कुछ तानाशाही है। इनकी सतही धर्मनिरपेक्षता धर्मांधता से बेहतर है। दरअसल मात्र १२७ वर्ष पुरानी होते हुए भी कांग्रेस भारत की पौराणिकता है, उसकी मायथोलॉजी है। इसके वाचन की शैली बदलती रहती है, कथा नहीं बदलती। यह भी अजीब बात है कि इस पौराणिक कथा का पाठ विरोध के कथावाचक भी करते हैं।

आज का युवा आधुनिकता का हामी है, परंतु देश की राजनीति हर तरह से पौराणिक है। जैसे पुराने आख्यानों में नए श्लोक जोड़ दिए जाते हैं, वैसे ही हमारी राजनीतिक पौराणिक कथा में इसके चरित्र या चरित्रहीनता में कुछ श्लोक जुड़ते रहते हैं।

प्रकाश झा का मूल दृष्टिकोण गैरकांग्रेसवाद का है। वह जयप्रकाश नारायण के अनुयायी रहे हैं और हम नारायणी गैर-कांग्रेसवाद का हश्र देख चुके हैं। उनकी 'सत्याग्रह' उनके उस दृष्टिकोण से मुक्त युवा की आधुनिकता लिए हो, ऐसी आशा की जा सकती है।