कांटों का ताज / सुरेश सौरभ

Gadya Kosh से
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डीएम साहब आज ऑफिस से घर आये, तो मुँह लटका कर, बेहद उदास होकर बैठ गये। पत्नी ने उन्हें पानी देते हुए कहा-क्या बात है। आज बड़े दुःखी लग रहें हैं।

डीएम साहब बोले-सुबह आज एक कालेज के साइन्स सेमिनार में बोलते हुए अंधविश्वास और ढोंग-ढकोसले को हटाने की मैंने बात कही थी। शाम को शासन का एक फैक्स आ गया है कि कल मुझे सुबह काँवरियों पर पुष्प वर्षा करनी है। तुम तो जानती हो उन काँवरियों में कितने उठाईगीर और चोरकट टाइप के लोग भी होते हैं। जब कभी मैं अपने आप को आईने में देखता हूँ, तो मैं पूरा का पूरा जमूरा लगता हूँ, जैसे दूसरे के इशारों पर चलना-मचलना ही मेरा काम हो। इस नीली बत्ती के नीचे कितने दर्द छुपे हैं, कितनी टीस भरी है, मैं जानता हूँ और मेरी आत्मा जानती है।

उनके जख्मों पर मरहम लगाते हुए पत्नी बोली-जो भी शासन का आदेश मिले, उसे चुपचाप अपना कर्म समझ कर करते रहो। जाहिल मंत्रियों से यह उम्मीद न करो कि कोई सामाजिक परिवर्तन होगा। तुम नौकरशाहों की शायद यही नियति बन चुकी है और तब तुम्हें दुःखी होने से क्या ज़रूरत?

'तुम सही कहती हो। कभी-कभी तो मैं ख़ुद को बहुत गरीब और बेबस पाता हूँ। ख़ुद को नौकरशाह नहीं, बल्कि बंधुआ मज़दूर पाता हूँ, धन का, पद का, मान का, सम्मान का। दुःख मुझे इस बात का नहीं कि मुझे कांवरियों पर पुष्प बरसाना है, बल्कि दुःख इस बात का है कि मुझे, जो करना चाहिए वह न करा के हमें दूसरे फालतू कामों में लगाया जा रहा है।'

पत्नी उनके कंधे पर हाथ रखते हुए आहिस्ते से बोलीं-हम सब उस ऊपर वाले के हाथों की कठपुतली हैं।

लेकिन मैं, तो सिर्फ़ सत्ता के हाथों की कठपुतली हूँ। ' कहते-कहते डीएम साहब का गला भर आया और आंखों की कोरों से नमी आती हुई दिल में जाती रही। जहाँ गहरी टीस पैदा होने लगी। तब उनकी पत्नी ने अपने पल्लू से उनके आंसू पोंछते हुए कहा-काँटो का ताज पहनने वाला भला कब सुखी रह सकता है?