कांटा / हेमन्त शेष
वह विश्व की अनेक लिपियाँ और भाषाएँ जानते थे. सिंधु-घाटी और मिश्र की प्राचीनतम लिपियों के तुलनात्मक अध्ययन पर उन्होंने कालजयी शोध किया था- कई विश्वविख्यात विश्वविद्यालयों ने उन्हें अपनी मानद उपाधियां देकर खुद को कृतार्थ महसूस किया था. वेद-विज्ञान, शैली-विज्ञान और भाषाविज्ञान के इने गिने जाने-माने विद्वान के रूप में तो विख्यात थे ही, वह कबाला-ज्योतिष और आधुनिक-खगोलशास्त्र के भी ज्ञाता थे. कर्नाटक और हिन्दुस्तानी संगीत में उनकी गहरी दिलचस्पी थी. जब पंडित रविशंकर वगैरह का नाम कोई नहीं जानता था, अपनी युवावस्था में ही वह देश-विदेश के शहरों के संगीतरसिकों को अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुके थे. साहित्य की प्रायः हर विधा में उनके योगदान को आलोचकों ने एक स्वर से सराहा. विद्वत्तापूर्ण व्याख्यानों के लिए उन्हें से ससम्मान बुलाया जाता था, किसी भी क्षेत्र में छपी नई से नई किताब की अधिकृत जानकारी उनके पास थी. शोधार्थियों का तो उनके यहाँ जैसे तांता ही लगा रहता था.
एक शाम जब वह दक्षिण भारत के चार विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के दल से लंबी अकादमिक-चर्चा कर चुके, तो हवा खाने की गरज से अपने बगीचे में गए. घास गीली थी, गर्मियों के दिन थे, उन्होंने अपनी चप्पलें उतार दीं और मेक्सिकन दूब पर चहलक़दमी करने लगे.
अचानक पता नहीं कैसा तेज़ दर्द उनकी एडी में हुआ कि वह एकाएक कराह उठे. शायद कोई लंबा कांटा उनकी नंगी पगथली में सीधा जा घुसा था. वह असहनीय दर्द से कराह उठे. आँखों के आगे सितारे घूम गए. लगता था, पीड़ा से कहीं उनकी जान ही न निकल जाए! आसपास देखा- कोई नहीं था. छटपटाते हुए लाचारी में वह संगमरमर की बेंच का सहारा ले कर ज़मीन पर चित्त हो गए .
तभी पता नहीं कहाँ से उनके बगीचे में घास-फूस खोदने वाला बेढब सा साफ़ा पहने एक माली, जिसने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा था, जो अपनी गंवारू देसी बोली के अलावा किसी और भाषा का एक लफ्ज़ भी नहीं जानता था, जिसने आज तक पास का शहर भी ठीक से नहीं देखा था, जो केवल पिता की अस्थियों को विसर्जित करने हरिद्वार जाने के लिए अपनी जिंदगी में पहली और शायद आख़िरी बार रेल में चढ़ा था, जो यहाँ से लौट कर अपने गाँव के सिवा कहीं नहीं जाता था, जिसके मुंह से हाल में खाए कच्चे प्याज की गंध आ रही थी, एक देवदूत की तरह वहाँ आया. सम्मानपूर्वक उसने उनके पाँव को अपनी गोद में रखा, अपने बनियान की जेब से एक पुरानी सी ‘नकचूंटी’ निकाली और बिना उन्हें दर्द पहुंचाए, बबूल का ढाई इंच का तीखा कांटा निकाल कर झाड़ियों में फेंका और देखते ही देखते शाम के धुँधलके में गायब हो गया.
आधे घंटे बाद एक अंतर्राष्ट्रीय कैमरा-टीम से ‘औपचारिक शिक्षा और भूमंडलीकरण के संकट ’ विषय पर इंटरव्यू देते वक्त उनको याद तक नहीं था कि थोड़ी देर पहले उनकी एडी में ढाई इंच लंबा बबूल का जो कांटा गहरा खुब गया था उसे निकालने वाले का नाम क्या था, क्यों कि इस ज़रूरी सवाल को देवदूत से पूछने की जरूरत उन्हें महसूस ही नहीं हुई थी!